Sunday, 19 April 2020

कोरोना और भारत का समाजशास्त्र – ९ (अंतिम भाग) (Corona and the Sociology of India -9) (Concluding Part)


(भाग – ८ से आगे)

         


अब कुछ ख़ास बातों पर ग़ौर कर लें। पहली बात, तो यह है कि किसी भी समाजशास्त्रीय पड़ताल या विवेचना में किसी समाज विशेष का अवलोकन करने वाले शोधार्थी को, विशेषत: उस स्थिति में जब  वह  उसी समाज का सदस्य है तो, वस्तुनिष्ठ दृष्टि के संस्कारों से सम्पन्न होना वांछनीय है। ऐसा न होने पर इस बात की प्रबल सम्भावना है कि वह ढेर सारे ऐसे आत्मनिष्ठ तत्वों के आग्रह का आखेट बन जाएगा जो उसे पूर्वाग्रही और ‘स्वजातीय उत्कृष्टता में विश्वास रखनेवाले’ आरोपों के घेरे में ले सकता है। हर शोधार्थी को सोचने  की अपनी दृष्टि (थॉट प्रॉसेस) और परखने के अपने मूल्य-मानक (वैल्यू-सिस्टम) होते हैं जो उसी समाज के उत्पाद हैं जिसने उसका पालन-पोषण किया है। इसलिए यह देखना भी ज़रूरी हो जाता है कि उसकी दृष्टि, मूल्य और मान्यताओं से उसकी पड़ताल या विवेचना कितनी प्रभावित होती है। इस विवेचना में वह कहीं अपने मूल्यों के अर्जुन के वर्तमान और भविष्य की रक्षा में किसी एकलव्य का अँगूठा तो नहीं काट दे रहा है। समाज के अवलोकन के प्रकारांतर में कहीं अपने दर्शन का दिग्दर्शन तो नहीं करा रहा है या फिर दूसरे की मान्यताओं को दबा तो नहीं रहा है।
                    कुशाग्र आर्थिक समाजशास्त्री कार्ल मार्क्स अपने संघर्ष-सिद्धांतों में यह आरोप पहले ही गढ़ चुके हैं; और ईमानदारी से स्वीकारें तो उनमें  थोड़ी सच्चाई भी है, कि कोई भी शिक्षक अपने छात्रों में अध्यापन के दौरान जीवन के  वहीं सोच और वहीं मूल्य भरता है जो जीवन वह स्वयं जीता है। किंतु विज्ञान की दुनिया में ऐसा नहीं होता। वहाँ तथ्यों को स्वीकारने और नकारने में कर्ता, कर्म या करण किसी के भी जीवन मूल्यों का कोई असर नहीं होता। विज्ञान में भौतिक या रासायनिक क्रिया या प्रतिक्रिया अपने वैज्ञानिक कार्य-कारण सिद्धांतों पर घटित होती हैं। उनका इससे लेना देना नहीं होता कि प्रयोगशाला  पूँजीवादी की है या समाजवादी की, प्रयोग करने वाला गोरा है या काला और उसका ख़र्च किस धर्म के लोग उठा रहे हैं। लेकिन ग़ैर वैज्ञानिक विषयों से सम्बंधित शास्त्रों में कोई भी प्रयोग, अध्ययन, पड़ताल, समीक्षा और विश्लेषण  इन समस्त कारकों से प्रभावित होते हैं।  इसलिए जब तक वहाँ पर शोधार्थी वैज्ञानिक संस्कारों से सम्पन्न होकर बिना कोई नया तथ्य पैदा किए या वर्तमान तथ्यों में कोई कृत्रिमता पैदा किए विशुद्ध वस्तुनिष्ठता से अपनी पड़ताल नहीं करता तबतक उसके इस उद्योग को हम ‘सामाजिक कला’ ही कहते हैं, ‘सामाजिक विज्ञान’ कतई नहीं! मैं समाज-विज्ञान के अध्येताओं और छात्रों से अपनी इस व्यंग्यात्मक टिप्पणी के लिए कोई खेद नहीं व्यक्त करता क्योंकि निष्पक्षता और पंथ-निरपेक्षता ही सही शोध की कसौटी है। एक बात ज़रूर है कि भारतीय समाज मार्क्स की अवधारणा में मुश्किल से समा पाता है क्योंकि यहाँ बुर्जुआ और सर्वहारा से इतर एक प्रबल मध्यम वर्ग है जिसकी जड़ें  आर्थिक के साथ-साथ उसकी सामाजिक आधारभूमि में भी गहरे तक गड़ी हैं। यहीं वर्ग इस समाज की बौद्धिक आत्मा है और यहाँ के समाज की साझी चेतना का निर्माण और वहन करता है। मध्यम वर्ग ही भारतीय समाज की चेतना का प्रतिनिधि है, उसकी सनातन संस्कृति का चिर संरक्षक है और भारतीय समाज की आध्यात्मिक समृद्धि है। मध्यम वर्ग विहीन समाज सदैव पंगु और निष्प्राण होता है।  
                      पूर्ण-सहभागी-अवलोकन में आत्मनिष्ठा के दोष से बचने के बाद जो दूसरी महत्वपूर्ण बात आती है, वह है -  “समाज में साथ-साथ बहने वाली अनेक धाराएँ, साथ-साथ बढ़ने वाली अनेक प्रवृतियाँ और साथ-साथ दिखने वाले अनेक लक्षण”! इनमें देखें तो सभी को, लेकिन समाज की मौलिक पहचान के रूप में पहचानें उसी को जो उस समाज की स्थापना का लक्ष्य है, जो उस समाज के व्यक्ति की जीवन प्रणाली का आदर्श है और जिसके उल्लंघन से उस समाज का ‘कलेक्टिव कोंसेंस’ आहत होता है। यदि किसी लक्षण के विरोध में समाज मुखर हो जाय तो निश्चित रूप से वह लक्षण उस समाज के मौलिक चरित्र का विलोम है। लेकिन, यदि किसी लक्षण के अनैतिक और आपराधिक होने के बाद भी वह समाज अपने ऐसे लक्षण धारियों की प्रत्यक्ष रूप से निंदा नहीं करता, उन्हें कठघरे में खड़ा नहीं करता या फिर जान बूझकर आँखें बंद कर लेता है, तो धीरे-धीरे वे लक्षण  उस समाज के मूल्य बनने लगते हैं और बाद में वहीं लक्षण उस  समाज की संस्कृति बन जाते हैं। आज भी इस दुनिया में ऐसे कतिपय क्षेत्र और समुदाय हैं जिनकी  अपनी आपराधिक पहचान है।  मनुष्य-मात्र के कल्याण हेतु सभ्यता के विकास-क्रम में ऐसी ढेर सारी पुरानी मान्यताएँ ढहती हैं, मूल्यों के नये  प्रतिमान गढ़ते हैं और परिवर्तन की डगर पर समाज का सफ़र जारी रहता है। समाज का ‘कलेक्टिव-कोंसेंस’ अपने ‘सोशल-नॉर्म’ और आदर्शों को स्थापित करने के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है। यदि भारत की अदालतों में गांधी के चित्र के नीचे ‘सत्यमेव जयते’ की तखती टँगी  है, तो इस बात का यह रेखांकन है कि  ‘सत्य की विजय’ भारतीय समाज का मौलिक आदर्श और चिर-उद्घोष है। भले ही, आए दिनों ऐसी घटनाएँ क्यों न होती रहे जो सत्य का गला दबाती हों! ऐसी प्रतिकूल और निंदनीय घटनाएँ समाज के बहुसंख्यक सुसंस्कृत सज्जन नागरिकों के मन में बुराई के विरुद्ध क्षोभ का तीव्र ज्वार भरती हैं। वह ऐसे कुकर्मियों को इंसान की परिभाषा के दायरे से भी दूर समझती  है और ऐसे लोगों को दंडित किए जाने पर उसका मन जुड़ा जाता है। हैदराबाद  में बलात्कारियों को पुलिस द्वारा मौत के घाट उतारे जाने पर जनता का असीम  उल्लास  इसी  बिंदु की ओर संकेत करता है। समाज का यहीं  ‘कलेक्टिव-कोंसेंस’ न्याय के दर्शन को परिभाषित करता है।
                     तीसरी बात, कि एक समाज के समान धारा ही किसी अन्य  समकालीन समाज में दृष्टिगोचर हो तो दोनों धाराएँ एक-दूसरे को धोती नहीं, बल्कि अपने-अपने मूल्यों को ढोती स्वतंत्र रूप से बहती हैं। दक्षिण कोरिया और अन्य देशों में कहीं यदि संयुक्त परिवार की व्यवस्था बची है तो इसका यह अर्थ नहीं कि  भारतीय संयुक्त परिवार प्रणाली उनका मुखापेक्षी  हो गयी और उसकी चर्चा करना अपनी उत्कृष्टता को रेखांकित करने का उद्योग हो गया। हर संस्कृति अपने में महान है और महान संस्कृतियाँ सदैव दूसरों की महानता को भी उतनी ही तबज्जो देती हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि अपनी महानता से आँखें मूँद लेती हों! उसी तरह धर्म की यदि बात करें तो सामाजिक व्यवहार के धरातल पर कल्याण की कामना और परोपकार ही धर्म है। “सर्वे भवंतु सुखिना, सर्वे संतु निरामया। सर्वे भद्राणि पशयन्ति, मा कश्चित दुःख भागवेत।।“ और “अयम निज:, परो वेत्ति, गणना लघु चेतसाम। उदार चरितानांतु वसुधैव कूटुंबकम।।“ यहीं धर्म के सम्बंध में भारतीय समाज के बीज-वाक्य हैं। वर्तमान संदर्भ में धर्म के बारे में हमें बस इतना ही कहना है और भारतीय समाज तथा संस्कृति  की भी प्रत्येक भारतीय से बस यहीं  अपेक्षा  है।  इससे इतर धर्म की और कोई भी बात बस ढकोसला है। हम फ़िलहाल अपनी बात नहीं कर रहे बल्कि महामारी से जूझता यह भारतीय समाज अभी क्या सोच रहा है, हम उसे टटोल रहे हैं। आगे फिर कभी हम विस्तार में अलग से  धर्म और सम्प्रदाय पर भी भारतीय समाज की पड़ताल कर लेंगे।
                      भारतीय समाज न तो घोर पदार्थवादी है न शुष्क अध्यात्मवादी। इसका पुरुषार्थ दर्शन धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – इन चारों को क्रमिक महत्व देता है और इनके लिए जीवन की चार अवस्थाओं में चार आश्रमों का आग्रह भी है। अतः कुछ आलोचकों का यह विचार कि भारतीय समाज पदार्थवादी जीवन में प्रवेश को किसी गहरी खाई में गिरने के समान मानता है, बिलकुल भ्रामक है। बल्कि यदि सही मायने में देखें तो अपने उन्हीं पदार्थवादी मूल्यों से जिजीविषा को सहेजकर कोरोना के दैत्य से लड़ने के लिए सम्पूर्ण भारतीय समाज आज एक साथ  उठ खड़ा हुआ है।
                       और, इस चर्चा का  उपसंहार करने के क्रम में मैं एक बार भारत के समाज और उसके व्यक्ति को आमने-सामने खड़ा कर दोनों की एक-दूसरे की सापेक्ष स्थिति का आकलन भी कर लेना चाहूँगा।  यहाँ पर अपने ऊपर ‘इथनोसेंट्रिज़म’ (अपनी संस्कृति को उत्कृष्ट मानने की प्रवृति) के आरोप का जोखिम उठाते हुए इतना तो हम पक्का कहेंगे कि भारतीय समाज और उसका सदस्य व्यक्ति दोनों आपसी संपुरकता से ओत-प्रोत  और समरसता से सराबोर हैं। अपने आम जीवन में व्यक्ति एक ओर अपनी सम्पूर्ण भावनाओं का समाज के ‘कलेक्टिव-कोंसेंस’ अर्थात ‘सामूहिक चेतना’ से समाहार कर सामाजिक मूल्यों के उत्थान, संवर्धन और संरक्षण में अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है तो दूसरी ओर समाज भी व्यक्ति को अपनी स्वतंत्र चेतना विकसित करने के लिए एक उदार और उर्वरा वातावरण प्रदान करता है। ऐसा व्यक्ति जो समाज की जड़ता, अंधविश्वास, दकियानुसीपन और प्रतिगामी  प्रवृत्तियों पर हल्ला बोलता है, इसको हिलोड़ कर जगाता है और क्रांति के बीज बोता है उसे समाज अपने सिर आँखों पर बिठाकर अपना नेता बना लेता है और उसके पीछे-पीछे चल देता है। बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, गुरु गोविंद सिंह, कबीर, गांधी, कलाम  जैसे उदाहरणों से यह समाज पटा  हुआ है। सामाजिक क्रांतियों और उनसे  उद्भूत परिवर्तनों के पीछे ऐसे ही व्यक्तियों की प्रखर भूमिका रही है। व्यक्ति को  पहचान भी समाज ही देता है, अर्थात उसका परिवार, गाँव, प्रांत, जाति, गोत्र, जमात, धर्म आदि तमाम संस्थाएँ हैं जो व्यक्ति को समाज में अपने से जोड़कर पहचान देती है। एक व्यक्ति के  सत्कर्मों और उपलब्धियों से उसका  परिवार, उसका गाँव, उसकी जाति, उसका ज़िला, उसका स्कूल-कॉलेज, उसका प्रांत और यहाँ तक की पूरा भारतीय समाज महिमामंडित होता है और गर्व से फूले नहीं समाता।  इन संस्थानों से  उस सदस्य व्यक्ति को  और उस व्यक्ति से इन संस्थानों को इज़्ज़त मिलती है। दोनों एक-दूसरे की पहचान बनते हैं। इसी तरह बुरे कर्मों का लेखा-जोखा भी समाज और व्यक्ति के समीकरण को प्रभावित करता है। दोनों एक दूसरे का अपयश ढोते हैं। व्यक्ति और समाज के बीच संतुलन का यह अद्भुत ताना-बाना हमारे सामाजिक व्यक्तित्व का अध्यात्मिक पक्ष है। इसी अदभुत ताने-बाने में भारतीय समाज  का हर प्रांत, हर क्षेत्र, हर नगर, हर शहर, हर क़स्बा,  हर गाँव, हर जमात, हर तबक़ा, हर परिवार और हर इंसान आज कोरोना से जंग लड़ रहा है।
                                                                    ------------- समाप्त -----------------
#विश्वमोहन#कोरोना




