Friday, 19 February 2021

अँधेरा बो रहा है!

 दिखाने को तो बस एक ही दिखाता

सारा संसार डबल जी रहा है।


नुमाइश ही भर है, लाजो सरम की,

भीतर-ही-भीतर गैरत पी रहा है।


खंजर जिगर पर पीछे से लगाकर,

जख्म अंदर और बाहर सी रहा है।


रुखसार पर है  हंसी का ही पहरा,

आस्तीन में पोसे वो साँप ढो रहा है।


लबों को कर लबरेज मीठी बोली से,

मैल है अंदर और बाहर धो रहा है।


वस्ल-ए-मुहब्बत, जिस्मानी जहर जो,

उजाले में वो, अंधेरा बो रहा है।


31 comments:

  1. वस्ल-ए-मुहब्बत, जिस्मानी जहर जो,
    उजाले में वो, अंधेरा बो रहा है।
    ... समय कुछ ऐसा ही चल रहा है। समग्रता की कौन सोचता है, उत्कर्ष की कौन सोचता है, पराकाष्ठा की सोंच कहाँ। ।।।
    सबकी अपनी-2 राह, अपनी-2 चाल, अपना ही लय।।।।।
    उजाले की कल्पना, अकल्पनीय प्रतीत होती है।

    बहुत दिनों बाद आपकी पटल पर आ पाया हूँ। पर आनन्द आ गया। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीय विश्वमोहन जी ।।।।

    ReplyDelete
  2. लबों को कर लबरेज मीठी बोली से,

    मैल है अंदर और बाहर धो रहा है।

    ये तो आज का सत्य बन चूका है,लेकिन ये आप पर निर्भर है कि-आप मीठी बोली और मैल में कितना अंतर् समझ पा रहें है
    आज के सत्य को उजागर करता लाज़बाब सृजन,सादर नमन आपको

    ReplyDelete
  3. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना आज शनिवार 20 फरवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन " पर आप भी सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद! ,

    ReplyDelete
  4. दिखाने को तो बस एक ही दिखाता

    सारा संसार डबल जी रहा है।,,,,,,,बहुत सुन्दर एवं सच्चाई से रवरू कराती आप की ये रचना ।आदरणीय शुभकामनाएँ

    ReplyDelete
  5. खंजर जिगर पर पीछे से लगाकर,

    जख्म अंदर और बाहर सी रहा है।



    रुखसार पर है हंसी का ही पहरा,

    आस्तीन में पोसे वो साँप ढो रहा है।..आज के दौर में दोहरे चरित्र को जीते लोगों पर कटाक्ष करती यथार्थपूर्ण रचना..

    ReplyDelete
  6. बहुत सुन्दर व अलहदा सृजन।

    ReplyDelete
  7. सार्थक सृजन!!

    ReplyDelete
  8. बहुत सुन्दर

    ReplyDelete
  9. खंजर जिगर पर पीछे से लगाकर,

    जख्म अंदर और बाहर सी रहा है।



    रुखसार पर है हंसी का ही पहरा,

    आस्तीन में पोसे वो साँप ढो रहा है।----सार्थक सृजन

    ReplyDelete
  10. बेहद गहन भाव लिए सशक्‍त अभिव्‍यक्ति

    ReplyDelete
  11. खंजर जिगर पर पीछे से लगाकर,
    जख्म अंदर और बाहर सी रहा है।
    वाह!!!

    दिखाने को तो बस एक ही दिखाता
    सारा संसार डबल जी रहा है।
    बहुत ही सटीक...आजकल हर तरफ दोहरा मानदंड ही नजर आता है...
    लाजवाब सृजन।

    ReplyDelete
  12. अत्यंत सर्जनात्मक कृति... कभी समय निकाल के मेरे ब्लॉग पर भी आए

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी, बहुत आभार। हो आये आपके सुंदर रचनाओं से सजे ब्लॉग से। शुभकामना!!!

      Delete
  13. दिखावे का ही ज़माना है आदरणीय विश्वमोहन जी। जो दिखावा करने में कुशल है, वही भौतिक रूप से सफल है। आपने सच्चाई बयान की है। जिसने अपनी गैरत को बचा लिया, वह नाकामी की कीमत चुकाता है। कामयाबी चाहिए तो गैरत को पी जाओ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. वाह! आपने तो बिल्कुल खोलकर रख दी सारी पोल। बहुत आभार!!!

      Delete