Monday, 16 July 2018

जेएनयु अड्डा


'अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाते हुए( मुक्तिबोध, अँधेरे में)', अपनी लफ्फाजी के इस फुलौने को फूंकने के पहले 'मंगलाचरण' के अंदाज़ में मैं सुन्दरकाण्ड की एक चौपाई और एक दोहे का स्मरण करना चाहूँगा जिसका सम्बन्ध विभीषण रावण संवाद से है. दोहे से तुलसीदास ने संवाद का श्री गणेश किया है और चौपाई से इति श्री!

 सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥
(अर्थात सचिव, वैद्य और गुरु भय या लाभ की आशा मे प्रिय और हितकर वाणी बोलते हैं तो क्रमशः राज्य, शरीर और धर्म - तीनों का नाश होता है.) 
                            और
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥
सचिव संग लै नभ पथ गयऊ। सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ॥
(अर्थात, हे रावण, आप मेरे पिता सदृश हैं . भले ही आप हमारी ह्त्या कर दें किन्तु राम को भजने में ही आपकी भलाई है. ऐसा कहकर विभीषण सचिव सहित आकाश मार्ग से चल दिए.)
 
 अब भला सचिव तो सत्ता का नौकर होता है और बैद्य 'बुद्धिजीवी' ! लेकिन गुरु ही एक ऐसा प्राणी है जो इन दोनों से इतर ' बुद्धिवीर' होता है, जिससे समाज को आशा होती है और जिसको समाज से आशा होती है. उसमे किसी भी तरह की मिलावट समझ लीजिये कि विनाश काल की आहट है. वही समय पड़ने पर रावण के दरबार में विभीषण बनकर उठ खडा हो सकता है और व्यवस्था को चुनौती देते हुए खरी खोटी सुना सकता है. हालाँकि कुछ ऐसा ही काम नन्द के दरबार में चाणक्य के हाथों भी संपन्न हुआ था लेकिन दोनों घटनाओं में थोड़ा अंतर है. विभीषण परिवार के सदस्य थे और अन्दर तक वह लंका परिवार की भावनाओं के साथ बंधे थे. चाणक्य के साथ ये बात नहीं थी. दूसरी बात विभीषण की घटना इस देश की माटी के मूल्यों के साथ अटूट रूप से नित्य प्रातः सुमिरे जाने की स्थिति तक जुड़ गयी है.
अब आप में कुछ तथाकथित 'बुद्धिविलासी' सम्प्रदाय के लोग आँखे घूरकर मुझे 'सेक्युलर वार्निंग' न दें , क्योंकि न तो मैं किसी 'मिथ' का इतिहासीकरण कर रहा हूँ और न ही किसी इतिहास का मिथ्याकरण. मैं तो  एक किताब की कथावस्तु की बात कर रहा हूँ जो पिछले दिनों एक ' रौंग नंबर' की तरह मुझे गपगपाने को मिल गयी.
यह पुस्तक है " जे एन यु अड्डा' !  और, इसके लेखक हैं प्रोफ़ेसर चंद्रकांत प्रसाद सिंह. अपने मित्रों में 'सी पी' के नाम से मशहूर डॉक्टर सिंह ने अपनी इस पुस्तक में जेएनयु कैंपस के अंदरूनी ज़ज्बातों की बड़ी तल्ख़ शिनाख्त की है. इस पुस्तक को पढने के पहले पुस्तक के नाम मात्र से मेरे दिमाग में एक साथ कई रेखाएं खिंच गयी. 
 सन १९७७ का ज़माना था. मैं नवीं कक्षा का छात्र था. गणित के दो पेपर होते थे . एक एलीमेंट्री और दूसरा एडवांस. उसी साल इमरजेंसी के बाद चुनाव भी हुए थे . मैं गया के टाउन स्कूल का छात्र था. 