Wednesday, 23 July 2025

बिहार में आंदोलन, राजनीति और विकास




पुस्तक का नाम - बिहार में आंदोलन, राजनीति और विकास
लेखक - शिवदयाल
प्रकाशक - प्रलेक प्रकाशन
बिहार के राजनीतिक और सामाजिक बदलाव की भौतिकी और उसके रसायन की पड़ताल को अपना केंद्र बिंदु बनाती शिवदयाल जी की यह पुस्तक पाठकों को बिहार के इतिहास, भूगोल, समाज शास्त्र, बिहारी जीवन के सामाजिक मनोविज्ञान और सामाजिक आर्थिक चरित्र की तह में ले जाती है और उनके मस्तिष्क में पहले ‘सोचने’ का बीज डालकर फिर ‘समझने’ की छटपटाहट छोड़ जाती है। हमारी दृष्टि में पुस्तक की सबसे बड़ी सार्थकता यही है, क्योंकि ‘सोचने’ के अभाव में ‘समझना’ चिंतन की ओर नहीं, प्रत्युत दासता की ओर ले जाता है। इधर सोशल मीडिया के जमाने में सोचने की प्रक्रिया थम-सी गई लगती है। दिन पर दिन मूल्यहीन होती राजनीति और अयोग्य व अपराधी राजनीतिज्ञों के बहुमत के माहौल में तो राजनीति में सोचने और चिंतन करने की संस्कृति को भी लकवा ही मार गया है। समाज का बौद्धिक वर्ग भी अब राजनीतिक पंथों की चाकरी करता एक बुद्धि-जीवी गिरोह में तब्दील हो गया है।
किताब के पुरोवाक में १९१२ में निर्मित बिहार के २००० में विखंडन की चर्चा है। गौरतलब है कि झारखंड ने आंदोलन कर अपने को बिहार से अलग कर लिया। यह विभाजन के सामाजिक मनोविज्ञान के उलट है। आमतौर पर अविकसित और बीमार भाग अपने को अलग करने की माँग करता है। यहाँ विकसित और स्वस्थ औद्योगिक झारखण्ड ने अपने को अविकसित और बीमार बिहार से अलग कर लिया। खैर, इन्ही विडंबनाओं का नाम बिहार है। पहला अध्याय परंपरा के अनुकूल बिहार के वैभवशाली अतीत का स्वस्ति वाचन है जो एक बिहारी पाठक के सुकून का एकमात्र आलंब और आज के बिहारी नेताओं की निर्लज्जता की अभिव्यक्ति का अल्फ़ाज़ भी है। बिहारी राष्ट्रवाद के मिथक की चर्चा करते हुए लेखक की यह बात गौरतलब है कि ‘ वास्तव में बिहारी राष्ट्रीयता सचमुच मजबूत होती तो एक आदिवासी मुख्यमंत्री को मौक़ा देकर भी बिहार विभाजन को रोकने को कोशिश की जा सकती थी।’ असल में अपनी ऐतिहासिकता का आग्रह बिहार को कभी बिहारी बनने ही नहीं देगा।’बिहार ने अपनी पहचान को भारत की अस्मिता में विलयित करके रखा।बिहार से भारत ही नहीं दुनिया को देखने की परम्परा रही है।’
