जी,
नमस्कार।
फगुआहट से फिसलकर आसमां में तेजी से गलता 'चैत का चांद' अभी पीला पड़ना शुरू ही किया था कि अचानक व्हाट्सअप पर मेरे पूजनीय मामाजी श्री संजय कुमार सिंह, वरिष्ठ हिंदी अधिकारी, हिमाचल केंद्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला और स्वयं एक मूर्द्धन्य लेखक ने एक अत्यंत विचारणीय लेख भेजकर मेरी विचार - वीथिका को विवर्ण बना दिया।
प्रभु जोशी का यह अद्भुत आलेख विचारों का अलख जगा जाता है। तनिक ठहरे, इस खुराक को खाएं और फिर इसका असर बताएं। और हां दूसरों को भी खिलाएं। आप अपनी बेबाक टिप्पणी जरूर दे जिसके लिए मैं आपकी बुद्धिमत्ता से आशा रखता हूं। तो पढ़िए यह लेख और लिखिए कि आप क्या सोचते हैं : -
"हिंदी की हत्या के विरुद्ध "
-प्रभु जोशी
अंग्रेज़ी ने जो यात्रा ढाई-तीन सौ साल में तय की थी, हिंदी ने अपनी पत्रकारिता के सहारे वह यात्रा मात्र आधी सदी में तय कर ली। लेकिन, आज हिंदी को ख़तरा, अंग्रेज़ी की 'पत्रकारिता' से नहीं, बल्कि ख़ुद हिंदी-पत्रकारिता से हो गया है। यह ठीक उस हिंस्र-मादा की तरह व्यवहार कर रही है, जो कभी अपने ही जन्मे को खा जाने के लिए झपट पड़ती है। यहाँ तक कि आज हिंदी के कुछ अख़बार अपने प्रसार-क्षेत्र को बढ़ाने की उतावली में, हिंदी के खामोश हत्यारे की भूमिका में उतरने पर आमादा हो रहे हैं। विसंगति यह है कि अन्य भारतीय भाषा आमतौर पर, और हिंदी ख़ासतौर पर उस 'भाषायी-साम्राज्यवाद' के निशाने पर है, जो हिंदी को हटाकर 'अंग्रेज़ी को भारत की पहली भाषा' बनाने का एक विराट कुचक्र चला रहा है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह है कि इसमें वह हिंदी के अख़बारों के ही इमदाद ले रहा है।
अंग्रेज़ी के एक मनोभाषाविद ने हिंदी को हटाने की बहुत ही चालाक रणनीति सुझाई है और वह रणनीति पिछले दरवाज़े से हिंदी के अधिकांश अख़बारों में काम करने लगी है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दलालों ने, अख़बारों को यह स्वीकारने के लिए राज़ी कर लिया है कि इसकी `नागरी-लिपि` को बदल कर, 'रोमन' करने का अभियान छेड़ दीजिए और वे अब तन-मन और धन के साथ इस तरफ़ कूच कर रहे हैं। उन्होंने इस अभियान को अपना प्राथमिक एजेंडा बना लिया है। क्यों कि इस देश में, बहुराष्ट्रीय-निगमों की महाविजय, सायबर युग में `रोमन-लिपि` की पीठ पर सवार होकर ही बहुत जल्दी संभव हो सकती है।
अंग्रेजों की बौद्धिक चालाकियों का बखान करते हुए एक लेखक ने लिखा था - ''अंग्रेज़ों की विशेषता ही यही होती है कि वे आपको बहुत अच्छी तरह से यह बात गले उतार सकते हैं कि आपके हित में आपका स्वयं का मरना बहुत ज़रूरी है। और, वे धीरे-धीरे आपको मौत की तरफ़ ढकेल देते हैं।'' ठीक इसी युक्ति से हिंदी के अख़बारों के पन्नों पर नई नस्ल के कुछ चिंतक, यही बता रहे हैं कि हिंदी का मरना, हिंदुस्तान के हित में बहुत ज़रूरी हो गया है। यह काम देश-सेवा समझकर जितना जल्दी हो सके करो, वर्ना, तुम्हारा देश सामाजिक-आर्थिक स्तर पर ऊपर उठ ही नहीं पाएगा। परिणाम स्वरूप, वे हिंदी को बिदा कर देश को ऊपर उठाने के काम में जी-जान से जुट गए हैं।
ये मनोभाषाविद गुलाम मानसिकता के भारतीयों के मनोविज्ञान के अध्ययन के सहारे हिंदी की हत्या की अचूक युक्तियाँ भी बताते हैं, जिससे भाषा का बिना किसी हल्ला-गुल्ला किए 'सुगम संहार' किया जा सकता है ताकि भाषा का संहार होते ही, उस पर टिकी संस्कृति भी लगे हाथ निपट जाए।
वे कहते हैं कि हिंदी का हमेशा-हमेशा के लिए खात्मा करने के लिए आप अपनाइए। 'प्रॉसेस ऑफ कॉण्ट्रा-ग्रेज्युअलिज़म`। अर्थात्, बाहर पता ही नहीं चले कि भाषा को 'सायास` बदला जा रहा है। बल्कि, 'बोलने वालों` को लगे कि यह तो भाषा में होने वाले परिवर्तन की एक ऐतिहासिक-प्रक्रिया है, जिसके तहत, हिंदी को हिंग्लिश होना ही है। और हिंदी के अधिकांश अख़बारों की भाषा में, यह परिवर्तन उसी प्रक्रिया के तहत इरादतन और शरारतन किया जा रहा है।
