विचित्र विडंबना है भाई
' बेसिक - स्ट्रक्चर ' गड़बड़ाई।
फैल गई
अब बात
घर घर।
हुए 'केशवानंद भारती'
पसीने से
तर - ब - तर।
तुला न्याय की
डोल गई।
कलई अपनी
खोल गई।
"मुजरिम ही हो भला
मुंसिफ!"
कचहरी ही, ये पोल
खोल गई।
देवी न्याय की
दिग दिगंत,
पीट गई
' विशाखा ' ढोल।
खुद के
नक्कारखाने में,
भले
तूती सी बोल।
ई- टेंडर ने
कर दिया,
टेंडर फिक्सिंग
गोल।
'बेंच-फिक्सिंग'
रह गया
बिन तोल के
मोल।
मांग रही
अवाम अब,
इन्साफ का
हिसाब।
धो दें, जनाब,
अंदरुनी
आजादी का
खिजाब।
फरेब का
उतार दें,
हुज़ूर
ये हिजाब।
कीजिए
इन्साफ का,
बुलंद
इन्कलाब।
' बेसिक - स्ट्रक्चर ' गड़बड़ाई।
फैल गई
अब बात
घर घर।
हुए 'केशवानंद भारती'
पसीने से
तर - ब - तर।
तुला न्याय की
डोल गई।
कलई अपनी
खोल गई।
"मुजरिम ही हो भला
मुंसिफ!"
कचहरी ही, ये पोल
खोल गई।
देवी न्याय की
दिग दिगंत,
पीट गई
' विशाखा ' ढोल।
खुद के
नक्कारखाने में,
भले
तूती सी बोल।
ई- टेंडर ने
कर दिया,
टेंडर फिक्सिंग
गोल।
'बेंच-फिक्सिंग'
रह गया
बिन तोल के
मोल।
मांग रही
अवाम अब,
इन्साफ का
हिसाब।
धो दें, जनाब,
अंदरुनी
आजादी का
खिजाब।
फरेब का
उतार दें,
हुज़ूर
ये हिजाब।
कीजिए
इन्साफ का,
बुलंद
इन्कलाब।
आदरणीय विश्वमोहन जी -- न्यायपालिका के प्रधान न्यायाधीश के ऊपर लगे यौन उत्पीडन मामले में सर्वोच्च न्यायालय के विवादस्पद निर्णय का विहंगमावलोकन करती रचना बहुत सार्थक है | | न्यायपालिका पर असंख्य लोगों की न्याय की उम्मीद टिकी है ,पर अपने न्यायधीश के मामले में इसका दोहरा रवैया बहुत से प्रश्नों को जन्म देता है | आरोपी को साफ साफ बचाने की कवायद और उसकी आड़ में ये कहा देना, कि न्यायपालिका के विरुद्ध षड्यंत्र का अंदेशा है -- एक बहुत ही बचकाने तर्क सा लगता है | न्याय की दृष्टि में आम और खास एक होने चाहिए | बल्कि आरोपी का सीधा सम्बन्ध न्याय पालिका से है , तो उन्हें इस केस की सुनवाई निर्धारित न्याय प्रक्रिया के माध्यम से ही करनी चाहिए क्योकि भंवरी देवी प्रकरण के फलस्वरूप निर्धारित की गयी विशाखा गाइडलाइन्स के अनुसार सहयोगियों से पीड़ित कामकाजी महिला को उसके कार्यस्थल पर ही अंदरूनी शिकायत समिति के माध्यम से न्याय मिलने का प्रावधान रखा गया है | फिर ये तो सर्वोच्च न्यायालय से जुड़ा का मामला है जिस का निष्पक्ष न्याय समस्त राष्ट्र के लिए एक मिसाल बन सकता है | सो उसे अपनी ही कर्मचारी द्वारा अपने वरिष्ठ पर लगाये गये आरोपों को गम्भीरता से लेकर उस पर सार्थक न्याय देना चाहिए |क्योकि इन्साफ देना न्यायालय का संवैधानिक अधिकार भी है और हर व्यक्ति के प्रति एक नैतिक कर्तव्य भी | माना कि आज कल झूठे आरोपों द्वारा प्रतिष्ठित लोगों की छवि को धूमिल करने के कुत्सित प्रयास भी हो रहे हैं पर ये भी कटु सत्य है कीकिसी भी न्यायविद को महाभियोग की प्रक्रिया के तहत हटाया नहीं गया |लेकिन इस चर्चित मामले में अपनी साख को बचाने और लोगों के न्याय प्रक्रिया पर विश्वास जताने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को बहुत ही पारदर्शिता से से न्याय करना होगा |.सार्थक ज्वलंत विषयात्मक रचना के लिए साधुवाद |
ReplyDeleteइतनी सुन्दर व्याख्या के साथ अपनी समीक्षा को प्रस्तुत करने के लिए साधुवाद. 'न्याय केवल होना ही नहीं चाहिए, प्रत्युत न्याय होता हुआ प्रतीत भी होना चाहिए' इसकी अंतर्ध्वनि से आपकी समीक्षा आद्योपांत गुंजित है. आभार और बधाई!!!