Saturday, 18 April 2020

कोरोना और भारत का समाजशास्त्र – ८ (Corona and the Sociology of India - 8)


(भाग – ७ से आगे)



सामुदायिक जीवन जीने की तड़प व्यक्ति में न केवल उसकी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति का हेतु है, प्रत्युत यह उसकी प्रकृति का निमित्त भी है। मनुष्य स्वभाव से ही एक सामाजिक प्राणी है। प्रतिकूल परिस्थितियों में तो उसकी अपनी भावना पूर्णरूपेण समुदाय से एकाकार हो जाती है क्योंकि समाज का  सान्निध्य ही  उसे सुरक्षा की छतरी का मनोवैज्ञानिक अहसास देता है। समाज के अस्तित्व में ही उसे अपनी  भौतिक सत्ता की प्रतिछवि दिखायी देती है और सामुदायिक चेतना में उसे अपनी चेतना की प्रतिध्वनि सुनायी देती है। महामारी सारे समाज का शत्रु है। सबका दुश्मन एक – ‘महामारी’। सबकी रणनीति का एक ही केंद्र बिंदु – ‘महामारी’। इस शत्रु का जो भी शत्रु, उसका मित्र, और जो भी मित्र,  उसका शत्रु! यह भावना समाज के प्रत्येक जन में हिलोरे ले रही हैं और विदेश से इस धरती पर आयी इस बीमारी ने सबके मन में देश भक्ति का एक अद्भुत उफान उत्पन्न कर दिया है। देशभक्ति का यह उफान महज़ भावनाओं का उफनता दूध नहीं है बल्कि प्रशांत महासागर-से गम्भीर मानस की तलहटी में मानव सृष्टि को बचाने हेतु दुर्जेय प्रण की प्रकंपित  सुनामी से उद्भूत भीषण ज्वार है। उसके अंदर के अति-व्यक्तिवाद ने समाजवाद के समक्ष घुटने टेक दिए हैं और अब वह अपनी आत्मा का विस्तार समाज के समस्त प्राणियों की आत्मा में देख रहा है। बाज़ार  की संस्कृति सिकुड़ रही है और महामारी-मुक्त मुल्क  की चाहत विस्तार ले रही है।
                 यहाँ तक कि लोकबंदी के इस ऐकान्तिक घरवास में धर्म का मर्म भी अपने कर्म-कांडी कलेवर के छिलके उतारकर आध्यात्मिक अवतार में निखर रहा है। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरिजा सबके दरवाज़े बंद हो गए हैं और अस्पताल के दरवाज़े खुल गए हैं। डॉक्टर, नर्स, तकनीशियन – ईश्वर  के ये नए अवतार अपनी उपस्थिति से उद्विग्न मानव मन को जीवन का सुधा पान करा रहे हैं। कल्याण की कामना ही धर्म है। जहाँ भी इस कामना का अभाव है, बस अधर्म ही अधर्म है। धर्म के नाम पर बहुत तांडव हो चुका। अब इस क़यामत के काल में उसे धर्म का सीधा साक्षात्कार हो रहा है। कोरोना घनघोर काल-वृक्ष बन पीपल की तरह खड़ा  है और उसके नीचे आकर उसे बोधिसत्व की प्राप्ति हो गयी है। ‘सेवा परमो धर्म:’ ‘परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीड़नम’ बस यही धर्म है। बाक़ी सब जमात है। स्वास्थ्य-सेवाओं के प्रति भी उसका आग्रह अब बढ़  गया है। स्वास्थ्य की आधारभूत संरचना में अब आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है। महामारी की यह चुनौती ही अब अवसर बन कर आयी है। नौकरशाही की सारी सामंती मान्यताएँ समाज के इस नवजागृत ‘कलेक्टिव-कोंसेंस’ के सामने दम तोड़ रही हैं। शासकीय व्यवहार में पारदर्शिता और शुचिता का आग्रह जाग उठा है। वैज्ञानिक परिहार्यताओं के समक्ष प्रशासनिक जड़ता घुटने टेकने लगी है। महामारी के इस झटके ने नौकरशाही के आडंबरों को ख़ारिज कर तंत्र को डिजिटल राह पर धकेल दिया है। भौतिक स्पर्श से परहेज़ हेतु अब मुद्रा का विनिमय-व्यापार भी ‘डिजिटल मोड’ में आ गया है। टेली-मेडिसिन और टेली-कॉनफेरेंसिंग का प्रचलन  शुरू हो गया है। इस रीति से अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के रयुमेटोलौजी विभाग के डॉक्टर रूद्र के द्वारा पुणे की रेणु को दी गयी मेडिकल सेवा ट्विटर पर चर्चा का विषय बनी। यह आगे के दिनों में मेडिकल के क्षेत्र में आने  वाली  नयी क्रांति की सुगबुगाहट  है।
                  ‘आइसोलेशन’ और ‘क्वारंटाइन’ को भी सुगम और सरल बनाने की प्रक्रिया पर काम चल रहा है। कहते है कि १९वीं शताब्दी में फैली प्लेग की महामारी के दौरान जितनी जानें प्लेग ने लीली, उससे कम क्वारंटाइन ने नहीं खायीं। महामारी से ज़्यादा त्रासद होते  थे ये! प्रसिद्ध साहित्यकार राजेंद्र सिंह बेदी ने अपनी एक प्रसिद्ध कहानी ‘क्वारंटीन’ में इसका चित्र खिंचा है : -
“प्लेग तो ख़तरनाक था ही, मगर क्वारंटीन उससे भी ज़्यादा ख़ौफ़नाक थे। लोग प्लेग से उतने परेशान नहीं थे, जितने क्वारंटीन से और यहीं वजह थी कि स्वास्थ्य सुरक्षा विभाग ने नागरिकों को चूहों से बचाने का हिदायत करने के लिए बड़े आदमकद विज्ञापन छपवाकर दरवाज़ों, सड़कों और गलियों में लगाया था। उस पर ‘न चूहा, न प्लेग'  के शीर्षक में इज़ाफ़ा करते हुए ‘न प्लेग, न चूहा, न क्वारंटीन’ लिखा था। “ यह साबित करता है कि  मानसिक अवसाद के कारकों में क्वारंटीन अपना एक अलग स्थान रखता है। इसकी एक झलकी दिलशाद गार्डेन,  दिल्ली के मुहल्ला क्लीनिक में डॉक्टर गोपाल झा द्वारा अपने संक्रमण काल में अपने मित्रों को ‘आइसोलेशन’ से भेजे गए मार्मिक वहट्टसप्प संदेश से मिलती है। अब 'वर्चूअल रीऐलिटी' (आभासी वास्तविकता) की तकनीक से आइसोलेशन और क्वारंटीन के मनोविज्ञान पर शोध कर इसे रोगी के अनुकूल और ‘यूज़र-फ़्रेंड्ली’ बनाने की दिशा में काम हो रहा है।
                    संक्रमण की शृंखला को तोड़ने के लिए लोकबंदी (लॉक-डाउन) की इस मुहिम से समाज को अन्य ढेर मोर्चों पर भारी क़ीमत भी चुकानी पड़ रही है। अर्थतंत्र बिलकुल तबाह-सा हो गया है। बहुत सारे लोग अपने काम के सिलसिले में अस्थायी ठिकानों पर फँसे रह गए। उत्पादन इकाइयाँ बंद हो गयीं। लोग भारी मात्रा में बेरोज़गार हो गए। कोरोना से संघर्ष में अन्य रोगों के लिए अस्पताल की सेवाएँ बंद हो गयीं। कैन्सर, दिल की बीमारी और  मस्तिष्क-आघात जैसी जानलेवा बीमारियों के मरीज़ निस्सहाय-से हो गए।  असंगठित क्षेत्र के दैनिक भोगी कर्मकार, मज़दूर, निजी विद्यालयों के शिक्षक और दिन भर की अपनी दुकानदारी से परिवार का पेट भरने वाले खोमचे वाले, ठेले वाले, दुकानदार, मोटर और साइकल रिक्शा चालक, बस और ट्रक के ड्राइवर भीषण आर्थिक संकट में फँस गए हैं। निम्न मध्यम वर्ग के कामगारों की एक विशाल संख्या है जो दस से पच्चीस हज़ार की मासिक आमदनी की नौकरी निजी क्षेत्रों में करने के लिए शहरों  में टिकी  हुई  हैं। इनकी स्थिति त्रिशंकु-सी हो गयी है। इन्हें न तो मज़दूरों वाली सुविधा मिल रही है, और न इनकी नौकरी के सुनिश्चित होने के आसार ही दिख रहे हैं।
                  सारी दुनिया की एक तिहाई आबादी लोकबंदी में घरवास कर रही है। अर्थतंत्र विश्राम की अवस्था में है। इतिहास की सबसे बड़ी मंदी दुनिया के दरवाज़े पर दस्तक दे रही है। पिछले साठ सालों में पहली बार एशिया के देशों की आर्थिक वृद्धि दर शून्य पर होने की तलवार लटक रही है। ऐसे तो आजकल आँकड़े भी विचारधारा की कोख से जनमते हैं। इसलिए किसी आँकड़े का सहारा न लेकर भी हम अर्थतंत्र की तबाही को  पूरी तरह से महसूस करने लगे हैं। जब अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश की माली हालत ख़स्ता हो गयी है तो बाक़ी का क्या कहना! बाज़ार में ज़रूरी सामानों की कमी की आशंका के आतंक में ‘परचेज-पैनिक’ का लोग शिकार होने लगे हैं और भंडार करने की प्रवृति में सामान बाज़ार से ग़ायब होने लगे हैं। स्थिति को भाँपकर जमाखोरों ने मूल्य को ऊपर उछाल दिया है। इससे ज़रूरी सामानों की आपूर्ति का संकट गहराने लगा है। सिनेमा उद्योग थम गया है। खेल-कूद के बड़े आयोजन रद्द हो गए हैं। दूरदर्शन पर कार्यक्रमों और धारावाहिकों के निर्माण में शिथिलता आ गयी है। प्रकाशन का कारोबार बंद है। छोटे अख़बार दम तोड़ रहे हैं। आन-लाइन खाद्य और भोज्य-पदार्थों की विक्री बंद हो गयी है। होटल और रेस्तराँ वीरान पड़े हैं। पर्यटन उद्योग बंद है। रेल, सड़क और वायु परिवहन रोक दिए गए हैं। विज्ञान और तकनीक के उन्नत शोध संसधान भी बुरी तरह प्रभावित हैं। कोरोना ने उनकी सारी गतिविधियों पर ताला जड़ दिया है। शोध कार्य आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। अंतरिक्ष अनुसंधान के सारे कार्य रोक दिए गए हैं। यहाँ तक कि  सदाबहार जुए  के अड्डे बियाबान  हो गए हैं तथा चिरहरित सट्टेबाज़ी के धंधे भी अंतिम साँस गिन रहे हैं।
                     लोग घरों में घुस गए हैं और जंगली जानवर सड़कों पर आ गए हैं। चिरई-चिरगुन और जानवरों के खाने-पीने पर आफ़त आ गयी है। सड़कों के किनारे ढाबे, होटल बंद होने से कुत्तों को बहुत जगह भरपेट खाना नहीं मिल रहा है। कसाईखानों के बंद हो जाने से गिद्धों को आहार नहीं मिल पा रहा है। कोरोना वाइरस के चमगादड़ से जन्म लेने की सूचना ने मनुष्य  को पक्षियों और जानवरों के प्रति शंकालु बना दिया है और अब वे अपने ही पालतू जानवरों से भी कन्नी काटने लगे हैं। कोरोना के आक्रमण  ने मानव-व्यवहार के स्तर पर परिवर्तन के कुछ नए बीज डालने शुरू कर दिए हैं। ये परिवर्तन आने वाले समाज को किस दिशा में ले जाएँगे, यह समय ही बतलाएगा!..................................क्रमश: ………………

Friday, 17 April 2020

कोरोना और भारत का समाजशास्त्र – ७ (Corona and the Sociology of India - 7)


(भाग – ६ से आगे)