'जे पी' ने अपनी सरपरस्ती में जम्हूरियत की खैरियत के खातिर कई दलों का जमवाड़ा 'जनता पार्टी' चुनाव में उतारा था. चुनाव प्रचार में मुल्क के तकरीबन सारे बड़े नेता इंदिरा गाँधी, जे पी, मोरारजी भाई, जगजीवन राम, चंद्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी, राजनारायण, नानाजी देशमुख आदि आदि का भाषण गाँधी मैदान में होता था. गाँधी मैदान मेरे स्कूल से सटा पसरा पड़ा था. कभी तो पार्टी वालों की जबरदस्ती, तो कभी हम खुद भी क्लास से भागकर इन भाषणों की भीड़ बढाते और अपनी मंडली के पैनल में आज के वाचाल बुद्धिबिलासी टी वी पत्रकारों की तरह चिल्ला चिल्लाकर उन नेताओं की चीत्कार को विस्तार देते. नतीजा सामने तुरत आ गया था. मैं एडवांस गणित में ६/१०० अंकों के साथ देश की आदर्श 'भक्ति' में खेत हो गया था. मैंने कुछ दिनों बाद 'अपने पुत्र के भविष्य के सपनों को बुनते एक मध्यम वर्गीय पिता' के मुंह से यह कहते सुना कि यदि मन लगाकर पढ़ाई की तो दीक्षा का उपसंहार संस्कार जे एन यु में हो सकता है. यह था जे एन यु के नाम से मेरा पहला परिचय!
 फिर समय का चक्का नाचा. फल्गु की सुखी रेत में उस ६/१०० की टीसती स्मृति का पिंड दान कर मैं मुंगेर की हहराती उत्तरायनी गंगा की कष्ट हरनी गोद में आ गया . फिर पटना, रुड़की औए बम्बई के रास्ते आगे  की यात्रा तय करता हुआ दिल्ली में राष्ट्रीय ताप निगम में नौकरी पकड़ ली. मित्र मोह में शुरू के छ: महीने आई आई टी दिल्ली के छात्रावास में बीते. अक्सर अड्डाबाजी करने जे एन यु कैंपस अपने मित्रों के पास पहुँच जाता था. और यही वह समय था जब मैंने जे एन यु को बड़े करीब से जाना. बड़ा सजीव माहौल लगता था. 'सब कुछ' मुक्त और मुफ्त! आपस में विमर्श की बड़ी समृद्ध परम्परा. ऐसे भी हम इंजीनियरी और विज्ञान के सूखे ठूंठ बाड़ पेड़! वहाँ के छात्रों की लच्छेदार तहरीर सुनकर मन अघा जाता. कहाँ आई आई टी के छात्रावास सूखे जड़ निर्जीव पहाडों और पर्वत श्रृंखलाओं (काराकोरम,नीलगिरी, कुमायूं आदि)के नाम को ढोते, वहीँ जे एन यु के छात्रावास कलकल छलछल बहती सजीव चंचल नदियों के नाम में अपने आस्तित्व का उद्घोष करते. वहाँ किसी भी अलोकतांत्रिक और असभ्य हरकत को 'कंडेम' कर दिया जाता. एक ओर जहाँ हम कठिन से कठिन संरचनाओं को संतुलन के सरलतम समीकरण में समाहित करने की शैली के शिल्पकार थे, वहीँ कावेरी का ढाबा हिन्दुस्तान के दूर देहात में घटने वाली सरल से सरल घटनाओं को रूस, चीन और  क्यूबा की कटोरी में मार्क्स के मसाले के साथ प्रगतिशील तर्कों का तड़का बना एक अद्भुत अभिजात्य बौद्धिक शैली में पेश करता. उनकी तहरीरें भले हमारे सर के सतह का स्पर्श न कर पाती पर उनकी वार्ता शैली मन को गुदगुदाती जरूर. तब चंद्रकांत जी भी उसी गुदगुदाते गिरोह के सदस्य हुआ करते थे. उन्होंने वही से 'एम.फिल' किया और बाद में 'पीएचडी' भी. दोनों डिग्रीयों में उनके शोध निर्देशक थे - ज्ञानपीठ सम्मानित प्रसिद्द कवि केदारनाथ सिंह. इन्टर में पटना विश्वविद्यालय के हमारे सहपाठी (और हमारे मामा भी), चंद्रकान्तजी, अद्भुत प्रतिभा संपन्न और विलक्षण तर्क क्षमता के धनी छात्र रहे हैं. अभी वह इन्द्रप्रस्थ विश्वविद्यालय के जन संचार संस्थान में प्रोफ़ेसर हैं तथा एक प्रखर विचारक और चिन्तक हैं.
 ' कश्मीर फाइल ' और 'टर्निंग पॉइंट' जैसे लोकप्रिय टीवी धारावाहिकों के स्क्रिप्ट लेखक और कथा निर्देशक रह चुके चंद्रकांत जी ने प्रस्तुत पुस्तक में बड़ी बेबाकी और साफगोई से अपने ही संस्थान जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की कलई परत दर परत उघेड दी है. लेखक अपनी किताब का वितान ९ फरवरी २०१६ को विश्वविद्यालय परिसर में घटित अशोभनीय देशद्रोही घटनाओं की पृष्ट भूमि पर तानता है. स्वस्थ विचार विमर्श की लोकतान्त्रिक परम्परा की ओट में परिसर में उठने वाले ये नारे लेखक को अंतर्मन तक व्यथित कर देते हैं.