बहरहाल, वे कहते हैं कि इसका एक ही तरीक़ा है कि आप अपने अख़बार की भाषा में, हिंदी के रोज़मर्रा के मूल शब्दों को हटाकर, उनकी जगह अंग्रेज़ी के उन शब्दों को छापना शुरू कर दो, जो 'बोलचाल की भाषा' में 'शामिल-शब्दों` की श्रेणी (शेयर्ड-वकैब्युलरि) में आते हैं। जैसे कि रेल, पोस्ट-कार्ड, मोटर, टेलिविजन, कंप्यूटर, टेलीफोन, स्कूटर, बस, कार, हेलिकॉप्टर आदि-आदि।
इसके पश्चात धीरे-धीरे आप इस 'शेयर्ड वकैब्युलरि' में रोज़-रोज़ अंग्रेज़ी के नये शब्दों को शामिल करते जाइए और उसकी तादाद बढ़ा दीजिए। जैसे माता-पिता की जगह छापिए : 'पेरेंट्स'/छात्र-छात्राओं की जगह : 'स्टूडेंट्स' /विश्वविद्यालय की जगह : 'युनिवर्सिटी'/रविवार की जगह : 'संडे'/यातायात की जगह : 'ट्रेफिक' आदि-आदि। कुल मिलाकर अंतत: उनकी तादाद इतनी बढ़ा दीजिए कि मूल-भाषा (हिंदी) के केवल कारक भर रह जाएँ। क्यों कि कुल मिलाकर रोज़मर्रा के बोलचाल में बस हज़ार-डेढ़ हज़ार शब्द ही तो होते हैं और आपको सिर्फ़ हिंदी के इतने ही शब्दों को हटाकर अंग्रेज़ी के शब्दों का वापरने की शुरुआत करना है। यदि कोई इनको लेकर आपत्ति करे तो उनकी आपत्ति छीनने का एक ही तर्क है कि श्रीमान ये तो सब रोज़मर्रा के बोलचाल के ही शब्द हैं और हिंदी को समृद्ध करना है तो इन्हें स्वीकारना ही होगा। यहाँ अंग्रेजी का उदाहरण दीजिए कि देखिए अंग्रेज़ी के शब्दों में भी हिंदी के पचास शब्द ले लिए गए हैं, तो फिर हिंदी को अंग्रेज़ी के शब्दों से क्यों ऐतराज़ होना चाहिए। इसलिये आप ये शुद्धतावादी पंडिताऊ दृष्टि बदलिए। (वास्तव में देखा जाए तो अंग्रेज़ी में हिंदी के शब्द दाल में नमक के बराबर है, जबकि ये नमक में दाल मिला रहे हैं।)
यहाँ वह यह भी कहते हैं कि संवेदना और संस्कृति से जुड़ी शब्दावली को बदलना शुरू करिए और यदि इस क्षेत्र में आपके हेरफेर को लेकर कोई प्रतिरोध उत्पन्न नहीं होता है, तो यह संकेत है कि इस भाषा को बहुत जल्दी बिदा किया जा सकता है।
भाषा को परिवर्तित करने का यह चरण, 'प्रोसेस ऑव डिसलोकेशन' कहा जाता है। यानी की 'हिंदी के रोज़मर्रा के मूल शब्दों को धीरे-धीरे बोलचाल के जीवन से उखाड़ते जाने का काम।' ऐसा करने से इसके बाद भाषा के भीतर धीरे-धीरे 'स्नोबॉल थियरी` काम करना शुरू कर देगी-अर्थात बर्फ़ के दो गोलों को एक दूसरे के निकट रख दीजिए, कुछ देर बाद वे एक दूसरे से घुलमिलकर इतने जुड़ जाएँगे कि उनको एक दूसरे से अलग करना संभव नहीं हो सकेगा। यह `सिद्धांतकी` (थियरी) भाषा में सफलता के साथ काम करेगी और अंग्रेज़ी के शब्द, हिंदी से इस क़दर जुड़ जाएँगे कि उनको अलग करना मुश्किल होगा।
इसके पश्चात शब्दों के बजाय पूरे के पूरे अंग्रेज़ी के वाक्यांश छापना शुरू कर दीजिए। अर्थात 'इनक्रीज़ द चंक ऑफ इंग्लिश फ्रेज़ेज़'। मसलन 'आऊट ऑफ रीच/बियाण्ड डाउट/नन अदर देन/एज एण्ड व्हेन रिक्वायर्ड`/ आदि आदि। कुछ समय के बाद लोग हिंदी के उन शब्दों को बोलना ही भूल जाएँगे। उदाहरण के लिए हिंदी में गिनती स्कूल में बंद किए जाने से हुआ यह है कि यदि आप बच्चे को कहें कि अड़सठ रुपये दे दो, तो वह अड़सठ का अर्थ ही नहीं समझ पाएगा, जब तक कि उसे अंग्रेज़ी में 'सिक्सटी एट' नहीं कहा जाएगा। इस रणनीति के तहत बनते भाषा रूप का उदाहरण हिंदी के एक अख़बार से उठाकर दे रहा हूँ।
'युनिवर्सिटी के वाइस चांसलर को स्टूडेंट्स ने अपने पेरेंट्स के साथ राइटिंग में कम्प्लेंट की है कि मार्कशीट्स के डिले होने से उनके दूसरे इन्स्टीट्यूट्स में एडमिशंस में चांसेस निकाले जाएँगे।'
इस तरह की भाषा को लगातार पाँच-दस वर्ष तक प्रिंट-माध्यम से पढ़ते रहने के बाद जो नई पीढ़ी इस क़िस्म के अख़बार पठन-पाठन के कारण बनेगी, उसकी यह स्थिति होगी कि उसे कहा जाय कि वह हिंदी में बोले तो वह गूँगा हो जाएगा। उनकी इस युक्ति को वे कहते हैं 'इल्यूज़न ऑफ स्मूथ ट्रांजिशन'। अर्थात हिंदी की जगह अंग्रेज़ी को निर्विघ्न ढंग से स्थापित करने का सफल छद्म।