विविधताओं से भरे इस समाज के विस्तृत फलक पर  हमें भिन्न-भिन्न  प्रवृतियों के उस वृहत स्पेक्ट्रम के दर्शन होते हैं, जिसमें आप को हर रंग के उदाहरण मिल जाएँगे। ऐसी भी स्थितियों का मिलना मुश्किल नहीं जहाँ पिछले दृष्टांत का प्रतिलोम उभर कर सामने आ जाए। किंतु समाजशास्त्रीय अवलोकन में हम समाज की उसी प्रवृति को पकड़ने, पढ़ने और अपने विश्लेषण  में ज़्यादा ज़ोर देते  हैं जो इसकी साझी चेतना, इसके सोशल नॉर्म, इसके आदर्श और सबसे बढ़कर उन मूल्यों को संवर्धित करने की दिशा में हो, जिसके आलोक में व्यक्ति ने संगठित होकर समाज नाम की इस महान संस्था का निर्माण किया। और, संगठन की यह आवश्यकता तथा प्रवृति विपत्ति के दिनों में कुछ ज़्यादा ही प्रबलता से घनीभूत हो जाती है। उस अर्थ में थोड़े हद तक ऐसी विपत्तियाँ भी मानव समाज के दीर्घ क़ालीन उद्देश्यों की पूर्ति में प्रकार्यात्मक ढंग से ही अपना योगदान देती  हैं। लॉक-डाउन या घरवास या लोकबंदी  के दिनों में भारतीय समाज के आचरण ने इसे रेखांकित किया है।
       मनोवैज्ञानिकों का मानना है क़ि छोटी-मोटी व्यक्तिगत आदतों के बनने और टूटने की आधारशिला के निर्माण हेतु क़रीब तीन सप्ताह का समय पर्याप्त है। अतः परिस्थितियों के दवाब में जिस किसी व्यक्ति को धूम्रपान या उसके द्वारा सेवन किए जाने वाले किसी अन्य नशे की उपलब्धता तीन सप्ताह या उसके बाद तक नहीं मिली, तो धीरे-धीरे वह इन बुरी आदतों से छूटने हेतु  वांछित शारीरिक और मनोवैज्ञानिक अवस्थाओं में पहुँच चुका होता है। इस ख़याल से इस लोकबंदी ने ढेर सारे लोगों को दुर्व्यसन के किसी न किसी ग़ुलामी से आज़ाद करने में एक अहम रोल अदा किया है। कुछ ऐसी व्याधियाँ भी जो अकेलेपन से उद्भूत थीं, पारिवारिक माहौल में आकार स्वतः दूर हो गयीं। बाहर की ‘सोशल-डिसटेंसिंग’ ने घर के अंदर ‘इमोशनल-प्राक्सिमटी’ का सूत्रपात कर दिया है। विशेषकर परिवार के बालकों  और किशोर वय के सदस्यों के लिए तो यह स्थिति वरदान बन कर ही आयी  है। हालाँकि इससे प्रतिकूल स्थिति के भी ढेर सारे दृष्टांत आए हैं जहाँ घर के अंदर चौबीसों  घंटे की यह रिहायश परिवार के कुछ सदस्यों के लिए किसी क़ैद की सज़ा से कम साबित नहीं हुई  और उनके कुंठा तथा अवसाद की स्थिति में भी पहुँचने की सूचना है। किंतु, ऐसे तत्व वहीं दृष्टिगोचर हुए हैं जहाँ पारिवारिक बंधन पहले से ही कमज़ोरी की कगार पर थे तथा सभ्यता के आघात ने संस्कृति को कुंद  करना शुरू कर दिया था। फिर भी कुल मिलकर सकारात्मक तत्वों की  रुझान ही ज़्यादा प्रभावी दिखी  है। भारतीय समाज निपट देहाती से शुरू होकर विशुद्ध महानगरीय जीवन तक पसरा हुआ है। किंतु मध्यम-वर्ग मुख्यतः ग्रामीण-शहरी-निरंतरता की जीवन पद्धति में पगा हुआ है और यहीं वह वर्ग है जो भारतीय समाज के कलेक्टिव कोंसेंस का ध्वजा-वाहक है। इसलिए भारतीय समाज के जिस किसी भी समुदाय का  मध्यम वर्ग सिकुड़ा हुआ है या मध्यम वर्गीय संस्कार समृद्ध नहीं है, वहाँ खुलेपन की कमी है और वहाँ  कुंठा, असामाजिकता  एवं दिग्भ्रमिता का प्राधान्य है।  
             लोग अपने को पुराने दिनों की ओर लौटते देखने लगे हैं, जहाँ ख़ुद से भी थोड़ी गुफ़्तगू  करने का वक़्त उन्हें नसीब हो रहा है तथा अपनी ज़िंदगी को अब बहुत क़रीब से देखने लगे हैं वे! पहले विवशता , फिर आदत, फिर स्वभाव और फिर आनंद!  लोकबंदी  में इस चक्र ने उनके आहार, आचार और विचार तीनों को बहुत गहरे तक प्रभावित किया है। मांसाहार बहुतों का छूट गया। पारिवारिक जनों के साथ लम्बे समय तक समय बिताने के क्रम में दिल से दिल के आलाप ने एक अत्यंत आह्लादकारी और आत्मीय सम्बन्धों का सूत्रपात कर दिया है। संचार माध्यमों ने तो अंदर को बाहर से जोड़ ही रखा है। अंदर के रस का प्रवाह बाहर भी उसी सरसता से बहकर  सामाजिकता की भाव-लताओं को सिंचित कर रहा है। परिवार जन एक दूसरे की खोज-ख़ैर ले रहे हैं और हाल-चाल पूछ रहे हैं। तेज़ी से बढ़ती मॉल-संस्कृति  पर अनायास विराम लग गया है। चायनीज़ फ़ास्ट-फ़ूड स्टॉल को कोरोना वाइरस ने डँस लिया है। घर में बने भोजन के स्वाद का न केवल परिचय मिल रहा है, बल्कि उसे पकाने में भी हाथ बँटाना पड़ रहा है। पारिवारिक जीवन जीने की इस आकस्मिक बाध्यता ने सामजिकता की सूखती-सी बेलि-लता को फिर से पनपाना शुरू कर दिया है। परिवार में पनपते इस पारस्परिक सामंजस्य की कड़ी में अब व्यक्ति ख़ुद से  भी मेल बिठाने  लगा  है। उसने अपने अंतर्मन की आकांक्षाओं को पहचानना शुरू कर दिया है। अब उसका कल का अकेलापन आज के एकांत  में बदल गया है जहाँ  उसे अपूर्व शांति और आध्यात्मिक सुख मिल रहा है। वह  अपने व्यक्तित्व के नए आयाम को तलाशने लगा है और अपने अंदर छिपे नए किरदार को तराशने लगा है। इस दीर्घ घरवास ने उसे अपनी रचनात्मक रुचियों को सजाने-सँवारने का भरपूर मौक़ा दिया है। उसके व्यक्तित्व का सृजनतमक पक्ष उभरकर सामने आ गया है।
                    घर के अंदर सिमटे जीवन की इस शैली के बड़े सामाजिक प्रभाव दृष्टिगोचर हो रहे हैं। अपराध की घटनाएँ समाप्तप्राय हो गयी हैं। चोरी, राहजनी, छिना-झपटी जैसी छोटी घटनाएँ बिलकुल बंद हो गयी हैं। रहन-सहन और खान-पान के इस अनुशासन ने छोटे-मोटे रोगों में भारी कमी की है और ऐसे रोगियों की संख्या आशातीत रूप से घट गयी है। पर्यावरण के प्रदूषण से जनित रोग हाशिए पर चले गए हैं। और तो और, बड़े-बड़े महानगरों के शव दाह गृहों में १५ से २० प्रतिशत की कमी की सूचना अंकित की गयी है। समझा जा रहा है की सड़क-दुर्घटना में होने वाली मौतों की संख्या शून्य हो गयी है। अस्पतालों में शल्य-चिकित्सा के दौरान होने वाली मृत्यु बंद हो गयी है। आपराधिक घटनाओं में होने वाली मौत बंद हो गयी है। साफ़-सफ़ाई के कारण भी औसत-स्वास्थ्य-स्तर सुधर गया है। धुआँ उगलती गाड़ियों के सड़क से हट जाने के कारण कार्बन उत्सर्जन का स्तर क़रीब-क़रीब शून्य हो गया है। वातावरण से कार्बन और ग्रीन हाउस गैसें ग़ायब हो गयी है। पार्टिकल मैटर का अनुपात काफ़ी घट गया है। एलर्जी, दमे और साँस की समस्या में अत्यधिक गिरावट आ गयी है। बड़ी तेज़ी से पर्यावरण अपनी पुरानी स्वच्छता और निर्मलता की ओर लौट रहा है। हवाएँ शुद्ध हो गयी हैं। उपवन में वसंत की बहार है। शोर थम गया है। पत्र-दलों और तरु-लताओं में संगीत का वेग है।  वातावरण की शांति और निस्तब्धता में कोयल की कुक और चिड़ियों की चहक की मिठास घुल गयी है। हिमालय की हिमाच्छादित चोटियाँ दूर से ही नज़र आने लगी हैं। आसमान स्वच्छ एवं नीला दिख रहा है। चाँद की दूधिया चाँदनी अपनी धवलता में निखर उठी है। नीरभ्र अंतरिक्ष में टिमटिमाते अगणित तारे गिनती करने लायक़ साफ़-साफ़ दिखने लगे हैं। भूमंडल के निरंतर गरमाने  की प्रक्रिया (ग्लोबल वार्मिंग) थम-सी गयी है। पारा नीचे गिर गया है और वायुमंडल का सामान्य तापक्रम १ से २ डिग्री सेल्सियस तक कम हो गया है। सामाजिक जीवन और प्रकृति के आपसी तालमेल की प्रगाढ़ता स्पष्ट से स्पष्टतर हो चली है।
ऊर्जा के क्षेत्र में आशातीत बचत हुई है। कार्यालयों में अपव्यय होने वाली बिजली की काफ़ी  बचत हो रही है। और सबसे ज़्यादा तो, तेल की खपत  बिलकुल कम हो गयी है। आवश्यकता अविष्कार की जननी है।  ढेर सारे निजी क्षेत्र के और सरकारी कार्यालयों ने भी घर से ही इंटर्नेट के माध्यम से काम करने की प्रथा शुरू कर दी हैं। शिक्षण-संस्थानों ने भी  ‘विडीओ-कॉनफेरेंसिंग’ के माध्यम से अपने संस्थानों में पढ़ाई-लिखाई का काम शुरू कर दिया। यह आम आदमी की जेब की बहुत बड़ी बचत है। आनेवाले दिनों में इसका व्यापक असर पड़ने वाला है। एक ऐसी प्रणाली विकसित की जा सकती है, जिसमें छात्रों को अपने घर पर बैठे उच्च तकनीकी शिक्षा मिल जाए और उनकी  काफ़ी मोटी  रक़म ख़र्च कर छात्रावासों या महँगे ‘पीजी’ में रहने की बाध्यता ख़त्म  हो जाए ! बाज़ारों के बंद रहने के कारण अनावश्यक ख़र्चों पर विराम लग गया है और लोग केवल अपनी अति आवश्यक आवश्यकताओं की ही पूर्ति कर रहे हैं। मितव्ययिता जीवन प्रणाली में प्रवेश कर गयी है। आराम संबंधी और विलासिता की आवश्यकताओं पर पूरी तरह लगाम लग गया है। कुल मिलाकार समाज अपने पुरातन स्वरूप वाली शांत, स्वस्थ, निश्चिन्त और तनाव मुक्त शैली की ज़िंदगी में लौट गया है। लोग भी पूरी तरह से संवेदनशील होकर अत्यंत सामाजिक और अनुशासित भाव से अपने नागरिक मूल्यों का पालन करते हुए इस बीमारी के संक्रमण चक्र को तोड़ने के लिए कटिबद्ध हैं। दूक़ानों पर उचित दूरी बना के खड़े होना, मास्क लगाना, हाथों को भली-भाँति साबुन से साफ़ करना और संक्रमण की शंका होने पर जाँच करा कर ख़ुद ‘आयसोलेशन’ या ‘कवारेंटाइन’ में चले जाना दिनचर्या हो गयी है। कहीं-कहीं तो लोगों ने इस बिंदु पर अत्यंत अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किए हैं।  बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले में बेतिया के पास बैरिया  प्रखंड  के बगही बघंबरपुर से एक ऐसी ही उत्साह जनक सूचना प्राप्त हुई है। वहाँ दिल्ली, महाराष्ट्र, केरल, लुधियाना  और नेपाल से  २९ मार्च तक लौटे ४० प्रवासियों को पंचायत वालों ने ही बिना किसी सरकारी सहायता के अपने स्तर पर पंचायत भवन में ही कवारेंटाइन की व्यवस्था करा दी। उचित मेडिकल  संरक्षण में रखकर १४ दिनों बाद स्वास्थ्य परीक्षण करने के पश्चात उन्हें वस्त्र और  मास्क के साथ गाँव वालों ने भावभीनी विदायी दी। गाँव वालों की यह भावपूर्ण व्यवस्था सर्वत्र चर्चा का विषय बना हुआ है।  यह पूरा ज़िला कोरोना मुक्त है। …………………………………क्रमशः …………………………

Tuesday, 14 April 2020

कोरोना और भारत का समाजशास्त्र – ६ (Corona and the Sociology of India - 6)