"भारत तेरे टुकड़े होंगे , इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह
.....................................
भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी जंग रहेगी.
अफ़ज़ल हम शर्मिन्दा हैं, तेरे कातिल ज़िंदा हैं"
उसी व्यथा की अकुलाहट से उपजे दर्द ने लेखक को जेएनयु की स्थापना से बरास्ता इसके उद्देश्य इसकी उपलब्धियों तक बड़ी तल्खी से तहकीकात करने की तड़प पैदा की है जो इस किताब में स्पष्ट प्रतिभाषित होती है. इतिहास के आईने से झांकती पंक्तियाँ जेएनयु की परिकल्पना पर प्रकाश डालती हैं,
"बात १९६४-६५ की है. पिता पंडित जवाहरलाल नेहरु के निधन के बाद इंदिरा गाँधी उनकी स्मृति में कुछ योजनायें बना रही थी तो एक विश्वविद्यालय भी बनाने का सुझाव राज(थापर) के पति रोमेश थापर ने ही दिया था ( शंकर शरण, 'जेएनयु का सच', भारतीय विचार मंच, २०१६, पृष्ठ ४). १९६०-७० के दशकों में राज थापर श्रीमती गांधी की निकटवर्ती रही थी. राज थापर की आत्म कथा(ऑल दीज़ इयर्स, पृष्ठ २३८) से उद्धृत करते ......लिखते हैं, " बहुत सोच विचार कर रोमेश ने एक ऐसे उत्कृष्ट संस्थान की कल्पना की जहाँ देश विदेश से स्कॉलर आकर तीन महीने से तीन वर्ष तक रहेंगे और शांति से विचार विमर्श कर सकेंगे.... अंततः तय हुआ कि दक्षिण दिल्ली में बनने वाले विश्वविद्यालय का नाम जवाहरलाल युनिवर्सिटी रखा जाय जहाँ भाषा अध्ययन के सिवा सभी कोर्स स्नाकोत्तर के रखे जाएँ और 'गुणवता' का ध्यान रखा जाय. इसे भविष्य का 'मॉडल' बनना था."
'गुणवता' और 'मॉडल' के बांयी और दांयी ओर लटकती तख्ती इसकी वर्तमान दुरावस्था पर लेखक के तंज की तल्खी है. लेखक ने आगे भिन्न भिन्न शीर्षकों में इस विश्वविद्यालय की सांगोपांग खबर ली है. इतिहास की झुठलाने की जिम्मेदारी, रेडिकल राजनीतिबाजी, तथ्य विरोध से देश विरोध तक, 'पैगम्बर' मार्क्स उवाच, अल्पमत मानसिकता का शिकार बहुमत, जेएनयु-राग बनाम देश-राग, वोट बैंक का बौद्धिक भोंपू, जेएनयु बनाम अन्य विश्वविद्यालय, मेकाले की मानस संताने , सोशल मीडिया ने बिगाड़ा खेल  आदि कसौटियों पर लेखक ने इस विश्वविद्यालय के परिदृश्य को बखूबी परखा है.
लेखक की चिंता बिलकुल जायज है कि "... विश्वविद्यालय डिग्री वितरण एजेंसी ( Degree Distribution Agency) बनकर रह गए हैं, मानों शिक्षण संस्थान नहीं 'राशन' की दूकान हों. अगर ऐसा नहीं होता तो दुनिया के दो सौ शीर्ष विश्वविद्यालयों की सूचि से भारत के विश्वविद्यालय गायब नहीं होते. हर छोटे बड़े शहरों में कोचिंग संस्थानों की बाढ़ न आई होती और इनमें समाज-विज्ञान और भाषा साहित्यों की नहीं बल्कि सिर्फ विज्ञान और प्रोफेशनल विषयों की पढ़ाई न हो रही होती." गौरतलब है कि दुनिया के संस्थानों की रैंकिंग में जेएनयु का स्थान १२४५ है.