हिंदी को इसी तरीक़े से हिंदी के अख़बारों में 'हिंग्लिश` बनाया जा रहा है। समझ के अभाव में अधिकांश हिंदी भाषी लोग और विद्वान भी लोग इस सारे सुनियोजित एजेंडे को भाषा के 'परिवर्तन की ऐतिहासिक प्रक्रिया' ही मानने लगे हैं और हिंदी में इस तरह की व्याख्या किए जाने का काम होने लगा है। गाहे-ब-गाहे लोग बाक़ायदा अपनी गर्वीली मुद्रा में वे बताते हैं जैसे कि वे अपनी एक गहरी सार्वभौम-प्रज्ञा के सहारे ही वे इस सचाई को सामने रख रहे हों कि हिंदी को हिंग्लिश बनना अनिवार्य है। उनको तो पहले से ही इसका इलहाम हो चुका है और ये तो होना ही है।
एक भली-चंगी भाषा से, उसके रोज़मर्रा के साँस लेते शब्दों को हटाने और उसके व्याकरण को छीन कर उसे 'बोली' में बदल दिए जाने की 'क्रियोल' कहते हैं। अर्थात हिंदी को 'हिंग्लिश' बनाना, एक तरह का उसका चुपचाप किया जा रहा 'क्रियोलीकरण' है। और 'कांट्रा-ग्रेजुअलिज्म' के हथकंडों से बाद में उसे 'डि-क्रियोल' किया जाएगा। अर्थात विस्थापित करने वाली भाषा (अंग्रेज़ी) को मूल भाषा (हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं) की जगह आरोपित करना।
भाषा की हत्या के एक योजनाकार ने अगले और अंतिम चरण को कहा है कि अब इसके बाद आता है 'फायनल असाल्ट ऑन हिंदी'। बनाम हिंदी को अखब़ार में 'नागरी-लिपि' के बजाय 'रोमन-लिपि' में छापने की शुरुआत करना। अर्थात हिंदी पर 'अंतिम प्राणघातक प्रहार'। बस हिंदी की हो गई अंत्येष्टि। चूँकि हिंदी को रोमन में लिख-पढ़कर बड़ी होने वाली पीढ़ी में देवनागरी में लिखी हिंदी और छपी पुस्तकें नितांत अपठनीय हो जाएगी। इसे ही कहते हैं 'भाषा को बोली' में बदलना बनाम उसका 'क्रियोलीकरण करना'। अर्थात किसी भाषा से उसके व्याकरण और रोज़मर्रा की शब्दावली को छीन लिया जाना। और बाद में इसके 'रोमन` में छापकर, उसे 'डि-क्रियोल' करना। या उसे उसकी मूल लिपि बदलकर रोमन में छापना। अब यह काम भारत में होने लगा है, जिसकी शुरुआत कोकणी को रोमनलिपि में लिखे जाने के निर्णय से शुरू हो चुका है। इसी युक्ति से गुयाना में, जहाँ ४३ प्रतिशत लोग हिंदी बोलते थे, वहाँ हिंदी को इसी तरह से 'डि-क्रियोल' कर दिया गया और अब वहाँ देवनागरी की जगह रोमन-लिपि को चला दिया गया है, जिसके कारण हिंदी की सैकड़ों किताबें नितांत अपठनीय होने जा रही है। यही काम त्रिनिदाद में इसी षड्यंत्र के ज़रिए किया गया है।
ऐसी स्थिति में दोस्तों अगर आप में अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम है और उसके नष्ट किए जाने पर खून खौलता है, तो आप अविलंब ऐसे तमाम अख़बारों को सविनय पत्र लिखिए कि श्रीमान यदि ताजमहल या लाल किले जैसी राष्ट्रीय धरोहर की एक भी ईंट या दीवार तोड़ने पर अपराध कायम होता है, तो भाषाएँ भी इस राष्ट्र की धरोहर है और उन्हें नष्ट करना भी अपराध की ही श्रेणी में आता है। आप एक 'राष्ट्रीय-अपराध' कर रहे हैं और निवेदन है कि आप इसे अविलंब रोकिए और यदि आप नहीं रोकते हैं तो मैं आपका अख़बार पढ़ना बंद कर दूँगा और न केवल मैं बंद करूँगा बल्कि मैं अपने दस अभिन्न मित्रों को तैयार करूँगा कि वे भी आपका अख़बार पढ़ना बंद कर दें।
इसीलिए हम तमाम हिंदी भाषियों से आग्रह करते हैं कि वे इस पत्र अभियान में शामिल हों और अपनी मातृभाषा की हत्या के खिलाफ खड़े हों। यदि आपकी माँ बीमार है और उसके इलाज के लिए आप पाँच हज़ार रुपये खर्च कर सकते हैं तो मातृभाषा के लिए पचास रुपये खर्च करें और पचास रुपये के पत्र ख़रीद कर तमाम ऐसे अख़बारों को निवेदन करने के लिए भेजें। न केवल ख़ुद भेजें बल्कि अपने हर मित्र और पड़ोसी को भी पत्र लिखने के लिए प्रेरित करें। यदि आप किन्हीं वजहों से अपने नाम से नहीं लिख पा रहे हैं, तो किसी अन्य के नाम से विरोध में ऐसा पत्र अवश्य लिखें। उम्मीद है अपनी मातृभाषा की रक्षा के लिए इतनी हिम्मत जुटाएँगे।
www.abhivyakti-hindi.org/snibandh/drishtikone/2007/hindi.htm
नमस्कार।