(भाग – ५ से आगे)
पहले दिन के ‘जनता-कर्फ़्यू” में भागीदारी  और कोरोना से अहर्निश लड़ने वाले अपने डॉक्टर, स्वास्थ्य-कर्मी, पुलिस, अत्यावश्यक सेवा मुहैया करानेवाले कर्मचारी एवं अन्य समाज सेवियों के प्रति अपना अप्रतिम सम्मान और एकजुटता  दिखाकर भारतीय समाज ने इस महामारी से युद्ध में न केवल अपनी सतर्कता, तत्परता और सामाजिक सहधर्मिता  के पाँचजन्य का उद्घोष कर दिया, प्रत्युत इस जगत में मानवीय अस्तित्व की रक्षा के प्रति अपनी संस्कृति  के संवेदनात्मक पक्ष को भी प्रकट किया। उसके तुरंत बाद प्रारम्भ होने वाली 'लोकबंदी' अर्थात  ‘लॉक डाउन’  निश्चित रूप से एक ऐसी स्थिति थी, जिससे निपटने में  हमारे चिर-संचित सांस्कृतिक तत्वों और सामाजिक मनोविज्ञान की सबसे बड़ी भूमिका थी और इस कसौटी पर भारतीय समाज का एक मज़बूत पक्ष उभरा है। हमने पहले ही कहा है कि “महामारी का यह मनोविज्ञान भी दोमुँहा होता है – एक ‘महामारी के ख़ौफ़’ का मनोविज्ञान  और दूसरा ‘ख़ौफ़ के मनोविज्ञान’ की महामारी! सौभाग्य से, भारतीय समाज के जीवट ने इस मनोविज्ञान को अपने पर हावी नहीं होने दिया है। ये आपदाएँ जान-माल की बर्बादी तो करती  ही हैं, सबसे ज़्यादा इनका असर हौसलों पर होता है, जिसे भारतीय समाज ने बहुत हद तक बचा रखा है। सदियों के अनुभव ने इस मामले में उसे अब काफ़ी ‘प्रफ़ेशनल’ बना दिया है। भारतीय जनता पहले एक सामजिक जीव है, फिर एक आर्थिक शरीर!”
                    भारतीय समाज ने परिस्थितियों के साथ जिस धैर्य और कुशलता से अपने को ढाला है, उसने एक नए आयाम ‘लॉक-डाउन के सामाजिक मनोविज्ञान’ का उद्घाटन किया है, जो न केवल मानव-व्यवहार के उद्भव और क्रमगत विकास की कड़ी में एक नया अध्याय है, बल्कि इसका सांगोपांग अवलोकन और अध्ययन आधुनिक समाजशास्त्रियों और समाज मनोवैज्ञानिकों के लिए बड़ा रोचक भी है। इसमें कहीं हमारे श्रमिक भाइयों द्वारा  इस ‘ताले’ को खोलने की छटपटाहट भी दिखी तो वह अपनों से जुड़ने की तड़प थी, न कि उसके पीछे कोई नकारात्मक तत्व! और, इस तड़प का उत्स भी हमारी सामाजिक भावनाओं के गर्भ में ही सुरक्षित है। परिस्थिति की गम्भीरता और   भारतीय जनसंख्या के आकार और प्रकार  के आलोक में यह कोई अप्रत्याशित अवसर भी नहीं था। थोड़ी देर से ही सही, उनकी छटपटाहट ने संवेदना के जिस ज्वार को आंदोलित किया और जिस तत्परता से समाज और सरकार ने उनकी समस्यायों के त्वरित निदान में अपना हाथ बढ़ाया, यह भी भारतीय समाज के संवेदना मूलक सांस्कृतिक पक्ष के घनत्व और मज़बूती को इंगित करता है। भीषण से भीषण झंझवातों को सह लेने और परिवर्तनों को, बिना अपना मौलिक स्वरूप खोए, आत्मसात करने की क्षमता भारतीय समाज की सबसे बड़ी विशेषता है। यह क्षमता इसे क़ुदरत ने कैसे दी है, इसका ज़िक्र तो पहले किया ही जा चुका है, साथ ही, इतिहास भी काल-प्रवाह के भिन्न-भिन्न खंडों में ऐसे अनवरत झटकों से इसकी झोली भरता रहा है। बाहरी सभ्यताओं के आक्रमण  और लम्बे काल की विदेशी ग़ुलामी की विभीषिकाओं की अग्नि में भी तपकर इस समाज की सुवर्ण-संस्कृति लोकतंत्र का कुंदन बनकर ही दमकी और इसने सभी सभ्यताओं का आलिंगन कर उसे अपनी संस्कृति की वृहत धारा में घुला लिया और एक सर्वग्राही  भारतीय समाज अपनी अलग पहचान बनकर उभरा। यह विरासत में प्राप्त इस समाज की शक्ति है कि यह अब चुनौतियों में भी अवसर तलाशने लगी है और आधुनिकताओं को अपनी अपरंपार परम्पराओं में विलीन कर ‘नव-परंपरावाद’ का एक नया वितान तान रही है। यहीं इसका सनातन होना है।
                     समाज के एक बड़े शहरी  तबके ने ‘लॉक-डाउन’ को ‘बोरियत की समस्या’ के रूप में उभारकर मानों महामारी के आतंक और उसकी भयावहता को ठेंगा दिखा दिया हो! इस संकट काल में अपने स्वभाव के विनोद-प्रिय पक्ष का आलम्ब समाज के स्वस्थ मनोविज्ञान का परिचायक है। जनमत के अद्भुत जीवट के सामने ‘संशयवादियों ‘ की आलोचना की तमाम तिकड़में दम तोड़ती नज़र आ रही हैं। यह दम तोड़ना भी समाज-निर्माण में उनकी प्रकार्यात्मक भूमिका का ही  हिस्सा है। इसमें कोई संशय नहीं कि आलोचनाएँ विमर्श का एक ज़रूरी हिस्सा हैं, लेकिन कब?  तब, जब वह समाधान के लिए और समाधान के साथ प्रस्तुत की जाती हों! आप सिर्फ़ खोट निकालते रहें हर बात पर, और अपनी ओर से समाधान का कोई तार्किक प्रस्ताव प्रस्तुत न करें तो आपकी आलोचनाएँ अपनी  धार खो देती हैं। ध्यातव्य है, यह समाज सूचना क्रांति का समाज है और यह पीढ़ी साइबर युग में कुलाँचे भरने वाली पीढ़ी है। इसलिए अब विमर्श का स्वरूप भी  वस्तुनिष्ठ  निकष पर समाधान की तार्किक परिणती की ओर अग्रसर है न कि, बहस मात्र के लिए दलीलें पेश करने  की बाज़ीगरी! किसी ठोस समाधान को सुझाने की जगह पर व्यवहार के धरातल से दूर केवल सिद्धांत मूलक सवालों से भरी शिकायतों की अतिशयता एक मनोवैज्ञानिक विकार की आकृति में आपको  विश्वसनीयता की परिधि से बाहर धकेल देती  हैं और आप अप्रासंगिक होने लगते हैं। 
                     २१वीं सदी की पीढ़ी का यह भारतीय समाज अब आपसे कथनी  और करनी में सामंजस्य की अपेक्षा रखता है। आप उसे बचपन से बड़े होने तक सत्य, ईमानदारी और आदर्शों की बड़ी-बड़ी पोथियाँ पढ़ाते रहें और अपनी नौकरी का नियुक्ति पत्र लेकर जब आशीष लेने आपका चरण-स्पर्श करने पहुँचे तो आपका उससे पहला सवाल  - ‘इस नौकरी में कोई ऊपरी आमदनी है कि  नहीं ‘- आपके प्रति उसके मन में बनी अबतक की छवि और चरित्र के इस दुहरेपन के ख़िलाफ़ एक गहरा क्षोभ उत्पन्न कर देता है और विरसता तथा विद्रोह के भाव से वह भर उठता है। नयी पीढ़ी का समाज ज़्यादा व्यावहारिक है और बदली स्थितियों से अपना संतुलन बैठाने में ज़्यादा  ‘प्रफ़ेशनल’ है। लॉक-डाउन में उसके व्यवहार का यह आयाम ज़्यादा सकारात्मक होकर उभरा है। इसीलिए उसकी चौपाल ‘सोशल मीडिया’ में दैनिक चर्चाओं के चरित्र ने एक नयी चटपटी चाल पकड़ ली है। जनता महामारी से लड़ने वाले अपने योद्धाओं को पूरा सहयोग और समर्थन दे रही है। दूसरी ओर सोशल मीडिया पर अपने लॉक-डाउन को कैसे स्वस्थ ढंग से व्यतीत करें, इस पर  सार्थक, मनोरंजक और  चटपटी चर्चायें  कर रही है। सोशल-डिस्टेन्सिंग का पालन करते हुए अपने घरों में सिमटे लोग मनोवैज्ञानिक स्तर पर तनिक भी हारे हुए महसूस नहीं कर रहे हैं। सोशल मीडिया की चौपाल पर समाज से वे पूरी तरह जुड़े हुए हैं। रोज़-रोज़ की दौड़-धूप और आपा-धापी  में जहाँ एक दूसरे की सुध लेने की मोहलत नहीं थी, वहाँ अब फ़ुर्सत ही फ़ुर्सत है। साथ देने के लिए फ़ोन, फ़ेसबुक, व्हाटसप , ट्विटर, ब्लॉग सब कुछ पड़ा है सामने! दुर्गति तो उलटे उनकी हो रही है जो अबतक ‘बहुत व्यस्त हैं’ का तमग़ा लटकाकर समाज से मुँह चुराते फिर रहे थे।
                    परिवार इस दुनिया की सबसे पुरातन और सनातन संस्था है जिससे व्यक्ति का जनमते ही सबसे पहला परिचय होता है। सामाजिक जीवन की सर्वोत्तम पाठशाला भी परिवार ही है। परिवार ही वह स्थल है, जहाँ व्यक्ति  मानवता और नागरिकता का पहला पाठ पढ़ता है, जहाँ उसमें  सुख-दुःख, हर्ष-विषाद जैसे समस्त भावों का बीजारोपन होता है, जहाँ वह अपने सदस्यों के साथ अपनी भावनाएँ बाँटता है, जहाँ  वह हँसना और रोना सीखता है और जो उसकी सुरक्षा का सबसे पहला और अंतिम आश्रय होता है। यहीं से वह एक नए परिवार के निर्माण की सतत संस्कृति के यज्ञ का सम्पादन करता है। इधर तेज़ी से बढ़ते व्यावसायिक माहौल  के प्रबल आघात से सामाजिक जीवन की यह सर्वोत्तम  पाठशाला चरमराती और बिखरती-सी लग रही थी। लेकिन लॉक-डाउन में आज अपने परिवार में ‘लॉक’ होकर व्यक्ति फिर से उन चिर संचित  पारिवारिक भावनाओं और मूल्यों को ‘अनलॉक’ करने लगा है। महामारी से इस संघर्ष ने परिवार की इस संस्था के सार्वभौमिक सत्य को फिर से रेखांकित कर दिया है। आज परिवार फिर से जी उठा है। परिवार और परिवार में व्यक्ति का व्यक्ति से भावनात्मक बंधन मनुष्य को मिला एक दैवीय उपहार है जो उसे सामाजिक जीवन जीने का रस देता है। इस अवधि में बीते लोक-पर्वों को जिस सादगी और गरिमा से उसने बिताया है, इससे न केवल परिवार के संस्कार  पुष्ट हुए हैं, बल्कि लोक-आस्था  भी समृद्ध हुई है और तेज़ी से अपनी मौलिकता खोते जा रहे त्योहारों ने फिर से अपना लोक रंग प्राप्त कर लिया है। परिवार के वरिष्ठ जन अपनी नयी पीढ़ी से सतत सम्पर्क में आए हैं।  इन बंद दिनों में परिवार के लोग आपस में जिस तरह से खुले हैं और उनके दिलों में  जिस प्रगाढ़ता से पारिवारिक मूल्यों का भावनात्मक रोपण हुआ है, उस आधार पर हम इसे  ‘लॉक-डाउन’ कम और ‘घरवास’ ज़्यादा कह सकते  हैं। सही मायने में यह भारतीय समाज का ‘घरवास’ है। परिवार की घर वापसी हुई है। किसी कारण से जो  प्राणी अपने परिवार से अलग भी छूट  गया है, भावनाओं के स्तर पर उसमें पारिवारिक निकटता की प्यास ज़्यादा उजागर होने लगी है। कुल मिलाकर लोग मकानों से वापस अपने घर में  लौट गए हैं। साथ हँसना, साथ रोना, साथ बर्तन माँजना, साथ झाड़ू-पोंछा देना, साथ खाना, साथ पीना और साथ जीना यहीं दिनचर्या है – इस घरवास की!...................क्रमशः………….

Sunday, 12 April 2020

कोरोना और भारत का समाजशास्त्र – ५ (Corona and the Sociology of India - 5)



(भाग – ४ से आगे)

