tag:blogger.com,1999:blog-381065874709748782024-03-28T23:00:01.967+05:30गलथेथरईविश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.comBlogger59125tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-8625539568850976582023-09-11T14:45:00.001+05:302023-09-11T15:09:40.543+05:30स्वतंत्र हुए स्वाधीन होना है <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhzLXPBpV4rlvNAGFVVGHJByjAI09I97CrXiHVYD-wXzISWwutMuzbdLmBdzPWFRlNO5huUrs6D9jYTJlSBrRgdYShwl0JRUyNkVkCUnQnFWDKHqUuo80Fvh6e1_zYChVlbhhbd_HIDEvHgS3zHciS-5z7KI4Su1Wq0O0Y-VZOKyH5AMDjolfK5gl0fO0g/s898/Screenshot_2023-09-11-14-23-09-38_6012fa4d4ddec268fc5c7112cbb265e7.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="726" data-original-width="898" height="259" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhzLXPBpV4rlvNAGFVVGHJByjAI09I97CrXiHVYD-wXzISWwutMuzbdLmBdzPWFRlNO5huUrs6D9jYTJlSBrRgdYShwl0JRUyNkVkCUnQnFWDKHqUuo80Fvh6e1_zYChVlbhhbd_HIDEvHgS3zHciS-5z7KI4Su1Wq0O0Y-VZOKyH5AMDjolfK5gl0fO0g/s320/Screenshot_2023-09-11-14-23-09-38_6012fa4d4ddec268fc5c7112cbb265e7.jpg" width="320" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2Uyzflz8v1Z8SYsWtAdbxHxFDLWvr8XXfOU9QzWId3dY0xMUAVWot4l5G5DP8ufzDYG868om4Vzl9VKip8KJpfW0q7WHVNZHldPoWnVAkzUJArSyDPrTQaxz2q4mrFbKQ7hxtlMGrk361Q2mSeSuuUif3RrSnsET4ZQ-duhtzoZVO_AbzHVxMM0Y3_Ec/s4096/IMG20230911142136.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4096" data-original-width="3072" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2Uyzflz8v1Z8SYsWtAdbxHxFDLWvr8XXfOU9QzWId3dY0xMUAVWot4l5G5DP8ufzDYG868om4Vzl9VKip8KJpfW0q7WHVNZHldPoWnVAkzUJArSyDPrTQaxz2q4mrFbKQ7hxtlMGrk361Q2mSeSuuUif3RrSnsET4ZQ-duhtzoZVO_AbzHVxMM0Y3_Ec/s320/IMG20230911142136.jpg" width="240" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg1jMYFtjCtrOa4sYBOsll-4gohVtaEal_mg62Tbuts26iuHwtJ9hHi-PQ2NGb8xQNWxhfeIoDXh66Sbo2kBsM_ortZc8W-GIDgdWOlBlrIC6zyLG4EPNBeECD1OwJuzW7I74erGoK4fDbSBkaPj7XYQgyVKm_xqiBzf8R3gRNqRtGWRiEuxkyzzFn1peI/s4096/IMG20230911142144.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4096" data-original-width="3072" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg1jMYFtjCtrOa4sYBOsll-4gohVtaEal_mg62Tbuts26iuHwtJ9hHi-PQ2NGb8xQNWxhfeIoDXh66Sbo2kBsM_ortZc8W-GIDgdWOlBlrIC6zyLG4EPNBeECD1OwJuzW7I74erGoK4fDbSBkaPj7XYQgyVKm_xqiBzf8R3gRNqRtGWRiEuxkyzzFn1peI/s320/IMG20230911142144.jpg" width="240" /></a></div><br /> पुस्तक - स्वतंत्र हुए स्वाधीन होना है <p></p><p>लेखक - शिवदयाल (संपर्क -९८३५२६३९३०)</p><p>प्रकाशन - प्रलेक प्रकाशन, मुंबई </p><p>मूल्य - २४९ रुपए (अमेजन और फ्लिपकार्ट पर उपलब्ध)</p><p>पुस्तक समीक्षा <br /><br />समीक्षक - विश्वमोहन </p><p><br /></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">संस्कारों का निर्माण सृष्टि के आरंभ से अबतक की यात्रा में अनुकूलताओं से हमारे सामंजस्य, प्रतिकूलताओं से हमारे संघर्ष, प्रकृति एवं पर्यावरण से स्थापित हमारे समन्वय मूलक अनुभवों, हमारे द्वारा सहेजे गए मूल्यों, प्रतिमानों और उससे उपजी संवेदनाओं से होता है। ये संस्कार हमारे अद्यतन आत्मिक कलेवर के बीज होते हैं। संस्कृति हमारी देह है और सभ्यता हमारा परिधान! हमारा मनुष्य होना हमारे संस्कारों में दिखता है जबकि उसकी बाह्य अभिव्यक्ति हमारी प्रतिभा में। आप प्रतिभा की अनुकृति कर सकते हैं, उधार ले सकते हैं, प्रशिक्षण के द्वारा अपने में परिमार्जित व आरोपित कर सकते हैं, लेकिन संस्कार को नहीं। यह हमारे स्वभाव का अंग है तथा हमारे व्यवहार के बूँद-बूँद में टपकता है। या यूँ कह लें कि हमारे संस्कार हमारे प्रकृति-तत्व हैं। इसलिए यदि पर्यावरण और प्रकृति परस्पर अनुकूल हो तो एक स्वस्थ और स्थायी वातावरण की निर्मिती होती है, जहाँ दोनों एक दूसरे से जीवन की समरसता और एकरूपता के तंतु बटोरते हैं। आपकी प्रकृति वह तत्व है जो आपकी कृति के निर्मित होने के पूर्व ही आपमें समा जाती है। प्र – कृति! आपका संस्कार आपकी उसी प्रकृति का मौलिक और अविछिन्न अंग है। यह आपका आंतरिक स्वरूप है। ठीक वैसे ही जैसा मैंने अभी कहा, ‘संस्कृति आपकी देह और सभ्यता आप का परिधान है। और, संस्कार रूपी इस देह की कोशिकायें हमारे पुरखों की वृहत जीवन यात्रा, उनके अदम्य संघर्ष, उनके उत्थान-पतन के अनुभव और उनकी संवेदनाओं का सरगम हैं।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">‘मुक्तोअहम’ भारत की प्रकृति है। ‘तत् त्वम असि’, ‘सो अहं’ एवं ‘सर्वं खलु इदम ब्रह्म’ अर्थात अस्तित्व के स्तर पर सभी प्राणी एक ही हैं, यहाँ के लोक मानस का अध्यात्म है। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ यहाँ के लोक-जीवन के दर्शन का संस्कार है। ‘आत्मवत सर्वभूतेषु’ यहाँ का लोकाचार है। अपनी इसी प्रकृति, अध्यात्म, दर्शन और लोकाचार में समाहित होना हमारा स्वाधीन होना है। स्वतंत्रता एक बाह्य तंत्र का अपना होना है, जबकि स्वाधीनता अधिभौतिक, अधिदैविक और आध्यात्मिक स्तर पर किसी भी बाह्य सत्ता से पूर्ण मुक्त होकर हमारे उस आत्मिक स्वरूप को पा लेना है जिसका विस्तार सूक्ष्म से विराट और व्यष्टि से समष्टि की ओर जाता है। इसीलिए, भ्रातृत्व-भाव से भरी भारत-भूमि में समता और समानता के करुण भाव की सुधा से सिंचित लोकतंत्र के कल्पतरु का फलना-फूलना स्वाभाविक है। एक ऐसा कल्पतरु जो सबको गले लगाए, सबको छाँह दे और सबकी आकांक्षाओं की पूर्ति करे। ‘सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया:’। यही मूल है शिवदयाल जी के इस दृष्टिकोण का कि स्वतंत्रता आंदोलन में अरविंद, तिलक, और गांधी जैसे दर्शन की परम्परा के प्रतिकूल पश्चिमी वेस्ट्मिन्स्टर प्रणाली का गणवेश धारण करने के बावजूद भारत की धरती पर लोकतंत्र जमा और जगा रहा है। जबकि इसी के आस-पास और साथ-साथ जन्मे अन्य स्वतंत्र देश, पड़ोसी सहित, सर्वसत्तावाद के दलदल में उतर चुके हैं। इन सभी देशों पर लोकतंत्र का रंग चढ़ ही नहीं पाया। </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">स्वातंत्र्योतर भारत की स्वतंत्रता से स्वाधीनता की ओर यात्रा का चाल और चरित्र क्या रहा है – इसकी पड़ताल शिवदयाल जी ने अपने विचारोत्तेजक विमर्श ग्रंथ ‘स्वतंत्र हुए हैं, स्वाधीन होना है’ में की है। स्वतंत्रता के अमृत वर्ष में लेखक का यह सागर-मंथन अत्यंत सामयिक और जायज़ है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हमारे सेनानी पुरखों के द्वारा स्थापित उदात्त मूल्यों, आदर्शों और उद्देश्यों से दूर होती हमारी स्वातंत्र्योत्तर यात्रा से उपजी पीड़ा में पुस्तक का आरम्भ दिखता है। लेखक का इतिहास बोध अत्यंत तार्किक धरातल पर बड़ी प्रखरता से प्रकट होता है। कहीं- कहीं प्रतीकों के माध्यम से वह अपनी बात बहुत कुशलता से कह जाता है। ‘दुनियावलों को कह दो, गांधी अंग्रेज़ी नहीं जानता’ – अमृत वर्ष में अपनी भाषा की दुर्दशा पर लेखक की करुणा इन पंक्तियों में छलक जाती है। गांधी के नाम पर अपनी राजनीति चमकाने वाले नेताओं के द्वारा गांधी की गहरी उपेक्षा लेखक को अंदर तक आहत कर जाती है। राजनीति को नैतिक और आध्यात्मिक औज़ार की तरह प्रयोग कर सत्य और अहिंसा पर आधारित स्वराज के गांधी के सपनों को उनके अनुयायी श्रीमननारायण अग्रवाल ने ‘स्वतंत्र भारत के लिए गांधीवादी संविधान, १९४६’ नामक दस्तावेज़ में सजाया। इसकी प्रस्तावना स्वयं गांधी ने लिखी। इसमें भारत की अपनी देशी संवैधानिक परंपरा की पृष्टभूमि थी। ग्राम-पंचायत आधारित विकेंद्रित राजनीतिक एवं प्रशानिक ढाँचे की रूपरेखा थी। संविधान निर्माण की इस भारतीय गांधीवादी दृष्टि को नेहरु-अंबेडकर ने सिरे से ख़ारिज कर दिया। खोखले इतिहास बोध वाले नेताओं ने एक हज़ार साल तक साथ-साथ रहते आए दो समुदायों को बाँट दिया। जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया की बँटवारे के विरोध में उठी आवाज़ नक्करखाने की तूती बन कर रह गयी। पट्टाभिसीतारमैया की दृष्टि में एक ही साथ चारों वर्णों की भूमिका का निर्वाह करने वाले और चारों आश्रमों में एक साथ रहने वाले गांधी लेखक की नज़र में भारतीय संविधान से बिलकुल ग़ायब हो गए हैं। भारत अब व्यक्तियों का, नागरिकों का नहीं, जातियों का लोकतंत्र बन गया। औद्योगिकरण और शहरीकरण की ओर भागती विकास योजनाओं ने गाँव को न केवल पीछे छोड़ दिया, प्रत्युत उन्हें परजीवी बना दिया। कल का दाता आज का भिखारी बन गया। ग्रामीण और कुटीर उद्योग विनष्ट हो गए, बेरोज़गारी और शहरों की ओर भागती भीड़ बढ़ी। रासायनिक खादों ने ज़मीन को विषाक्त बना दिया, जल स्तर नीचे चला गया, उर्वरा शक्ति घटी, किसानों ने ख़ुदकुशी कर ली और आत्महीनता की ग्रंथि बढ़ती चली गयी।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">१९१७ में दमन के ख़िलाफ़ दो रास्ते निकले। एक स्थानीय स्तर पर गांधी का अहिंसक सत्याग्रह चंपारण में। दूसरा, हिंसक बोल्शेविक क्रांति रूस में। आज २१ वीं शताब्दी में हमें गांधी की दृष्टि की दीप्ति स्पष्ट दीख रही है। लेखक समकालीन साहित्य के आँगन में पसरती गांधी की टहकार छाया को भी छापने से गुरेज़ नहीं करता। हिंदी साहित्य अपने राष्ट्र नायक को एक ऐसी भूमि भेंट करता है जहाँ सामाजिक समता, साम्प्रदायिक एकता, स्त्री अधिकार के प्रश्न और राष्ट्र भक्ति की भावना के स्वर पूरी तीव्रता से गूँज रहे हैं। जहाँ, १८७४ में ही भारतेंदु हरिश्चंद नामक एक चौबीस वर्षीय युवा साहित्यकार अपने पत्र ‘कविवचन सुधा’ में विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार का शंख नाद कर देता है। १९१४ में सरस्वती में महावीर प्रसाद द्विवेदी ‘अछूत की शिकायत’ छाप रहे होते हैं। प्रेमचंद उर्दू से हिंदी की ओर एक ऐतिहासिक भूमिका का निर्माण करने आते हैं और १९२१ में सरकारी नौकरी छोड़कर असहयोग आन्दोलन में साहित्यिक हथियार थाम लेते हैं। जैनेंद्र का तत्व-चिंतन स्त्री को संस्कृति की धुरी के रूप में घोषित करता है। गांधी के विचार दर्शन से आलोकित सियाराम शरण गुप्त, भगवती वाजपेयी, सुभद्रा कुमारी चौहान, दिनकर, बच्चन, महादेवी, जयशंकर प्रसाद, भवानी प्रसाद मिश्र, केदार नाथ अग्रवाल, मैथिली शरण गुप्त, सोहन लाल द्विवेदी, माखन लाल चतुर्वेदी, राम नरेश त्रिपाठी, बाल कृष्ण शर्मा नवीन जैसे अनेक रचनाकारों की रचनाओं से साहित्य की भूमि प्रकाशित है। स्वतंत्रता के उपरांत भी गांधीवादी दर्शन की यह रोशनाई सुखती नहीं। फणीश्वर नाथ रेणु जैसे कालजयी आँचलिक साहित्यकार की कलम से यह रोशनाई और गाढ़ी होकर बह निकली। लेखक ने रेणु जी पर अलग से एक अध्याय ही समर्पित कर दिया है, जिसमें रेणु के साहित्य में उनके समकालीन समाज की आहट का बड़ा सजीव चित्रण है।। नागर जी का ‘नाच्चो बहुत गोपाल’, मौरिशस के अभिमन्यु अंत का ‘गांधीजी बोले थे’, गिरिराज किशोर का ‘पहला गिरमिटिया’, और रमेश चंद्रा शाह का ‘ क़िस्सा ग़ुलाम’ और ‘गोबर गणेश’ इसी परम्परा की कृतियाँ हैं।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">लेखक ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लेकर आजतक की यात्रा की इस देश के इतिहास के आलोक में अत्यंत वस्तुनिष्ठ, निष्पक्ष एवं वैज्ञानिक समीक्षा की है। इस देश में शिक्षा की दशा और दिशा पर लेखक की विवेचना एक दम से आँखें खोलने वाली है। शिक्षा की दुर्दशा और उसकी उपेक्षा पर लेखक की पीड़ा न केवल पूरी तरह से छलक कर बाहर आ गयी है, बल्कि पाठक भी उसके साथ बहने को बाध्य हो जाता है। अकाट्य तथ्यों पर आधारित उसकी मीमांसा दूध का दूध और पानी का पानी कर देती है। एक ओर, मुस्लिम आक्रमणकारियों ने १२ वीं शताब्दी के आसपास भारतीय उपासना स्थलों को, जो सरस्वती की उपासना के महान और पवित्र केन्द्र भी थे, धनका के ‘स्वाहा’ कर दिया। नालंदा, उदवंतपुरी और विक्रमशिला की जली ईंटों के भग्नावशेष उनके कलंकित कुकृत्यों के गवाह बनकर रह गए। इन बर्बर विदेशियों ने भारतीय शिक्षा को अंधकार युग में धकेल दिया। वहीं दूसरी ओर, इस अंध-युग के छोर पर उदित यूरोपीय पुनर्जागरण काल में भारत और पीछे धकेल दिया गया। शिक्षा की दौड़ में यह न केवल बहुत पीछे छूट गया बल्कि अपने विशाल पारंपरिक ज्ञान से भी पूरी तरह कट गया। बाद में, अंगरेज शासकों ने अपनी औपनिवेशिक आवश्यकताओं के अनुरूप भारतीय शिक्षा प्रणाली को घसीटा। दुर्भाग्यवश, स्वतंत्र भारत के नेता शिक्षा प्रणाली को इस औपनिवेशिक ग़ुलामी से मुक्त करने में बुरी तरह असफल रहे। गांधी की बुनियादी शिक्षा अपनी बुनियाद के नीचे ही कराहती रह गयी। इन सारी विसंगतियों के बावजूद लेखक ने गवर्नर जोनाथन डंकन, डेविड हेयर, चार्ल्स वुड और विल्सन जोंस जैसे महापुरुषों के भारतीय शिक्षा व्यवस्था में अविस्मरणीय योगदान का स्मरण कर अपने इस विमर्श को अत्यंत सार्थक और सदिश बना दिया है।