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरूवार 2 मई 2019 को साझा की गई है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपका।
Deleteबेहतरीन रचना आदरणीय
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपका।
Deleteसमसामयिक विषयों को समेटती बहुत ही सुंंदर रचना।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपका।
Deleteवाह ।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपका।
Deleteवाह!बहुत सुंदर और सटीक!
ReplyDeleteसही कहा आपनें ,खामी तो बेसिक ढाँचे मेंं ही है ,हर जगह दोहरा रवैया ...न्याय व्यवस्था के प्रति अविश्वास की भावना को ही जन्म देता है ।
समसमयिक विषय पर बड़ी सटीक प्रस्तुति ,सादर नमस्कार
ReplyDeleteइन्कलाबी नारों से अगर बदलाव संभव हो पता
ReplyDeleteतो आज आवाम-ए हिंदुस्तान यूँ बिलखता न नज़र आता
जनाब,आज की तारीख़ में देश का कौन-सा तंत्र भ्रष्टाचार नामक रोग से ग्रसित नहीं है?
देश की दिन-ब-दिन होती दुर्गति में किस तंत्र का योगदान कम है ये भी एक विचारणीय प्रश्न है।
खैर,
आपकी क़लम तो हर विषय पर अपनी अद्भुत क्षमता का प्रमाण देती आयी है। एक और मनन योग्य धरोहर समाज के लिए बुद्धिजीवियों के लिए सौंप दिया आपने।
आभार और शुक्रिया आपका।
१८५७ से १९४७ तक और फिर १९७५ की क्रांतियाँ और समस्त समसामयिक हलचले तो तत्कालीन इन्क़लाबी नारों से उद्भूत परिवेश का निकष ही प्रतीत होती हैं. और दूसरी बात कि कोई भी तंत्र तभी तक जीवित रहता है जबतक वह उन उद्देश्यों की पूर्ति करने में सक्षम हो जिस हेतु वह अपने अस्तित्व में आया. जी, आपकी टिप्पणियों से अनुगृहित हुआ, आभार!!!
Deleteबहुत सुन्दर समसामयिक सटीक एवं सार्थक प्रस्तुति...
ReplyDeleteमांग रही
अवाम अब,
इन्साफ का
हिसाब।
धो दें, जनाब,
अंदरुनी
आजादी का
खिजाब।
बहुत ही लाजवाब
वाह!!!
जी, अत्यंत आभार आपके आशीष का!!!
Deleteमधुमक्खी के छत्ते को छेड़ा है तुमने,
ReplyDeleteडंक मारने, झपटें तो, शिकवा मत करना.
आँख मूंदकर, नहीं बैठना, सीखा तुमने,
खुली आँख, आफ़त ढाए, अचरज मत करना.
वाह! आप क़त्ल पे कत्ल करते रहें और हमें मायूसी का भी हक नहीं.... जी, आभार आपके आशीष का।
Delete'बेंच-फिक्सिंग'
ReplyDeleteरह गया
बिन तोल के
मोल।
वाह ! लोगों की बंद आँखें खोलने के लिए आपकी ये दो पंक्तियाँ ही बहुत हैं। पर गांधारी जैसे खुद ही अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर अंधे धृतराष्ट्र का साथ देने वालों का क्या?
बात की तह तक जाने का आभार।
Deleteआवश्यक सूचना :
ReplyDeleteसभी गणमान्य पाठकों एवं रचनाकारों को सूचित करते हुए हमें अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है कि अक्षय गौरव ई -पत्रिका जनवरी -मार्च अंक का प्रकाशन हो चुका है। कृपया पत्रिका को डाउनलोड करने हेतु नीचे दिए गए लिंक पर जायें और अधिक से अधिक पाठकों तक पहुँचाने हेतु लिंक शेयर करें ! सादर https://www.akshayagaurav.in/2019/05/january-march-2019.html
बधाई और आभार।
Deleteजी, अत्यंत आभार आपका!!!!
ReplyDeleteन्यायालय में भी भ्रष्टाचार होता हैं यह देख कर आम जनता के मन को बहुत ठेस पहुंचती हैं। लेकिन आज भी लोगों को न्यायव्यवस्था पर यकीन हैं। इसलिए ही तो हम यह वाक्य सुनते हैं कि कोर्ट में देख लूंगा।
ReplyDeleteआज के परिस्थिति पर बहुत ही सटीक लेख विश्वमोहन जी।
जी, अत्यंत आभार।
Deleteतुला न्याय की
ReplyDeleteडोल गई।
कलई अपनी
खोल गई।...बहत खूब...टाइटिल और भी अच्छा
जी, अत्यंत आभार।
Deleteधो दें, जनाब,
ReplyDeleteअंदरुनी
आजादी का
खिजाब।
बहुत ही लाजवाब
जी, अत्यंत आभार!
Deleteबहुत सुन्दर कविता |ब्लॉग पर आगमन हेतु आभार
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपका।
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