भारतीय समाज के संबंध में कोरोना के प्रभाव के समाजशास्त्रीय पक्ष की पड़ताल के क्रम में  हमें पहले कही गयी बातों का विशेष रूप से ध्यान रखना होगा। यह तथ्य है कि किसी भी क्रिया या  प्रतिक्रिया पर प्रतिकारक की प्रकृति का भी प्रभाव पड़ता है। समाज न केवल एक सजीव प्राणी-समूह बल्कि एक निरंतर गत्यात्मक अवस्था को प्राप्त संस्था भी है जिसके उद्भव और उत्तरोत्तर विकास की यात्रा में न मात्र व्यक्ति, वरन वहाँ  के क्षेत्र विशेष, आबोहवा, फ़सलों के प्रकार और उनकी उपज, पर्यावास, पर्यावरण, पशु-पक्षी, लोकाचार, रीति-रिवाज, पारिवारिक संगठन, व्यवसाय, पढ़ाई-लिखाई, उद्योग-धंधे, राजनीतिक स्थिति, जनसंख्या-घनत्व और ऐसे तमाम कारकों का बड़ा गहरा संबंध होता है और ये सभी कारक मिलकर उस समाज का एक अपना व्यक्तित्व गढ़ते हैं जो अपने चाल और चरित्र में अन्य समाजों से अपनी अलग पहचान रखता है। हमारी साझी चेतना भी एक सौ तीस करोड़ की आबादी वाले एक ऐसे विस्तृत भूभाग की वृहत पहचान है जो सभ्यता, संस्कृति, भाषा, भूगोल, इतिहास, मौसम, जलवायु, खेती-बाड़ी, भोजन, रहन-सहन, स्वभाव, शारीरिक बनावट, नस्ल, जाति, धर्म या जो कुछ भी आप सोच सकते हों, सर्व-प्रकारेण कल्पनातीत विविधताओं की विलक्षणता से भरा हुआ है।
                                    रोटी से माटी और बानी से पानी तक बस भिन्नता ही भिन्नता! यहाँ तक कि बीमारियों तक की भी यहाँ अपनी एक ख़ास क्षेत्रीय पहचान है। अलग-अलग क्षेत्रों की अलग-अलग बीमारी, अलग-अलग महामारी! कहीं घेंघा तो कहीं कालाजार, कहीं जापानी एंसिफ़ेलाइटिस तो कहीं चमकी, कहीं प्लेग तो कहीं मलेरिया, कहीं चिकनगुनिया तो कहीं डेंगू! उस हिसाब से ऐसी महामारियों का विस्तार एक सीमित भौगोलिक क्षेत्र तक ही पसरा होता है और बाक़ी भाग उस बीमारी के असर से अछूते और अनभिज्ञ या उदासीन बने रहते हैं। ऐसी स्थिति में भी सामाजिक संवेदना का आकार सर्वत्र समरूप होता है और उस आपदा से लड़ने में सम्पूर्ण भारतीय समाज एक साथ खड़ा हो जाता है। किंतु, जब ऐसी विकट स्थिति पैदा हो जाय कि महामारी, सारे भारतीय भूभाग की बात कौन कहे, सारे संसार को अपनी चपेट में लेने चल पड़ी हो तो वह अपनी क्रूरता का  विकरालतम अट्टहास करती  होती है।
                                 आम तौर पर, भारतीय समाज आहार, आचार और विचार, इन तीनों के स्तर पर अत्यंत सरल, सहिष्णु एवं समावेशी है।  भारतीय अवाम  की एक खासीयत यह भी है कि किसी भी स्थिति की प्रतिक्रिया देने से पूर्व बड़े धैर्य से, और कभी-कभी बेतकल्लुफ़ी के अन्दाज़ में भी, वह स्थिति का बड़े संयम के साथ अंत तक उसके चाल-ढाल का अवलोकन करती है। वह हड़बड़ी में अपना आपा नहीं खोती है। इसके पीछे एक बड़ा सांस्कृतिक कारण भी है जो उसके भूगोल और इतिहास की उपज है।
                               भारत एक कृषि-प्रधान देश है। इसकी क़रीब सत्तर प्रतिशत आबादी की जड़ गावों में है और उसकी मुख्य रोज़ी-रोटी खेती-बाड़ी से चलती है। कृषि कर्म पर आश्रित रहने वाली इस मुल्क  की बहुसंख्यक आबादी का क़ुदरत से एक ख़ास रिश्ता है। रोपनी-सोहनी से पटवन तक और फ़सलों की कटाई से खलिहान तक उसकी पूरी की पूरी निर्भरता भगवान और सिर्फ़ भगवान पर होती है। कभी वह सही समय पर सही मात्रा में पानी देकर खेतों में सोना उगलवा देता है, कभी नदियों का पेट फुलाकर अतिवृष्टि के सैलाब में उसके पशुओं को भी  फ़सल के साथ बहा ले जाता है, तो कभी भयंकर सुखाड़ में, उसके हौसलों को छोड़, बाक़ी सब कुछ उखाड़ ले जाता है। कहते हैं कि भारतीय किसान पहले से ही क़र्ज़ लेकर जनमता है और क़ुदरत के साथ ज़िंदगी भर हार-जीत का जुआ खेलते-खेलते क़र्ज़ में ही मर जाता है। इसलिए क़ुदरत की बेरहमी का वह आदि हो गया रहता है। अब भला जो अपनी पूरी ज़िंदगी अपनी माटी के लिए क़ुदरत से जुआ  खेलते-खेलते खेत हो जाता हो, उसका तन भले उजड़ जाए लेकिन उसका मन अपनी माटी  से कभी नहीं उजड़ता! माटी और माता का असली  प्रेम वहीं गढ़ता और जीता है। किसी कवि ने तभी तो कहा है कि:
“विषुवत रेखा का वह वासी,
जो नित जीता हाँफ-हाँफ कर।
कर देता वह हँसते-हँसते,
मातृभूमि पर प्राण नेछावर!”
                                   जीने के लिए पेट भरने वह कहीं बाहर भले निकल जाए लेकिन मन उसका तभी भरेगा जब अपनी माटी में मरेगा! उसके लिए भारतेंदु हरिशचंद  की ये बातें सिर्फ़ मरघटी महत्व की हैं कि :-
“मरनो भलो बिदेस में
जहाँ न अपनो कोय।
माटी खाए जानवरां,
महा महोच्छव होय!”
                                       इसलिए चाहे जिए वह दुनिया के किसी भी कोने में, मरेगा अपनी जन्मदात्री भू-माता की गोद में ही! अंत समय  में फूस की झोपड़ी में उसका आसरा देखने वाले बूढ़े माँ-बाप, भाई-बहन, नाते-रिश्ते और गाँव के गोतियारी के घर-आँगन को वह यूँ ही अकेला नहीं छोड़ सकता! यह सब उसकी संस्कृति के शोणित बन उसकी रगों में प्रवाहित हो रहे हैं। वह सिर्फ़ अपने लिए जीने वाला एक जैविक सत्ता मात्र नहीं है। अच्छे  समय में भले इन्हें वह विस्मृत कर दे लेकिन क़यामत के दिनों में उनकी अर्थी को कंधा देने के लिए स्वयं अर्थी पर चढ़ जाएगा वह!
                                     अब मुझे हाल में मज़दूरों की बड़ी मात्रा में अपने गाँव की ओर महाप्रयाण करने के सामाजिक मनोविज्ञान को और ज़्यादा विस्तार देने की ज़रूरत  नहीं। साहित्यकार शिवदयाल जी के शब्दों में “अभी तक ‘असभ्य’ भारतीयों ने सबसे अधिक सभ्यता प्रदर्शित की है”।  हम इसमें थोड़ा संशोधन सुझाएँगे, “अभी तक ‘असभ्य’ भारतीयों ने सबसे अधिक संस्कृति  प्रदर्शित की  है”। उधर अमेरिका में कई वर्षों से रह  रहे रॉबर्ट पैकर अस्पताल पेंसिलवानिया के  प्रसिद्ध चिकित्सक डॉक्टर रामचरित्र शर्मा जी का भी यही कहना है, “सामाजिक असंतुलन के बावजूद भारतीय समाज का सबसे संतुलित व्यवहार रहा”।  और, ऐसे भी जिनका ग्रामीण जीवन से गहरा सरोकार है, उनके लिए ऐसी घटनाएँ पूरी तरह से स्वाभाविक  और वांछित है। जो इस घटना को ‘प्रवासी मज़दूरों का माइग्रेशन” मात्र समझते हैं, उन्हें न केवल भारतीय समाज बल्कि भारतीय संस्कृति के गहन अध्ययन की आवश्यकता है। फ़िलहाल उन्हें अभी इतना ही सोच कर संतोष कर लेना चाहिए कि भारतीय जनता पहले एक सामजिक जीव है, फिर एक आर्थिक शरीर!
                                          समस्या का साहसपूर्ण सामना करने में, विशेष रूप से प्राकृतिक आपदाओं का, बाढ़ से सुखाड़ तक और चमकी से सुनामी तक, भारतीय समाज बहुत अनुभवी और सहिष्णु है। ये आपदाएँ जान-माल की बर्बादी तो करती  ही हैं, सबसे ज़्यादा इनका असर हौसलों पर होता है जिसे भारतीय समाज ने बहुत हद तक बचा रखा है। सदियों के अनुभव ने इस मामले में उसे अब काफ़ी ‘प्रफ़ेशनल’ बना दिया है। इन बातों का उल्लेख करना यहाँ अत्यंत आवश्यक इसलिए भी है कि यह समाज की आंतरिक शक्ति ही होती है जिसका सीधा सामना ‘महामारी के मनोविज्ञान’ से होता है। और, उससे भी ज़्यादा ज़रूरी यह बताना कि  यह शक्ति अचानक नहीं आती, बल्कि भारतीय समाज ने सदियों की अपनी ज़िंदगी में जीकर इन्हें सहेजा और संजोया है। महामारी का यह मनोविज्ञान भी दोमुँहा होता है – एक ‘महामारी के ख़ौफ़’ का मनोविज्ञान  और दूसरा ‘ख़ौफ़ के मनोविज्ञान’ की महामारी! 
                                          सौभाग्य से, भारतीय समाज के जीवट ने इस मनोविज्ञान को अपने पर हावी नहीं होने दिया है। इस मेहनत कश जनता का सामना मौसम के हर रंगों से होता है। हड्डियों को कँपाने वाली शीत लहरी से लेकर चिलचिलाती धूप में गरम हवा के झोंकों में वह ख़ून-पसीना एक कर अपनी आजीविका का निर्वाह करती  है। समस्त रोगों के ज़हरीले से ज़हरीले विषाणुओं को अपने बहते पसीने में घुला लेने की विलक्षण रोग प्रतिरोधक क्षमता उसने हासिल कर ली है। विषाणुओं से उसकी यह जंग उसके जन्म के कुछ ही दिनों बाद शुरू हो जाती है, जब उसकी माँ उसे खेतों की मेड़  पर लिटाकर पानी से भरे लबालब खेत में धान की रोपनी करने उतर जाती है। बाहर महानगरों में मज़ूरी करने वाली यह जमात किराए के छोटे-छोटे कमरों में झुंड में खाते-पीते, सोते-जागते सुख-दुःख में एक दूसरे के आँसू पोंछते साथ-साथ रहती  है।  सामुदायिक जीवन की एक झलक देखनी हो, तो आप इनके साथ इनकी झुग्गियों या चाल में एक-दो दिन बिता कर देख लें। और, संयोग से, इस बात के पुख़्ता वैज्ञानिक प्रमाण भी हैं कि अपनी इस सामुदायिक जीवन-प्रणाली की बदौलत इन्होंने न केवल व्यक्तिगत स्तर पर बल्कि सामुदायिक रोग प्रतिरोधक क्षमता भी क़ुदरत से हासिल कर ली है। वैज्ञानिक जगत में इस क्षमता को ‘’हर्ड- इम्यूनिटी’ (herd-immunity) कहते हैं। आँकड़े गवाह हैं कि महामारियों ने यूरोपीय देशों की तुलना में भारतीय उपमहाद्वीप में मौत के मामले में  थोड़ा कम क़हर बरपाया है। यह परिणाम निस्सन्देह यहाँ के सामाजिक  जीवन की ही देन ज़्यादा प्रतीत होते हैं। 
                                             अब एक मामले के उदाहरण (केस-स्टडी) के तौर पर  बिहार के एक  गाँव के मूल निवासी  से अपनी बात-चीत  का उदाहरण मैं आपके समक्ष प्रस्तुत करता हूँ। वह  दिल्ली में तिपहिया वाहन चलाकर अपना गुज़र-बसर करता है और गाँव पर उसकी छोटी खेती-बाड़ी  का कार्य  परिवार के अन्य सदस्य देखते हैं। खेती-बाड़ी  के ‘सीज़न’ में वह गाँव जाकर कृषि-कार्य  भी सम्पादित कर लेता है। दिल्ली में एक छोटे-से  कमरे में वह चार लोग साथ-साथ  रहते है। इसी तरह से अपना गुज़र-बसर चलाने वालों की संख्या केवल दिल्ली में लाख से ज़्यादा  होगी।  ग़ौरतलब है क़ि  दिल्ली में ढाई लाख के आसपास सरकार द्वारा पंजीकृत तिपहिया वाहन हैं। इसका अन्दाजा इससे लगा सकते हैं कि  जब रेल-बस सारे साधन बंद हो गए और लॉक डाउन (लोकबंदी) के बाद दो तीन दिन रहकर इनके साथियों  को यह यक़ीन होने लगा कि  अभी यह स्थिति बहुत लम्बी खिंचेगी तो क़रीब बीस हज़ार की संख्या में लोग अपनी तिपहिया ऑटो  में अपने पाँच और साथियों को बिठाकर  सड़क मार्ग से अपने गाँव की ओर रवाना हो गए। बिहार के भिन्न-भिन्न शहरों में उनके गंतव्य की दिल्ली से दूरी के आधार पर यात्रा में उनका खरचा आया -  ढाई से तीन हज़ार रुपए!  यह एक साधारण सी बानगी है -  भारत के सामुदायिक जीवन की!  सौभाग्य से, आज के दिन तक उनमें से किसी के भी  संक्रमित होने की कोई ख़बर नहीं मिली है। हाँ, संक्रमण की एक-दो ख़बरें जो  आयी हैं वे वहीं लोग हैं  जिनका सम्बंध बाहर के मध्य-पूर्व और अरब देशों से या फिर एक समूह-विशेष में फैले संक्रमण से है।
                                                  अपने गाँव को लौट गए वे सारे मज़दूर और किसान  जहाँ एक ओर सुकून और चैन  की साँस ले रहे हैं, वहीं दूसरी ओर अपने प्रवास में ही फँस गए मज़दूरों को  अपने गाँव से वियोग  की तड़प सता रही है। कारण भोजन, वस्त्र या आवास या अन्य कोई आर्थिक नहीं, बल्कि उनके जीवन का सामाजिक संस्कार है जो इस विकट घड़ी में अपनों से दूर रहने पर उन्हें   बरबस  कचोटता और टीसता है। इसका एक बड़ा सामाजिक प्रभाव अभी भविष्य  के गर्भ  में है कि कोरोना की काली घटा के छँटने के उपरांत कितने मज़दूरों की अपने काम पर पुनर्वापसी होगी और कितने फँसे मज़दूर उन्मुक्त पंछी की तरह अपने घोंसलों की ओर भागेंगे। इनके लौटने से एक सकारात्मक प्रभाव तो इनके अपने गाँव में हुआ ही है कि यह गेहूँ की कटनी का समय है  और यह काम इनके कारण ही अब बख़ूबी सम्पादित हो जाएगा। लेकिन इसके ठीक उलट, वे प्रदेश जहाँ से ये  निकल चुके हैं अपनी फ़सलो की कटाई के कठिन दिनों से गुज़र रहे होंगे। ……………… क्रमशः ………………………………..

Saturday, 11 April 2020

कोरोना और भारत का समाजशास्त्र – ४ (Corona and the Sociology of India - 4 )