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">यूरोप की औद्योगिक क्रांति का मार झेलती भारतीय अर्थव्यवस्था के धीरे-धीरे दम तोड़ने की घटना का बड़ा ही सजीव चित्रण किया गया है। हालाकि लेखक के इस मत से हम सहमत नहीं कि ‘इस दौर में औद्योगिकीकरण से उलट ग्रामिणीकरण की प्रक्रिया आरंभ हुई’। न ही, लेखक ने अपने इस वक्तव्य का कोई उचित प्रमाण प्रस्तुत किया है। बात जो भी हो, यह पुस्तक विमर्श की एक अत्यंत समृद्ध परंपरा को बड़े सशक्त रूप से आज के भारत के समक्ष रखती है और इतिहास और परवर्ती घटनाओं के अत्यंत तर्कपूर्ण विवेचना के माध्यम से पाठकों की न केवल आँखें खोलती है, बल्कि एक सुनियोजित भविष्य के ताने-बाने बुनने के लिए शिक्षित भी करती है। ‘समत्व से समरसता’, ‘धर्मनिरपेक्ष यथास्थितिवाद’, प्रवर्जन, कोरोना से उत्पन्न स्थिति और मानवाधिकार के मुद्दे पर लेखक के विचारों और लेखनी से पाठक चमत्कृत हो जाता है। इन विषयों पर व्याप्त छद्म बुद्धिवाद पर अत्यंत सहज और मृदुल भाषा में लेखक की खरी-खोटी टिप्पणी उसकी आलोचना के ढब के ऊँचे संस्कार से पाठकों का परिचय कराती है। एक स्वस्थ आलोचना और समृद्ध विवेचना कैसे की जाती है – इसके फन को यदि सीखना है तो इस शिल्प के छात्रों के लिए यह एक पठनीय पुस्तक है। </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">‘एक प्राचीन देश का नया अवतार हुआ’ – इस पंक्ति से आग़ाज़ करने वाली इस पुस्तक का उपसंहार इन पंक्तियों में होता है, ‘भारत होने का अर्थ है पाँच हज़ार साल की बहुलवादी संस्कृति का एक प्रशस्त संभावना के रूप में बचे रहना। भारत होने का अर्थ है भिन्नताओं से अभिन्नता और भेद से अभेद की उपलब्धि! हिंसक प्रवृतियों और अनर्थकारी घटनाओं के रहते भी अहिंसा और शांति की सबसे बड़ी आशा भारत ही है।‘ आज ग्रूप -२१ की अन्तर्राष्ट्रीय पंचायत की बैठक के उपसंहार दिवस पर नयी दिल्ली घोषणापत्र में ये पंक्तियाँ साक्षात जीवित होकर सामने खड़ी हो गयी हैं।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">सच कहूँ, तो यह पुस्तक भारत के समाजशात्र का साहित्य है जो बड़ी दुर्लभता से आजकल दिखता है। देश की दशा और दिशा तय करने वाले और नीति निर्धारण से जुड़े लोगों के लिए तो एक आवश्यक पाठ्यक्रम-सा है। शिवदयाल जी को बधाई तथा माँ भारती को शुभकामनाएँ!!!!</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">विश्वमोहन </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">दिल्ली, १० सितंबर २०२३</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><br /></div></div><p style="text-align: justify;"><br /></p><p style="text-align: justify;"><br /></p>विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-58895263447897519722023-07-23T11:44:00.008+05:302023-07-23T11:47:23.922+05:30कलौंछ <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjnD0PfpT95FDuVevKjqVZ44Yxhlb3MTRwW9ZIK_Yp4KEvnUpKJxQlnvJYIVQ_2i1KH9MWrf68TzWsE04S0SJCEhg-L5HI5fqM_mIIEvJq9kK8XtqCrI8lK3tTHF_UtjE2gSq14u0ambFf8iBtW5uPO-pkFrs-ffSpnyW9Ts94V3BWUH9i6ONhiUG5mPCU/s967/Screenshot_2023-07-23-11-41-59-62_40deb401b9ffe8e1df2f1cc5ba480b12.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="592" data-original-width="967" height="196" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjnD0PfpT95FDuVevKjqVZ44Yxhlb3MTRwW9ZIK_Yp4KEvnUpKJxQlnvJYIVQ_2i1KH9MWrf68TzWsE04S0SJCEhg-L5HI5fqM_mIIEvJq9kK8XtqCrI8lK3tTHF_UtjE2gSq14u0ambFf8iBtW5uPO-pkFrs-ffSpnyW9Ts94V3BWUH9i6ONhiUG5mPCU/s320/Screenshot_2023-07-23-11-41-59-62_40deb401b9ffe8e1df2f1cc5ba480b12.jpg" width="320" /></a></div><br /> <p></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p>इससे पहिले कि,</p><p>उतरे नेताओ की आंखों का पानी,</p><p>उतर गया जमुना का पानी!</p><p>अब राहत में राजधानी।</p><p>खतरे के निशान से ऊपर है लेकिन,</p><p>अभी भी तथाकथित 'संजय उवाच ',</p><p>मीडिया की ' लोक' वाणी।</p><p>मौसम पसीना पसीना,</p><p>जनता पानी - पानी!</p><p><br /></p><p>छोड़ो जमुने! चिंता विंता,</p><p>उतरने का इस पानी का।</p><p>मत ताजो तुम अपना पानी।</p><p>चढ़ी रहो, हे तरनी तनुजा कालिंदी!</p><p>यम की बहन, काल यामिनी!</p><p>वरना, छोड़ेंगे नहीं ये नर पुंगव!</p><p>तुम्हे भी, घुमाएंगे नग्न,</p><p>तुम्हारी ही तलहटी में!</p><p><br /></p><p>करने को शर्मसार उस,</p><p>अमृत सैकत राशि को।</p><p>थिरकते पैरों के निशान हैं,</p><p>जिस पर तुम्हारे कान्हा के।</p><p>जिन वादियों में गूंजते थे,</p><p>मुरली की तान पर,</p><p>गीत गोविंद जयदेव के।</p><p>"तैर रही अब फिजा में, हाहाकार!</p><p>तीन देवियों की निर्वस्त्र चित्कार।"</p><p><br /></p><p>ढूंढते रह जाएंगे, अधिमास में, सावन के!</p><p>स्वयं कालकुट, मणिकर्णिका! अपनी पार्वती के।</p><p>उफनो, उफनो हे बहन! काल की! और सुनो!</p><p>कहना कान्हा को कि,</p><p>काटे नहीं कलीय के मस्तक।</p><p>मन भर डसे उन दुष्टों को उरग,</p><p>पोंछा कलौंछ जिन हैवानों ने,</p><p>दीप्त श्रीपुर के कंचन महल में,</p><p>किया अपवित्र तुम्हारी मणि को!</p><p><br /></p>विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-18874218828455951582023-07-18T10:31:00.002+05:302023-07-18T10:31:19.269+05:30पानी - पानी (लघुकथा)<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgwx5zF8UXVFe4jSaYe2c9Thw1wlgEn7VYsyy4fbJplKf3I8Wu6cq6j2DcQKN-GyRBSIwApAOPOKmRLZa9yv2X5x70lzC7Pw7b9ryPOH52t-Scp5G-4zwew96S8izXtIhgY5JnsTIdlT4OT_49awmtCknUWPWhWOADgg8JiBEsiiNkguOTzSuhRoU_BWE4/s841/IMG_20230718_085809.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="841" data-original-width="571" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgwx5zF8UXVFe4jSaYe2c9Thw1wlgEn7VYsyy4fbJplKf3I8Wu6cq6j2DcQKN-GyRBSIwApAOPOKmRLZa9yv2X5x70lzC7Pw7b9ryPOH52t-Scp5G-4zwew96S8izXtIhgY5JnsTIdlT4OT_49awmtCknUWPWhWOADgg8JiBEsiiNkguOTzSuhRoU_BWE4/s320/IMG_20230718_085809.jpg" width="217" /></a></div><p><br /></p><p></p><p><br /></p><p>नेताओं की आंखों के पानी से पहले जमुना का पानी उतरा। राजधानी को राहत। मीडिया अभी भी खतरे के निशान से ऊपर। जनता पानी - पानी!</p><p> </p>विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-38969712659319796762023-06-12T09:19:00.001+05:302023-06-12T09:22:15.328+05:30बेटी बचाओ, बेटी बढ़ाओ!<p> हर भी हारे, हरि भी हारे,</p><p> भारत माता को कौन तारे!</p><p>हे शिव, अब तू खोल जटा रे,</p><p>चंदा मामा आ रे आ रे!</p><p><br /></p><p>क्रूर कपट के कोलाहल में,</p><p>हर की पौड़ी मौन पड़ी है।</p><p>लाज शरम से भागीरथी भी,</p><p>गहवर के पाताल गड़ी है।</p><p><br /></p><p>सत्ता के इस न्याय महल में,</p><p>खर्राटें हैं खरदूषण के।</p><p>उसको ढांपे और दबोचे,</p><p>मल्ल कला ये बज्र भूषण के।</p><p><br /></p><p>ई डी देखो भई फिसड्डी,</p><p>वृज रास इस रंगमहल में।</p><p>सी बी आई अब भरमाई</p><p>कानून के कोलाहल में।</p><p><br /></p><p>ठूंठ बाड़ इस तंतर में अब,</p><p>जंतर मंतर पर ये गाओ।</p><p>सीखो पहले धोबिया पाठ,फिर!</p><p>बेटी बचाओ, बेटी बढ़ाओ।</p><p><br /></p><p><br /></p>विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-71981988729869689002022-09-14T23:10:00.000+05:302022-09-14T23:13:26.811+05:30जय हिन्द, जय हिन्दी!!!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">मेरे लिए सितम्बर महीना भी न वैचारिक व्यस्तताओं का महीना बन जाता है!
शिक्षक दिवस (दार्शनिक राधाकृष्णन का जन्म दिवस), अभियंता दिवस (इंजीनियर विश्वेश्वरैया
का जन्म दिवस), हिदी दिवस (राजभाषा हिंदी का जन्म दिवस), फिर इस देश की आज़ादी का
स्वाद जिनकी अमर कुर्बानियों के कारण हम चख रहे हैं उस प्रातःस्मरणीय<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>'शहीद-ए-आजम' सरदार भगत सिंह का जन्मदिवस और
संगीत की सुर-सम्राज्ञी एम एस सुब्बालक्ष्मी का जन्म दिवस. <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>ये सभी किरदार किसी न किसी रूप में हमारे अन्दर
के भारतीय संस्कारों को कुरेदते हैं . और सच कहूँ तो ये समस्त जन्म दिवस समारोह
मेरे अंतर्मन में श्रद्धांजली समारोह के रूप में ज्यादा उभरते हैं. अमूमन इन
दिवसों पर इन किरदारों के बारे में हमारे मुख से कुछ ऐसे ही भाव से भरे शब्द
निकलते है जो आम तौर पर निधन के बाद निकलते हैं. यह हमारा स्वभाव हो गया है. हमें
ये करना चाहिए, हमें वो करना चाहिए, हम उनके इस रास्ते से अलग हो गए, ...आदि आदि. और,
अंत में सारा ठीकरा या तो सरकार के सर फोड़ देते हैं या फिर रो पीट के कुछ शाश्वत
चिरंजीवी संकल्पों का उच्चारण कर<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>अगली
श्रद्धान्जली दिवस तक चुप हो जाते हैं. </span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">अब देखिये न, इसी कड़ी में कल हिंदी दिवस है. पूरा देश कल पानी पी-पी
के हिंदी की दुहाई देगा. चिल्ला चिल्ला कर कसमें खायेगा 'हमने ये नहीं किया, हमने वो
नहीं किया, हम ये करेंगे, हम वो करेंगे.' फिर अगले ही शैक्षणिक सत्र में मेकाले की
मानस संतति-धारा को चिरंतन बनाने हेतु किसी अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय के
नामांकन फार्म की लम्बी लाइन में चहकते नज़र आयेंगे. लेकिन, कम से कम, हिन्दी दिवस के
दिन तो 'निज-भाषा -गौरव' की उत्ताल तरंगों से पूरा देश आप्लावित रहेगा ही. हो भी
क्यों नहीं! मैथिली शरण जी सुना जो गए हैं: </span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">'जिसे न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है,</span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">वह नर नहीं नर पशु निरा है और मृतक समान है. '</span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">इसलिए यह श्रद्धांजली उत्सव कहीं दिवस के रूप में मनेगा तो कहीं
सप्ताह भर! तो, कहीं पखवाड़े भर का इंतज़ाम! हिंदी के दिवस, सप्ताह और पखवाड़ों की दूकान
लग गयी है. बाज़ार सज गयी है. उत्सवों की भी 'ब्रांडिंग' हो गयी है अब विशुद्ध
बाजारू ढंग से. सब कुछ अब बाजारू हो गया है . और, यदि हम सच कहें तो बाज़ार ही वह
जगह है, जहाँ फूहड़ गंवार 'भाखा' भी सज धज कर सुहागन 'भाषा' बन जाती है. जहाँ सभी
अपनी अपनी फूहड़ता को फूंककर एक समरूप अभिव्यक्ति के परिधान में सजकर साथ खड़े हो
जाते हैं. एक दूसरे को अपनी बात बताने-बुझाने को और दूसरे की बात सुनने-समझने को भावों
और शब्दों की सम्पुट शैली का सूत्र तलाश लेते हैं. यह सब स्वाभाविक रूप से होता है
. न कोई दबाब , न कोई आरोप और न कोई प्रत्यारोप ! जो बाज़ार में बिका, वो टिका!
जिसका भाव जितना गहरा, वो उतना ही ठहरा! इस बात को सबसे पहले किसी ने समझा-समझाया
तो वह हमारे फक्कड़-फकीर कबीर थे ;</span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">"कबीरा खडा बाज़ार में लिए लुगाठी हाथ</span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">जो घर फूंका आपने, चले हमारे साथ." और आगे</span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">"कबीरा खडा बाज़ार में सबकी मांगे खैर</span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">ना काहू से दोस्ती, ना कहू से बैर."</span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">जी, तो मेरे कहने का मतलब यहीं है कि हमारी वर्तमान हिंदी ने भी अपने
इस स्वरुप में गढ़े जाने के पहले किसिम-किसिम की मंडियों की तेज़ी और मंदी की
खुरदराहट और फिसलन से गुजरते हुए अपनी जमीन तैयार की है. यह प्रक्रिया सनातन है और
सनातन जारी रहेगी.<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>हाँ, पहले ही मैं आपको
साफ़ कर दूँ कि भाषा के दो रूप समानांतर चलते हैं. एक उसकी बोल चाल और रोज रोज के
चलन का उसका सामजिक व्यावहारिक चोला और दूसरा उसका साहित्यिक झोला! आगे आगे समाज
,पीछे पीछे साहित्य! आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है.</span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">मैं कोई भाषा विज्ञानी नहीं. इसलिए मेरी बातों का आप अपनी भारी-भरकम
बुद्धि के शक्तिशाली माइक्रोस्कोप से छिद्रान्वेषण न करें. मुझे पता है बीच-बीच
में मेरे द्वारा प्रयोग किये जा रहे अंग्रेजी शब्दों पर आप अपनी भौहें तान रहे है.