आज के संदर्भ में लेखक की यह बात बिल्कुल जायज है कि “कई बार ऐसा लगता है जैसे भारत इकतीस राज्यों का संघ नहीं बल्कि वास्तव में छह हज़ार जातियों का संघ है।” और यह जातीय भाव बिहार में इतना उग्र है कि यह किसी भी तरह के क्षेत्रीयतावाद या बिहारी राष्ट्रीयता की लता को पनपने ही नहीं देगा। जातिवाद की इस आग में यहाँ की राजनीति घी ढारती है। सच कहें तो बिहार में जाति रोजी, रोटी और बेटी से मुँह मोड़कर अब राजनीति की गोद में बैठ गई है। १९०१ के जनगणना कमिश्नर रिजले के जाति आधारित सर्वेक्षण के प्रस्ताव को संदेह की दृष्टि से देखा गया था।स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना १९५१ में जातीय गणना को निषिद्ध किया गया। २१ वीं सदी की जनगणना में अब जाति समा गई है। कुल मिलाकर तेजी से बदलते युवा बहुल समाज में जाति के टूटते बंधन को अब नेताओं ने फिर से बांधना शुरू कर दिया है। जाति के समाजशास्त्र के भविष्य को देखना अब बड़ा रोचक होगा।मंडल के जवाब में उठे कमंडल ने समाज का मंथन जरूर किया है।गठबंधन का रसायन बदल गया। एक ऐसा समय राजनीति में आया जब जो जितना छोटा होगा वह उतना शक्तिशाली! और, सत्ता की चाभी उसी के हाथ में। “छोटी इकाइयों में बाँटकर बड़ी लड़ाइयाँ नहीं लड़ी जा सकती।”
सम्पूर्ण क्रांति और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की वैचारिकी को लेखक ने बड़ी गहरायी में उतरकर देखा है। शिवदयालजी सम्पूर्ण क्रांति के ठोस और वैचारिक आधार को ढूँढ तो लेते हैं, लेकिन इस मेहराब पर अपेक्षित इमारत के खड़े न हो पाने के कारणों को पूरी तरह नहीं बता पाते। भले ही उनके मन ने इसकी संभावनाओं को अभी भी जीवित रखा है। हाँ, जयप्रकाश नारायण के लिए ‘ राजनीति में महत्वपूर्ण न पाने की कुंठा वाले जयप्रकाश’ लिखने वाले इतिहास के नौसिखुए कलाकार प्रियंवद की उन्होंने काफ़ी तर्कपूर्ण ख़बर ली है। हालाकि, इतनी तल्ख़ी की कोई ज़रूरत नहीं थी क्योंकि परवर्ती घटनाओं ने ऐसे अनाड़ी कलाकारों के इतिहास लेखन को स्वतः अप्रासंगिक बना दिया है।
शिवदयालजी ने रामदेव मांझी और पाँचु मांझी की शहादत की यादों की छाया में बोधगया भूमि आंदोलन का सुंदर और सशक्त शब्द चित्र खींचा है। यह क्रांति प्रसूत चेतना का महापर्व था। लेकिन वह भी अब ढाक के तीन पात! ‘उस जमीन की मिल्कियत से भुइयाँ जैसी दलित जातियों का वैसा भावात्मक लगाव नहीं जैसा कि एक आम किसान का अपनी जमीन के प्रति होता है।।’ इस प्रश्न के सांस्कृतिक संदर्भ की पड़ताल में यह बात लेखक की तीक्ष्ण समाजशास्त्रीय दृष्टि से लुका नहीं पाती कि जातीय चेतना अभी भी सांस्कृतिक विलंबन ( cultural lag) का आखेट है।
‘विकल्प की तलाश जारी रखनी होगी ‘ अपने इस लेख में शिवदयाल जी ने बड़ी शिद्दत से समाजवाद के प्रखर प्रवक्ता किशन पटनायक को याद किया है। किसी वस्तु के पूर्णतः नष्टप्राय हो जाने के बाद उसकी गढ़ियायी और जीवंत छाया एक धरोहर के रूप में किसी चित्रकार की पेंटिंग में ही हो सकती है।शिवदयाल जी का खचित किशन पटनायक का यह शब्द चित्र समाजवाद की स्मृति की कुछ वैसी ही धरोहर है।
