Tuesday, 23 July 2024

धंधेबाज़ फिर धंधे पर!

नौनिहालों को नोच-नोच,

ये देखो नटूए नाच रहे हैं।

इजलास के जलसे में जो,

रामकथा को बाँच रहे हैं।


लीपपोतकर लीक-वीक,

ये लोकलाज भी लील गए।

इंसाफ़ के अंधे बुत के, 

कल-पुर्ज़े सारे हिल गए।


लिए तराज़ू खड़ी हाथ में,

बाँधे पट्टी आँखों में।

सुबक-सुबक कर रो रही,

बेवा ख़ुद सलाखों में।


गठबंधन का नया ज़माना, 

मुंसिफ़ और बलवाई का।

नीति-न्याय के लम्पट-छलिए, 

बहसी-से कसाई का। 

 

बेचारी विद्या की अर्थी,

विद्यार्थी के कंधे पर।

इंसाफ़ सफ़्फ़ाक़ साफ़ है,

धंधेबाज़ फिर धंधे पर! 


16 comments:

  1. धंधेबाज़ फिर धंधे पर
    गहन चिंतन
    आभार
    सादर

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  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 25 जुलाई 2024 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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  3. बहुत बहुत सुन्दर रचना

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  4. गठबंधन का नया ज़माना,

    मुंसिफ़ और बलवाई का।

    नीति-न्याय के लम्पट-छलिए,

    बहसी-से कसाई का।
    वाह!!!
    क्या बात...
    बहुत ही सटीक एवं लाजवाब
    धंधेबाज़ फिर धंधे पर!
    👌👌🙏🙏🙏

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  5. आज की व्यवस्थाओं की अंधी गली का कड़वा सच सचमुच बहुत हृदयविदारक है! कुछ अवसर कम और उस पर कुटिल धंधेबाजों ने सचमुच विद्या की अर्थी ही उठवा दी है समर्पित विद्यार्थियों के कंधों पर! आखिर कौन है इसके लिए जिम्मेदार?? वो लोग जो सुव्यवस्था में एक छेद इन चतुर व्यापारियों के लिए सुरक्षित रखते हैं या अपने ही बेईमान सेवकों पर आँख मूँद कर विश्वास करने वाले सत्ताधारी! आखिर तन- मन से अपने सपनों को पूरा करने को आतुर ये बच्चे आखिर कहाँ जाएँ! तकनीक ने इन बहरूपियों का मार्ग और सरल कर दिया जबकि स्वप्निल आँखों से सपनों की दूरी और बढ़ गई! एक मर्मांतक प्रश्न जिसका जवाब हर हाल में दिया जाना चाहिए! आपकी रचना बहुत मारक है आदरणीय विश्वमोहन जी 🙏

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    1. हार्दिक आभार आपकी संवेदना के इन अमूल्य शब्दों का।🙏

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