अरे भाई, यहीं तो भाषा का बाज़ार है. चलिए, भगवान कृष्ण की बात तो<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>मानेंगे न!</span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;"><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>" </span><span lang="HI" style="background: white; color: #545454; font-family: "mangal" , "serif";">यद्यदाचरति
श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः </span><span style="background: white; color: #545454; font-family: "arial" , "sans-serif";">| </span><span lang="HI" style="background: white; color: #545454; font-family: "mangal" , "serif";">स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते</span><span style="background: white; color: #545454; font-family: "arial" , "sans-serif";"> </span><span lang="HI" style="background: white; color: #545454; font-family: "mangal" , "serif";">"</span><span style="background: white; color: #545454; font-family: "arial" , "sans-serif";"><o:p></o:p></span><br />
<span lang="HI" style="background: white; color: #545454; font-family: "mangal" , "serif";">( समाज के श्रेष्ठ कुलीन जन जैसा आचरण करते हैं, उसी को प्रमाण मानकर आम जन अनुसरण करते हैं.)</span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="background: white; color: #545454; font-family: "mangal" , "serif";"><span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span><span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">अपनी तत्सम शब्दावली समृद्ध कविता 'राम की शक्ति पूजा में' महाकवि
निराला ने भी 'मशाल' शब्द का प्रयोग किया है. यह हिंदी का शब्द नहीं. जब साहित्य
में हमारे कुलपुरुष ऐसा कर सकते हैं तो फिर कृष्ण भगवान द्वारा दिए गए 'डिस्काउंट'
का 'लाभ' हम क्यों नहीं उठाएं! बाज़ार है भाई! मैं हिन्दी साहित्य का इतिहास उकटने
नहीं जा रहा और न ही राजभाषा के राजकीय पल्लवन , पुलकन और पालन पोषण का प्रसंग
छेड़ने! मैं तो उस कलकल छलछल हिन्दी सरिता के सरल प्रवाह की बात कर रहा हूँ जो
मुगलों के मीना बाज़ार में उर्दू की मिठास घुलाती, अंगरेज बहादुर के कंपनी बाज़ार
में सियासत के ककहरे सीखती, स्वाधीनता के संघर्ष काल में माटी के मूल्यों को
सहेजती, उसमें सजती-संवरती, स्वातंत्र्योतर भारत के समाजवादी और राष्ट्रवादी कलेवर
में निखरती, उदारवादी खुले बाज़ार में पसरती और अब सूचना क्रांति के साइबर-बाज़ार में
इन्टरनेट के सोशल साईट पर सज-धज कर खिलखिलाती जन-मानस को लुभा रही है . साथ-साथ
इसकी मुंह बोली बहने और सखियाँ भी अपने-अपने प्रान्तों में वैसे ही अपने
उपभोक्ताओं से महारास रचा रही हैं. कहा न, बाज़ार है. जो ग्राहक की पसंद होगी, वहीँ
बिकेगा. </span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">हाँ, तो मैं बता दूँ कि बाज़ार तलाशने ही एक डच व्यापारी कर्टलर आये थे
१६८५ में सूरत. मकसद था तिजारत और समस्या थी जुबान की. भाषा की. अब जहाँ तिजारत
करेंगे तो भाषा भी तो वहीँ की जाननी होगी. हिन्दी गुजराती के मिश्रित रूप से उनकी
मुलाक़ात हुई. सो, उन्होंने रच डाला - हिन्दी का पहला व्याकरण जो ज्यादा हिन्दीपरक
ही था. १७१९ में ईसाई धर्म प्रचारक बेंजामिन शुल्गे मद्रास आया. बुरा न माने तो
लगे हाथ ये भी बता दें कि जहाँ भी धर्म के प्रचार की जरुरत पडी तो समझिये ये भी
परोक्ष रूप में तिजारत ही है. अध्यात्म का प्रचार या तिजारत नहीं किया जाता. वह एक
मूल्य है, दर्शन है, संस्कृति है, अंतस की चेतन उत्कंठा का स्वाभाविक उच्छवास है,
मन की भाषा है जो अपने आप फैलती है , जैसे हिन्दी फ़ैल रही है. हाँ तो, शुल्गे ने
भी उसी भाषिक परम्परा में 'गरमेटीश हिंदी व्याकरण' नाम से देवनागरी अक्षरों में
हिंदी व्याकरण की रचना की. फिर लवेडेफ़ नामक पादरी ने भी पूर्वी बोलियों पर आधारित
व्याकरण की किताब लिखी. तो एक बात तो साफ़ हो ही गयी कि हिन्दी व्याकरण की पहली
किताबें विदेशी लोगों ने मद्रास और सूरत जैसी जगहों पर ही लिखी. यह इस बात की ओर
भी संकेत करता है कि हिंदी बोलियों का प्रभाव क्षेत्र कितनी दूर तक फैला था, भले
ही उसका मुलभूत कारण व्यापार और धर्म-प्रचार ही रहा हो! </span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;"><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>फिर, ब्रिटेन की कंपनी 'ईस्ट
इंडिया कंपनी' <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>आयी. आयी तो<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>थी तिजारत करने लेकिन वहाँ से धीरे धीरे<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>सियासत का रास्ता खोल गयी. मुनाफ़ा कमाने के लिए
ऐसे एजेंट तैयार करने थे उसे जो तिजारत और सियासत दोनों मुकामों को मुकम्मल करने
में उनकी मदद कर सके. १८१३ में ब्रिटिश संसद में भारत की शिक्षा-नीति की रुपरेखा
रची गयी. एक लाख रुपये का प्रावधान रखा गया, कंपनी को शिक्षा पर खर्च करने के लिए.
बात प्राच्य और पश्चिमी शिक्षा के टकराव पर आकर अटक गयी. किसको बढ़ावा दें! २०
सालों तक मशक्कत चली. प्राच्य घड़े को खुश करने के लिए अतिरिक्त ३१००० रुपये का
प्रावधान किया गया. १८३३ में नया आज्ञा (चार्टर) पत्र<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>आया ब्रिटेन की संसद का. लार्ड वेलेस्ली गवर्नर
जनरल थे. कानूनी सदस्य के रूप में आये - लार्ड मेकाले, जो स्वयं प्राच्य साहित्य
के प्रति भयंकर दुराग्रहों से परिपूर्ण एक अंग्रेजी साहित्यकार और लेखक थे. भारत
भूमि को चोट पहुंचाने वाला उनका यह वक्तव्य चिर स्मरणीय है कि 'यदि सम्पूर्ण
प्राच्य साहित्य को एक जगह इकठ्ठा कर दिया जाय तो अंग्रेजी साहित्य के लाइब्रेरी
की एक आलमारी भर ही भर पाएगी.' खैर, १८३५ में मेकाले ने भारत की शिक्षा नीति का एक
प्रारूप रखा. 'क्लास'(अभिजात्य वर्ग) को पढाओ, वह 'मास'(आम जनता) को पढ़ायेगा.' इसे
'अधोमुखी निस्यन्दन सिद्धांत'(downward filtration theory) कहा गया. मेकाले ने
अपने प्रारूप में कहा, "</span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span style="background: white; color: #222222; font-family: "arial" , "sans-serif"; font-size: 11.5pt;">"We must
at present do our best to form a class who may be interpreters between us and
the millions whom we govern… a class of persons Indian in blood and colour ,
but English in tastes, in opinions, in morals and in intellect. To that class we
may leave it to refine the vernacular dialects of the country, to enrich those
dialects with terms of science borrowed from western nomenclature, and to
render them by degrees fit vehicles for conveying knowledge to the great mass
of the population.” (Selections from Educational Records, Part-1, Edited by H.
Sharp; Reprint Delhi : National Archives of India, 1965, Pages 107 – 117 )</span><span style="background: white; color: #222222; font-family: "arial" , "sans-serif"; font-size: 11.5pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="background: white; color: #222222; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.5pt;">(हम एक ऐसे
वर्ग का निर्माण करें जो हमारे और हमारे द्वारा शासित उन करोड़ों लोगों के बीच एक
दलाल की तरह काम करे..... एक ऐसा वर्ग जो रक्त और रंग में हिन्दुस्तानी हो लेकिन
रूचि, सोच, नैतिकता और मेधा में अँगरेज़ हो. उसी वर्ग के हाथो में हम इस देश की
स्थानीय बोली और भाखाओं को परिष्कृत करने का जिम्मा सौंपेंगे.........). मूल भावना
का हमने अनुवाद कर दिया है .</span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;"><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>कालांतर में यहीं 'क्लास'
मेकाले की मानस-संतान बनकर आज तक पुष्पित-पल्लवित हो रहा है. फिर भी मेकाले ने
प्रारम्भिक शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाओं को ही रखा. </span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">ऐसा नहीं था कि अंगरेज़ शासकों में प्राच्य साहित्य या दर्शन के
पैरोकार नहीं थे. सर विल्लियम जोंस कलकत्ता सुप्रीम कोर्ट (तब कलकत्ता में सुप्रीम
कोर्ट ही था) के जज बनकर आये थे. उन्होंने भारत में हिन्दुओं और मुसलामानों के
उत्तराधिकार क़ानून की रूप रेखा बनाने के चक्कर में भारतीय साहित्य का विषद अध्ययन
किया. अपने गहन शोध से यह स्थापित किया कि संस्कृत ग्रीक और लैटिन की सहोदरी है
तथा गोथिक, कल्तिक और फारसी भाषाओं से इसका गहरा तादात्म्य है. इस निष्कर्ष की
सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि इसने भाषा और मज़हब के सम्बन्ध के मिथक को ध्वस्त कर
दिया. यानि भाषा किसी मज़हब की बपौती नहीं! फोर्ट विल्लियम कॉलेज में कंपनी के डॉक्टर जो अब सर्जन बन गए थे, डा.
गिलक्राइस्ट, को भाषा विभाग का प्रमुख बनाया गया. तब तक कंपनी के सियासत की भाषा प्रमुखत:
फारसी ही थी. गिलक्राइस्ट पहले सख्स थे जिन्होंने यह जरुरत समझी कि राज काज की
भाषा हिंदी हो और उन्होंने तदनुरूप कार्य किया. बताते चलें कि सिविल सेवा के
अंग्रेज अधिकारियों को इसी कॉलेज में प्रशिक्षण दिया जाता था. गिलक्राइस्ट ने अपनी
योजना को ठोस जामा पहनाते हुए तीन ग्रंथों की रचना की :-</span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">१. अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोष</span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">२.हिन्दुस्तानी भाषा का व्याकरण और</span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">३. प्राच्य भाषा विज्ञान</span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;"><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>अब पूरी कहानी सुनाने के
बजाय सारतः और बहुत संक्षेप में हम यह बता देना चाहते हैं कि जैसी अपेक्षाएं आयी
उसी रूप में हिंदी का चाल और चरित्र भी गढ़ता गया. साहित्य भी समान्तर चलता रहा. देश
में आजादी की लड़ाई ने अंगरेजों के उस बाज़ार को ध्वस्त करने के लिए तेज़ी पकड़ी.
समूचे देश में उबलते जन-जन के आक्रोश की भावना को साझा करने के लिए हिंदी फिर आगे
आयी. कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक क्रांतिकारी, विद्रोही, अहिंसक
आन्दोलनकारी और भिन्न भिन्न रंगों में रंगे आजादी के बलिदानी सिपाही आपस में
संपर्क सूत्र जोड़ रहे थे. इस दौर में हिन्दी का जोर-शोर से प्रसार हुआ. स्वाभाविक
लय में आवश्यकता से उद्भूत होकर. बिहार में भूदेव मुखर्जी, बंगाल में राजा राम
मोहन राय (जो स्वयं अंग्रेजी सीखने के प्रबल पक्षधर थे), केशव चन्द्र सेन, बंकिम
चन्द्र, </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">जस्टिस
श्यामचरण मिश्र</span><span style="font-size: 11.0pt;">, <a href="http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%A6%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4" title="रमेशचंद्र दत्त"><span lang="HI" style="color: windowtext; font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">रमेशचंद्र दत्त</span></a>, <a href="http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%A6_%E0%A4%98%E0%A5%8B%E0%A4%B7" title="अरविंद घोष"><span lang="HI" style="color: windowtext; font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अरविंद घोष</span></a>, <a href="http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0" title="महाराष्ट्र"><span lang="HI" style="color: windowtext; font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">महाराष्ट्र</span></a> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">में लक्ष्मण नरायण गर्दे</span><span style="font-size: 11.0pt;">, </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">बाबूराम विष्णु पराडकर</span><span style="font-size: 11.0pt;">, <a href="http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B5_%E0%A4%B8%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87" title="माधवराव सप्रे"><span lang="HI" style="color: windowtext; font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">माधवराव सप्रे</span></a>, <a href="http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%AA%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%AC" title="पंजाब"><span lang="HI" style="color: windowtext; font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">पंजाब</span></a>
</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">में</span><span lang="HI" style="font-size: 11.0pt;"> </span><span style="font-size: 11.0pt;"><a href="http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BE_%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%AA%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF" title="लाला लाजपतराय"><span lang="HI" style="color: windowtext; font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लाला लाजपतराय</span></a>, <a href="http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BE_%E0%A4%B9%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C" title="लाला हंसराज"><span lang="HI" style="color: windowtext; font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लाला हंसराज</span></a>, <a href="http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A5%80_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%82%E0%A4%A6" title="स्वामी श्रद्धानंद"><span lang="HI" style="color: windowtext; font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">स्वामी श्रद्धानंद</span></a>, <a href="http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%BE%E0%A4%A8" title="राजस्थान"><span lang="HI" style="color: windowtext; font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">राजस्थान</span></a>
</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">में
लज्जाराम मेहता</span><span style="font-size: 11.0pt;">, </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">गौ ही ओझा</span><span style="font-size: 11.0pt;">, </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">गुजरात में</span><span lang="HI" style="font-size: 11.0pt;"> </span><span style="font-size: 11.0pt;"><a href="http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A5%80_%E0%A4%A6%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%82%E0%A4%A6" title="स्वामी दयानंद"><span lang="HI" style="color: windowtext; font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">स्वामी दयानंद</span></a> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">तथा</span><span lang="HI" style="font-size: 11.0pt;"> </span><span style="font-size: 11.0pt;"><a href="http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE_%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A7%E0%A5%80" title="महात्मा गांधी"><span lang="HI" style="color: windowtext; font-family: "mangal" , "serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">गांधी</span></a></span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;"> इन सभी
नेताओं ने अपना भरपूर योगदान दिया.<span style="color: black;"> </span></span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;"><span style="color: black;">देश भर की माटी का
सुगंध बटोरकर हिन्दी की शब्द संपदा बढाने का जो काम विद्यापति, कबीर, नानक, रैदास,
मीरा, मलूकदास, जायसी, कुतुबन, मंझन, सूर, रहीम और तुलसी सरीखे कवियों ने किया, इस
दौर में आजादी के सूरमाओं ने भी अपनी आवाज को मजबूत करने के लिए बखूबी वही किया और
परिस्थिति की मांग पर आज़ाद भारत के लिए जब राजभाषा के चुनाव का वक्त आया तो इसी
चौदह सितम्बर को एक निर्णायक मत की बढ़त लेकर आज़ादी के दिनों में राष्ट्रभाषा के रूप में गढ़
चुकी हिंदी ने राजभाषा के पद को सुशोभित किया. अब तो राजभाषा विभाग खुल गया है .