(भाग- ३ से आगे)
जबतक बीमारी की सही प्रकृति, उसके स्त्रोत, सम्बंधित जीवाणु की संरचना, उसके उत्पन्न होने और उसके बढ़ाने में सहयोगी कारण और उसकी समाप्ति और रोकथाम के समुचित उपायों का सम्पूर्ण वैज्ञानिक ढंग से पता नहीं चलता तबतक महामारी के साथ-साथ युक्तियों की महामारी, अफ़वाहों की महामारी और ढेर सारे प्रयोगों और नुस्ख़ों की महामारी भी अपनी  जड़ फैलाने लगती है। इन सबके पीछे वह भय और आतंक  होता है जिसका जन्म मनुष्य की जिजीविषा के  गर्भ से  होता है। और, सही मायने में कहा जाय तो ऐसी तात्कालिक युक्तियों या नुस्ख़ों के पीछे जो ताक़तें क्रियाशील रहती हैं, वह भी उसी समाज की चिंतन-प्रणाली से निकलती हैं।  भलें ही, वह निरा अटकलबाज़ी हो लेकिन उनका उद्देश्य असामाजिक नहीं होता। बल्कि, उसके मूल में उस बीमारी से छुटकारे की और लोगों को ठीक करने की भावना ही होती हैं। इसमें कुछ अवांछित तत्व भी अपनी दुकान चमकाने सामने आ जाते हैं। किंतु, ऐसे में समाज उनके पुख़्ता प्रमाण से परे होने के बावजूद  उसका प्रबल विरोध दो कारणों से नहीं कर पाता है। पहला कारण तो यह है कि कोई अन्य वैज्ञानिक विकल्प समाज के पास नहीं आया होता है और दूसरा,  कुछ हद तक उसी समाज में स्थापित पुरानी मान्यताओं के अनुसार उनके उपयोगी होने की धारणा का पहले से  प्रचलित होना होता है।
समाज द्वारा उसको नहीं रोके जाने का एक तीसरा कारण यह भी हो सकता है कि उस नुस्ख़े का औषधीय स्तर पर  सकारात्मक असर न भी हो तो कम-से-कम नकारात्मक स्तर तो  नहीं ही  होता है। उलटे, समाज की पहले से स्थापित मान्यताओं के आलोक में रोगी  पर एक सकारात्मक मनोवैज्ञानिक असर ज़रूर हो  जाता है। समाज का ‘कलेक्टिव कोंसेंस’ किसी भी व्यवस्था या युक्ति को तभी तक आत्मसात करता है जबतक वह सामाजिक व्यवस्था को बल प्रदान करे या उसमें कोई व्यवधान न डाले। इसलिए जैसे ही कोई मानक वैज्ञानिक दवाई का इजाद हो जाता है, समाज शीघ्र उन ‘नीम-हकीम’ नुस्ख़ों को तिलांजलि दे देता है। या कभी-कभी, ऐसे नुस्ख़े जब उलटे असर कर जाते हैं तो वे स्वयं नकार दिए जाते हैं। विविधताओं से पूर्ण समाज में जहाँ ढेर सारी चिकित्सा की प्रणाली यथा – यूनानी, आयुर्वेदिक, होमियोपैथी, एलोपैथी, प्राकृतिक, योग आदि की पद्धतियाँ प्रचलन में हैं, वहाँ जबतक किसी भी पद्धति ने पूरे प्रायोगिक और प्रामाणिक तौर पर किसी अचूक वैज्ञानिक औषधि का  आविष्कार नहीं किया हो, तो अनिश्चय की स्थिति में समाज को  युक्तियों की इस महामारी की चपेट से निकलना कठिन हो जाता है। परम्पराओं से समृद्ध देश भारत में तो ऐसी सम्भावनाएँ और प्रबल हो जाती है जहाँ कोई गो-मूत्र, तो कोई लहशन, तो कोई चाय-कौफ़ी, तो कोई दूध-हल्दी, तो कोई जड़ी-बूटी  जैसे अगणित नुस्ख़ों  को आज़माने बैठ जाता है। इस स्थिति का समर्थन या विरोध दोनों का कोई ठोस कारण नहीं रहता, क्योंकि अन्य कोई मान्य विकल्प नहीं! महामारी के इस मनोविज्ञान से सत्ता और शासन भी प्रवाहित होते हैं और वैज्ञानिक रीतियों से मान्य उचित विधि से उस बीमारी के लिए इजाद की गयी दवाओं के अभाव में इन स्थानीय नुस्ख़ों पर कोई प्रतिबंध लगाने में सामाजिक जनमत के समक्ष वह स्वयं को लाचार पाते हैं। कुल मिलाकर समाज द्वारा इन ‘इमपिरिकल युक्तियों’ पर चुप्पी साधने के मूल में इनके प्रायोजकों और  प्रयोक्ताओं की भावना  में किसी खोट का न होना और उनका उद्देश्य मरीज़ को ठीक करना होता है। भारत में तकरीबन हर बीमारी में ऐसे देशी नुस्ख़ों की बहुतायत है। ऐसी स्थितियों में समाज बौद्धिक स्तर पर अत्यंत प्रयोगधर्मी अवस्था में होता है और ‘संशयवादियों’ के लिए तो अपने वजूद का अहसास दिलाने का यह अत्यंत सुनहला अवसर होता है। हालाँकि, उनकी भूमिका का उद्देश्य भी अत्यंत सकारात्मक ही होता है।
इस स्थिति में समाज में एक सकारात्मक पक्ष बड़ी तेज़ी से उभरता है - बीमारी से लड़ने के लिए हर स्तर पर अनुसंधान, शोध, अन्वेषण और नवाचार तथा नये प्रयोगों की दिशा में तेज़ी। समाज में  वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, रसायन-शास्त्री,  और तकनीशियन जैसे शिक्षित विशेषज्ञ वर्ग अपने क्षेत्र में नेतृत्व की कमान सम्भाल लेते हैं और आम तौर पर रोड़े अटकाने वाला लालफ़ीताशाह वर्ग सहयोगी की भूमिका में आ जाता है। समाज के दबाव के आगे रोड़े  अटकाने वाले जो नौकरशाही के नुस्ख़े होते हैं, बेअसर हो जाते हैं। बीमारी से लड़ने के लिये  तमाम उपकरणों के उत्पादन में तेज़ी आ जाती है। अधिक से अधिक मरीज़ों को देखने की सुविधा का निर्माण युद्ध-स्तर पर हो जाता है। स्वास्थ्य की आधारभूत संरचनाओं को सुदृढ़ करने में सरकारें जुट जाती है और उसके लिए आपात-व्यवस्था के तहत धन जुटाया जाता है। सरकारें अपनी योजनाओं और नीतियों का पुनरावलोकन कर ढेर सारे तात्कालिक हित  में परिवर्तन  लाती है। राजनीतिक शक्ति का नियंत्रण मज़बूत हो जाता है। केंद्रीय सत्ता मज़बूत हो जाती है। आर्थिक नीतियों पर सामाजिक अपरिहार्यताओं का प्रभुत्व हो जाता है। कल्याणकारी योजनाओं में तेज़ी आ जाती है। नियमों में ढील दे दी जाती है और इसी बहाने स्वास्थ्य क्षेत्र में आशातीत उपलब्धियाँ जुटा ली जाती हैं।
इस तरह की गतिविधियाँ बड़े पैमाने पर इस बार देखने को मिल रही हैं। बहुत अधिक मात्रा में नवाचार विधि से अत्याधुनिक और कम दाम वाले वेंटिलेटर का डिज़ाइन आइआइटी रूड़की और एम्स ने मिलकर न केवल तैयार कर लिया बल्कि सरकार ने उनका शीघ्र उत्पादन भी शुरू करा दिया। इसी तरह मास्क, डॉक्टर और अन्य स्वस्थ्य-कर्मियों के लिए आत्म-प्रतिरक्षा वस्त्र (PPE), सेनिटाइज़ेशन लिक्विड आदि का उत्पादन भी तेज़ी से होने लगा। गली, मुहल्लों और घरों का सेनिटाइज़ेशन किया जाने लगा। डीआरडीओ ने सस्ते मास्क और आइआइटी बीएचयू वाराणसी ने सस्ते फ़्यूमिगेशन चैम्बर के डिज़ाइन तैयार कर लिए। इस तरह के ढेर सारे उपकरण युद्ध स्तर पर अनेक संस्थानों ने तैयार कर लिए जो इस महामारी के आवरण में लिपटे वरदान-से साबित हुए। इस क्षेत्र में बरसों से नौकरशाही के जाल में उलझी योजनाओं को द्रुत गति से सुलझाकर उन्हें मंज़ूरी दे दी गयी। लोगों को  हाथ की, साबुन से, सफ़ाई के लिए बाध्य किया जाने लगा। अस्पतालों को चाक-चौबंद कर दिया गया। रेल के डिब्बों तक में आइसीयू बना दिए गए। बड़े-बड़े मैदानों को  अस्थायी अस्पतालों में बदल दिया गया। बड़े-बड़े व्यापारिक घरानों, स्वयंसेवी संगठनों, औद्योगिक संस्थानों और सरकारी विभागों ने अपने पारम्परिक कार्य को छोड़कर अपने सारे संसाधन कोरोना से लड़ने में झोंक दिए। नागरिकों ने अत्यंत समर्पण भाव से इस परिवर्तन को अंगीकार कर लिया।
                          अतः समाजशास्त्र की यह प्रवृति स्पष्ट हो गयी कि चाहे कितना भी खंडित और अव्यवस्थित समाज क्यों न हो, जब किसी बाहरी विपत्ति या आक्रमण  से लड़ने में उसके अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाए तो अंदर की  सारी विसंगतियाँ भूलकर समाज की ‘साझी-चेतना’ जागृत होकर पूरे समाज को एक सूत्र में बाँध देती है। समाज के सभी  वर्ग अपने भेद-भाव भुलाकर और आपसी गिले-शिकवे विस्मृत कर पारस्परिक सहयोग की भावना से एक जुट हो जाते हैं।  एक-सूत्रता  के इस यज्ञ में समाज के जो घटक अपनी नकारात्मक प्रवृति को सामने लाते हैं, उनका भंडा फोड़ हो जाता है और समाजिकता की दौड़ में वे न केवल पीछे  छूट  जाते हैं, बल्कि वे बीमार हो जाते हैं और उन्हें शेष समाज की रौ में बहने में लम्बा वक़्त लग जाता है।
                       कभी-कभी उनकी नकारात्मकता प्रकार्यात्मक( functional) भी साबित हो जाती है। 'प्रकार्यात्मक' का मतलब उन सामाजिक कार्यों से है जो समाज की स्थापना के उद्देश्य और आकांक्षाओं की पूर्ति कर समाज की संरचना को मज़बूती और  व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करते हैं। समाज की संरचना और व्यवस्था को कमज़ोर करने वाले तत्व अप्रकार्यात्मक (dys-functional) माने जाते हैं। किंतु कभी-कभी घोर अनैतिक अप्रकार्यात्मक घटना घटने या ऐसे पाप कर्म करने से समाज के  ‘कलेक्टिव-कोंसेंस’ को इतना बड़ा झटका लगता है कि सम्पूर्ण सामाजिक संरचना अंदर से हिल जाती है और उस घटित कार्य के प्रति घृणा और नफ़रत की इतनी उग्र प्रतिक्रिया समाज में होती है कि समाज की ‘साझी-चेतना’ के प्रबल कोप के आगे भविष्य में ऐसे असामाजिक तत्वों को ऐसे घृणित कार्य करने की हिम्मत नहीं होती और उनके समर्थन में आने वाले ‘संशयवादी’ तत्व भी शर्म से सिर नहीं उठा पाते। भविष्य के लिए ऐसे कुकर्म ‘असामाजिक’ घोषित और रेखांकित हो जाते हैं और इसकी पुनरावृति नहीं होती। इससे सामाजिक  संरचना मज़बूत होती है और समाज की व्यवस्था को स्थायित्व और बल मिलता है। इसीलिए समाजशास्त्रियों ने ऐसे असामाजिक तत्वों को भी यदा-कदा ‘आवश्यक शैतान’ के रूप में ‘फ़ंक्शनल’ तत्व ही माना है।   
                          एक अन्य महामारी होती है ‘संदेह के मनोविज्ञान’ की बीमारी। हर व्यक्ति दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखता है कि कहीं वह संक्रमित तो नहीं और उसमें कहीं फैला न दे! यदि किसी वर्ग विशेष में इस संक्रमण के होने की भावना प्रबल हो जाती है तो वह वर्ग समाज में अछूत-सा हो जाता है और सभी उससे कन्नी काटने लगते हैं। यहाँ तक कि एक सुसंस्कृत  समाज का कोई व्यक्ति संक्रमित होता है तो वह स्वयं अपने को दूर रखता है। ऐसे ढेर सारे चिकित्सकों के दृष्टांत मिले हैं जो संक्रमित मरीज़ों के इलाज के समय एक ख़ास अवधि तक स्वयं को अपने परिवार के सदस्यों से भी दूर रखते हैं। यह एक शिक्षित समाज का चिन्ह है। अभी हाल में अपने गाँव लौटे लाखों की संख्या में बिहार के प्रवासी मज़दूर अपने गाँव की सीमा में प्रवेश से पूर्व पहले अपना मेडिकल जाँच करा कर संतोष जनक पाए जाने पर ही गाँव में प्रवेश कर पाए। यह साबित करता है कि  समाज की ‘साझी-चेतना’ एक अत्यंत प्रबल तत्व है जो समाज की व्यवस्था को संचालित करता है।....................................................................क्रमश:

Friday, 10 April 2020

कोरोना और भारत का समाजशास्त्र -३ (Corona and the Sociology of India - 3)


