इससे पहिले कि,
उतरे नेताओ की आंखों का पानी,
उतर गया जमुना का पानी!
अब राहत में राजधानी।
खतरे के निशान से ऊपर है लेकिन,
अभी भी तथाकथित 'संजय उवाच ',
मीडिया की ' लोक' वाणी।
मौसम पसीना पसीना,
जनता पानी - पानी!
छोड़ो जमुने! चिंता विंता,
उतरने का इस पानी का।
मत ताजो तुम अपना पानी।
चढ़ी रहो, हे तरनी तनुजा कालिंदी!
यम की बहन, काल यामिनी!
वरना, छोड़ेंगे नहीं ये नर पुंगव!
तुम्हे भी, घुमाएंगे नग्न,
तुम्हारी ही तलहटी में!
करने को शर्मसार उस,
अमृत सैकत राशि को।
थिरकते पैरों के निशान हैं,
जिस पर तुम्हारे कान्हा के।
जिन वादियों में गूंजते थे,
मुरली की तान पर,
गीत गोविंद जयदेव के।
"तैर रही अब फिजा में, हाहाकार!
तीन देवियों की निर्वस्त्र चित्कार।"
ढूंढते रह जाएंगे, अधिमास में, सावन के!
स्वयं कालकुट, मणिकर्णिका! अपनी पार्वती के।
उफनो, उफनो हे बहन! काल की! और सुनो!
कहना कान्हा को कि,
काटे नहीं कलीय के मस्तक।
मन भर डसे उन दुष्टों को उरग,
पोंछा कलौंछ जिन हैवानों ने,
दीप्त श्रीपुर के कंचन महल में,
किया अपवित्र तुम्हारी मणि को!