बजट खर्च करने और नीतियों के बनाने में सरकार कहीं नहीं चूकती है. अब यदि मेकाले
की मानस-संतान 'बाबू' से भूल-चूक लेनी देनी हो रही है तो इसमें सरकार का क्या दोष!</span></span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">बाबू का बच्चा किस माध्यम में पढेगा, कौन सी फिल्म देखेगा, कौन सी
पोशाक पहनेगा, कौन सा विषय पढ़ेगा, कौन सी कविता समझेगा इसमें सरकार का कोई हस्तक्षेप
नहीं. काका हाथरसी ने इन बाबुओं की बात कही है: </span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div align="center" style="background: white; text-align: center;">
<span lang="HI" style="background: white; color: #990099; font-family: "arial unicode ms" , "sans-serif"; font-size: 13.0pt;">बटुकदत्त से कह रहे</span><span style="background: white; color: #990099; font-family: "arial unicode ms" , "sans-serif"; font-size: 13.0pt;">, <span lang="HI">लटुकदत्त आचार्य</span></span><span style="color: #990099; font-family: "arial unicode ms" , "sans-serif"; font-size: 13.0pt;"><br />
<span lang="HI" style="background: white;">सुना</span><span style="background: white;">?
<span lang="HI">रूस में हो गई है हिंदी अनिवार्य</span></span><br />
<span lang="HI" style="background: white;">है हिंदी अनिवार्य</span><span style="background: white;">, <span lang="HI">राष्ट्रभाषा के चाचा-</span></span><br />
<span lang="HI" style="background: white;">बनने वालों के मुँह पर क्या पड़ा तमाचा</span><br />
<span lang="HI" style="background: white;">कहँ </span><span style="background: white;">‘
<span lang="HI">काका </span>' , <span lang="HI">जो ऐश कर रहे रजधानी में</span></span><br />
<span lang="HI" style="background: white;">नहीं डूब सकते क्या चुल्लू भर पानी में</span><br />
<br />
<span lang="HI" style="background: white;">पुत्र छदम्मीलाल से</span><span style="background: white;">, <span lang="HI">बोले श्री मनहूस</span></span><br />
<span lang="HI" style="background: white;">हिंदी पढ़नी होये तो</span><span style="background: white;">, <span lang="HI">जाओ बेटे रूस</span></span><br />
<span lang="HI" style="background: white;">जाओ बेटे रूस</span><span style="background: white;">, <span lang="HI">भली आई आज़ादी</span></span><br />
<span lang="HI" style="background: white;">इंग्लिश रानी हुई हिंद में</span><span style="background: white;">, <span lang="HI">हिंदी बाँदी</span></span><br />
<span lang="HI" style="background: white;">कहँ </span><span style="background: white;">‘
<span lang="HI">काका </span>' <span lang="HI">कविराय</span>, <span lang="HI">ध्येय को
भेजो लानत</span></span><br />
<span lang="HI" style="background: white;">अवसरवादी बनो</span><span style="background: white;">, <span lang="HI">स्वार्थ की करो वक़ालत</span></span></span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;"><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>यह लोकतंत्र है. विचारों की
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के मौलिक अधिकार की हुंकार भरने वाला देश जिसके तहत ही
हम यह लेख बिंदास होकर लिखे जा राजे हैं, ' कोऊ नृप होहुं हमही का हानि!'</span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">हाँ, कुल मिलाकर मेरा मानना है कि हिंदी धड़ल्ले से पसर रही है. मुझे
किसी के छद्म विधवा-विलाप से कोई मतलब नहीं. समाचार वही बिकेगा जो हिन्दी में हो
या भारतीय भाषाओं में हो. टी आर पी उसी चैनल की बढ़ेगी जिसके दर्शक ज्यादा हों, फ़िल्में उसी भाषा की मुनाफा कमाएगी जिसे अधिक से अधिक लोग समझ सकें. भाषा वहीँ बाजी मारेगी जिसका बाज़ार बड़ा हो. हाँ, मेरे लिए हिंदी का मतलब उसकी सभी बहनों से भरा पूरा
परिवार है. अब हिन्दुस्तान में कोका कोला तभी बिकेगा जब ' ठंडा का मतलब कोका कोला'
होगा. यानी प्रचार हिंदी में. राजनीति करनी है तो देवेगौडा साहब और सोनिया गाँधी
को हिन्दी बोलनी सीखनी होगी और उन्होंने बखूबी सीखकर बोला भी. और तो और, अब ओबामा
, ट्रम्प और विदेशों के अन्य नेता भी हिंदी बोलना अपनी शान समझ रहे हैं. कभी आपने
ऐसी कल्पना की थी! संयुक्त राष्ट्र संघ में वाजपेयी, चंद्रशेखर और नरसिम्हा राव तो
बोलकर आ ही गए. हिन्दी पखवाड़े में ही जन्मे (१७ सितम्बर) हमारे वर्त्तमान प्रधान मंत्री आज जब
विदेशी धरती पर अपनी धारा प्रवाह शैली में तालियों की गड़गड़ाहट के बीच अपने भाषण का
आगाज़ हिन्दी में करते हैं तो किस भारतीय का सर गर्व से ऊँचा नहीं उठ जाता. </span><br />
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">इन्टरनेट और सोशल साईट
ही नयी दुनिया के सूचना-वाहक और विचारों के आदान-प्रदान केंद्र है और वह हिन्दी से
'पटे' हैं और 'पटते' <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>चले जा रहे हैं. विज्ञान,
इंजीनियरी और मेडिकल की भाषा पर मैं फिर कभी बात करूँगा. जैसी मिट्टी हो, वैसी ही फसल
बोई जाती है और जिसका सामान खरीदना है उसकी भाषा तो सीखनी ही होगी! अभी मेरा जोर सिर्फ
राष्ट्र-भाषा पर है. हम कई कदम आगे निकलकर विश्व-भाषा की ओर अब बढ़ चुके हैं. मॉरिशस
के विश्व हिन्दी सम्मलेन की कार्यवाही देख लें. हिंदी मस्त चाल में संपुष्ट होकर फ़ैल
रही है. हमें सिर्फ मेकाले के मानस-पुत्रों के रक्तबीजी प्रसार को रोकना है. बाज़ार
उनसे भी निबट लेगा एक दिन ! </span><br />
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;">जय हिन्द!! जय हिंदी!!! <span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;"><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<div style="background: white; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="color: black; font-family: "mangal" , "serif"; font-size: 11.0pt;"><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span><span style="color: black; font-size: 11.0pt;"><o:p></o:p></span></div>
<br /></div>
विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-68453006083828535952022-09-05T19:32:00.000+05:302022-09-05T19:32:30.366+05:30क्रांति का गर्भपात <p style="text-align: justify;"> दूषित हो गया है, </p><p style="text-align: justify;">इस मुल्क का,</p><p style="text-align: justify;">नून, ख़ून और क़ानून! </p><p style="text-align: justify;">नहीं रही लाज, </p><p style="text-align: justify;">कौड़ी के भाव, नून!</p><p style="text-align: justify;">बुझाने लगा है प्यास </p><p style="text-align: justify;">अब अपना ही ख़ून!</p><p style="text-align: justify;">कोख से बाहर आते ही,</p><p> </p><p>दम तोड़ देता क़ानून! </p><p><br /></p><p style="text-align: justify;">अब देखिए ना!</p><p style="text-align: justify;">‘आईन-ए-निरोधक-गर्भपात!’</p><p style="text-align: justify;">धरी रह गयी सारी </p><p style="text-align: justify;">लियाक़त और लताफत!</p><p style="text-align: justify;">मुआ, जाती नहीं है </p><p style="text-align: justify;">यह आफ़त!</p><p style="text-align: justify;">इस ज़ाबिता में </p><p style="text-align: justify;">रोज़ लगते हैं घात!</p><p><br /></p><p>नहीं रुकता गर्भपात!</p><p><br /></p><p style="text-align: justify;">कहीं चरित्र का, </p><p style="text-align: justify;">कहीं चाल का!</p><p style="text-align: justify;">कहीं सियासत का,</p><p style="text-align: justify;">कहीं लोकपाल का!</p><p style="text-align: justify;">सब कुछ......... </p><p style="text-align: justify;">शफ़्फ़ाक साफ़’!</p><p style="text-align: justify;">पेट में ही </p><p style="text-align: justify;">गिर जाता इंसाफ़!</p><p><br /></p><p>इंसानियत का सन्निपात!</p><p><br /></p><p style="text-align: justify;">उम्मीदों पर वज्रपात! </p><p style="text-align: justify;">प्रतिभा पर घात!</p><p style="text-align: justify;">बाहर हो बात, </p><p style="text-align: justify;">भीतर घात! </p><p style="text-align: justify;">अब कौन करे? </p><p style="text-align: justify;">और कैसे करे? </p><p style="text-align: justify;">बदलाव की बात!</p><p style="text-align: justify;">जब हो जाता हो,</p><p><br /></p><p>क्रांति का ही गर्भपात!</p><p> </p><div><br /></div><p><br /></p>विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-19556580538921495342022-08-29T02:13:00.001+05:302022-08-29T02:13:26.063+05:30बेजुबान<p> न राजा अनजान था।</p><p>न मुद्दालह परेशान था।</p><p>न मुद्दई हलकान था।</p><p>न मुख्तार नादान था।</p><p>न मुंसिफ बेईमान था।</p><p>बस मीनार बेजुबान था।</p><div><br /></div>विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com26tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-90026002466086811992022-08-09T15:35:00.006+05:302022-08-13T08:37:44.905+05:30राजतिलक की करो तैयारी<p> श्वानों ने आज संगत की है,</p><p>राजतिलक अब कर दो मेरा।</p><p>बहुत ढुलके बिन पेंदी लोटे,</p><p>हम न चूकेंगे अबकी बेरा।</p><p><br /></p><p>करिआ कुकुर बीच खड़ा था,</p><p>स्व वर्णी सब घेरे थे।</p><p>लटकी थीं जीभ चितकबरों की,</p><p>कलमुंहे मुंह फेरे थे।</p><p><br /></p><p>कुछ मगध, कुछ अंग देश,</p><p>कुछ मिथिला से आए थे।</p><p>लोकतंत्र धुन वैशाली की,</p><p>अपनी भौंक में लाए थे।</p><p><br /></p><p>कहीं न कोई कुकर बचा था,</p><p>जो हो कुत्ता इकलौता।</p><p>कूटनीति की द्युत क्रीड़ा में,</p><p>सरमा पाणी समझौता।</p><p><br /></p><p>फूटी लालटेन से लाली,</p><p>और छूटा पिनाक से सायक।</p><p>इंदिवर पंकिल लथपथ थे,</p><p>पुलकित थे सारे शुनक।</p><p><br /></p><p>लाज सरम के बंधन टूटे,</p><p>जो अछूत थे, छूत बने।</p><p>धर्मी अधर्मी एक देख अब,</p><p>सारमेय थे अड़े तने।</p><p><br /></p><p>हमीं है वे चौपाये जो,</p><p>पांडव सुरलोक लाए थे।</p><p>एकलव्य संधान शौर्य गुर,</p><p>द्रोण को दिखलाए थे।</p><p><br /></p><p>दोगलापन दोपायों का अब,</p><p>नहीं रहेगी लाचारी।</p><p>वृकारी हुंकार भरे हैं,</p><p>राजतिलक की करो तैयारी।</p><p>#राजतिलककीकरोतैयारी</p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p>विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com22tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-37355896549056559182022-06-08T11:38:00.001+05:302022-06-08T16:34:49.674+05:30.....बेटी पढ़ाओ...बेटी बहाओ! (लघुकथा)<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">मंच से माइक में आवाज़ गूँजी – ‘ बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ।‘ क्या वाम! क्या दाम! क्या सियासती दल! क्या अवाम! सबने बाँग लगायी। ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा।‘ </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">दौड़ी बेटियाँ।... गिरती।...... चढ़ती।..... उठती।... पड़ती।... ..बचते।... बचाते।..... छुपते।.......... छुपाते।...... सपने सजाते। ख़ूब पढ़ी। ख़ूब बढ़ी। रसोई से साफ़गोई तक।... बिंदी से हिंदी तक।... अंतरिक्ष से साहित्य की सरहद तक।.... गुरुदेव की गीतांजली से गीतांजलि बोकरती रेत-समाधि तक। दुनिया के टीले को अपनी ओढ़नी से तोप दिया। आला इनाम, उनके नाम! सबने दुलारा। सबने सराहा।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">किंतु, मंच मौन! और ये सियासती भूत! न कोई खदबद। न कोई हुदहुद। न कोई खिलखिल। और न कोई मुबारकबाद! हाँ थोड़ी काग़ाफूसी ज़रूर! सिर्फ़ ‘वाद’! </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">बह गयी बेटी – ‘विचार-धारा’ में!</div><div><br /></div></div><p></p>विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com38tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-80612012658725079542022-06-05T21:18:00.005+05:302022-06-07T14:17:44.379+05:30बड़ा बाबू जेल जाएँगे (लघुकथा)<p>सूबे में नए बड़ा बाबू आए हैं। किसी भी गड़बड़ी के प्रति ‘शून्य सहिष्णु’ हैं। क़ानून का राज बहाल करने की ठान ली है। साक्षात मूल वाराह अवतार हैं, बड़ा बाबू! प्रचंड, प्रकृष्ट और प्रगल्भ तो इतने कि महादेव भी पानी भरें!