(भाग - २  से  आगे)
मेरा यह मानना है कि इस प्रकृति का प्रत्येक घटक अपने व्यवहार में अपने  उस सम्पूर्ण के व्यवहार से अलग नहीं होता जिसका वह अंश होता है। यह एक ऐसा सार्वभौमिक तथ्य है जो भौतिक से लेकर परा-भौतिक, सभी क्षेत्रों में समान रूप से लागू होता है -  “‘आत्मा- परमात्मा’, ‘परमाणु – अणु - पदार्थ’, ‘कोशिका – उत्तक – अंग – शरीर’।“ कोशिका से उत्तक, उत्तक से अंग और अंगों से शरीर का निर्माण होता है। अतः शरीर की इकाई कोशिका होती है और हम किसी भी शरीर के वांछित पक्षों की  जानकारी उसकी कोशिका के अध्ययन से कर सकते हैं। आप शरीर को उसकी कोशिका से अलग कर के नहीं देख सकते। ठीक वैसे ही शरीर के व्यवहार को उसके  अंगों  से पृथक कर के नहीं देख सकते। उसी तरह समाज का भी निर्माण उसकी मूलभूत इकाई व्यक्ति से होता है और दोनों का  आपसी व्यवहार भी शरीर और उसके अंग की तरह एक सजीव विधा में ही होता है। मनुष्य स्वभाव से सामाजिक प्राणी है और समाज भी सजीव व्यक्तियों से बना  एक सजीव प्राणी-समूह ही है जिसका एक सामूहिक व्यक्तित्व भी होता है जो उन समस्त व्यक्तित्वों का समाहार है जो इसके घटक हैं।
समाज  में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति की एक व्यक्तिगत  ज़िम्मेदारी होती है जो वह समाज की संरचना को बनाए रखने के लिए अदा करता है। इसके पीछे सामाजिक व्यवस्था की चिरंजीविता की चेतना है जिसमें व्यक्ति के भी अस्तित्व के बने रहने के बीज पनपते हैं। यह एक दूसरे पर निर्भर रहने की भावना समाज के प्रत्येक व्यक्ति में अन्य व्यक्तियों से जुड़ने का स्वभाव निर्मित करती है और यहीं से एक-दूसरे के साथ रहने की साझी भावना का प्रादुर्भाव होता है।  समाज की व्यवस्था के क़ायम रहने और उसके कुशल संचालन का यही मूल है। इसी साझी भावना को हम ‘कलेक्टिव कोंसेंस’ या ‘सामूहिक चेतना’ कहते हैं। यह समाज के अंदर साझी मान्यताओं और नैतिक वृत्तियों के साथ व्यक्ति की एकरूपता और अनुकूलता  बनाये रखने और उन साझे मूल्यों का  व्यक्ति में उनके  अनुपालन की स्वाभाविक बाध्यता स्थापित  करने का मूल कारक है। समाज में किसी भी अनुकूल या प्रतिकूल स्थिति  आने पर समाज की जो प्रतिक्रिया उसके सदस्य व्यक्तियों द्वारा होती है, उस प्रतिक्रिया का संचालन  उसी सामूहिक  चेतना द्वारा होता है। किसी बाहरी आक्रमण, विपत्ति, महामारी या अप्रत्याशित प्राकृतिक विभीषिका में समाज का यहीं ‘कलेक्टिव कोंसेंस’ होता है जो उसका सामना करने की ‘साझी चेतना’ उत्पन्न करता है या फिर  समाधान का साझा प्रयास प्रस्तुत करता है। किसी एक युक्ति पर समूचा समाज एक साथ क़दम से क़दम  मिलाकर चल पड़ता है। यहीं समाज का मनोविज्ञान है। एक साथ खड़े होकर अपनी रक्षा के लिए शासन से गुहार लगाना या ईश्वर  से प्रार्थना करना या फिर  अपने बचाव में उठाए गए किसी भी क़दम के समर्थन में पूरी तरह समर्पित हो जाना -  इसी ‘कलेक्टिव कोंसेंस’ या ‘साझी चेतना’ की उपज है। ये ‘कलेक्टिव कोंसेंस’ ही समय, स्थान और परिस्थिति के मुताबिक़ व्यक्ति के आचरण किए जाने वाले उन 'तत्वों' को आवश्यक और वांछित घोषित करते हैं जिनका निर्वाह किया जाना  समाज में व्यवस्था क़ायम रखने के लिए अपरिहार्य है।  ये 'तत्व' उस समाज के 'आदर्श' या 'नॉर्म' के रूप में स्थापित होते हैं।  इन ‘सामाजिक आदर्शों’ या ‘सोशल नॉर्म’ के द्वारा ही समाज व्यक्ति को एक सामाजिक प्राणी होने हेतु   वांछित  व्यवहार करने की न केवल दिशा का निर्देश करता है बल्कि, उन आदर्शों के आलोक में  वह व्यक्ति की विचार प्रणाली को भी विकसित करता है। लम्बे समय तक इन आदर्शों की राह पर चलता समाज जिन मूल्यों को सीखता और सहेजता  है, वे समस्त मूल्य उसके विचार-दर्शन की अमूल्य धरोहर बन उस समाज के आचरण के अमिट  मौलिक तत्व बन जाते हैं जिसे उस समाज की ‘संस्कृति’ कहते हैं। यह समाज के व्यक्तित्व का आंतरिक आध्यात्म है और मौलिक संस्कार है। प्रतिकूल परिस्थिति में समाज और उसके व्यक्तियों के आचरण में उसकी संस्कृति की यह छाप स्पष्ट दिखायी देती है। एक ओर अपनी जान पर खेलकर दूसरे को बचा लेने  की संस्कृति वाले समाज का व्यक्ति उदाहरण स्थापित कर चला जाता है, तो दूसरी ओर ऐसे दूषित संस्कृति वाले समाज की उपज भी देखने को मिलती  हैं जो अपनी जान बचाने वाले की ही जान लेने पर उतारू हो जाती है।
सामाजिक आदर्शों की टूटन सामाजिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर देती है,  क्योंकि तब संस्कृति नष्ट हो जाती है। 'सभ्यता' और 'संस्कृति' में मूल अंतर यहीं है कि सभ्यता हमारे आचार-व्यवहार की 'बाह्य-अभिव्यक्ति' है जबकि संस्कृति वैचारिक स्तर पर अनंत काल से सीखकर  हमारे अंदर में  संजोये मानवीय आदर्श और भावनात्मक मूल्यों की अनमोल थाती ! संस्कृति 'आंतरिक-अनुभूति' है और सभ्यता 'बाह्य-अभिव्यक्ति' !  संस्कृति हमारा ‘एसेन्स’ है और सभ्यता उसका  ‘अपियरेंस’!  इन आदर्शों के टूटने का अर्थ है कि 'कलेक्टिव कोंसेंस' का कमज़ोर हो जाना। ऐसा तब होता है जब समाज में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाय कि  व्यक्ति उस जमात  द्वारा निर्मित नियमों, उसूलों और आदर्शों की राह पर चलने में अपने को असुरक्षित महसूस करने लगे। उसे अपने जीवन रक्षक से विश्वास उठने लगे। पहले से बने तमाम आदर्श खोखले होकर ढहने लगे और व्यक्ति में अपने समाज के विरुद्ध  विरसता, घुटन, शर्म और अलगाव का भाव उत्पन्न होने लगे। ऐसी स्थिति में निराशा, उद्देश्यहीनता और जीवन से पलायन के भाव का उदय होने लगता है और व्यक्ति आपराधिक कुकृत्यों से आत्महत्या करने तक उतारू हो जाता है।
प्रत्येक समाज अपनी संस्कृति और सभ्यता के आलोक में अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग ढंग से आचरण करता है। आज के युग में जब सूचना क्रांति ने इस भू मंडल को एक भू-ग्राम में तब्दील कर दिया है तो सभ्यता  का रंग भी स्थानीय से बदलकर अब ‘वैश्विक’ हो गया है।  अतः अभिव्यक्ति के बाहरी स्वरूप में समरूपता आती जा रही है। फिर भी कौन समाज कितना सहिष्णु, कितना संवेदनशील, पारस्परिक सहानुभूति से कितना पूर्ण, मानवीय भावनाओं से कितना परिचालित और करुणा-भाव से दूसरों के प्रति कितनी शुचिता का आचरण करता है – इसका निर्धारण उसकी संस्कृति के तत्व ही करते हैं। यह एक अत्यंत सूक्ष्म विषय है और महामारी या आपदा-काल में ही समाज अपने इन तमाम तत्वों के वजूद की अग्नि-परीक्षा से गुज़रता है।
महामारी अपने साथ संक्रमण का रोग लेकर आती है – अर्थात छूत का रोग। अर्थात एक रोगी के छूने से दूसरे को भी रोग हो जाय।  सभ्यता को छूत की रोग बड़ी आसानी से लग जाती  है, किंतु सामान्य तौर  पर संस्कृति इससे अछूती ही रहती है। दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि न केवल यह महामारी  अप्रत्याशित रूप से आती है, प्रत्युत इसकी प्रकृति भी अज्ञात होती है। यह अपने जैविक स्वरूप में अभूतपूर्व होती है। अपने प्रारम्भिक रूप में इसका आक्रमण  अचानक होता है और चिकित्सीय-नुस्ख़े की बात तो दूर,  अपने कारणों की भी कोई थाह नहीं देती। ‘एक बीमारी ने दस्तक दे दी  है’  इसकी आहट  मिलते-मिलते कई जानें काल का ग्रास बन चुकी होती हैं और तबतक महामारी स्वयं में आम जन के दिलो-दिमाग़ में एक ‘महामारी-मनोविज्ञान ‘ के रूप में घर कर चुकी होती है।
इस महामारी-मनोविज्ञान के सामाजिक व्यवस्था पर  फ़ौरी और दूरगामी दोनों तरह के प्रभाव होते हैं। अनिश्चितता, भय, आतंक, और अफ़वाहों का माहौल गरमाने लगता है। एक तीव्र भावनात्मक ज्वार का उदय होता है। समाज की 'साझी चेतना' यानी ‘कलेक्टिव कोंसेंस’ संशय और किमकर्तव्यविमुढ़ता की स्थिति में आ जाती  है। अवसाद तथा आपाधापी  में भय और आतंक का माहौल इतना गहराने लगता है कि पीड़ित व्यक्ति अपने को समाज में अत्यंत हीन  समझने लगता है और कभी-कभी स्थिति तो यहाँ तक आ जाती है  कि  बीमारी का लगना एक सामाजिक लांछन या कलंक का पर्याय बन जाता है।
 बीमारी अप्रत्याशित! प्राण घातक! संशय की स्थिति! कोई दवाई नहीं! इसके स्त्रोत का कोई अता-पता नहीं! तरह-तरह की भ्रांतियाँ! अफ़वाह! न रुकने वाले संक्रमण और मौत का सिलसिला! ऊपर से रोटी सेंकनेवाले असामाजिक तत्व! कुल मिलाकर एक ऐसी स्थिति बनने लगती है कि महामारी का यह मनोविज्ञान  स्वयं  धीरे-धीरे एक ‘अभिशप्त-मनोविज्ञान’ की महामारी बन जाता है और यह 'अभिशप्त-मनोविज्ञान' भी  स्वयं एक महामारी की तरह ही  फैलने लगता है, जो महामारी से कम घातक नहीं। अक्सर महामारी के चले जाने के बाद भी दीर्घकाल तक यह मनोविज्ञान समाज में  घर बनाए रहता है। …………………………………… क्रमश:................

Monday, 6 April 2020

दुकान से दूर। साहित्यकार!

आज सुबह-सुबह,
कुत्ते ने दौड़ा दिया मुझे।
मास्क नहीं लगाया था मैं !

कुछ अंधे भी नाराज हो गए।
एक दीप जला दिया था,
कल अंधेरे में!

बहरों ने भी
कोसा मुझे,
मन भर।

फोड़ दिए थे पटाखे,
तोड़ने को,
जीवन का मृत सन्नाटा!

श्वेत शुभ्रांगी का भी,
झेलना पड़ा।
चेहरा, लाल भुक्क!

उन्हें आईना जो दिखा दिया था!

उधर लाला ने सलाह दी
साहित्यकार को।
दुकान से दूर रहने की।

खिसिया के लिख दी है
मुआ ने।
कविता!

Sunday, 5 April 2020

कोरोना और भारत का समाजशास्त्र - २ (Corona and the Sociology of India - 2)



(भाग - १ से आगे)
                                             

‘एंटी-थीसिस’ में रूपांतरण की इस प्रक्रिया ने इन तर्कवादियों को ‘संशयवादी’ में परिवर्तित कर दिया। अब ये अपना मतलब साधने के लिए विषय को तथ्यों की कसौटी पर कसने के बजाय अपने विरोधियों के प्रति नकारात्मकता और संशय का वातावरण पैदा करने लगे। भिन्न-भिन्न विचारधाराओं के झंडे तले खड़े ये कुतर्की ‘संशयवादी’ समाज को अपनी सहूलियत  के अनुसार एकपक्षीय  जानकारी देकर बरगलाने लगे।  धर्म को अफ़ीम कहने वाले कुछ घड़े  अब स्वयं समाजवाद की चाशनी लपेटकर मज़हब का मवाद परोसने लगे। तो दूसरी ओर कुछ घड़े छोटी से छोटी घटना को भी मज़हबी ऐनक में देखने लगे। समाज का अबतक इन मामलों में उदास रहने वाले निष्पक्ष तबके में भी इनकी संशयवादिता ने ऊब, कुढ़न और विद्रोह के भाव भरने शुरू कर दिए।  इनके पूर्वाग्रही चरित्र ने प्रतिक्रियात्मक क़ट्टरवादिता का बीज बोना शुरू कर दिया। वह यह भूल गए कि भारतीय समाज एक बहुरंगी और विविधताओं से परिपूर्ण समाज है। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत सही अर्थों में हज़ारों साल बाद जाकर यह देश एक सम्पूर्ण राजनीतिक इकाई के रूप में एक सार्वभौम राज्य के रूप में स्थापित हुआ था जहाँ सत्ता की ताक़त ‘हम, भारत के लोग’ से निकलती थी। इस अवस्था को मूर्त रूप प्रदान करने में इस बहुरंगी समाज के लोगों ने विविधताओं में अटूट एकता का परिचय देते हुए स्वतंत्रता संग्राम में जो अपना योगदान दिया उसमें कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक की समूची धरती की महक समाहित थी। जो पहली सरकार बनी, उसमें भी सभी राजनीतिक और सामाजिक रंगों के नुमाइंदे  शामिल हुए। इस देश ने एक धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था चुनी। एक मिश्रित अर्थव्यवस्था के तहत कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के आलोक में समाजवादोन्मुख ताना बाना बुनने  लगा।
धीरे-धीरे सियासतदानों को सत्ता का सुख मिलने लगा और इसके प्रति लालसा भी बढ़ती गयी। इधर भारतीय समाज भी बढ़ते समय के साथ अपनी आवश्यकताओं और आकांक्षाओं की पहचान करता चला गया। अलग अलग समयों में अलग अलग जगह पर समाज के भिन्न भिन्न तबक़ों ने अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अलग अलग तेवर में अपने आंदोलन किए। जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार से लेकर सत्ता में अपनी प्रखर भागीदारी तक के लिए आंदोलन के स्वर उठते रहे और सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया चलती रही। बड़े पैमाने पर आबादी के एक बड़े भाग को विस्थापन का दंश भी झेलना पड़ा। रोज़गार की तलाश में अपना पेट भरने के लिए यह तबक़ा अपनी जन्म भूमि से उखड़कर अपने अवसरों के लिए उपयुक्त जगहों की तलाश में नए-नए शहरों में ज़िला, प्रांत और भाषा की सीमा को पार कर अपने पाँव ज़माने लगा। नयी माटी में रच बसकर उसने वहाँ के अर्थतंत्र की बागडोर थाम ली।
     इधर वंशानुगत विरासत में प्राप्त अपने बौद्धिक प्रभुत्व को अब ‘नव-संशयवादी’ अपने-अपने स्वार्थों की पूर्ति में भजाने  लगे। शिक्षा में विकास की मंथर गति और ग़रीबी ने अवसरों को सीमित कर रखा था और समाज के हर तबके में एक आभिजात्य वर्ग का बोलबाला रहा जो अपने हितों के अनुरूप सूचनाओं को काट-छाँटकर  अपने विचारों को प्रचारित करता और अवसरों को ऊपर ही लोक लेता। कविवर जानकीवल्लभ शास्त्री ने इस स्थिति को इन शब्दों में व्यक्त किया : -
 “ऊपर-ऊपर पी जाते हैं जो पीने वाले हैं,
 कहते ऐसे ही जीते हैं जो जीने वाले हैं।“
जब समाज अपनी आकांक्षाओं के साथ उसकी पूर्ति हेतु अपनी  क्षमताओं को भी जान लेता है, तभी समाज में क्रांति की अवस्था का जन्म होता है। २१वीं शताब्दी की सूचना क्रांति ने समाज के इस आत्मबोध की प्रकिया में आग में घी का काम किया और बड़ी तेज़ी से सूचनाओं के आदान प्रदान की तेज़ी ने सूचना और ज्ञान के क्षेत्र में आभिजात्य वर्ग की बपौती  को ख़त्म कर दिया। अब भारतीय समाज एक प्रबुद्ध और जागरूक समाज में बदल चुका था और उसे किसी वस्तु या स्थिति के आकलन हेतु उन चुनिंदा ‘संशयवादियों’ पर निर्भर रहने की विवशता समाप्त हो गयी थी। अब इतिहास, भूगोल, राजनीति, कूटनीति, अर्थनीति, गाँव, प्रांत, देश, विदेश सबकी जानकारी सीधे उपलब्ध हो गयी थी। सियासतदानों द्वारा रचे गए सम्प्रदाय, जाति, भाषा, क्षेत्र आदि के तमाम प्रपंचों के सीधे अवलोकन, परीक्षण और मूल्याँकन की स्थिति में समाज का प्रत्येक व्यक्ति आ गया था। सत्ता पक्ष से विपक्ष तक और ‘भक्त’ से ‘विभक्त’ तक सभी उसकी निगरानी में आ गए थे। समाज की मूलभूत इकाई के रूप में व्यक्ति को अब अपनी स्वतंत्र सत्ता का आभास हो गया था और समाज को प्रभावित करने की उसने अपनी नयी भूमिका की तलाश कर ली थी। अब कौन सा रोज़गार उसे चुनना है, किस जगह पर विस्थापित होना है, कितने दिनों के लिए इस विस्थापन के दंश को सहना है, किस उत्पाद  का उपयोग करना है, किस विचारधारा को चुनना है और किसे नहीं सुनना है – ये सारे फ़ैसले लेने के लिए जो भी आवश्यक कारक चाहिए, उसे एक क्लिक मात्र पर इंटरनेट पर उपलब्ध था और उसकी निर्भरता अब उन ठेकेदारों से बिलकुल ख़त्म हो गयी जिनके पीछे-पीछे अबतक वह छोटी-छोटी बातों पर निर्भर करता था। कुल मिलाकर ‘laissez faire’ (यथेच्छाकारिता) की स्थिति में व्यक्ति पहुँच गया।  इस स्थिति ने समाज के उस वर्ग में एक नयी चेतना और स्वायत्तता की भावना का सूत्रपात किया जो अबतक निचले पायदान पर दबे कुचले खड़े थे। छोटे और बड़े के बीच की मनोवैज्ञानिक दीवार ढह गयी। सबसे बड़ी बात यह हुई कि आत्मविश्वास से लबरेज़ अब यह व्यक्ति अपने निर्णय ख़ुद  लेने और स्वतंत्र चिंतन करने का आदि होने लगा। यहीं नहीं, बिहार और झारखंड के सुदूर गाँव के हाट  में चाय की दुकान पर बैठे ग्रामीण उत्तर कोरिया  से अमेरिका के सम्बन्धों से लेकर अर्थ-जगत में जापान और चीन की स्थिति का इतना सटीक विश्लेषण करने लगे कि बड़े-बड़े कूटनीतिक रणनीतिकार और अर्थशास्त्री दाँतों तले अंगुलियाँ दबाने लगें! चुनावों का परिणाम बड़े-बड़े स्वघोषित राजनीतिक पंडितों के विश्लेषण से बिछुड़कर आम वोटर की अंगुलियों में सिमट गया।
ठीक इसके उलट, इस महत्वपूर्ण बौद्धिक नवजागरण और  सामाजिक परिवर्तन को  बिलकुल नज़रंदाज़ करते ये  तथाकथित ‘संशयवादी’ अभी तक अपने बौद्धिक उन्माद के मद से बाहर निकले नहीं हैं। वह अभी गंगा-जमुना का पानी ही नापते रहे उधर समंदर में सुनामी खड़ा हो गया। इन्हें इस बात का अभी भी आभास नहीं है कि पदार्थ की कणिकाओं और उसकी ऊर्जा-तरंगों में अबतक का उलझा शास्त्रीय विज्ञान छलाँग मारकर अब चेतना और परामनोविज्ञान के क्वांटम  विज्ञान की ऊँचाई में समा गया है। और, सबसे हैरत अंगेज़ तथ्य तो यह है कि वैज्ञानिक सोच का दावा करने वाले इन  ‘संशयवादियों’ ने विज्ञान का ककहरा भी नहीं देखा  है। नयी पीढ़ी अपने साइबर युग में एक नयी वैज्ञानिक सोच के साथ स्वयं निर्णय लेने की स्थिति में आ गयी है और ये ‘संशयवादी’ अभी अपनी पुरानी पूर्वाग्रही सोच की सड़ी-गली गलियों में भटक रहे हैं। इन संशयवादियों को नए मूल्यों को स्वीकारने में एक अंतरभूत भय सताता है कि कहीं फिर से उन  धर्मांध साम्प्रदायिक पाखंडियों की पुनर्वापसी न हो जाय  जिनके विरुद्ध उनके पूर्वजों ने तर्कवाद का बिगुल  बजाया था। जबकि सत्य यह है कि आज की तिथि में दोनों चोर-चोर मौसेरे भाई हो गए हैं और २१वीं सदी के समाज को इसकी आहट मिल गयी है। अब भारतीय समाज बंद समाज नहीं रहे बल्कि ‘ग्लोबल-विलेज’ के खुले झरोखे बन गए हैं।
किसी भी समाज का सबसे मूलभूत चरित्र अपने संगठित स्वरूप में भलीभाँति तब उजागर होता है जब वह किसी बाहरी आक्रमण  या किसी गम्भीर आंतरिक संकट के दौर से गुज़रता है। यहीं वह वक़्त होता है जब समाज नयी चुनौतियों का सामना करने के लिए कमर कसता है और उसके आंतरिक चरित्र के भिन्न-भिन्न घटकों का उद्घाटन भी होता है। अपने अंदर से ही ऊर्जा को बटोरकर आसन्न संकट से दो चार हाथ करने की जुगत जुटाते समाज में ‘मेटामोरफ़िज़म’ के कुछ नए तत्वों का समावेश भी दृष्टिगोचर होता है। कोरोना के वर्तमान संकट के दौर में भारतीय समाज को भी एक ऐसे ही  अग्नि-परीक्षा के दौर से गुज़रना पड़  रहा है। …………………………………………क्रमशः