बिहार में राजनीति और विकास के बीच के द्वंद्व की चर्चा करते हुए लेखक इसके बहिवर्ती और अंतर्वती दोनों कारकों की पड़ताल करता है। लेखक का मानना है कि ‘ पिछड़े समाजों अथवा क्षेत्रों में विकास के लिए जिम्मेदार तत्वों में सत्ता संरचना और राजनीति की दिशा, शासन की नीतियाँ और कार्यक्रम, ब्यूरोक्रेसी, निष्पक्षता और विश्वसनीयता, उत्पादन संबंधों का स्वरूप, उत्पादन एवं वितरण तंत्र की सक्रियता और सबके ऊपर आमजन की इच्छा शक्ति शामिल है।’ बिहार की राजनीति ही बिहार के विकास का सबसे बड़ा रोड़ा है। बिहार की राजनीति और विकास एक दूसरे के विलोम बनकर आमने- सामने खड़े हैं। राजनीतिक इच्छा शक्ति का नितांत अभाव है। राजनीतिक नेतृत्व के पास विकास की दृष्टि का सर्वथा अभाव है।
दलतंत्र के इस दलदल में कुकुरमुत्ते की तरह उगने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों की दशा और दिशा पर भी लेखक ने अपनी आँखें फेरी हैं। सिद्धांततः तो स्थानीय मुद्दों की अनदेखी ही निर्दलीय उम्मीदवारों के उदय का कारण होना चाहिए। लेकिन यहाँ मुद्दा स्थानीय हित नहीं बल्कि व्यक्तिगत अहं है।पैसा, जाति और ताक़त ही राजनीति के सबसे जरूरी आयाम हैं। अब तो राजनीतिक संरक्षण में एक नया भू - माफिया वर्ग भी मैदान में उतर आया है, जिसका अपराधियों और भ्रष्ट अधिकारियों के साथ फ़ेविकोल का जोड़ असली जमीन मालिकों पर भारी पड़ रहा है। बिहार में भूमि सुधार की असफलता पर तंज कसते हुए लेखक का यह विचार ध्यातव्य है कि “ मंडलवाद के उफान के दौर में एक समय ऐसा लगा था कि बिहार में सामंतवाद के दिन गिने - चुने हैं, लेकिन बाद में सामंतशाही को चुनौती देनेवाली जमातों ने ही सामंतों का एक नया वर्ग बना लिया। नवसामंतों का यह वर्ग अपने प्रतियोगियों (पूर्वकालीनों ) से भी ज़्यादा रूढ़ और नृशंस साबित हुआ, अपने यथास्थितिवादी आग्रहों में ये और भी संवेदनहीन निकले, चाहे वह जातीय आग्रहों का मामला हो या जमीन के मसले हों।”
शिक्षा व्यवस्था का तो बंटाधार हो गया है। प्राथमिक शिक्षा से गुणवत्ता गायब, माध्यमिक शिक्षा का कोई नामलेवा नहीं और उच्च शिक्षा पतन के गर्त में! बड़ी संख्या में राज्य से बच्चे मजबूरी में बाहर पढ़ने जा रहे हैं। लेखक की इस तहक़ीक़ात से यह बात भलीभांति समझ में आ जाती है कि यहाँ की शिक्षा व्यवस्था चलाने वाले अधिकारी और नेता स्वयं अपने बच्चों को बिहार में क्यों नहीं पढ़ाते।