फगुआहट से फिसलकर आसमां में तेजी से गलता 'चैत का चांद' अभी पीला पड़ना शुरू ही किया था कि अचानक व्हाट्सअप पर मेरे पूजनीय मामाजी श्री संजय कुमार सिंह, वरिष्ठ हिंदी अधिकारी, हिमाचल केंद्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला और स्वयं एक मूर्द्धन्य लेखक ने एक अत्यंत विचारणीय लेख भेजकर मेरी विचार - वीथिका को विवर्ण बना दिया।
प्रभु जोशी का यह अद्भुत आलेख विचारों का अलख जगा जाता है। तनिक ठहरे, इस खुराक को खाएं और फिर इसका असर बताएं। और हां दूसरों को भी खिलाएं। आप अपनी बेबाक टिप्पणी जरूर दे जिसके लिए मैं आपकी बुद्धिमत्ता से आशा रखता हूं। तो पढ़िए यह लेख और लिखिए कि आप क्या सोचते हैं : -
"हिंदी की हत्या के विरुद्ध "
-प्रभु जोशी
अंग्रेज़ी ने जो यात्रा ढाई-तीन सौ साल में तय की थी, हिंदी ने अपनी पत्रकारिता के सहारे वह यात्रा मात्र आधी सदी में तय कर ली। लेकिन, आज हिंदी को ख़तरा, अंग्रेज़ी की 'पत्रकारिता' से नहीं, बल्कि ख़ुद हिंदी-पत्रकारिता से हो गया है। यह ठीक उस हिंस्र-मादा की तरह व्यवहार कर रही है, जो कभी अपने ही जन्मे को खा जाने के लिए झपट पड़ती है। यहाँ तक कि आज हिंदी के कुछ अख़बार अपने प्रसार-क्षेत्र को बढ़ाने की उतावली में, हिंदी के खामोश हत्यारे की भूमिका में उतरने पर आमादा हो रहे हैं। विसंगति यह है कि अन्य भारतीय भाषा आमतौर पर, और हिंदी ख़ासतौर पर उस 'भाषायी-साम्राज्यवाद' के निशाने पर है, जो हिंदी को हटाकर 'अंग्रेज़ी को भारत की पहली भाषा' बनाने का एक विराट कुचक्र चला रहा है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह है कि इसमें वह हिंदी के अख़बारों के ही इमदाद ले रहा है।
अंग्रेज़ी के एक मनोभाषाविद ने हिंदी को हटाने की बहुत ही चालाक रणनीति सुझाई है और वह रणनीति पिछले दरवाज़े से हिंदी के अधिकांश अख़बारों में काम करने लगी है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दलालों ने, अख़बारों को यह स्वीकारने के लिए राज़ी कर लिया है कि इसकी `नागरी-लिपि` को बदल कर, 'रोमन' करने का अभियान छेड़ दीजिए और वे अब तन-मन और धन के साथ इस तरफ़ कूच कर रहे हैं। उन्होंने इस अभियान को अपना प्राथमिक एजेंडा बना लिया है। क्यों कि इस देश में, बहुराष्ट्रीय-निगमों की महाविजय, सायबर युग में `रोमन-लिपि` की पीठ पर सवार होकर ही बहुत जल्दी संभव हो सकती है।
अंग्रेजों की बौद्धिक चालाकियों का बखान करते हुए एक लेखक ने लिखा था - ''अंग्रेज़ों की विशेषता ही यही होती है कि वे आपको बहुत अच्छी तरह से यह बात गले उतार सकते हैं कि आपके हित में आपका स्वयं का मरना बहुत ज़रूरी है। और, वे धीरे-धीरे आपको मौत की तरफ़ ढकेल देते हैं।'' ठीक इसी युक्ति से हिंदी के अख़बारों के पन्नों पर नई नस्ल के कुछ चिंतक, यही बता रहे हैं कि हिंदी का मरना, हिंदुस्तान के हित में बहुत ज़रूरी हो गया है। यह काम देश-सेवा समझकर जितना जल्दी हो सके करो, वर्ना, तुम्हारा देश सामाजिक-आर्थिक स्तर पर ऊपर उठ ही नहीं पाएगा। परिणाम स्वरूप, वे हिंदी को बिदा कर देश को ऊपर उठाने के काम में जी-जान से जुट गए हैं।
ये मनोभाषाविद गुलाम मानसिकता के भारतीयों के मनोविज्ञान के अध्ययन के सहारे हिंदी की हत्या की अचूक युक्तियाँ भी बताते हैं, जिससे भाषा का बिना किसी हल्ला-गुल्ला किए 'सुगम संहार' किया जा सकता है ताकि भाषा का संहार होते ही, उस पर टिकी संस्कृति भी लगे हाथ निपट जाए।
वे कहते हैं कि हिंदी का हमेशा-हमेशा के लिए खात्मा करने के लिए आप अपनाइए। 'प्रॉसेस ऑफ कॉण्ट्रा-ग्रेज्युअलिज़म`। अर्थात्, बाहर पता ही नहीं चले कि भाषा को 'सायास` बदला जा रहा है। बल्कि, 'बोलने वालों` को लगे कि यह तो भाषा में होने वाले परिवर्तन की एक ऐतिहासिक-प्रक्रिया है, जिसके तहत, हिंदी को हिंग्लिश होना ही है। और हिंदी के अधिकांश अख़बारों की भाषा में, यह परिवर्तन उसी प्रक्रिया के तहत इरादतन और शरारतन किया जा रहा है।
