दिखाने को तो बस एक ही दिखाता
सारा संसार डबल जी रहा है।
नुमाइश ही भर है, लाजो सरम की,
भीतर-ही-भीतर गैरत पी रहा है।
खंजर जिगर पर पीछे से लगाकर,
जख्म अंदर और बाहर सी रहा है।
रुखसार पर है हंसी का ही पहरा,
आस्तीन में पोसे वो साँप ढो रहा है।
लबों को कर लबरेज मीठी बोली से,
मैल है अंदर और बाहर धो रहा है।
वस्ल-ए-मुहब्बत, जिस्मानी जहर जो,
उजाले में वो, अंधेरा बो रहा है।
वस्ल-ए-मुहब्बत, जिस्मानी जहर जो,
ReplyDeleteउजाले में वो, अंधेरा बो रहा है।
... समय कुछ ऐसा ही चल रहा है। समग्रता की कौन सोचता है, उत्कर्ष की कौन सोचता है, पराकाष्ठा की सोंच कहाँ। ।।।
सबकी अपनी-2 राह, अपनी-2 चाल, अपना ही लय।।।।।
उजाले की कल्पना, अकल्पनीय प्रतीत होती है।
बहुत दिनों बाद आपकी पटल पर आ पाया हूँ। पर आनन्द आ गया। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीय विश्वमोहन जी ।।।।
जी, अत्यंत आभार।
Deleteलबों को कर लबरेज मीठी बोली से,
ReplyDeleteमैल है अंदर और बाहर धो रहा है।
ये तो आज का सत्य बन चूका है,लेकिन ये आप पर निर्भर है कि-आप मीठी बोली और मैल में कितना अंतर् समझ पा रहें है
आज के सत्य को उजागर करता लाज़बाब सृजन,सादर नमन आपको
जी, अत्यंत आभार।
Deleteवाह
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना आज शनिवार 20 फरवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन " पर आप भी सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद! ,
जी, अत्यंत आभार।
Deleteदिखाने को तो बस एक ही दिखाता
ReplyDeleteसारा संसार डबल जी रहा है।,,,,,,,बहुत सुन्दर एवं सच्चाई से रवरू कराती आप की ये रचना ।आदरणीय शुभकामनाएँ
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteखंजर जिगर पर पीछे से लगाकर,
ReplyDeleteजख्म अंदर और बाहर सी रहा है।
रुखसार पर है हंसी का ही पहरा,
आस्तीन में पोसे वो साँप ढो रहा है।..आज के दौर में दोहरे चरित्र को जीते लोगों पर कटाक्ष करती यथार्थपूर्ण रचना..
जी, अत्यंत आभार।
Deleteबहुत सुन्दर व अलहदा सृजन।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteसार्थक सृजन!!
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteखंजर जिगर पर पीछे से लगाकर,
ReplyDeleteजख्म अंदर और बाहर सी रहा है।
रुखसार पर है हंसी का ही पहरा,
आस्तीन में पोसे वो साँप ढो रहा है।----सार्थक सृजन
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteबेहद गहन भाव लिए सशक्त अभिव्यक्ति
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!!
Deleteसार्थक सृजन
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteखंजर जिगर पर पीछे से लगाकर,
ReplyDeleteजख्म अंदर और बाहर सी रहा है।
वाह!!!
दिखाने को तो बस एक ही दिखाता
सारा संसार डबल जी रहा है।
बहुत ही सटीक...आजकल हर तरफ दोहरा मानदंड ही नजर आता है...
लाजवाब सृजन।
अत्यंत सर्जनात्मक कृति... कभी समय निकाल के मेरे ब्लॉग पर भी आए
ReplyDeleteजी, बहुत आभार। हो आये आपके सुंदर रचनाओं से सजे ब्लॉग से। शुभकामना!!!
Deleteजी, आभार।
ReplyDeleteदिखावे का ही ज़माना है आदरणीय विश्वमोहन जी। जो दिखावा करने में कुशल है, वही भौतिक रूप से सफल है। आपने सच्चाई बयान की है। जिसने अपनी गैरत को बचा लिया, वह नाकामी की कीमत चुकाता है। कामयाबी चाहिए तो गैरत को पी जाओ।
ReplyDeleteवाह! आपने तो बिल्कुल खोलकर रख दी सारी पोल। बहुत आभार!!!
Deleteआभार!!
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