विकासोन्मुखी गवर्नेंस पर भी लेखक ने अपनी वस्तुनिष्ठ दृष्टि फेरी है। एक ओर लेखक सड़क निर्माण और अन्य आधारभूत संरचनाओं के क्षेत्र में हो रही निरंतर प्रगति को रेखांकित करता है तो दूसरी ओर इसकी विसंगतियों और पर्यावरण और पर्यावास में हो रहे निरंतर क्षरण को आड़े हाथों भी लेता है। शिवदयाल जी ने शराबबंदी क़ानून के कार्यान्वयन के प्रमुख किरदारों की बेवक़ूफ़ी की भी बखूबी चर्चा की है। बिहार का प्रशासनिक तंत्र अपराध के राजनीतिकरण और राजनीति के अपराधीकरण के बीच जाके फँस गया है। जड़ता, ह्रास, संवेदनहीनता, कोताही जैसे लक्षणों वाली बीमारी ‘बिहार सिंड्रोम’ के बढ़ने का तो आलम ये है कि लेखक को चिंता है कि कहीं यह संक्रामक होकर अन्य राज्यों को भी अपने चपेट में न ले ले। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लेखक की यह चिंता बेवजह नहीं है।
लेखक ने कोरोना काल में मजदूरों के आव्रजन से उत्पन्न स्थिति पर गहरा विचार किया है। इसी की ओट में उन्होंने आव्रजन के इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान को भी खंगाल लिया है। लेखक इन अप्रवासी मज़दूरों के मन में उपजे भय के भाव पर करुणा से विगलित हो जाता है। ‘ एक मजूर की याद ‘ में मज़दूर जीवन की मार्मिक छवि अत्यंत करुण अल्फ़ाज़ों में छलक उठी है। जब करुणा के साथ भय भी उपजने लगे तो समझ लीजिए विनाश दरवाज़े पर दस्तक दे रहा है, या फिर किसी विप्लव, क्रांति या बदलाव की पूर्वपीठिका पक गई है।
लेकिन लेखक आशावादी है और उसकी यह आशावादिता उसे भारतीय मूल्य परंपरा से जोड़े रखती है। वह परिवर्तन की प्रक्रिया की वैज्ञानिक परंपरा के आलोक में समाज का अवलोकन कर रहा है।प्रकृति अपने वजूद की रखवाली का रास्ता ख़ुद तलाश लेती है। “ मानव जाति का इतिहास प्रकृति के साथ अनुकूलन का ही इतिहास नहीं है बल्कि प्रकृति को अपने अनुकूल बनाने का इतिहास भी है।” पदार्थ हमेशा जड़वत पदार्थ ही नहीं बना रहता। वह अपने को ऊर्जा में रूपांततरित करने की थ्रेशहोल्ड चेतना ख़ुद तलाश लेता है। शिवदयाल जी की यह आशा इन पंक्तियों में व्यक्त होती हैं, “ लेकिन जहाँ से राजकाज की सीमा समाप्त होती है वहीं से जनता की पहलकदमी और उद्यमशीलता से निर्माण का काम प्रारंभ होता है। भ्रष्ट और अकर्मण्य राजव्यवस्था जनता के सामने कठिन से कठिनतर परिस्थितियाँ तो पैदा कर सकती है, लोगों की बेहतर जीवन जीने की आकांक्षा का दमन नहीं कर सकती। राजनीति लाख नचावे, समाज अपनी राह चलता है।” बिहारियों के अद्भुत जीवट का पर्दाफाश भी हैं ये पंक्तियां! यहाँ पर शिवदयाल जी ने बिहार और बिहारी के नब्ज को छू लिया है।
यह पुस्तक मुख्य रूप से शासन से जुड़े किरदारों, समाजशास्त्रियों और सबसे जरूरी आज के युवा वर्ग के लिए पठनीय और संग्रहणीय भी है। सोचने और समझने का भाव जगाने वाली इस पुस्तक के लिए शिवदयाल जी को हार्दिक बधाई !!!

