देखो न
अचकन मेरी
फटी रही!
नहीं खरीद पाया
नयी!
निकला जा रहा है
ये महीना
रमज़ान का भी!
छाया है,
सन्नाटा!
बंद जो है,
दुकानें सभी,
कपड़ों की!
बिक रहे हैं
तो, सिर्फ कफन,
बाज़ार में।
सोचा था इफ्तार में
करूँगा हलक तरी,
बहार से,
रूह आफ़ज़ा की।
कर न पाया मगर!
सजी हैं बाज़ार में,
दुकानें!
सिर्फ दारू की।
सोचा है
मांग लूंगा
महताब से
ईद में अबकी
उसकी मेहरीन-सी
जमजम की दो बूंद
हिफाज़त की,
अवाम की।
आज तो,
करूँगा आरज़ू,
सज़दे में,
अल्लाह से,
और, राम से भी।
बख्शने को जान
इंसानियत की
इस रमज़ान में।
या ख़ुदा ! इस बार भले ही तू ईद पर सिवैयां खाने का मौक़ा न दे लेकिन बार-बार इंसानियत के मातम में शरीक़ होने की सज़ा से बचा लेना.
ReplyDeleteजी, बिल्कुल सही। अब तो हदें पार हो रही हैं। अत्यंत आभार।
Deleteआमीन।
ReplyDeleteजी, आभार।
Deleteबेहद संजीदगी से रची गई अर्थपूर्ण रचना हेतु साधुवाद आदरणीय विश्वमोहन जी।
ReplyDeleteआपके सुंदर शब्दों का आभार।
Deleteआंखो की दशा ही बदल दी आपने। बहुत ही भावुक रचना। उम्दा!
ReplyDeleteजी, बहुत आभार आपकी दृष्टि का।
Deleteसकारात्मकता का संदेश देती अर्थपूर्ण रचना,आपको हार्दिक शुभकामनाएं विश्वमोहन जी ।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
DeleteYour pen has delivered a heady combination of simplicity and poignancy. May the ink never dry...
ReplyDeleteThanks for your good words of encouragement.
DeleteNice Poem respected sir 🙏🙏🙏🙏☺️
ReplyDeleteThank you, mam!
Deleteसुंदर
ReplyDeleteजी, आभार!!!
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 09 मई 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी, बहुत आभार।
Deleteकाश कोई दुआ सुन ले
ReplyDeleteहर पल मंगलकारी हो
सर्वे भवन्तु सुखिन:...!जी, अत्यंत आभार।
Deleteअववस्था से उपजी साधनहीनता की कसक लिए एक आम आदमी की पीड़ा को शब्द देती भावपूर्ण रचना विश्वमोहन जी , जिसका दामन भले अपने लिए खाली है, पर दुआ के लिए उठे उसके हाथ सम्पूर्ण इंसानियत की खैर मांगने से कभी नहीं चूके। यही आम आदमी के चरित्र की सबसे बड़ी खूबसूरती है। रमजान और ईद के बहाने सद्भावनाओं का संदेश देते प्रेरक सृजन के लिए आभार 🙏🙏 माहे रमज़ान सबके लिए उत्तम स्वास्थ्य और खुशियों की सौगात लेकर आए यही कामना है।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपके उदात्त पाक ज़ज़्बातों के लिए।
Deleteगमों का दौर है ,बदल कुछ तो सूरत मौला,
ReplyDeleteइंसान हुआ यतीम सा ,बन सरपरस्त मौला
माहे-रमजान में गलियां सूनी और सन्नाटे हैं,
बरसे खुशी घर घरमें , हो तेरी रहमत मौला।////
अल्लाह रहमत बख्शे और इंसानियत को नेमत दे। बहुत आभार आपके इन बेहतरीन अल्फाजों का🙏🙏🙏
Deleteसोचा था इफ्तार में
ReplyDeleteकरूँगा हलक तरी,
बहार से,
रूह आफ़ज़ा की।
कर न पाया मगर!
सजी हैं बाज़ार में,
दुकानें!
सिर्फ दारू की।
सही कहा कफन और दारू की दुकानों हैं खुली बाजार में....। रमजान और ईद सूने से निकल रहे हैं...।
अब अल्लाह ही रहमत बख्शें.. तभी सब ठीक होगा।
समसामयिक हालातों पर बहुत ही भावपूर्ण एवं लाजवाब सृजन।
जी, बहुत आभार आपके भावपूर्ण शब्दों का।
Deleteआज के दृश्यों का यथार्थ चित्रण कर दिया है ।
ReplyDeleteदुआओं के लिए उठे हाथ खाली न रहें ।
बहुत खूबसूरती से अपने भावों को लिखा है ।
जी, बहुत आभार आपकी शुभकामनाओं का!!!
Deleteवाह बहुत खूबसूरत प्रस्तुति
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteहमारे देश का इतिहास गवाह रहा है कि देश पर विपत्ति आते ही हम जाति धर्म भूलकर एक होकर उसका सामना करते हैं, परंतु इस विपत्ति को एक अवसर माननेवाले लोग कभी कुंभ तो कभी रमजान को दोषी ठहरा रहे हैं। पेट की कोई जाति धर्म नहीं होते, उसका धर्म तो सिर्फ रोटी होता है। चारों ओर फैली निराशा से अब कोफ्त होने लगी है। रमजान के रोजे और नवरात्र के उपवास की दुआएँ/प्रार्थनाएँ मिलकर बस इंसानियत को बचा लें, इंसान भी तभी बचेगा। एक हृदयस्पर्शी रचना।
ReplyDeleteजी, बिल्कुल सही। दुआओं और इबादतों से निकलती उम्मीद की रोशनी यकीनन नई राह दिखाएगी।
Deleteआभार!!
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