मंच से माइक में आवाज़ गूँजी – ‘ बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ।‘ क्या वाम! क्या दाम! क्या सियासती दल! क्या अवाम! सबने बाँग लगायी। ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा।‘
दौड़ी बेटियाँ।... गिरती।...... चढ़ती।..... उठती।... पड़ती।... ..बचते।... बचाते।..... छुपते।.......... छुपाते।...... सपने सजाते। ख़ूब पढ़ी। ख़ूब बढ़ी। रसोई से साफ़गोई तक।... बिंदी से हिंदी तक।... अंतरिक्ष से साहित्य की सरहद तक।.... गुरुदेव की गीतांजली से गीतांजलि बोकरती रेत-समाधि तक। दुनिया के टीले को अपनी ओढ़नी से तोप दिया। आला इनाम, उनके नाम! सबने दुलारा। सबने सराहा।
किंतु, मंच मौन! और ये सियासती भूत! न कोई खदबद। न कोई हुदहुद। न कोई खिलखिल। और न कोई मुबारकबाद! हाँ थोड़ी काग़ाफूसी ज़रूर! सिर्फ़ ‘वाद’!
बह गयी बेटी – ‘विचार-धारा’ में!