 

Wednesday, 19 February 2025

कस्तूरबा के गाँधी





 कस्तूरबा के गांधी ( नाटक)

रचनाकार - प्रोफेसर रमा यादव

प्रकाशक - संजना बुक्स, डी 70/4, अंकुर एनक्लेव, करावल नगर, दिल्ली 110090

फोन 9650480219, 8860898399

sanjanabooks16@ gmail.com

ज़िंदगी भी एक नाटक ही है। अंतर बस इतना रहता है कि किरदार के हाथ में इसकी पांडुलिपि नहीं होती यात्रा के आरंभ में। यात्रा का भविष्य बिलकुल अनजान होता है। पथ और पाथेय पथिक के साथ एक अराजक  डोर में बँधे होते हैं। कई किरदार मिलते बिछुड़ते हैं। समय, स्थान, परिस्थिति सभी कभी अपने स्वतंत्र प्रवाह में तो कभी एक दूसरे की बहाव में बहे चले जाते हैं। कुछ भी नियोजित नहीं होता। सब कुछ फ्रेश सब कुछ टटका! पूरी की पूरी यात्रा अपने हर क्षण की एक निरुद्देश्य एंट्रॉपी में गमन करती है। किंतु, जैसे ही यात्रा अपने इति श्री बिंदु पर अशेष होती है, यात्रा के किरदार को अपना ‘हिन्डसाईट’ कुछ और ही दिखता है।  मतलब, यात्रा के क्रम में ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर आगे की यात्रा  जितनी ही अनिश्चित, अपरिभाषित, अनियोजित, संदिग्ध, उद्भ्रांत और अनजाना दिख रही थी, यात्रा के अवसान बिंदु पर पहुँचकर पीछे ताकने पर वह समस्त यात्रा-पथ उतना ही निश्चित, सुपरिभाषित, सुनियोजित, स्पष्ट, नि:भ्रांत और मानो पहले से जानी-पहचानी राह के सफ़र  के रूप में दिखायी पड़ता है। गाड़ी के पार्श्व दर्पण के उलट अतीत के बिंब अपनी वास्तविक दूरी से नज़दीक दिखने  लगते हैं। दृष्टि की लौकिकता प्रखर हो जाती है और दृष्टिकोण अलौकिक। दृष्टि देह की देह पर होती है। परंतु, दृष्टिकोण आत्मा का होता है।दैहिक उद्यम का यह आंतरिक संवाद आत्मा के स्तर पर होने लगता है। एक ऐसी ही लौकिक गाथा के पारलौकिक संवाद की द्रष्टा हैं - नाट्य समूह ‘ शून्य’ की संस्थापक नाटककार रमा यादव और इनका मंत्र उचार गूंज रहा है इनकी नाट्य कृति ‘कस्तूरबा के गाँधी’ में। कस्तूरबा और गाँधी की आत्माओं की बातचीत के ये शब्द पार्श्व दीप्ति में आभासित हो रहे हैं। रमा जी  की इस नाट्य प्रस्तुति की पृष्ठभूमि भी बड़ी रोचक है।

“गाँधी पर बहस मुबाहिसे होते ही रहते हैं,……..ऐसा करते- करते  कब गाँधी मन में गहरे समा गये पता ही नहीं चला। …….उस समय जब मंच पर बापू को देखती तो मेरे मन के भीतर की ‘स्त्री’  बापू को ‘बा’ की नज़र से परखती। तभी जब टीकम ने कहा कि गाँधी पर नाटक लिखो जो अलग नज़रिए से हो। मैं सहज ही हाँ कर दी।…….. जब नाटक लिखने बैठी तो एकदम ‘बा’ मेरे मन में आ बैठीं…मैनें जैसे ही नाटक का पहला संवाद लिखा तो ‘बा’ भीतर से बोल उठीं।…. इस तरह से ‘ कस्तूरबा के गाँधी’ की रचना हुई।”

नाटककार के अंतस् में पैठी ‘बा’ की आत्मा का बापू की आत्मा के संग यह आलाप न केवल एक दंपति के मनोभावों का सहज उच्छ्वास है, प्रत्युत उसके भीतर से समसामयिक कालखंड का दीर्घ इतिहास झाँकता है।पति- पत्नी की इस टोका-टोकी और छेड़- छाड़ की मिठास अतीत की तिक्तता  को घुलाकर आत्मिक अभिसार के शाश्वत आसव का प्रसार कर रही है। भौतिक द्वैत आध्यात्मिक अद्वैत में समा जाता है।

‘रघुपति राघव राजा राम’ की सुरम्य धुन से धुलती एक छोटी सी कोठरी। चारपाई, चरखा, चौकी, कलम, दावात, कुछ काग़ज़-पतर और कोने में मिट्टी का घड़ा।कमर में इंगरसोल घड़ी लटकाये गाँधी कुछ लिखने में मशगूल।खद्दर की धोती में हाथ पोंछती और कुछ भुनभुनाती कस्तूरबा का बग़ल के कक्ष से सहसा प्रवेश।नाटक के श्री गणेश का यह सहज दृश्य इसके किरदारों के जीवन दर्शन की आभा से दर्शकों को आरंभ में ही प्रक्षालित कर देता है।