</p><p>आज तो भोले नाथ भी सहम गए। उनके दरबार में जो बड़ा बाबू के पुष्पक से पहले नहीं पहुँचेगा उसे वह कंस-शैली में काल-कोठरी में डाल देंगे। भाग्य नियंता, एकदम हिरण्यकश्यिपु स्टाइल! ‘ले लो, इस अभियंता को हिरासत में!’ शक्ति रूपा ने शून्य लापरवाही से ’जी हुकुम’ की हुकुम बजायी। राम राज आया। जनता ने जय जयकार की।</p><p>सूबे में मारकाट मची है। लोग घर बार छोड़कर भाग रहे हैं। क्या मालूम, नरसंहार की दूसरी फ़ाइल भी खुल जाए! आकाशवाणी होने वाली है, ‘बड़ा बाबू को हिरासत में ले लिया जाय’।</p><p>जनता जयकार लगा रही है, ‘बड़ा बाबू जेल जाएँगे’।</p><div><br /></div>विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com32tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-85050011734146850682022-03-23T02:08:00.002+05:302022-03-23T02:08:19.499+05:30फ़ाइल खुल गयी<p> सुना है</p><p>कई दिनों से</p><p>कस के बांधी गयी</p><p>लाल फीते में</p><p>एक फ़ाइल </p><p>खुल गयी है।</p><p><br /></p><p>दिन पर दिन</p><p>जमायी जा रही</p><p>वक़्त की सर्द गर्द पर</p><p>रेंगने लगे थे</p><p>शफ्फाक श्वेत दीमक</p><p> वैचारिक तंद्रा के।</p><p><br /></p><p>कि खोल दिया</p><p>किसी ने</p><p>पिछली सदी से</p><p>बंद तहखाने में</p><p>पीढ़ियों के,</p><p>'पेंडोराज बॉक्स'!</p><p><br /></p><p>पल्लवी फूटी है</p><p>विवेक-विटप-से</p><p>अनुपम पिटारे से </p><p>भानुमति के इस्स!</p><p>ईशोपनिषद के</p><p>अमिय वाक्य!</p><p><br /></p><p>"हिरण्मयेन पात्रेण </p><p>सत्यस्य मुखम् </p><p>अपिहितम् अस्ति। </p><p>पूषन् तत् </p><p>सत्यधर्माय दृष्टये </p><p>त्वम् अपावृणु ॥"</p><p><br /></p><p>फाइल के खुलते ही</p><p>उसमें बंद </p><p>उजली-सी बर्फ</p><p>पिघलने लगी है।</p><p>बहने लगी है बनकर</p><p>गरम खून की धार।</p><p><br /></p><p>कश्यप का कपार</p><p>लूट, बलवा, बलात्कार।</p><p>फ़ाइल में</p><p>करीने से सजे </p><p>पृष्टों से गूंज रहा </p><p>खामोशी का प्रचंड नाद।</p><p><br /></p><p>नोट पेज भरे हुए हैं</p><p>तहरीर से</p><p>दोगले नुमाइंदों के।</p><p>वाराह ने मूल उठाया</p><p>सतीसर बह गया।</p><p>हो गया 'का' 'शिमिर'।</p><p><br /></p><p>जान गई है अब ये</p><p>रिपब्लिक जनता कुछ!</p><p>और बौरा गए हैं</p><p>सौदागर मौत के</p><p>खुल जाने से</p><p>अपनी फ़ाइल के।</p><div><br /></div>विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com30tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-80079364476718664232022-02-26T09:13:00.002+05:302022-02-26T09:15:11.985+05:30महामारी का रोना!<p>उग रही हैं </p><p>रिश्तों की फ़सल,</p><p>जगह-जगह!</p><p>क्यारियाँ, कोले, </p><p>खेत, फ़ार्म हाउस,</p><p>सब-के-सब। </p><p>‘पट’ गए हैं </p><p>इन रिश्तों से! </p><p>कहीं मन के रिश्ते, </p><p>कहीं निरा तन के!</p><p>कहीं धन के, </p><p>तो कहीं </p><p>सिर्फ़ आवरण के!</p><p>कहीं धराशायी हो रही है </p><p>पककर पुरानी फ़सलें, </p><p>तो कहीं अंकशायी </p><p>सद्य:स्नात, लहलहायी!</p><p>कहीं बोए जा रहे हैं </p><p>बीज, संभावनाओं के!</p><p>कीटनाशक छिड़के जा रहे हैं।</p><p>डाले गए हैं थोड़े </p><p>रासायनिक खाद भी!</p><p>रिश्तों का रसायन </p><p>बनाने को!</p><p>कृत्रिम रिश्तों की </p><p>इस पैदावार पर </p><p>भारी पड़ गयी है,</p><p>प्रदूषित प्रकृति !</p><p>कभी सूखा,</p><p>कभी बाढ़,</p><p>कभी भूस्खलन, </p><p>तो फिर रहे-सहे </p><p>रिश्तों का दम </p><p>घुटा दिया है,</p><p>महामारी 'का रोना' ने!</p><div><br /></div>विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-56111003416505335152022-01-04T18:10:00.002+05:302022-01-04T20:57:39.320+05:30बेवक़ूफ़ कौन! (लघुकथा)<p style="text-align: justify;">नया नियम-क़ानून आ गया। कोरोना का दोनों टीका नहीं लगाये तो, सरकारी कार्यालयों और परिसरों में चल रहे निर्माण स्थलों पर जाने की अनुमति नहीं! कुछ ही दिनों पहले की तो बात है। पहिला टीका लगवा के लौटे थे उसकी झुग्गी के संगी साथी।कोई उड़ीसा से, कोई बंगाल से, कोई कन्नौज से, कोई छत्तीसगढ़ से .......! अब तो दूसरे टीके के भरोसे बैठने के अलावा कोई चारा भी नहीं रहा । </p><p style="text-align: justify;">भला हो उसके राज्य के बाबुओं का! पहले टीके के बाद ही दोनों टीकों का प्रमाण पत्र उसके नाम निर्गत कर दिया था। सुशासन का आँकड़ा जो ठीक करना था! </p><p style="text-align: justify;">अब बेवक़ूफ़ वह किसे कहे? अपने पेट पर आज लात पड़ने से बचाने वाली उस बाबूशाही को! या, फिर मज़दूरों का होलसेल सप्लाई करने वाले उसके राज्य को पिछड़ा कहने वाले बुद्धिवीरों को! बेवक़ूफ़ कौन! उसने गमछे से अपने माथे का पसीना पोंछा और अपने काम में लग गया।</p><p style="text-align: justify;">तेज परताप के चेहरे पर मुस्कान थी।</p>विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-83048471116380825972021-10-30T14:53:00.003+05:302021-10-30T14:53:36.464+05:30लाल, पाल, बाल! (लघुकथा)<p> ...सिर्फ बारह बोतल पानी लेकर गए थे। तीन दिन तक खाना नहीं खाया। बिस्कुट खाकर गुजारा किया... मेरे 'आर्य'पुत्र!, मेरे लाल!....हे लोक पाल!</p><p>उफ्फ! इतनी यातना तो मेरे बाल (गंगाधर तिलक) ने भी मांडले जेल में नहीं सही..!!!!!</p>विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-18421675873219136812021-09-15T13:47:00.004+05:302021-09-15T13:48:27.278+05:30व्याख्यान - वैदिक साहित्य और इतिहास बोध <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/hAYli1Lgjrk" width="320" youtube-src-id="hAYli1Lgjrk"></iframe></div><br /> हिंदी दिवस (१४ सितम्बर २०२१, मंगलवार) की शुभ संध्या वेला में प्रसिद्ध साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्था 'लेख्य-मंजूषा' के मंच से 'वैदिक साहित्य और इतिहास बोध' विषय पर हमारा व्याख्यान। <p></p>विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-67732966913214970502021-07-24T09:08:00.000+05:302021-07-24T09:07:16.833+05:30वेदव्यास : 5000 वर्ष पूर्व ज्ञान-विज्ञान को पीढ़ियों तक सँजोनेवाले<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<span style="background-color: white; color: #050505; font-family: system-ui, -apple-system, system-ui, ".SFNSText-Regular", sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">भारतीय साहित्य के आदि गुरु, आदि संपादक एवं अद्वितीय साहित्यकार जिन्होंने दुनिया के प्राचीनतम और अमर साहित्य वेदों का उपहार इस मानव संतति को दिया, महर्षि वेद व्यास के नाम से विख्यात कृष्ण द्वैपायन को आज उनकी जन्मतिथि आषाढ़ पूर्णिमा (गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा) के अवसर पर शत शत नमन और समस्त प्राणियों को बधाई एवं शुभकामना!!!</span><br />
<span style="color: #050505;"><span style="background-color: white; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">आइए आज उन पर हमारे प्रिय लेखक सूर्य कांत बाली के लिखे आलेख को पढ़ें -</span></span><br />
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वेदव्यास : 5000 वर्ष पूर्व ज्ञान-विज्ञान को पीढ़ियों तक सँजोनेवाले</div>
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SURYAKANT BALI. BHARAT GATHA (Hindi Edition) . Prabhat Prakashan. Kindle Edition. </div>
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एक छोटे से आलेख में महर्षि वेदव्यास का इस देश की सभ्यता को योगदान बता पाना संभव नहीं। पर इसका कोई विकल्प भी तो हमारे पास नहीं। व्यास को हम सामान्य तौर पर महाभारतकर्ता के रूप में जानते हैं, जो ठीक ही है। पर यकीनन व्यास के बारे में इतनी जानकारी बेहद अधूरी है। लगभग आठ पीढ़ियों से जुड़े वेदव्यास की आयु कितनी लंबी रही होगी, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। और जैसा कि हम एक पीढ़ी को औसत तीस वर्ष का समय देकर चल रहे हैं, तो व्यास की आयु ढाई-तीन सौ वर्षों के बीच ही कहीं रखी जा सकती है, इससे कम नहीं। और ये आठ पीढ़ियाँ कौन सी हैं? कृपया नाम नोट कर लीजिए—शांतनु, विचित्रवीर्य, धृतराष्ट्र, युधिष्ठिर, अभिमन्यु, परीक्षित, जनमेजय, शतानीक। इतनी लंबी आयु जीनेवाले वेदव्यास ने अपने जीवन का एक-एक पल सार्थक रूप से जिया। महर्षि व्यास पराशर मुनि के पुत्र थे। एक बार सत्यवती जब उन्हें अपनी नाव में बिठाकर नदी पार करा रही थी, तो सत्यवती के सौंदर्य से मुग्ध पराशर ने उससे उस नाव में ही सहवास कर लिया और सत्यवती गर्भवती हो गई। व्यास का जन्म उसी गर्भ से हुआ। विचित्र बात यह है कि स्वयं सत्यवती आद्रिका नाम की किसी अप्सरा की संतान मानी जाती हैं और सत्यवती-पुत्र व्यास भी आगे चलकर कभी घृताची नाम की अप्सरा से आकृष्ट हो गए थे और इस अप्सरा से उन्हें शुकदेव नामक परम ज्ञानी पुत्र की प्राप्ति हुई थी। इन व्यास का जन्म आज से करीब पाँच हजार वर्ष पूर्व किसी वैशाख पूर्णिमा के दिन हुआ था, पर उनके ठीक-ठीक जन्म वर्ष के विषय में विद्वानों में मतभेद कायम है। व्यास का रंग काला था, इसलिए इनका नाम कृष्ण था। पर उसी युग में कृष्ण के नाम से जब देवकीनंदन कृष्ण की एकरूपता स्थापित हो गई तो उनसे अलग दिखाने के लिए व्यास का नाम रख दिया गया—कृष्ण द्वैपायन, अर्थात् वे कृष्ण जो द्वीप में पैदा हुए थे। व्यास के बारे में एक मजेदार सूचना यह है कि इन्हें महात्मा बुद्ध के पूर्वजन्मों में से एक माना जाता है। बौद्ध परंपरा के अनुसार बौद्ध बनने से पहले सिद्धार्थ ने अनेक पूर्वजन्म बिताए थे। इन जन्मों में बुद्ध को बोधिसत्त्व कहा गया है। ऐसे अनेक बोधिसत्त्वों में से एक का नाम कण्ह द्वैपायन (कृष्ण द्वैपायन) कहा गया है। जो लोग बौद्धों को हिंदुओं से कुछ अलग साबित करने के लिए लट्ठ उठाए फिरते हैं, यह सूचना उन्हें कुछ निराश कर सकती है। व्यास ने अपने जीवनकाल में बदरी आश्रम में घोर तपस्या की थी। यह आश्रम हिमालय में सरस्वती और अलकनंदा के संगम पर था। शायद यह आश्रम उसी स्थान पर था जहाँ आज भारत का एक महान् तीर्थ बदरीनाथ है। यहाँ तप करने के कारण व्यास का नाम बादरायण मुनि पड़ गया। तप का और प्रभाव जो हुआ सो हुआ, इसके कारण व्यास को दूरदृष्टि प्राप्त हो गई। महाभारत युद्ध के वक्त यही दूरदृष्टि उन्होंने धृतराष्ट्र को देनी चाही थी, पर धृतराष्ट्र डर गए तो फिर संजय को उन्होंने यह सुविधा मात्र युद्ध के समय के लिए प्रदान की। जरा सोचिए तो एक आदमी शांतनु के समय से लेकर जनमेजय के सर्पयज्ञ के समय ही नहीं उसके एक पीढ़ी बाद तक जीवित रहा तो क्या उसका जीवन उसके लिए भार नहीं हो गया होगा? व्यास को उनका अपना जीवन अगर भार नहीं हुआ तो उसका कारण साफ है कि उन्होंने अपने जीवन में इतने अद्भुत काम कर दिए, जो किसी एक व्यक्ति के लिए लगभग असंभव मान लिये जाएँगे। पर व्यास ने वह संभव कर दिखाया। भाषा के साथ जिनका परिचय सामान्य से अधिक है, वे जानते हैं कि व्याकरण और भाषाविज्ञान में एक शब्द है—समास, जिनका अर्थ है संक्षेप। समास से उल्टा एक शब्द है व्यास और इसका अर्थ है—विस्तार। विशेषणवाची बन जाने पर व्यास का अर्थ हो जाता है, वह व्यक्ति जिसने विस्तार कर दिया हो। आज भी हमारे देश में कथावाचकों की गद्दी को व्यास-गद्दी कहते हैं, क्योंकि कथावाचक वे लोग होते हैं, जो उदाहरण और दृष्टांत देकर, कई तरह की कथाएँ-उपकथाएँ सुनाकर कथा को खूब फैला देते हैं। कृष्ण द्वैपायन का नाम अगर व्यास पड़ गया है तो सवाल है, उन्होंने किस चीज का विस्तार किया? उत्तर उनके पूरे नाम वेदव्यास में निहित है, अर्थात् उन्होंने वेदों का विस्तार किया। अर्थ यह नहीं कि उन्होंने कोई बहुत सारे मंत्र लिख दिए। बल्कि सच्चाई यह है कि उनके नाम से एक भी मंत्र हमें लिखा नहीं मिलता। उन्हें वेदव्यास इसलिए कहा जाता है कि वेदों की चार संहिताओं का यानी यजुर्वेद संहिता, ऋग्वेद संहिता, सामवेद संहिता और अथर्ववेद संहिता का जो रूप हमें आज मिलता है, उसे वह रूप वेदव्यास ने ही दिया है और इसीलिए उनका नाम वेदव्यास पड़ गया है। ऐसा भी नहीं कि इससे पहले ये चार संहिताएँ नहीं थीं, बल्कि परंपरा यह कि इससे पहले भी समय-समय पर संहिताओं को बाकायदा ग्रंथ रूप मिलता रहा और उनमें अधिकाधिक सूक्त जुड़ते चले गए। इस पर हम पहले ही बता आए हैं। लेकिन वेदव्यास की खूबी यह है कि उन्होंने जब चार संहिताएँ बना दीं तो इसके बाद फिर उनमें कोई फेरबदल, घटा-बढ़ी नहीं हुई। जितना जुड़ा और