Saturday, 26 February 2022

महामारी का रोना!

उग रही हैं 

रिश्तों  की फ़सल,

जगह-जगह!

क्यारियाँ, कोले, 

खेत, फ़ार्म हाउस,

सब-के-सब। 

‘पट’ गए हैं 

इन रिश्तों से! 

कहीं मन के रिश्ते, 

कहीं निरा तन के!

कहीं धन के, 

तो कहीं 

सिर्फ़ आवरण के!

कहीं धराशायी हो रही है 

पककर पुरानी फ़सलें, 

तो कहीं अंकशायी 

सद्य:स्नात, लहलहायी!

कहीं  बोए जा रहे हैं 

बीज, संभावनाओं के!

कीटनाशक छिड़के जा रहे हैं।

डाले गए हैं थोड़े 

रासायनिक खाद भी!

रिश्तों का रसायन 

बनाने को!

कृत्रिम रिश्तों की 

इस पैदावार पर 

भारी पड़ गयी है,

प्रदूषित प्रकृति !

कभी सूखा,

कभी बाढ़,

कभी भूस्खलन, 

तो फिर रहे-सहे 

रिश्तों का दम 

घुटा  दिया है,

महामारी 'का रोना'  ने!