‘ सोचा क्यों न मैं भी तुम्हें आज गांधी कहकर पुकारूँ …’ कस्तूरबा की हँसी से उपजे ये वाक्य बातचीत की शुरुआत में ही अपने पति के साथ समानता के धरातल पर जुड़कर आत्मीयता के वातावरण के सृजन का स्वाभाविक पत्नीधर्मा प्रयास है।’कस्तूर तुम तो मेरे साथ रहोगी न यूँ ही हमेशा….’ इस वाक्य में मानो गाँधी की समस्त अंतर्भूत करुणा एक साथ छलक कर बाहर आ जाती है और बा की मन वीणा के सारे तार एक साथ झंकृत हो उठते हैं - ‘ तुमसे अलग थोड़ी ही हूँ … जिस दिन से तुम्हारे साथ आ गई तुम्हारी हो ली…. जहाँ ले चले चलती रही। मैंने न घर देखा न बार बस रात दिन तुम्हें देखा… ये जो तुम एकदम ज़िद्दी और झक्की।’ यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि यह वाक्य लिखते समय बा सचमुच रचनाकार के मन आँगन में उतर आयी हैं। रमा यादव स्वयं एक नारी हैं और नारी मन की पीड़ा को उन्होंने अपने शब्द चित्रों में एक कुशल चितेरे की तरह उतार दिया है। संभवतः यह संवाद लिखते समय उनके मन में उतर आयी बा के सामने उनका पूरा अतीत उतर आया होगा।

फिर बा के हाथों को थामकर जैसे बहुत कुछ एक साथ सोचते हुए बापू की भाव प्रवण स्वीकारोक्ति, ‘कुछ जगह तो ग़लतियाँ हुई हैं मुझसे….. कुछ जगह क्यों कई जगह पर ग़लतियाँ हुई हैं……’ दर्शकों को ऊहापोह में डाल देता है।वह यह सोचने को विवश हो जाता है कि बापू की इस गलती का इशारा विचारधारा की ओर है या व्यक्तिगत जीवन की ओर! 

गाँधी के हाथ से सूत के गोले को चरखे पर चढ़ाती कस्तूरबा सहज भाव में गुनगुनाने लगती हैं, चदरिया झीनी रे झीनी ….। इस आलाप में जहां एक ओर गाँधी की राजनीति में अध्यात्म तत्व की आहट सुनाई देती है, वहीं बा के अतीत की खट्टी मीठी स्मृतियों का राग भी गूँजता है। गाँधी का अध्यात्म व्यावहारिक था। यह यथार्थ पर टिका था, न कि किसी स्वप्निल आदर्श पर।वहीं कस्तूरबा पग पग पर इस आधात्मिकता की अग्नि में तप रहीं थी और पक रहीं थीं। बा की डबडबातीं आँखों में गाँधी के आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत की टीस तैर रही है।व्रती ने अपने निर्णय में सहचरी के मन का स्पर्श तक न किया! भारतीय संस्कार में सप्तपदी की शर्तों पर यह कुलिश वज्राघात है जिसमें किसी भी पतिव्रता का भहराकर गिर जाना स्वाभाविक है।वह सर्वथा सत्य के इस अनोखे उपासक की टोका-टोकी का अनवरत दंश सहती रही। फिर भी, बा ने वैवाहिक जीवन की डोर को थामे रखा।  इतिहास के समकालीन घटनाक्रम की स्मृतियों में विचरती बा नयनों की बोली में ही बापू को बहुत कुछ समझा जाती हैं। और निरुत्तर गाँधी सिर नीचा किए उसमें गड़े जा रहे हैं। बा के तर्कों से पराजित होने का संशय उनकी आँखों से झाँक रहा है। बा की आंतरिक दृढ़ता बापू के स्मरण में ‘कर्कश’ शब्द बनकर उभरती है। दूसरी ओर बा बापू को जिद्दी करार देती है। फिर, यह कहकर कि ‘यह ज़िद ही बापू की ताक़त थी’, पतिव्रता की पुष्ट परंपराओं के पालने में पलने वाली यह परिणीता अपने प्रियतम पर अपने अभिसार के मधुर भावों को न्योछावर कर देती है। भले ही पखाना साफ़ करने के बापू के फ़ैसले से बा ने ख़ुद को प्रताड़ित महसूस किया हो, किंतु आज के इस अलौकिक मुहूर्त में वह कृतज्ञ भाव से स्वीकार रही है कि गांधी के इस हठ ने गाँधी के साथ-साथ उसे भी तार दिया।