जो जुड़ा वह थोड़ा-सा ही था, और इसे परिशिष्ट माना गया। इससे कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष भी निकाला है कि वेदव्यास ने ही पिछले तीन हजार साल से अनवरत चलती आ रही मंत्र रचना की परंपरा को पूर्णविराम दिला दिया। शायद इसलिए कि तब तक मंत्र रचना की क्वालिटी में काफी गिरावट आने लगी थी। वेदव्यास ने न केवल चार संहिताओं को अंतिम रूप से ग्रंथ का आकार दे दिया, बल्कि देश भर में इसके पठन-पाठन की एक ऐसी गुरु-शिष्य परंपरा का भी विकास कर दिया कि वेदों का अध्ययन-अध्यापन सारे देश में होने लगा। इस गुरु-शिष्य परंपरा का एक लाभ यह हुआ कि वेदों की प्रतिलिपियाँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी लिखी जाने लगीं और उन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी याद किया जाने लगा। परिणामस्वरूप चारों वेदों का एक शब्द तो क्या, एक मात्रा भी इधर-उधर नहीं होने पाई। संपूर्ण मंत्र राशि हमारे पास पूरी तौर पर अविकृत रूप में है और इसकी ज्ञान-परंपरा हमारी स्मृतियों का अमिट हिस्सा बन गई है। वेदों को इस तरह से हमेशा के लिए सुरक्षित कर देने के लिए उसे सैकड़ों गुरु-शिष्यों की शाखाओं में फैला देने के कारण भी कृष्ण द्वैपायन का वेदव्यास नाम सार्थक लगता है। तो क्या वेदव्यास ने अठारह महापुराणों की भी रचना की थी? परंपरा शिथिल रूप से ऐसा ही मानती है। भागवत महापुराण की रचना वेदव्यास ने की और उनके पुत्र शुकदेव ने उसे राजा परीक्षित को सुनाया, इन और दूसरे तर्कों के आधार पर एक यह धारणा लोगों के बीच बिठा दी गई है कि सभी अठारह महापुराणों की रचना वेदव्यास ने की थी। पर इतिहास के इस दूसरे घटनाचक्र को थोड़ा गंभीरता से विचारेंगे तो इसका तार्किक निष्कर्ष हम पा सकते हैं। ठीक-ठीक तारीख बता पाना शायद आज संभव नहीं होगा, परंतु महाभारत के करीब पंद्रह सौ साल बाद नैमिषारण्य में एक बहुत बड़ा हुजूम इकट्ठा हुआ था। अगर घटनाओं के सिलसिले को उनके सही संदर्भों में समझा जाए तो शौनक मुनि ने इस विशाल हुजूम को वहाँ जुटाया था। उस समय यानी महाभारत से करीब पंद्रह सौ साल बाद जिन शौनक ऋषि ने नैमिषारण्य में इतने बड़े ऋषि मुनि समुदाय को इकट्ठा किया, जाहिर है कि वे उसी शौनक ऋषि के उत्तराधिकारी वंशज थे, जिनका कभी मंत्र रचना में भारी योगदान रहा था। और इन शौनक मुनि को एक ही स्थान पर इतने सारे मुनियों को इकट्ठा करने की जरूरत अनुभव हुई तो निश्चित ही कोई बहुत बड़ा संकट देश और समाज के सामने आ खड़ा हुआ होगा। सूतजी को इस विराट् सम्मेलन में विशिष्ट अतिथि के रूप में बुलाया गया था और शौनक के नेतृत्व में सभी ऋषि-मुनियों ने उनसे खूब सवाल किए, जवाब पाए। नैमिषारण्य की इस महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना पर हम आगे चलकर लिखेंगे, इस पुस्तक के अंत में। पर इस लंबे, कई वर्षों तक चले संवाद में जो कुछ उभरा, उसी को अलग-अलग पुराणों में विस्तृत रूप में लिपिबद्ध किया गया है और उस प्रयास में नैमिषारण्य संवाद के तत्काल बाद की सदियों में उन पुराणों में काफी कुछ जोड़ा जाता रहा है। इसलिए प्रश्न यह है कि अगर उन पुराणों की रचना इस तरह से हुई तो उनका संबंध वेदव्यास से क्या है? महाभारत और भागवतपुराण में जिस शैली का जो एक तरह से वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड की शैली पर आधारित है, सूत्रपात हुआ सारे पुराण-उपपुराण चूँकि इस शैली पर आधारित हैं, इसलिए वेदव्यास के प्रभाव को वेदव्यास की रचना के रूप में मान लिया गया। दूसरा कारण यह हो सकता है कि हमारे देश की साहित्य-परंपरा में किसी पुराण-संहिता नामक एक ग्रंथ की रचना का श्रेय वेदव्यास को दिया जाता है। यह ग्रन्थ अब नहीं मिलता। चूँकि सभी पुराण किसी-न-किसी रूप में इस पुराण-संहिता से अनुप्राणित रहे होंगे, इसलिए सभी पुराणों के साथ वेदव्यास का नाम जोड़ दिया जाना अस्वाभाविक नहीं लगता। पर जिन वेदव्यास ने चारों वेदों को अंतिम रूप में पुस्तक रूप में बाँधा, एक लाख श्लोकों वाले महाभारत प्रबंधकाव्य को लिखनेवाली टीम को नेतृत्व दिया, चारों वेदों की हिफाजत के लिए गुरु-शिष्य परंपरा का प्रवर्तन किया, पुराण-संहिता के रूप में आगे लिखे जानेवाले पुराणों-उपपुराणों की रचना का बीज बो दिया, भागवत महापुराण इस देश को दिया, कुरुवंश को नष्ट न होने देने के लिए विचित्रवीर्य के देहावसान के बाद उसकी पत्नियों, अंबिका और अंबालिका के साथ अपनी माँ सत्यवती के आदेश पर नियोग कर धृतराष्ट्र और पांडु का जन्म होने में सहायता की, भयानक तनावों से ग्रस्त उस संकटपूर्ण युग में हमेशा धर्म और न्याय का मार्ग ही दिखाया और आजीवन, आठ पीढ़ियों में फैले अपने दीर्घ सार्थक जीवन में अनवरत सक्रियता दिखाई, इन वेदव्यास का जीवन कितनी निराशा में खत्म हुआ होगा, इसका नमूना वह श्लोक है, जिसमें वेदव्यास ने अपनी भयानक व्यथा व्यक्त ही है—‘ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चित् शृणोति माम्, धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थ न सेव्यते?’ वेदव्यास की व्यथा है कि ‘मैं बाँहें उठाकर लोगों को समझा रहा हूँ कि धर्म से ही अर्थ और काम की प्राप्ति होती है, इसलिए क्यों नहीं धर्म के मार्ग पर चलते? पर कोई मेरी सुनता ही नहीं।’ वेदव्यास की व्यथा हर उस जागरूक व्यक्ति की पीड़ा है, जो जानता है कि कैसे दुनिया ठीक चल सकती है, पर जिसकी सुनी नहीं जाती। <br />
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SURYAKANT BALI. BHARAT GATHA (Hindi Edition) . Prabhat Prakashan. Kindle Edition. </div>
विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com45tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-71870225269713024002021-05-20T20:00:00.000+05:302021-05-20T20:00:03.678+05:30चम्पारण सत्याग्रह की चेतना - राजकुमार शुक्ल<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiG2e1oDL4cnA6Ic9mekiuIynKYHOS8Q6yGFGspwVlKcDpnscYOVlZY92dWL3Q6CBdmiN51UhL7EOxN3UaaNhnX0TrY4jL6I-RY9XdXBV41l3lcmd26p13iM1R00PZTzCwEsVmljeRTw6M/s3456/IMG_20210518_111724__01.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2901" data-original-width="3456" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiG2e1oDL4cnA6Ic9mekiuIynKYHOS8Q6yGFGspwVlKcDpnscYOVlZY92dWL3Q6CBdmiN51UhL7EOxN3UaaNhnX0TrY4jL6I-RY9XdXBV41l3lcmd26p13iM1R00PZTzCwEsVmljeRTw6M/s320/IMG_20210518_111724__01.jpg" width="320" /></a></div><br /> <p></p><p>पुस्तक का नाम - महात्मा गांधी के तीसरे गुरु पं राजकुमार शुक्ल।</p><p>लेखक इतिहासकार - श्री भैरव लाल दास</p><p>प्रकाशक और मुद्रक - आदित्य इंटर प्राइजेज, दक्षिणी मंदिरी, पटना -१</p><p>मूल्य : पेपर बैक - 700 रुपये</p><p> हार्ड बाउंड - 900 रुपये</p><p>पुस्तक समीक्षा</p><p>समीक्षक - विश्वमोहन</p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p> पुस्तक चर्चा की सबसे पहली बात अर्थात इसका शीर्षक – ‘महात्मा गांधी के तीसरे गुरु पं राजकुमार शुक्ल’ पर सबसे बाद में बतियाएँगे। फ़िलहाल अभी इसी बात से शुरू करते हैं कि किताब का नाम किसी महापुरुष की जीवनी का आभास देता है और यह जीवनी स्वयं उस महापुरुष के द्वारा लिखी आत्मकथा न होकर किसी लेखक के द्वारा लिखी गयी ‘बायोग्राफ़ी’ की शक्ल में है। ऐसी कोई भी जीवनी जब भी हमारे सामने आती है तो हमारे विज्ञान पोषित प्रखर पाठक मन में अनेक प्रश्न उठ खड़े होते हैं। हम उस महापुरुष और उस लेखक के मध्य के मनोवैज्ञानिक तंतु की पड़ताल करने बैठ जाते हैं। आख़िर उसके लेखन का उत्स क्या है? उस वर्णित महापुरुष के साथ लेखक का कोई वैचारिक अंतरसंबंध है, या उसके हृदय के क्रोड़ से उस युगपुरूष के जीवन की गाथा उसकी करुणा बनकर उसकी लेखनी में फूट पड़ी है, या महापुरुष के प्रति उसकी प्रबल श्रद्धा या भक्ति की कोई अदृश्य डोर है जिसने लेखक की कलम की बागडोर थाम ली है, या फिर किसी पंथ, वाद या विचारधारा का कोई प्रबल आग्रह है! यह बात इसलिए और लाज़िमी हो जाती है कि इस देश में अपने आदर्श पुरुषों की जीवनी लिखने की एक सुदीर्घ और सनातन परम्परा रही है। भले ही इन परम्पराओं का उद्गम कभी क्रौंच वध से उत्पन्न करुणा की धारा में ‘रामायण’ बनकर बहा है, कहीं भक्ति की परम पराकाष्ठा में ‘रामचरितमानस’ की माधुरी में महका है या फिर कहीं राजपोषित चारणों की विरुदावली में अतिरंजित व्यंजना बनकर बहका है। इन जीवन चरितों को हम विश्व साहित्य की अनमोल धरोहर में सज़ा के तो रख सकते हैं, किंतु विशुद्ध वैज्ञानिक दृष्टि में इन्हें इतिहास की श्रेणी में नहीं रख सकते। हमें ‘संस्कृति के चार अध्याय’ लिखने के लिए साहित्य और इतिहास के बीच एक विभाजन रेखा तो खींचनी ही पड़ेगी। </p><p>इस दुनिया में ‘होमो-सेपियन’ ही एक मात्र प्रजाति है जिसकी संज्ञानात्मक प्रतिभा इतनी विलक्षण है कि वह उन तमाम वस्तुओं पर भी धाराप्रवाह कथावाचन कर सकती है जो वस्तु इस दुनिया में कभी रही ही नहीं! समय के प्रवाह में उसकी यह क्षमता और बहुगुणित ही होती गयी। कम्प्यूटर-गूगल युग की ‘कापी-पेस्ट’ सुविधा ने तो उसकी इस कला को अतिरिक्त पंख प्रदान कर दिए।</p><p>दूसरी बात यह है कि किसी भी युगपुरूष का जीवन समष्टि की यज्ञशाला में उसके निरंतर आहूत होने का आख्यान है। इसलिए उसका जीवन चरित किंचित एकाकी नहीं होता, बल्कि अपने समकालीन समाज के समग्र तत्वों को अपने कंधों पर थामे आगे बढ़ता है और यह उसके व्यक्तिगत प्रसंगों का वाचन कम और तद्युगीन जीवन के प्रवाह की दशा और दिशा का दर्पण ज़्यादा होता है। समाज से उसके गहन अंतर संबंधों और ‘इंटरैक्शन’ से उद्भूत हलचलों का उद्घाटन होता है उसकी चरित-चर्चा में। इतिहास की एक ख़ासियत और है कि जब इसके किसी बिंदु पर ठहरकर पीछे के किसी परिदृश्य का विहंगमावलोकन हम करते हैं तो उस काल खंड की घटित सारी घटनाओं में एक सुव्यवस्थित क्रम दिखायी पड़ता है और उनका प्रतिफलन एक परिभाषित परिणाम, मानो यही तो होना था! किंतु, जब उस काल खंड में बैठकर आप स्वयं जीने का प्रयास करें तो वहीं सारी घटनाएँ एक अत्यंत आराजक व्यतिक्रम में भागती नज़र आती हैं और उनका भविष्य बिलकुल अनिश्चित और अपरिभाषित! समकालीन समाज का यह महापुरुष नायक ही होता है जो घटनाओं की अराजकता को मथकर नवनिर्माण का एक अमृत कुम्भ समाज के हाथों में थमा जाता है और स्वयं इतिहास बनकर काल के गर्भ में विलीन हो जाता है। इसलिए विशेष रूप से जब ऐसे महापुरुष के जीवन चरित को आप लिखते हैं तो इतिहास की इस विलक्षणता का संज्ञान लेते हुए अपने दृष्टिकोण में लेखक को वैज्ञानिक वस्तुनिष्ठता का समावेश करना पड़ता है। किंवदंतियों और दंतकथाओं की उपत्यका से ऊपर आकर तथ्यों और सबूतों की तकनीक की तकली चलानी पड़ती है। तब जाकर उससे सत्य का सूत निकलता है।</p><p>तीसरी बात यह है कि आज बाज़ार सर चढ़कर बोल रहा है। वही टिकता है जो बिकता है। इस बाज़ारूपन के दंश का सबसे अधिक आघात हमारे देश के सुदूर इलाक़ों के उन माटी के लालों को झेलना पड़ा जिन्होंने स्वतंत्रता की बलि वेदी पर हँसते-हँसते अपने प्राण नयौछावर कर दिए और ‘अनसंग हीरो’ बनकर सदा के लिए अपनी माटी में दफ़न हो गए। किसी इतिहासकार के सुध की सुधा उन्हें नसीब नहीं हुई। बाज़ार में बिकने वाले इतिहासकारों की ‘इतिहास अभिजात्यों की, अभिजात्यों के लिए और अभिजात्यों के द्वारा’ शैली ने इन राष्ट्र सपूतों को विस्मृति के नेपथ्य में धकेल दिया।</p><p>वह पीढ़ी बड़ी अभागी होती है जिसका कोई इतिहास नहीं होता और उससे भी ज़्यादा अभागी वह पीढ़ी होती है जो अपने इतिहास को संजो नहीं पाती और भुला देती है। पीढ़ियों में इतिहास बोध के इस संस्कार को जगाने में इतिहासकारों की बड़ी अहम भूमिका होती है। वही समाज अपनी विरासत के दर्पण में अपने भविष्य को चमकाता है, जिसके इतिहास के सजग सिपाही उसके इतिहासकार होते हैं जो उससे अतीत के सत्य का साक्षात्कार कराते हैं और वैज्ञानिक वस्तुनिष्ठता की आभा में पीढ़ियों को उसके इतिहास से आलोकित करते हैं। </p><p>ऊपर की सारी बातें एक-एक करके आपके मनो-मस्तिष्क में चिंगारी बनकर फूटने लगती है जब भैरव लाल दास जी की पुस्तक ‘महात्मा गांधी के तीसरे गुरु पं राजकुमार शुक्ल’ को एक बार आप पढ़ना शुरू कर दें और ख़त्म करते-करते यह इतिहास बोध की एक उल्का बनकर आपकी चेतना में समा जाती है। चंपारण आंदोलन की पृष्टभूमि के गढ़े जाने से लेकर इसकी पूर्णाहूति और फिर इसके उत्तरकाल की हलचलों का लेखक ने बड़ा सरल, सुबोध और सुरुचिपूर्ण चित्रण किया है। इसी चित्रांकन से राजकुमार शुक्ल के व्यक्तित्व का एक प्रखर बिम्ब उभरकर सामने आता है। लेखक ने शोधधर्मिता के संस्कार से तथ्यपरक अन्वेषण की शैली में अपनी इस रचना को तराशा है जहाँ किंवदंतियाँ, दंतकथाएँ और वैचारिक पूर्वाग्रह फटकने नहीं पाते। सारे संदर्भ संदेह से परे और प्रामाणिक हैं।