बहरहाल, वे कहते हैं कि इसका एक ही तरीक़ा है कि आप अपने अख़बार की भाषा में, हिंदी के रोज़मर्रा के मूल शब्दों को हटाकर, उनकी जगह अंग्रेज़ी के उन शब्दों को छापना शुरू कर दो, जो 'बोलचाल की भाषा' में 'शामिल-शब्दों` की श्रेणी (शेयर्ड-वकैब्युलरि) में आते हैं। जैसे कि रेल, पोस्ट-कार्ड, मोटर, टेलिविजन, कंप्यूटर, टेलीफोन, स्कूटर, बस, कार, हेलिकॉप्टर आदि-आदि।
इसके पश्चात धीरे-धीरे आप इस 'शेयर्ड वकैब्युलरि' में रोज़-रोज़ अंग्रेज़ी के नये शब्दों को शामिल करते जाइए और उसकी तादाद बढ़ा दीजिए। जैसे माता-पिता की जगह छापिए : 'पेरेंट्स'/छात्र-छात्राओं की जगह : 'स्टूडेंट्स' /विश्वविद्यालय की जगह : 'युनिवर्सिटी'/रविवार की जगह : 'संडे'/यातायात की जगह : 'ट्रेफिक' आदि-आदि। कुल मिलाकर अंतत: उनकी तादाद इतनी बढ़ा दीजिए कि मूल-भाषा (हिंदी) के केवल कारक भर रह जाएँ। क्यों कि कुल मिलाकर रोज़मर्रा के बोलचाल में बस हज़ार-डेढ़ हज़ार शब्द ही तो होते हैं और आपको सिर्फ़ हिंदी के इतने ही शब्दों को हटाकर अंग्रेज़ी के शब्दों का वापरने की शुरुआत करना है। यदि कोई इनको लेकर आपत्ति करे तो उनकी आपत्ति छीनने का एक ही तर्क है कि श्रीमान ये तो सब रोज़मर्रा के बोलचाल के ही शब्द हैं और हिंदी को समृद्ध करना है तो इन्हें स्वीकारना ही होगा। यहाँ अंग्रेजी का उदाहरण दीजिए कि देखिए अंग्रेज़ी के शब्दों में भी हिंदी के पचास शब्द ले लिए गए हैं, तो फिर हिंदी को अंग्रेज़ी के शब्दों से क्यों ऐतराज़ होना चाहिए। इसलिये आप ये शुद्धतावादी पंडिताऊ दृष्टि बदलिए। (वास्तव में देखा जाए तो अंग्रेज़ी में हिंदी के शब्द दाल में नमक के बराबर है, जबकि ये नमक में दाल मिला रहे हैं।)
यहाँ वह यह भी कहते हैं कि संवेदना और संस्कृति से जुड़ी शब्दावली को बदलना शुरू करिए और यदि इस क्षेत्र में आपके हेरफेर को लेकर कोई प्रतिरोध उत्पन्न नहीं होता है, तो यह संकेत है कि इस भाषा को बहुत जल्दी बिदा किया जा सकता है।
भाषा को परिवर्तित करने का यह चरण, 'प्रोसेस ऑव डिसलोकेशन' कहा जाता है। यानी की 'हिंदी के रोज़मर्रा के मूल शब्दों को धीरे-धीरे बोलचाल के जीवन से उखाड़ते जाने का काम।' ऐसा करने से इसके बाद भाषा के भीतर धीरे-धीरे 'स्नोबॉल थियरी` काम करना शुरू कर देगी-अर्थात बर्फ़ के दो गोलों को एक दूसरे के निकट रख दीजिए, कुछ देर बाद वे एक दूसरे से घुलमिलकर इतने जुड़ जाएँगे कि उनको एक दूसरे से अलग करना संभव नहीं हो सकेगा। यह `सिद्धांतकी` (थियरी) भाषा में सफलता के साथ काम करेगी और अंग्रेज़ी के शब्द, हिंदी से इस क़दर जुड़ जाएँगे कि उनको अलग करना मुश्किल होगा।
इसके पश्चात शब्दों के बजाय पूरे के पूरे अंग्रेज़ी के वाक्यांश छापना शुरू कर दीजिए। अर्थात 'इनक्रीज़ द चंक ऑफ इंग्लिश फ्रेज़ेज़'। मसलन 'आऊट ऑफ रीच/बियाण्ड डाउट/नन अदर देन/एज एण्ड व्हेन रिक्वायर्ड`/ आदि आदि। कुछ समय के बाद लोग हिंदी के उन शब्दों को बोलना ही भूल जाएँगे। उदाहरण के लिए हिंदी में गिनती स्कूल में बंद किए जाने से हुआ यह है कि यदि आप बच्चे को कहें कि अड़सठ रुपये दे दो, तो वह अड़सठ का अर्थ ही नहीं समझ पाएगा, जब तक कि उसे अंग्रेज़ी में 'सिक्सटी एट' नहीं कहा जाएगा। इस रणनीति के तहत बनते भाषा रूप का उदाहरण हिंदी के एक अख़बार से उठाकर दे रहा हूँ।
'युनिवर्सिटी के वाइस चांसलर को स्टूडेंट्स ने अपने पेरेंट्स के साथ राइटिंग में कम्प्लेंट की है कि मार्कशीट्स के डिले होने से उनके दूसरे इन्स्टीट्यूट्स में एडमिशंस में चांसेस निकाले जाएँगे।'
इस तरह की भाषा को लगातार पाँच-दस वर्ष तक प्रिंट-माध्यम से पढ़ते रहने के बाद जो नई पीढ़ी इस क़िस्म के अख़बार पठन-पाठन के कारण बनेगी, उसकी यह स्थिति होगी कि उसे कहा जाय कि वह हिंदी में बोले तो वह गूँगा हो जाएगा। उनकी इस युक्ति को वे कहते हैं 'इल्यूज़न ऑफ स्मूथ ट्रांजिशन'। अर्थात हिंदी की जगह अंग्रेज़ी को निर्विघ्न ढंग से स्थापित करने का सफल छद्म।