बापू के इस कथन में कि, ‘समझ नहीं आता  कि किस  तरह मनुष्य पर ये बुराइयाँ इतनी हावी हो जाती हैं…… क्यों वो आदमी होकर भी आदमी का दुश्मन हो जाता है ,,,,,क्यों एक जाति मैला ढोने का ही काम करती रहे …….हमारे ही गंदगी साफ़ करे और हम ही उसे अछूत नाम दे दें’,   नाटककार ने समूचे गांधी दर्शन को उड़ेल दिया है। रह रहकर बापू की बातों से बा पर उनकी ज़्यादतियों की यादों से उपजा अपराध भाव बरस पड़ता है, “ जिसने पग-पग पर साथ दिया, उसी की भावनाओं को न समझा।इसे अत्याचार नहीं तो क्या कहेंगे? ये हर कदम पर मेरा साथ देती चली गई ……” बापू का यह स्वगत संबोधन पाठक और दर्शक को करुणा की अजस्त्र धार में  छोड़ आता है। यहाँ गांधी का अपराध भाव हो या एक नारी रचनाकार के मन में अपने मरद की मर्दानगी से मर्माहत पत्नी की मनोव्यथा!, अभिव्यक्ति की सशक्तता ने दृश्य को अत्यंत संजीदा बना दिया है। बापू के अपराध भाव से स्पंदित बा अब उन्हें उनके मूल्यों के उदात्त गौरव का पुनर्स्मरण कराती है, ‘ मुझे याद है तुमने जो कहा था कि -“ यदि मेरे सामने ये सिद्ध हो जाये कि अस्पृश्यता हिंदू धर्म का एक आवश्यकता अंग है तो मैं अपने को ऐसे धर्म के प्रति विद्रोही घोषित कर दूँगा।” अर्वाचीन भारत की वर्तमान विद्रूपता पर बा की विभ्रांति बिलख पड़ती है, “ आज फिर ये सब लोग हाशिये पर आ गये हैं…. मज़दूरों का तो कोई ठौर ठिकाना-सा ही नहीं लगता। कई बार मन तड़प पड़ता है…….” संवेदना की व्यंजना इतनी सघन है मानों नाटककार में स्वयं कस्तूरबा समा गई हों!  

हाँ, लेकिन संवेदना और समर्पण की हहराती लहर में बा का यूँ बह जाना, “ ये भी नहीं कि मैं पुरानी मान्यताओं को मानती थी इसलिए तुम्हें परमेश्वर मान चुकी थी। मेरा अपना ख़ुद का  भी एक मस्तिष्क था …….मैं तुम्हारे साहस की क़ायल थी गांधी”, फेमिनिस्ट वीरांगनाओं के उत्साह पर पानी अवश्य देर सकती है। 

तीन अंकों में पसरे इस नाटक की बनावट और बुनावट अत्यंत सुगठित है। पुस्तक के संपादन में यत्र तत्र त्रुटियाँ आँखों में गड़ती  है। टंकण त्रुटियाँ भी हैं। काल दोष भी दिखता है। चंपारण सत्याग्रह का समय १९१७ की जगह १९२० वर्णित है। पुस्तकाकार में प्रस्तुत यह नाटक आज की एक अत्यावश्यक कृति है। प्रकाशक संजना बुक्स ने  अत्यंत सार्थक और आकर्षक मुखपृष्ठ के  साथ  इस पुस्तक को पाठकों के समक्ष परोसा है । अस्तु!