</p><p>राज कुमार शुक्ल द्वारा गांधी को लिखा गया पत्र, कांग्रेस की कार्यसमिति की विषय सूची, उसमें पारित प्रस्ताव, शुक्लजी की डायरी, गांधी की आत्मकथा, चंपारण आंदोलन के दिनों को बयान करती गांधी की डायरी, राजेंद्र प्रसाद और कृपलानी सरीखे नेताओं के संस्मरण, बेतिया के एसडीओ, चंपारण के एसपी, कलेक्टर, तिरहुत के कमिश्नर, बिहार उड़ीसा के गृह सचिव, ले. गवर्नर, बंगाल के गवर्नर, भारत सरकार के सचिव आदि मुलाजिमों के पत्र, सरकारी दस्तावेज़, स्पेशल ब्रांच की ख़ुफ़िया रिपोर्ट, अग्रेरियन कमिटि में शुक्लजी और रैयतों के बयान, बंगाल न्याय विभाग, भू-राजस्व विभाग, चंपारण कलेक्टर और तिरहुत कमिश्नर की गोपनीय शाखा, भारत सरकार के होम डिपार्टमेंट की प्रोसीडिंग्स, स्टेट आर्कायव बंगाल, नेशनल आर्कायव दिल्ली, चंपारण डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर, इंडिया ऑफ़िस लाइब्रेरी औफ लंदन जैसे अनगिन जगहों के अभिलेखों से सामग्रियाँ जुटाकर इतिहासकार ने अपनी इस कृति का कलेवर बुना है।</p><p>प्रकारांतर में श्री भैरव लाल दास जी ने यह भी बतला दिया है कि ख़ुद गांधीजी द्वारा अपने वृतांतों में शुक्ल जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के दिए गए विस्तार से इतर किसी भी भारतीय इतिहासकार ने शुक्ल जी के प्रसंग पर कोई गम्भीर प्रयास नहीं किया है। इस देश के किसी भी विश्वविद्यालय के द्वारा शुक्लजी के लिए शोध की किसी परम्परा या चेयर की शुरुआत करने का कोई दृष्टांत नहीं मिलता। दासजी द्वारा चंपारण आंदोलन के दौरान गांधीजी की प्रासंगिक टिप्पणियों के उल्लेख से पाठकों की आँखें खुल जाती हैं और वे शुक्लजी की कहानी सीधे गांधीजी की ज़ुबानी सुनने लगते हैं। यह इतिहासकार की अपनी एक विशेष शैली है जो कथ्य की प्रामाणिकता को अत्यंत रोचक शैली में परोसती है।</p><p>टोलस्टोय से गांधी को मिली आध्यात्मिक सीख कि ‘शत्रु से भी प्यार से पेश आओ’ के साक्षात दर्शन शुक्लजी के चरित्र में तब होते हैं जब उनकी मृत्यु के उपरांत उनके चिर शत्रु, निलहे एमन, द्वारा उनके श्राद्ध हेतु भावपूर्ण ढाई सौ रुपए समर्पित किए जाते हैं और आँखों में आँसू भरे वह राजेंद्र बाबू के सामने शुक्लजी के प्रति अपने दिल के उद्गारों को व्यक्त करता है। इतिहासकार बड़ी सफलता से शुक्लजी के व्यक्तित्व की उस विराट आभा को सामने लाने में सफल हो जाता है, जिसके आलोक में ज्योतित चंपारण आंदोलन के दौरान वहाँ के किसानों की आँखों में गांधी को सत्य और अहिंसा के दर्शन होते हैं। जिस चंपारण के हालात को केवल देखने-समझने के लिए गांधी गए थे उसकी मिट्टी में शुक्लजी द्वारा पहले से प्रवाहित आंदोलन के संस्कार की गंडकी में प्रवेश करते ही उनकी अंतरात्मा की शक्ति जाग उठी और बस दो-तीन दिनों में ही इस जागृत आत्मबल की आहट ने ब्रिटिश साम्राज्य की कुंडी खटखटा दी।</p><p>इतिहासकार ने शुक्लजी और उनके समकालीन ताने-बाने के चित्रण में अपनी तेजस्वी इतिहासधर्मिता और प्रखर सूझ-बूझ का परिचय दिया है। भलें ही कहीं-कहीं घटनाओं, प्रसंगों और वक्तव्यों की पुनरावृति ने कथानक को थोड़ा-सा बोझिल बना दिया है, लेकिन वे प्रसंग इतने महत्वपूर्ण और रोचक हैं कि पाठक फिर से सचेत होकर उठ खड़ा होता है। </p><p>अब अंत में हम सबसे पहले अर्थात शीर्षक वाली बात पर आते हैं। यह शीर्षक भैरव लाल दास जी ने प्रसिद्ध इतिहासकार गिरिराज किशोर के विचारों से लिया है। फिर भी, राजकुमार शुक्ल को गांधी का तीसरा गुरु कहना कहाँ तक न्यायसंगत है इस पर चर्चा अवश्य होनी चाहिए। आम तौर पर इस तरह के विशेषणों में उस व्यक्ति विशेष से कोई अनुमति लेने की परम्परा नहीं है। न तो किसी ने गांधी से पूछकर उनका नाम महात्मा रखा न ही उनसे पूछकर किसी ने उन्हें बापू कहना शुरू किया और न ही उनकी सहमति से उनके द्रोणाचार्य की तलाश और घोषणा की जाने लगी। सही मायने में ‘गुरु’ एक व्यक्ति विशेष तक सीमित न होकर वह कोई भी घटना, परिस्थिति, समय, स्थान या ऐसी कोई भी सजीव या निर्जीव मूर्ति (एकलव्य के गुरु) तक हो सकती है, जो किसी व्यक्ति के जीवन के तत्व को जगा दे, उसकी आत्मा के सूक्ष्म का विस्तार विराट में कर दे, उसे अपने गंतव्य का रास्ता दिखा दे और उसका दिल जीत ले। गांधी का ‘पैसिव रेसिस्टेंस’ या ‘सविनय अवज्ञा’ वह ब्रहमास्त्र था जो उनके गहन आध्यात्मिक मंथन से नि:सृत अमृत था। पहले ‘सदाग्रह’ और बाद में ‘सत्याग्रह’ नाम से लोकप्रिय उनका यह एक नवीन आध्यात्मिक दर्शन था जिसमें विरोध तो था, स्वामिभक्ति भी थी। अन्याय को नकारना तो था, किंतु प्रेम के तंतु में बँधे रहकर ही। अपनी बात मनवाना तो था, लेकिन सत्य और अहिंसा के आग्रह से ही। और, ‘ईश्वर के साम्राज्य को अपने हृदय में धारण करने’ के इस संस्कार को पोषित होने में गांधी की ख़ुद की पारिवारिक विरासत, दादा उत्तमचंद की बाएँ हाथ से अपने नए राजा को सलामी मारने के पीछे अपने दाहिने हाथ में पुराने राजा की संजोयी स्वामिभक्ति की कहानी, पिता करमचंद के अपनी स्वामिभक्ति की रक्षा के ख़ातिर अंग्रेज़ एजेंट द्वारा प्रताड़ित होने की कहानी, स्कूल में ‘केटल’ शब्द लिखने के लिए नक़ल से इंकार करने की कहानी, माँ पुतलीबाई के उपवास और धार्मिक संस्कार की कहानी, पिता की मृत्यु के क्षण, रस्किन की पुस्तक ‘अंटु द लास्ट’ का प्रभाव, टोलस्टोय से उनका पत्राचार, गोखले की सीख और अंत में चंपारण के इस अनगढ़ निर्मल हृदय वाले किसान राजकुमार शुक्ल द्वारा ‘दिल जीत लिए’ जाने की उनकी स्वीकारोक्ति, इन तमाम प्रसंगों का एक सम्यक् वितान तना हुआ है। ये सारे प्रकरण उनके अंतस में ‘पैसिव रेसिस्टेंस’ के संस्कार को भरते रहे और चंपारण में जाकर इसने अपनी पहचान की पूर्णता प्राप्त कर ली। १९२७ में मीरा बेन को लिखे पत्र में गांधी ने लिखा, ‘चंपारण ने ही मुझे भारत में पहचान करायी।‘ </p><p> देखना और भोगना में अंतर होता है। जिसे गांधी चंपारण में देखने गए थे उसे राज कुमार शुक्ल भोगते आ रहे थे। यह भी संयोग ही है कि आंदोलन और विरोध की जिस विधा को टोलस्टोय जब अपने पत्रों के द्वारा गांधी को प्रशिक्षित कर रहे थे, ठीक उसी साल और उसके आस पास उसी विधा में साठी विद्रोह की प्रयोगशाला में शुक्ल जी अपने साथी आंदोलनकारियों को बेतिया के दशहरे मेले में दीक्षित कर रहे थे और आंदोलन के उसी संस्कार को अपने हज़ारों साथी आंदोलनकारियों के साथ उन्होंने गांधी के हाथों में उससे ९ साल बाद यथावत सौंप दी थी। बेतिया की भीड़ देख गांधी हतप्रभ हो गए थे। तभी तो शुक्ल जी के बारे में १९१७ के कैलेंडर की तिथियों के बदलने के साथ-साथ गांधी की डायरी के वाक्यों के कलेवर और तेवर भी बदलने लगे थे :</p><p> ६ अप्रिल – ….उसकी बेचैनी और लगन देखकर ही चंपारण जाना चाहता हूँ…….. शायद शुक्ल जी के परिचय का दायरा ठीक ठाक हो…. </p><p>७ अप्रिल – …….तभी राजकुमार शुक्ल से भेंट हुई। मुझे जितनी तसल्ली हुई, उससे कई गुना ज़्यादा ख़ुशी उनके चेहरे से झलक रही थी….. </p><p>९ अप्रिल – …..दोनों की एक-सी जोड़ी थी। दोनों किसान जैसे लगते थे, बल्कि मैंने तो पाँव में कुछ भी नहीं पहना, गोखले की मृत्यु के बाद मैंने साल भर पैदल चलने का फ़ैसला किया है…. </p><p>१० अप्रिल – सुबह १० बजे पटना पहुँचा।……………. मेरा किसी से भी ऐसा परिचय नहीं था अभी बिहार में होटल भी नहीं है…………मुझे लगा था कि राजकुमार शुक्ल भले ही अनपढ़ किसान हैं, पर उनकी जान-पहचान होगी। ट्रेन में ही मुझे उनके बारे में बनी धारणा बदलने की ज़रूरत लगने लगी, पर पटना पहुँचकर तो मुझे भरोसा हो गया कि अब मुझे ही चीज़ों को अपने हाथ में लेकर काम करना होगा, क्योंकि उनके वश में कुछ ख़ास नहीं है।…….</p><p>११ अप्रिल – …….कल देर रात बहुत कम समय की सूचना के बावजूद, जिस तरह प्रो कृपलानी और उनके शिष्यों ने मुज़फ़्फ़रपुर पहुँचने पर हमारा स्वागत किया, उस गर्मजोशी के बाद लगा कि पटना का अनुभव झूठा था।उस मनोरंजक अनुभव के चलते राजकुमार शुक्ल के प्रति मेरा आदर बढ़ गया।……..</p><p><br /></p><p>१९ जुलाई – ख़ास तौर पर सबसे पहले बोले राजकुमार शुक्ल पर तो सारा गोरा खेमा एकदम टूट पड़ा ………. पर राजकुमार के कहने की शैली बड़ी अच्छी थी……..आबवाबों की वसूली का जो क़िस्सा सुनाया उससे सब हैरान थे…… </p><p>ऊपर के उद्धरण शुक्ल जी के प्रति दिन-पर-दिन गांधी की बढ़ती श्रद्धा की झलकी मात्र हैं। यदि उन्हें चंपारण लाने के लिए शुक्ल जी द्वारा किए गए सम्पूर्ण उद्योग से लेकर पूरे आंदोलन के दौरान और उसके बाद भी शुक्ल जी की गतिविधियों का गहरायी से अवलोकन करें तो दास जी की इस पुस्तक से तीन बातें तो बिल्कुल साफ़ हो जाती हैं – पहली यह कि शुक्ल जी ने गांधी जी को अत्यल्प समय में ही चंपारण की स्थिति को इतना बख़ूबी समझा दिया कि उन्हें अब अपने से स्थिति को देखने-समझने की और ज़्यादा ज़रूरत नहीं रह गयी। दूसरी यह कि गांधी के नैतिक और आध्यात्मिक दर्शन के गूढ़ सिद्धांत को शुक्लजी ने चंपारण की प्रयोगशाला में १९०८ के आस पास से ही प्रायोगिक जामा पहना रखा था और तीसरी यह कि गांधी ने शुक्लजी के व्यक्तित्व से स्वयं सत्याग्रह के कई तत्व बटोरे। </p><p>अब गांधी के जीवन में गुरु प्रभाव डालने वाले तत्वों की गिनती तो इतिहासकारों की अपनी बौद्धिक जुगाली का विषय होगा लेकिन यह पुस्तक पाठकों को वहाँ तक तो अवश्य छोड़ जाती है कि उसे इस बात का अहसास होने लगता है कि गांधी के चंपारण-सत्याग्रह में शुक्लजी की चेतना निरंतर आंदोलित होते रही। </p><p> --- विश्वमोहन</p><p> </p><p><br /></p><p><br /></p>विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com17tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-73971814147656206742021-05-12T06:08:00.005+05:302021-05-12T23:37:30.218+05:30बदलेगा परिवेश!<p> नहीं क्षितिज से छिटकी किरणें,</p><p>ना सूरज ने आंखे खोली।</p><p>रहा समुंदर सुस्त-सा सोया,</p><p>नहीं लहर ने लाली घोली।</p><p><br /></p><p>खुसुर-फुसुर न गिलहरियों की,</p><p>न चहकी, चिड़िया हमजोली।</p><p>टहनी रही ठूंठ-सी लटकी,</p><p>देखो, पत्ती एक न डोली।</p><p><br /></p><p>न ही समीर की सरर-सरर-सर,</p><p>न बगिया की बुलबुल बोली।</p><p>रही सिसकती सन्नाटे में,</p><p>संसार की सूरत भोली!</p><p><br /></p><p>ऑक्सीजन आकाश से गायब,</p><p>प्राणवायु के प्राण हैं अटके।</p><p>अस्पताल बीमार सड़क पर,</p><p>फक-फक फेफड़ा दर-दर भटके।</p><p><br /></p><p>श्मशान में भगदड़-सी है,</p><p>मुर्दे रोते जमघट में।</p><p>जलने की अपनी बारी का,</p><p>बाट जोहते मरघट में।</p><p><br /></p><p>फिर भी लगता सौदागर कुछ,</p><p>नही अभी भी मानेंगे।</p><p>मानवता को नोच-नोच,</p><p>भर लबना लहू छानेंगे।</p><p><br /></p><p>काले बाज़ार के जमाखोर ये,</p><p>मौत के पापी सौदागर हैं।</p><p>मास्क लगाए इंसानों-से,</p><p>हैवानी हमलावर हैं।</p><p><br /></p><p>नहीं ठहरता समय एक-सा,</p><p>पहिया इसका घूमेगा।</p><p>सृष्टि का संस्कार धरा को,</p><p>अति शीघ्र ही चूमेगा।</p><p><br /></p><p>दिग-दिगंत में जीवन की,</p><p>कोंपल फिर अँकुरायेगी।</p><p>उषा की पहली अँजोर,</p><p>आशा की रश्मि लाएगी।</p><p><br /></p><p>नहीं प्राण के पड़ेंगे लाले,</p><p> नहीं विषाणु शेष!</p><p>मानवता मुस्कायेगी और,</p><p>बदलेगा परिवेश!</p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p>विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com32tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-11102843722989740412021-05-06T15:35:00.003+05:302021-05-06T15:35:38.219+05:30इस रमज़ान में!<p> देखो न </p><p>अचकन मेरी </p><p>फटी रही!</p><p>नहीं खरीद पाया</p><p>नयी!</p><p>निकला जा रहा है</p><p>ये महीना</p><p>रमज़ान का भी!</p><p><br /></p><p>छाया है, </p><p>सन्नाटा!</p><p>बंद जो है,</p><p>दुकानें सभी,</p><p>कपड़ों की!</p><p>बिक रहे हैं </p><p>तो, सिर्फ कफन,</p><p>बाज़ार में।</p><p><br /></p><p>सोचा था इफ्तार में </p><p>करूँगा हलक तरी,</p><p>बहार से,</p><p>रूह आफ़ज़ा की।</p><p>कर न पाया मगर!</p><p>सजी हैं बाज़ार में,</p><p>दुकानें!</p><p>सिर्फ दारू की।</p><p><br /></p><p>सोचा है </p><p>मांग लूंगा </p><p>महताब से</p><p>ईद में अबकी</p><p>उसकी मेहरीन-सी</p><p>जमजम की दो बूंद</p><p>हिफाज़त की,</p><p>अवाम की।</p><p><br /></p><p>आज तो,</p><p>करूँगा आरज़ू, </p><p>सज़दे में,</p><p>अल्लाह से,</p><p>और, राम से भी।