हिंदी को इसी तरीक़े से हिंदी के अख़बारों में 'हिंग्लिश` बनाया जा रहा है। समझ के अभाव में अधिकांश हिंदी भाषी लोग और विद्वान भी लोग इस सारे सुनियोजित एजेंडे को भाषा के 'परिवर्तन की ऐतिहासिक प्रक्रिया' ही मानने लगे हैं और हिंदी में इस तरह की व्याख्या किए जाने का काम होने लगा है। गाहे-ब-गाहे लोग बाक़ायदा अपनी गर्वीली मुद्रा में वे बताते हैं जैसे कि वे अपनी एक गहरी सार्वभौम-प्रज्ञा के सहारे ही वे इस सचाई को सामने रख रहे हों कि हिंदी को हिंग्लिश बनना अनिवार्य है। उनको तो पहले से ही इसका इलहाम हो चुका है और ये तो होना ही है।
एक भली-चंगी भाषा से, उसके रोज़मर्रा के साँस लेते शब्दों को हटाने और उसके व्याकरण को छीन कर उसे 'बोली' में बदल दिए जाने की 'क्रियोल' कहते हैं। अर्थात हिंदी को 'हिंग्लिश' बनाना, एक तरह का उसका चुपचाप किया जा रहा 'क्रियोलीकरण' है। और 'कांट्रा-ग्रेजुअलिज्म' के हथकंडों से बाद में उसे 'डि-क्रियोल' किया जाएगा। अर्थात विस्थापित करने वाली भाषा (अंग्रेज़ी) को मूल भाषा (हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं) की जगह आरोपित करना।
भाषा की हत्या के एक योजनाकार ने अगले और अंतिम चरण को कहा है कि अब इसके बाद आता है 'फायनल असाल्ट ऑन हिंदी'। बनाम हिंदी को अखब़ार में 'नागरी-लिपि' के बजाय 'रोमन-लिपि' में छापने की शुरुआत करना। अर्थात हिंदी पर 'अंतिम प्राणघातक प्रहार'। बस हिंदी की हो गई अंत्येष्टि। चूँकि हिंदी को रोमन में लिख-पढ़कर बड़ी होने वाली पीढ़ी में देवनागरी में लिखी हिंदी और छपी पुस्तकें नितांत अपठनीय हो जाएगी। इसे ही कहते हैं 'भाषा को बोली' में बदलना बनाम उसका 'क्रियोलीकरण करना'। अर्थात किसी भाषा से उसके व्याकरण और रोज़मर्रा की शब्दावली को छीन लिया जाना। और बाद में इसके 'रोमन` में छापकर, उसे 'डि-क्रियोल' करना। या उसे उसकी मूल लिपि बदलकर रोमन में छापना। अब यह काम भारत में होने लगा है, जिसकी शुरुआत कोकणी को रोमनलिपि में लिखे जाने के निर्णय से शुरू हो चुका है। इसी युक्ति से गुयाना में, जहाँ ४३ प्रतिशत लोग हिंदी बोलते थे, वहाँ हिंदी को इसी तरह से 'डि-क्रियोल' कर दिया गया और अब वहाँ देवनागरी की जगह रोमन-लिपि को चला दिया गया है, जिसके कारण हिंदी की सैकड़ों किताबें नितांत अपठनीय होने जा रही है। यही काम त्रिनिदाद में इसी षड्यंत्र के ज़रिए किया गया है।
ऐसी स्थिति में दोस्तों अगर आप में अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम है और उसके नष्ट किए जाने पर खून खौलता है, तो आप अविलंब ऐसे तमाम अख़बारों को सविनय पत्र लिखिए कि श्रीमान यदि ताजमहल या लाल किले जैसी राष्ट्रीय धरोहर की एक भी ईंट या दीवार तोड़ने पर अपराध कायम होता है, तो भाषाएँ भी इस राष्ट्र की धरोहर है और उन्हें नष्ट करना भी अपराध की ही श्रेणी में आता है। आप एक 'राष्ट्रीय-अपराध' कर रहे हैं और निवेदन है कि आप इसे अविलंब रोकिए और यदि आप नहीं रोकते हैं तो मैं आपका अख़बार पढ़ना बंद कर दूँगा और न केवल मैं बंद करूँगा बल्कि मैं अपने दस अभिन्न मित्रों को तैयार करूँगा कि वे भी आपका अख़बार पढ़ना बंद कर दें।
इसीलिए हम तमाम हिंदी भाषियों से आग्रह करते हैं कि वे इस पत्र अभियान में शामिल हों और अपनी मातृभाषा की हत्या के खिलाफ खड़े हों। यदि आपकी माँ बीमार है और उसके इलाज के लिए आप पाँच हज़ार रुपये खर्च कर सकते हैं तो मातृभाषा के लिए पचास रुपये खर्च करें और पचास रुपये के पत्र ख़रीद कर तमाम ऐसे अख़बारों को निवेदन करने के लिए भेजें। न केवल ख़ुद भेजें बल्कि अपने हर मित्र और पड़ोसी को भी पत्र लिखने के लिए प्रेरित करें। यदि आप किन्हीं वजहों से अपने नाम से नहीं लिख पा रहे हैं, तो किसी अन्य के नाम से विरोध में ऐसा पत्र अवश्य लिखें। उम्मीद है अपनी मातृभाषा की रक्षा के लिए इतनी हिम्मत जुटाएँगे।
www.abhivyakti-hindi.org/snibandh/drishtikone/2007/hindi.htm
ReplyDelete'युनिवर्सिटी के वाइस चांसलर को स्टूडेंट्स ने अपने पेरेंट्स के साथ राइटिंग में कम्प्लेंट की है कि मार्कशीट्स के डिले होने से उनके दूसरे इन्स्टीट्यूट्स में एडमिशंस में चांसेस निकाले जाएँगे।'.....
