भले कुछ सिरफिरे बहेलिए
बहलाने के खातिर मन को।
फुसलाकर फंसा ले कुछ
चिड़ियों और जंगली जंतुओं को।
करने को अपनी
हैवानियत मालामाल
और फिर उतार ले
उनकी खाल।
पर कर न पाएंगे कभी
ये जंगल बेजार!
चिड़ियों की चहचहाहट
तैरेगी ही सदा फिजा में।
होगा मंगल जंगल में
सिंह - शावकों का ,
मृगछौनों से।
रहेगा गुलजार गुलिस्तां
पत्र कलरव से,
द्रूम - लताओ के ।
भला कैसे रुकेगी?
नदियों की नादानी!
जमीन पर उछलकर
पहाड़ों से,
पसार देती पानी ।
बुझाने को प्यास
अरण्य प्राणियों की।
जिसमें धोते
कटार का खून, बहेलिए!
तो भला क्यों न सूखे नदी
प्यास बुझाकर
इन भक्षियों की!
भले ही भक्षियों का भक्षण रहे
जारी बदस्तूर।
धरती तो धरणी है।
धरती रहेगी,
धुकधुकियों में अपनी
और रह रह कर उगलती रहेगी,
ज्वालामुखी, आक्रोश का!
डोल-डोल कर
करती रहेगी प्रकम्पित
जज़्बातों को,
जन समुदाय के रूह की।
राजपथ काँपता रहेगा
सलामी मंच के सामने,
सेना की टुकड़ी के
नुमायशी कदम ताल से!
बहलाने के खातिर मन को।
फुसलाकर फंसा ले कुछ
चिड़ियों और जंगली जंतुओं को।
करने को अपनी
हैवानियत मालामाल
और फिर उतार ले
उनकी खाल।
पर कर न पाएंगे कभी
ये जंगल बेजार!
चिड़ियों की चहचहाहट
तैरेगी ही सदा फिजा में।
होगा मंगल जंगल में
सिंह - शावकों का ,
मृगछौनों से।
रहेगा गुलजार गुलिस्तां
पत्र कलरव से,
द्रूम - लताओ के ।
भला कैसे रुकेगी?
नदियों की नादानी!
जमीन पर उछलकर
पहाड़ों से,
पसार देती पानी ।
बुझाने को प्यास
अरण्य प्राणियों की।
जिसमें धोते
कटार का खून, बहेलिए!
तो भला क्यों न सूखे नदी
प्यास बुझाकर
इन भक्षियों की!
भले ही भक्षियों का भक्षण रहे
जारी बदस्तूर।
धरती तो धरणी है।
धरती रहेगी,
धुकधुकियों में अपनी
और रह रह कर उगलती रहेगी,
ज्वालामुखी, आक्रोश का!
डोल-डोल कर
करती रहेगी प्रकम्पित
जज़्बातों को,
जन समुदाय के रूह की।
राजपथ काँपता रहेगा
सलामी मंच के सामने,
सेना की टुकड़ी के
नुमायशी कदम ताल से!