आगे लेखक का आक्रोश टपकता है, " ऐसा इसलिए भी कि  भारत में समाज विज्ञान-भाषा-साहित्य की पढ़ाई वास्तविकता और अपने जड़ों से कटी हुई है. लोगों को इनके तोता रटंत सिलेबस में जानने समझाने लायक कुछ विशेष नज़र नहीं आता जो काम का भी हो और आसपास के जीवन से मेल खाता हो. लेकिन यह भी सच है कि अपने जड़ों से कटे होने के कारण इन्होने मानसिक गुलामों और नक्कालों की फौज खड़ी कर रखी है..... इसी स्थिति को लक्षित करते हुए नोबेल पुरस्कार प्राप्त साहित्यकार और १९६० के दशक में भारत में मेक्सिको के राजदूत औकटेवियो पाज ने कहा था ' भारत के अभिजात वर्ग जैसा नक्काल दुनिया में कहीं का अभिजात वर्ग नहीं है.........यहीं वजह है कि जेएनयु जैसे प्रति छात्र प्रति शिक्षक सर्वाधिक केन्द्रीय सुविधा प्राप्त विश्वविद्यालय के सेक्युलर-वामी प्रोफेसर सुप्रीम कोर्ट से फांसी की सजा प्राप्त आतंकवादियों अब्दुल कसाव और अफ़ज़ल गुरु के सम्मान में 'भारत तोड़क' नारे लगाने वालों के बचाव में सहज भाव से खड़े हो जाते हैं."
सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव ने सूचनाओं को आम जन के आगे परोस दिया है. अब ज्ञान किसी अभिजात की बपौती नहीं रही. ज्ञान के प्रसार की प्रक्रिया ने जागरूकता की नयी लहर पैदा कर दी है. पुस्तक का दूसरा भाग २०१६ के फरवरी से दिसंबर महीने तक के जेएनयु घटना चक्र पर लेखक के सोशल मीडिया पर विचार और प्रबुद्ध व्यक्तियों की टिपण्णी का संकलन है. लेखक ने अपने ख़ास लहजे में बड़ी बेबाकी से राष्ट्र विरोधी तत्वों को चिन्हित किया है और उनकी कड़ी खबर ली है:-
"पता नहीं कौन है वो
कहाँ से आये हैं वो
कहाँ पर जायेगे वो
कहाँ ले जायेंगे वो
काका कलाम के नाम से परेशान हैं वो
तंजील की शहादत से हलकान हैं वो"
चंद्रकांत जी की यह किताब राष्ट्र धर्म के पालन को रेखांकित तो करती ही है साथसाथ जेएनयु में व्याप्त राष्ट्रविरोधी विरुदावलियों के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल बजाती है. यह समाज को नित नित सर उठाती छद्म बुद्धिविलासी राष्ट्र विध्वंसक शक्तियों की इस कथित अड्डेबाजी के विरुद्ध चेताती भी है, अभिव्यक्ति की आज़ादी को देश द्रोह की सीमा तक ले जाने की विसंगति और विद्रूपता से सावधान करती है और इतिहास को भूलकर इसको दुहराने के अभिशाप से सतर्क करती है. 
किताब की भाषा बातचीत की सरस शैली में है. तुष्टिकरण के लिए 'तेलमालिश नीति' जैसे खांटी देशी शब्द कथ्य को सीधे पाठकों के मन में उतारते हैं. उनकी पढ़ाई की पीठिका में पालित विज्ञान, अर्थशास्त्र, साहित्य और पत्रकारिता के बेल बूटे समवेत उभर आये हैं उनकी विवेचनाओं में. बड़े लहरदार लहजे में अपनी धार पीजाते चंद्रकान्तजी मानों अपना केंचुल उतारकर उन संपोलो को ललकार रहे हैं.  उसी परिवार की कोख से निकल अब वह विभीषण की मुद्रा में आ गये है और अपनी गुरुता का मंगलाचरण उचार रहे हैं:-
 तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥

    
   
(उपरोक्त लेख पर 'जेएनयु अड्डा' के लेखक प्रोफेसर चंद्रकांत प्रसाद सिंह की टिपण्णी फेसबुक पर:-

Chandrakant P Singh ने जवाब दिया4 जवाब28 मिनट
Chandrakant P Singh आलोचना एक श्रेष्ठ सर्जनात्मक कर्म है जो आलोच्य पाठ को केंद्र में रखते हुए भी समाज-विश्व के उन अनगिन आकाश-गंगाओं को ढूँढ़ निकालती है जिनसे पाठ का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संबंध होता है। इस दृष्टि से 'जेएनयू अड्डा' पर लिखी आपकी समीक्षा इस पुस्तक से संबद्ध होकर भी एक स्वतंत्र सर्जनात्मक उत्पाद की हैसियत रखती है। आभार और हार्दिक बधाई!
प्रबंधित करें


पसंदऔर प्रतिक्रियाएँ दिखाएँ
जवाब दें2 घंटे