</p><p>बख्शने को जान</p><p>इंसानियत की</p><p>इस रमज़ान में।</p><div><br /></div>विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com33tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-28882470419552736982021-04-28T12:30:00.002+05:302021-04-30T19:25:06.750+05:30सब धान बाइस पसेरी <p>तो भैया!</p><p>पिछली बार आए थे,</p><p>तो पूरी ‘जमात’ लेकर आए थे।</p><p>इस बार तो ,</p><p>मितरों से पितरों तक ।</p><p>‘खेला होबो न’ खेल कर, </p><p>महाकुम्भ-सा छा गए।</p><p>कब फूटेगा </p><p>तेरा यह कुम्भीपाक!</p><p><br /></p><p>लेकिन कुछ तो है </p><p>जो ख़ास है तुममें! </p><p>माना म्लेछों ने भेजा तुम्हें </p><p>हिमालय के पार से।</p><p>पहले से कम थे क्या,</p><p>उनके चट्टे- बट्टे यहाँ!</p><p>फिर भी तुम तो </p><p>कुछ इंसान-से निकल गए।</p><p><br /></p><p>कम से कम इंसाफ़ के मामले में!</p><p>न धनी, न अमीर </p><p>न देह, न ज़मीर।</p><p>न वाद, ना विवाद और </p><p>न ही कोई परिवाद </p><p>पूरा का पूरा साम्यवाद!</p><p>क्या बुर्जुआ, क्या सर्वहारा!</p><p>सबने सबकुछ हारा! </p><p><br /></p><p>भले ही तू लीलता रहा,</p><p>अपनी लपलपाती जिह्वा से,</p><p>मौत का तांडव करता,</p><p>हवाओं में घोलता वाइरस,</p><p>अपने ज़हर का। </p><p>किंतु मेरे भाई !</p><p>नहीं बने ‘सौदागर’ ,</p><p>मौत के तू कभी!</p><p> </p><p>दवाई, इंजेक्शन, ऑक्सिजन,</p><p>सबके जमाखोर!</p><p>ताल ठोकते रहे तुमसे,</p><p>चकले में हैवानियत के।</p><p>तनिक भी तूने, तब भी नहीं की, </p><p>मौत की कालाबाज़ारी!</p><p>डटे रहे राह पर बराबरी के,</p><p>‘सब धान बाइस पसेरी”</p><div><br /></div>विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com32tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-82519605814908644902021-04-26T17:49:00.005+05:302021-04-27T11:11:58.962+05:30कोरोना का कलि काल<p> </p><p><br /></p><p>प्रकृति के पोर-पोर को,</p><p>दूह-दूह जो खायी है।</p><p>प्रतिक्रिया प्रतिशोध जनित,</p><p>यह कुदरत की कारवाई है।</p><p><br /></p><p>काली करतूतों का जहर,</p><p>वायुमंडल में छितराया है।</p><p>ओजोन छिद्र के गह-गह में,</p><p>जीवाणु-गुच्छ भर आया है।</p><p><br /></p><p>और मानुष के मानस में,</p><p>गरल का इतना भार बढा।</p><p>छिन्न-भिन्न प्रतिरोध की शक्ति</p><p>न औषध-उपचार चढ़ा।</p><p><br /></p><p>काँपी धरती, फटा बादल,</p><p>और बवंडर छाया है।</p><p>हिमखंड टंकार में टूटकर,</p><p>महासागर लहराया है।</p><p><br /></p><p>आसमान से टूटी बिजली,</p><p> बाड़वाग्नि जलती है।</p><p>चूर्ण अश्म सब हुए भस्म,</p><p>हसरतें हाथ अब मलती है।</p><p><br /></p><p>प्रलय पल वह महाकाल का</p><p>भयकारी-सा गर्जन है।</p><p>त्राहि-त्राहि के तुमुल रोर में,</p><p>होता सर्वस्व विसर्जन है।</p><p><br /></p><p>तब भी ढोंगी लोकतंत्र का,</p><p>'बंग-भंग' नहीं रुकता है।</p><p>पाखंड का कुम्भीपाक,</p><p>हर की पौड़ी पर टूटता है।</p><p><br /></p><p>प्राण-प्राण के पड़ते लाले,</p><p>प्राण वायु न पाते हैं।</p><p>मरघट के पसरे मातम में,</p><p> रोये भी न जाते हैं।</p><p><br /></p><p>कहीं खिलौने, कहीं चूड़ियाँ,</p><p>कहीं कलपती कुमकुम है।</p><p>कोरोना के कलि-काल में,</p><p>कवलित कलियां गुमसुम हैं।</p><p><br /></p><p>जो भी सम्मुख वही जीवाणु,</p><p>वाहक माने जाते हैं।</p><p>संशय के संकट में भी,</p><p> 'ग्राहक' पहचाने जाते हैं।</p><p><br /></p><p>जमाखोर हैवानी कीड़े,</p><p>इंसानी मास्क पहनते हैं।</p><p>लाशों को ये लांघ-लांघ,</p><p>चांदी के सिक्के गनते हैं।</p><p><br /></p><p>हैवानों की यही नस्ल </p><p>जीवाणु कोरोना है।</p><p>दूषित हो जब अंदर-बाहर,</p><p>यही हश्र तो होना है।</p><p><br /></p><p>हे मानस के सत्व भाव,</p><p>अब आओ हम आह्वान करें।</p><p>तामस तत्व व तिमिर काल का,</p><p>हम समूल संधान करें।</p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p>विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com22tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-57498740465925634532021-04-19T07:16:00.003+05:302021-04-19T07:20:58.442+05:30शांति विद्या फेलोशिप: इक्यावन 'तेजस्विनियाँ'<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6JYqDIOxFtRPAqlvVP-QNskWGp91Z5-njewlwXC_QMrMO8SSTIvTPww8VNtxXG24qKs7V2KC4gx_sRRIQN2BZwjutjDwtgpHAvYVViOzq5Ys0V-P1CcN-Pr-JHo-IkiPIZn8Q8elSVuc/s1805/Screenshot_20210418-121832__01__01.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1805" data-original-width="628" height="310" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6JYqDIOxFtRPAqlvVP-QNskWGp91Z5-njewlwXC_QMrMO8SSTIvTPww8VNtxXG24qKs7V2KC4gx_sRRIQN2BZwjutjDwtgpHAvYVViOzq5Ys0V-P1CcN-Pr-JHo-IkiPIZn8Q8elSVuc/w108-h310/Screenshot_20210418-121832__01__01.jpg" width="108" /></a></div><br /><p><br /></p><p><br /></p><p>वाराणसी । नारी अधिकारिता को समर्पित संस्था 'शांति तथा विद्या फाउंडेशन' ने अपने शिक्षा-कार्यक्रम के तहत देश भर की इक्यावन प्रतिभा सम्पन्न किन्तु आर्थिक रूप से कमजोर छात्राओं को 'तेजस्विनी फेलोशिप' से नवाजा है। प्रत्येक 'तेजस्विनी' का नामांकन शुल्क सहित पढ़ाई-लिखाई का खर्चा फाउंडेशन द्वारा सीधे उनके शिक्षण संस्थान के खाते में किया जाता है। छात्राओं का चयन संस्थान के प्रमुख की अनुशंसा पर फाउंडेशन की फेलोशिप समिति करती है। प्रत्येक 'तेजस्विनी' को नारी अधिकारिता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और राष्ट्र हित में निष्ठापूर्वक कार्य करने की शपथ लेनी होती है। अपनी अध्ययन यात्रा में उत्तरोत्तर सर्वांगीण विकास हेतु तेजस्विनीयों को फाउंडेशन की मार्गदर्शन समिति (मेंटर कमिटी) का सतत संरक्षण प्राप्त है। इस समिति ने अपने इस अभियान का श्री गणेश अभी हाल में दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस की तेजस्विनीयों के साथ उनकी प्राचार्य और प्रभारी आचार्य की उपस्थिति में किया।</p><p><br /></p><p>देश दुनिया के भिन्न-भिन्न कोनों से मानवप्रेमियों ने फाउंडेशन की इस मुहिम में अपना अमूल्य सहयोग और मार्गदर्शन दिया है। बिहार की संस्था 'श्री कृष्ण ज्ञान केंद्र, पटना' ने भारत के प्रख्यात व्यक्तित्वों की स्मृति में नौ फेलोशिप प्रायोजित किये हैं। इसके अलावे अनेक प्रबुद्ध जनों ने अपने परिजनों की स्मृति में फेलोशिप प्रायोजित किये हैं।</p><p>तेलंगाना, ओडिशा, कर्नाटक, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे प्रांतों से फेलोशिप के लिए तेजस्विनियों का चयन हुआ है। मेडिकल, इंजीनियरिंग, विज्ञान, कला, वाणिज्य एवं व्यावसायिक शिक्षा पा रही छात्राओं को यह फेलोशिप प्रदान की गयी जिसमें मिरांडा हाउस दिल्ली से 15, आर्यभट्ट कॉलेज दिल्ली से 4, नन कॉलेजिएट महिला शिक्षा बोर्ड दिल्ली विश्वविद्यालय से 5, वाराणसी के महिला महाविद्यालय से 2, वसंत महाविद्यालय से 10, आर्य महिला कॉलेज से 7, दरभंगा के सी एम साइंस कॉलेज से 4, बंगलोर के कृषि विज्ञान से 1, आर एन टी मेडिकल कॉलेज उदयपुर से 2 और महारानी कॉलेज जयपुर से 1 छात्रा शामिल है।</p><p>'शांति तथा विद्या फाउंडेशन' की जानकारी निम्नलिखित लिंकों से ली जा सकती है:</p><p>वेबसाइट :https://www.shantividhya.org</p><p>इन्स्टाग्राम : httpd://www.instagram.com/shantividhyafoundation/</p><p>लिंक्डइन : https://www.linkedin.com/company/shanti-vidhya-foundation</p><p>ट्विटर : https://twitter.com/ShantiVidhya</p><p>जी मेल : shantividhyafoundation@gmail.com</p><p>फेसबुक : https://www.facebook.com/shantividhyafoundation</p><p><br /></p><p>हम इस अभियान की सफलता के लिए देश के उन तमाम शिक्षण संस्थानों के प्रमुख के प्रति अपना आभार व्यक्त करते हैं जिन्होंने कोरोना के इस महामारी काल में व्याप्त संवादहीनता के माहौल में अपनी संवेदना, नारी शिक्षा और नारी अधिकारिता के प्रति अपनी अद्भुत निष्ठा का गौरवमय उदाहरण प्रस्तुत किया।</p><p>''यत्र नार्यस्ते पूज्यन्ते तत्र रमन्ते देवा:"</p><p> ------------------- विश्वमोहन कुमार</p><p> अध्यक्ष, फेलोशिप समिति</p><p> शांति तथा विद्या फाउंडेशन</p><p><br /></p>विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com20tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-69745260026720658762021-04-04T17:37:00.001+05:302021-04-04T17:37:25.355+05:30सवर्ण कविता!!!<p> कल काली रात को</p><p>राजनीति की तंग गलियों में</p><p> कराहती मिली कविता।</p><p>किस लिए लिखी जाती हूँ मैं?</p><p>किसके लिए हूँ मैं!</p><p>हमने कोशिश की</p><p>समझाने की उसे।</p><p>ढेर जातियाँ हैं</p><p>तुम कविताओं की।</p><p>तुम किस वर्ण की हो,</p><p>नहीं जानता।</p><p>पर सभी सवर्ण नहीं होतीं।</p><p><br /></p><p>कुछ कवितायें होती है</p><p> पाठकों के लिए।</p><p>कुछ मंचों के लिए।</p><p>कुछ चैनलों के लिए।</p><p>कुछ 'मनचलों' के लिए।</p><p>कुछ अर्श के लिए।</p><p>कुछ फर्श के लिए।</p><p>कुछ खालिस विमर्श के लिए।</p><p>कुछ वाद के लिए।</p><p>कुछ नाद के लिए।</p><p>फेसबुक इंस्टागिरी के लिए।</p><p>कुछ 'चिट्ठागिरी' के लिए।</p><p><br /></p><p>कुछ पर्चा के लिए,</p><p>कुछ 'चर्चा' के लिए,</p><p>कुछ तो, सबका मुँह बंद किये,</p><p>'लिकों के आनंद' के लिए,</p><p>देश गौरव गान के लिए,</p><p>नारी के उत्थान के लिये,</p><p>और..</p><p>.....और क्या!</p><p>और कुछ,</p><p>सही मायने में सवर्ण।</p><p>सिर्फ और सिर्फ,</p><p>साहित्य अकादमी पुरस्कारों के लिए!</p><p><br /></p><p><br /></p>विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com23tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-29771135426901942382021-03-25T13:10:00.003+05:302021-03-25T15:03:29.389+05:30'बाघ-बकरी चाय'<p> </p><p><br /></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhcreXfqCgLCtBkDLEcH8DsK7Ht9_5BQ9zmUvv8j0iWrkXwWGPqCsxxAsa7oPX5oDGJ0wWfeSXba6Y_ypdEy-U0z_6fnq-_Wx4pLJibu4ehlWawK-9VWeCc4wKsp9Uq0Tcz4BzoCrVK3ZQ/s2160/Screenshot_20210325-133139.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2160" data-original-width="1080" height="324" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhcreXfqCgLCtBkDLEcH8DsK7Ht9_5BQ9zmUvv8j0iWrkXwWGPqCsxxAsa7oPX5oDGJ0wWfeSXba6Y_ypdEy-U0z_6fnq-_Wx4pLJibu4ehlWawK-9VWeCc4wKsp9Uq0Tcz4BzoCrVK3ZQ/w162-h324/Screenshot_20210325-133139.jpg" width="162" /></a></div><br /><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p>विश्व की बहुमत 'बकरियाँ' तू,</p><p>नहीं तनिक भी घबराना।</p><p>अल्पमत इन 'बाघों' के गर्जन,</p><p>की नियति केवल छा जाना।</p><p><br /></p><p>चाय है बस, 'बाघ-बकरी' यह!</p><p>नहीं इसे तू पी लेना।</p><p>इसे बना बस 'उन्हें' पिलाओ</p><p>बेच बेचकर जी लेना।</p><p><br /></p><p>'इनको' सहना, धीरज रखना,</p><p>तेरे भी दिन बहुरेंगे।</p><p>नक्षत्र ग्रह गोचर मंडल,</p><p>तेरी कुंडली में उतरेंगे।</p><p><br /></p><p>फिर पलटेंगे भाग्य तुम्हारे,</p><p>तू भू मंडल पर छाएगा।</p><p>तेरी यशगाथा को सुनकर,</p><p>पप्पू भी पछतायेगा।</p><p><br /></p><p>जय श्री राम की विजय-दुंदुभि,</p><p>गौरव उदात्त अक्षय होगा।</p><p>'बाघ-बकरी' की चाय की दहशत,</p><p>'रोम-रोम' में भय होगा।</p>विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com22tag:blogger.com,1999:blog-38106587470974878.post-91767631391523493272021-02-19T14:58:00.001+05:302021-02-19T14:58:35.224+05:30अँधेरा बो रहा है!<p> दिखाने को तो बस एक ही दिखाता</p><p>सारा संसार डबल जी रहा है।</p><p><br /></p><p>नुमाइश ही भर है, लाजो सरम की,</p><p>भीतर-ही-भीतर गैरत पी रहा है।</p><p><br /></p><p>खंजर जिगर पर पीछे से लगाकर,</p><p>जख्म अंदर और बाहर सी रहा है।</p><p><br /></p><p>रुखसार पर है हंसी का ही पहरा,</p><p>आस्तीन में पोसे वो साँप ढो रहा है।</p><p><br /></p><p>लबों को कर लबरेज मीठी बोली से,</p><p>मैल है अंदर और बाहर धो रहा है।</p><p><br /></p><p>वस्ल-ए-मुहब्बत, जिस्मानी जहर जो,</p><p>उजाले में वो, अंधेरा बो रहा है।</p><div><br /></div>विश्वमोहनhttp://www.blogger.com/profile/14664590781372628913noreply@blogger.com31