अब तो बहुत सारे हिंदी समाचार टीवी चैनल्स भी यही भाषा बोल रहे हैं।अधिकांश हिंदी सीरियलों की भाषा यही है जो घर घर में देखे जा रहे हैं। मैं एक अंग्रेजी माध्यम की प्राइवेट पाठशाला (कान्वेन्ट नहीं) में हिंदी की शिक्षिका हूँ। वहाँ जब मैं ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं करती और सारे हिंदी शब्दों का ही प्रयोग करती हूँ तो सहकर्मी मुँह दबाकर हँसते हैं। उनके नजरिए से यही विकास की भाषा है। पूरी तरह से धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने में हम सक्षम ना हों तो इस तरह की अंग्रेजी तो बोल ही सकते हैं ना !!!मैं सिंधीबहुल इलाके में रहती हूँ और मैंने पाया है कि अंग्रेजी शब्दों का यह मिश्रण नई पीढ़ी की सिंधी भाषा में भी हो गया है। लोकल ट्रेन में आते जाते समय अधिकांश सुशिक्षित मराठीभाषी लोगों को मराठी के साथ धड़ल्ले से अंग्रेजी शब्द मिलाकर बोलते सुन रही हूँ। ऐसी खिचड़ी भाषा बोलकर लोग खुशफहमी का शिकार हैं कि वे अपनी मातृभाषा में बोल रहे हैं। वे इस ओर ध्यान ही कहाँ देते हैं कि इस तरह वे अपनी मातृभाषा की हत्या कर रहे हैं।
लेख बहुत ही प्रभावशाली है। बोलचाल की हिंदी में अनावश्यक रूप से अंग्रेजी शब्दों का तड़का लगाने की कोई जरूरत नहीं है। जहाँ कोई पर्याय ना हो वहाँ अंग्रेजी शब्द का प्रयोग करने में मुझे कोई आपत्ति भी नहीं है। हिंदी या किसी भी प्रादेशिक भाषा को रोमन लिपी में लिखने के मैं सख्त खिलाफ हूँ। वाट्सअप और फेसबुक और ट्विटर पर अधिकांश हिंदी रोमन में ही लिखी जा रही है। कई जगह आप दक्षिण भारतीयों को भी तेलुगू, तमिल आदि भाषाएँ रोमन में लिखते हुए पाएँगे। अंग्रेजी टाइपिंग का सुविधाजनक होना भी इसका एक कारण है। हमारी युवा पीढ़ी अपनी भाषाओं के प्रति गंभीर नहीं है। अंग्रेजी का संपूर्ण ज्ञान और मातृभाषा / हिंदी भाषा का कामचलाऊ ज्ञान इसी में वे संतुष्ट हैं।
आपने जिस गंभीरता और मनोयोग से इसे पढ़ा और फिर आपकी इस अमूल्य प्रतिक्रया का हार्दिक आभार!
Deleteआदरणीय विश्वमोहन जी -- सबसे पहले सादर आभार इस विचारणीय लेख को पाठकों की चेतना जगाने के भाव से शेयर करने के लिए | क्षमा प्रार्थी हूँ किमाननीय प्रभु जोशी जी जैसे चिन्तक से परिचित नहीं लेकिन उनका ये अनमोल लेख सचमुच झझकोरने वाला है | हिन्दी अपने देश में वो स्थान नहीं पा सकी जिसकी वो हकदार है ऐसा सुना था, पर सोशल मीडिया से जुड़ने के बाद लगा कि हिन्दी दूसरे रूप में बहुत ही फल- फूल रही है | मैंने कहीं पढ़ा था ब्लॉग जगत में हिन्दी के लगभग पचास हजार हिंदी ब्लॉगर सक्रिय हैं जो अपने अपने ढंग से बहुत उत्तम मध्य या किसी भी स्तर पर हिन्दी के लिए अपना योगदान दे रहे हैं |[हालाँकि अगर मैं गलत हूँ तो क्षमा प्रार्थी हूँ ] इनमें छात्रों से लेकर घरेलु महिलाएं तक सब शामिल हैं | फिर हिन्दी के अस्तित्व को मिटाने का ये कुत्सित प्रयास क्यों ? आज हिंदी पढने के लिए बढती विदेशी छात्रों की संख्या बढ़ रही है तो हिंदी प्रेमियों के चलते हिंदी विश्व की उल्लेखनीय भाषाओँ की सूचि में अपना महत्वपूर्ण स्ठ्हन बनाने में सफल हो रही | देश का अहोभाग्य कि एक अहिन्दी भाषी प्रान्त से आने वाले माननीय प्रधानमन्त्री ने हिंदी को सम्मान दिलाने में कोई कसर नहीं छोडी | उनके देश के नाम महत्वपूर्ण सम्बोधन हिन्दी में ही होते हैं | फिर हिंदी को मिटाने की षड्यंत्रकारी कवायद क्यों ?हिंदी को पढने वालों की समूची पीढ़ी अभी कायम है फिर रोमन में हिन्दी लिखने की नौबत कहाँ से आ गयी ? ये बहुत दुखद है | कितना अच्छा हो सरकार मातृभाषा के लिए कोई सख्त कानून लाये और देशद्रोह की तरह ही मातृभाषा से द्रोह पर भी कानून बने क्योकिं दूसरे की माँ को माँ कहिये मानिये भी पर अपनी माँ के तिरस्कार की शर्त पर नहीं | हिन्दी हमारी माँ है | उसके मान का मर्दन ना हो इसके लिए सक्षम लोगों को जो सर्वसमर्थ हैं उन्हें आगे आना होगा | क्योकि हिंदी भारत माता का अक्षुण संस्कार है | इसे मिटाने वाले आते रहेंगे और जाते रहें पर इसके प्रेमियों की संख्या कहीं अधिक है | फिर भी यदि सचमुच बीमार मानसिकता वाले भाषाविद कुछ ऐसा करने की कोशिश करें जैसा की लेख में उल्लेख किया गया है उसके विरोध के लिए पूरे देश के हिंदी प्रेमी कोई कम नहीं | जय हिन्द जय हिन्दी | एक बार फिर से आभार चिंतनपरक पोस्ट शेयर करने के लिए | सादर --
ReplyDeleteआपने जिस गंभीरता और मनोयोग से इसे पढ़ा और फिर आपकी इस अमूल्य प्रतिक्रया का हार्दिक आभार!
Deleteआपका साझा किया गया यह आलेख पढ़कर हम सोच में पड़ गये क्या सच में हिंदी की दशा इतनी दयनीय है?
ReplyDeleteयह लेख हिंदी भाषा के प्रति आपकी चिंता और चिंतन को स्पष्ट कर रहा है। किंतु मेरी दृष्टि में आजकल स्थितियां उत्साहजनक दिखाई दे रहीं हैं। अब हिंदी में अधिक लिखा जा रहा है। अब अधिक लिखने वाले सामने आ रहे हैं।
इंटरनेट ने आज एक बड़ा और वैश्विक मंच रचनाकारों को उपलब्ध कराया है। हिंदी में लिखा जा रहा है, हिंदी में खोजा जा रहा है और पढ़ा जा रहा है। गूगल ने भी खोज परिणाम में हिंदी के लेखों को वरीयता दी है।
यह सीमित हो सकता है क्योंकि अब नींव में हिंग्लिश के बोये बीजोंं से संकर प्रजाति की भाषा का प्रादुर्भाव होने लगा है जिनके तनों,पत्तियों,फूलों एवं फलों का आस्वादन करनि ही हमारे व्यक्तित्व विकास और प्रगति का द्योतक हो चला है।
हिंदी माध्यम से पढ़ने वालों को एक वर्ग विशेष से जोड़कर देखा जाता है जो अविकसित है और कुछ नहीं तो फिसड्डी का तमगा तो मिल ही जाता है,हिंदी पढ़कर पेटभर रोटी का जुगाड़ भी मुश्किल से होता है , आखिर क्यों हमारी शिक्षा-प्रणाली को इतना समृद्ध नहीं।
कहने को बहुत सारी बातें हैं..पर करने के लिए बस इतना ही कि हम जड़़ो को मजबूत करें ,यही.एकमात्र उपाय सूझता है।
और हाँ अभी भी हिंदी के प्राण शेष है हम ऐसी उम्मीद कर सकते हैं कि सार्थक प्रयास, अपने योगदान और पहल से हिंदी को उचित मान और नवजीवन मिल सके।
आभार आपका और आदरणीय संजय सर का इस वैचारिकी आलेख के लिए।
सादर प्रणाम।
आपने जिस गंभीरता और मनोयोग से इसे पढ़ा और फिर आपकी इस अमूल्य प्रतिक्रया का हार्दिक आभार!
Deleteचिंतनीय।
ReplyDeleteविचारणीय आलेख।
ReplyDeleteबहुत कुछ प्रतिक्रिया स्वरूप लिखा जा चुका
क्या बस इतना करके हम जिम्मेदारी से मुक्त हैं?
आपने जिस गंभीरता और मनोयोग से इसे पढ़ा और फिर आपकी इस अमूल्य प्रतिक्रया का हार्दिक आभार!
Deleteप्रभावशाली सोचने को विवश करती लेख..
ReplyDeleteआपने जिस गंभीरता और मनोयोग से इसे पढ़ा और फिर आपकी इस अमूल्य प्रतिक्रया का हार्दिक आभार!
Deleteआपने जिस गंभीरता और मनोयोग से इसे पढ़ा और फिर आपकी इस अमूल्य प्रतिक्रया का हार्दिक आभार!
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