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Sunday, 22 September 2024

बस तीन बीघा की बात!





( तीन बीघा का छोटा-सा गलियारा एक बड़े भाई के बहुत बड़े दिल की दास्ताँ है। हिंदुस्तान का बांग्ला देश को दिया गया ज़मीन का यह छोटा -सा टुकड़ा बांग्ला देश के भारतीय भूभाग से परिवृत अंगरपोटा-दहग्राम नामक पश्चिमी इनक्लेव (भू-टापू) को पूरब के पनबारी मौजा से जोड़ता है। १६ मई १९७४ को इंदिरा मुजीब समझौते की कोख से निकली इस भेंट को मोदी सरकार द्वारा  जून २०१५ में १०० वाँ संविधान संशोधन पारित कर क़ानूनी जामा पहना दिया गया। उत्तर-दक्षिण दिशा में लेटी भारतीय सड़क जिस चौराहे पर इस गलियारे के गले मिलती है, वहाँ बांग्ला नागरिकों के लियी बांग्ला देश का क़ानून और हिन्दुस्तानियों के लिए हिंद का क़ानून लागू होता है। दोनों नागरिकों को एक दूसरे के पथ पर भटकने की मनाही है।)


तन तंद्रिल टीस घाव सहा था,

दिल दूर पड़ा था, तड़प रहा था।


ना धमनी थी, नहीं शिरा थी,

खून नहीं, बहती पीड़ा थी!


ना चिट्ठी थी, ना पतरी थी,

दरम्यान गली संकरी थी।


सुन अजान, नमाज पढ़ते थे,

मन ही मन सबकुछ गढ़ते थे।


पर न कुछ कह-सुन पाते थे,

ख्वाहिश के नगमें गाते थे।


नेक खयाली फूल खिला दे,

परवरदिगार! उस पार मिला दे।


सुना सहोदर, आगे आया,

भाई को अपने गले लगाया।


सँकरे  मन की बलि चढ़ाई,

उल्फत की उसने गली बनाई।


छुटके को बड़के ने दी है,

बहुत बड़ी सौगात।


ले बिरादर! बखरा मेरा,

बस तीन बीघा की बात!

 

Monday, 12 August 2024

छिन्नमस्तिका!

आसमान भी रो रहा था,

धरती पानी- पानी थी।

काली बाड़ी खप्परधारी,

चुप्पी ये बेमानी थी।


भैरव भी सावन के अंधे,

हुगली हो ली काली थी।

आयुष- मंदिर नागपंचमी,

उषा क्रूर जहरीली थी।


शील भंग है हुआ बंग का,

ममता तेरी नंगी है।

या देवी सर्व भूतेषु,

अब राजनीति से रंगी है।


अब न हेर तू मुँह हिंजड़ों का,

उठ अब तू ये ले सौगंध।

धार कृपाण हे छिन्नमस्तिका,

कर दे अरि को अब कबंध।

Tuesday, 23 July 2024

धंधेबाज़ फिर धंधे पर!

नौनिहालों को नोच-नोच,

ये देखो नटूए नाच रहे हैं।

इजलास के जलसे में जो,

रामकथा को बाँच रहे हैं।


लीपपोतकर लीक-वीक,

ये लोकलाज भी लील गए।

इंसाफ़ के अंधे बुत के, 

कल-पुर्ज़े सारे हिल गए।


लिए तराज़ू खड़ी हाथ में,

बाँधे पट्टी आँखों में।

सुबक-सुबक कर रो रही,

बेवा ख़ुद सलाखों में।


गठबंधन का नया ज़माना, 

मुंसिफ़ और बलवाई का।

नीति-न्याय के लम्पट-छलिए, 

बहसी-से कसाई का। 

 

बेचारी विद्या की अर्थी,

विद्यार्थी के कंधे पर।

इंसाफ़ सफ़्फ़ाक़ साफ़ है,

धंधेबाज़ फिर धंधे पर!