         

Saturday, 4 April 2020

कोरोना और भारत का समाजशास्त्र -१ (Corona and the Sociology of India - 1)




चीन के एक शहर हुआन में जन्मे वाइरस ने एक नयी प्राण घातक बीमारी ‘कोरोना’ की दस्तक दे दी है जो अत्यंत तीव्र वेग से इस भूमंडल के बड़े भूभाग को लीलता जा रहा है। हालाँकि, जन्मदाता चीन ने अपने यहाँ कथित तौर पर इस पर विजय पा ली है, किंतु स्पेन, इटली, फ़्रान्स, जर्मनी, ब्रिटेन एवं अमेरिका सहित एक बहुत बड़े क्षेत्र में सुरसा की भाँति मुँह फैलाए यह बीमारी लोगों को मौत का ग्रास बनाती चली जा रही है। अपनी राजनीतिक व्यवस्था के विलक्षण चाल और चरित्र के आलोक में चीन की बातों पर दुनिया को विश्वास नहीं है। सम्भवतः, भविष्य में उस पर दुनिया में विस्तृत विवेचना और अन्वेषण भी  हो, किंतु आज के परिदृश्य में अभी सम्पूर्ण मानव जाति अपने मिटते वजूद को बचाने के लिए संघर्ष कर रही है। अबतक पचास से साठ हज़ार लोग काल कवलित हो चुके हैं और यह संख्या दिन दोगुणी रात चौगुनी की गति से बढ़ती जा रही है। अमेरिका के राष्ट्रपति ने तो यहाँ तक  आधिकारिक तौर पर घोषणा कर दी है कि अकेले उनके देश में यह संख्या दो लाख के पार जा सकती है।
ऐसी स्थिति में भारत में भी पैर पसारती नज़र आती इस बीमारी पर चौकन्ना होना स्वाभाविक है।  भारत सरकार ने बड़ी तेज़ी से सतर्कता दिखाते हुए इस बीमारी की रोकथाम के लिए क़दम उठाए हैं। चूँकि हमारी स्वास्थ्य सेवाओं की आधारभूत संरचना अभी तक इस बीमारी से जूझते अन्य विकसित देशों की तुलना में काफ़ी पीछे है, ऐसी स्थिति में सरकार ने ‘रोकथाम इलाज से बेहतर’ की रणनीति को प्राथमिकता दी है और ऐसा उचित भी है।

इसके तहत सरकार ने कई चरणों में युद्ध-स्तर पर अपने रोकथाम कार्यक्रम को लागू किया है। सबसे पहले चरण में विदेशों से आने वाले यात्रियों और अपने देश में संक्रमित नागरिकों  की जाँच, बीमारी के लक्षण पाए जाने पर उन्हें अलग से ‘आयसोलेशन’ और ‘क्वारंटाइन’ में पृथक रखने की व्यवस्था की गयी है। फिर, एक दिन का जनता-कर्फ़्यू लागू किया गया। एक दिन शाम को समस्त देशवासियों ने अपने-अपने घरों में ही रहकर इस बीमारी से लड़ने वाले स्वास्थ्य-कर्मियों, डॉक्टरों, पुलिस कर्मियों, सफ़ाई-कर्मियों और आवश्यक सेवा से जुड़े लोगों के प्रति घंटी, शंख, थाली आदि बजाकर अपने आभार व्यक्त किए। हालाँकि, कुछ भ्रमित तत्व उत्साह के अतिरेक में बाहर झुंड में निकलते भी देखे गए जो इस कार्यक्रम में निहित उद्देश्यों के  प्रतिकूल था। उसके तुरंत बाद सम्पूर्ण देश में ‘लॉकडाउन’ आज़मायिशी तौर पर २१ दिनों के लिए घोषित कर दिया गया। इस घोषणा के पूर्व प्रधान मंत्री ने इसके उद्देश्यों और कार्यान्वयन  की विधि पर प्रकाश डाला और जनता से सहयोग की अपील की।

भारत मूलतः प्राचीन संस्कारों से शोभित सनातन परम्पराओं वाला देश है। संयुक्त परिवार की प्रणाली इसकी मौलिक पहचान रही है। सामुदायिक संवेदना और वसुधैव कूटुंबकम की भावना का रुधिर इसकी धमनियों में प्रवाहित होता है। अपने-पराए की क्षुद्र भावना से अछूता रहकर ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ का सुवास  इस माटी की संस्कृति में सदा सुवासित होते रहा है। हमारे मूल्यों की जड़ें इतने गहरे तक जमी हैं कि हज़ारों वर्षों के अनवरत आक्रमण और प्रहार के पश्चात भी कोई बाहरी सभ्यता हमारी मूल संस्कृति को गहरे तक जाकर पराजित नहीं कर पायी। हाँ, सभ्यताओं के वस्त्र फ़ैशन में ढलते ज़रूर रहे, किंतु संस्कृति का कलेवर अक्षुण रहा। औद्योगिक क्रांति ने समाज के संयुक्त परिवार की संरचना को तोड़ा ज़रूर, किंतु संयुक्तता की भावना को झकझोर नहीं पायी। इसलिए  तथाकथित ‘तर्कवादियों’ के लाख जुमलों के बावजूद भी थाली पिटने और शंख बजाने में भारत के अवाम ने बढ़ चढ़कर यदि योगदान दिया तो इसके मूल में भारतीयों के उन्ही 'एक-दूसरे के सुख-दुःख में सहभागी होने ' की सामाजिक भावना का संस्कार ज़्यादा था,  न कि कोई अंधानुकरण या दक़ियानूसी भाव !
अब हम इस लेख को आगे बढ़ाने से पूर्व थोड़ा इस देश के समाज को जकड़ी और दिन-पर-दिन जकड़ती जा रही धार्मिक संकीर्णता,  साम्प्रदायिक कट्टरता और कठमुल्लापन बनाम तर्क-विद्या की समस्त युक्तियों का अतिक्रमण करती ‘अतितर्कवादिता’  की व्याधि का शिकार बने कुछ आधुनिक नैयायिकों की चर्चा भी संक्षेप में कर लें। ऐसा करना इसलिए भी प्रासंगिक होगा कि ऐसी विकट स्थिति में जब हम समाज में होने वाली हलचलों का जायज़ा लेते हैं, तो समाज को गहरे तक हिला देने वाले ऐसे अवांछित तत्वों से मुँह भी तो नहीं मोड़ सकते।
तार्किक विवेचना और शास्त्रार्थ इस देश की मौलिक परम्परा रहे हैं। तब ऐसे समस्त शास्त्रार्थों का आधार दार्शनिक होता था जिसकी विषयवस्तु पदार्थवादी जगत से दूर आध्यात्मिक सरोकारों से पूर्ण होती थी। सनातन धर्म का स्वरूप आध्यात्मिक ज़्यादा था और पदार्थवादी कम। सही ढंग से यदि बोलें तो धर्म का लक्ष्य ही था इस पदार्थवादी संसार में आवागमन के चक्र से मुक्ति अर्थात मोक्ष। कालांतर में जैसे-जैसे ‘अर्थ’(पदार्थ) ‘धर्म’(आध्यात्म) पर चढ़ता गया, ‘काम’(नाएँ) प्रबल होती गयीं और ‘मोक्ष’ पीछे छूट गया। परिणाम यह हुआ कि  ‘पुरुषार्थ’ की सारी अवधारणा प्रदूषित होकर कर्मकांडीय कला में प्रवेश कर गयी। कर्मकांड की इस प्रधानता ने ढेर सारे विकारों का जन्म दिया। पंडितों की दूकान खुल गयी। कर्मकांड सम्पादन हेतु स्वघोषित पात्रों ने विकृत जन्म-आधारित कुत्सित वर्ण-व्यवस्था को जन्म दिया। समाज में वर्ण आधारित विषमता, वैमनस्य, मनुवाद आदि बीमारियों ने पाँव ज़माने शुरू किए। अंत में समाज जातियों में तितर-बितर होकर बिखरने लगा। अंधविश्वास, अशिक्षा, निरक्षरता,  धार्मिक और जातीय कट्टरता में एक कुरूप और कुतर्की समाज का ढाँचा मज़बूत होने लगा। समय आगे बढ़ता रहा और इतिहास भी ख़ुद को गढ़ता रहा। मध्य काल और मुग़ल काल के बीतते-बीतते तो भारतीय समाज के रग-रग में  धर्मांधता, साम्प्रदायिक उन्माद, जातिगत भेदभाव और कठमुल्लेपन का ज़हर फैलने लगा। ऐसी स्थिति में देश में प्रतिक्रियात्मक लहजे में एक विचारशील तबके का उदय हुआ जो उस समय के शिक्षित आभिजात्य वर्ग का अंग था और देश का नव शिक्षित वर्ग भी उससे अच्छा ख़ास प्रभावित था। यह वर्ग देश की बौद्धिकता का प्रतिनिधि वर्ग था और उसने एक क्रांति के लहजे में तत्कालीन समाज को सड़े-गले साम्प्रदायवादी विचार और व्यवहार के अंधे कूप से निकालकर तर्कवादी सोच के एक नए धरातल पर रखने का आंदोलन शुरू किया। अपनी कथनी और करनी में एकरूपता लाकर इस वर्ग ने किसी भी वस्तु को ‘आब्जेक्टिविटी’ की कसौटी पर कसकर उसे एक नवीन वैज्ञानिक दृष्टि से देखने की समझ पैदा की। भारतीय समाज में उभरने वाला यह तत्व समाज के विकास का एक बड़ा शुभ शकुन बनकर उभरा, जिसने शनै:-शनै: इस देश की लोकतांत्रिक जड़ों को पुष्ट किया। 
प्रत्येक संस्था में स्वार्थ का समावेश अक्सर  उसके आदर्श को ही अपना ढाल बनाकर उसके उन तमाम मूल्यों को तार-तार कर देता है जो उस संस्था के आदर्शों के मूल में होते हैं।  धीरे-धीरे  वे  मूल्य दूषित होकर उस संस्था के ‘थीसिस’ को ‘एंटी-थीसिस’ में बदल देते हैं और फिर उसका प्रभाव प्रतिगामी होने लगता है।………………………..क्रमश: