कल काली रात को
राजनीति की तंग गलियों में
कराहती मिली कविता।
किस लिए लिखी जाती हूँ मैं?
किसके लिए हूँ मैं!
हमने कोशिश की
समझाने की उसे।
ढेर जातियाँ हैं
तुम कविताओं की।
तुम किस वर्ण की हो,
नहीं जानता।
पर सभी सवर्ण नहीं होतीं।
कुछ कवितायें होती है
पाठकों के लिए।
कुछ मंचों के लिए।
कुछ चैनलों के लिए।
कुछ 'मनचलों' के लिए।
कुछ अर्श के लिए।
कुछ फर्श के लिए।
कुछ खालिस विमर्श के लिए।
कुछ वाद के लिए।
कुछ नाद के लिए।
फेसबुक इंस्टागिरी के लिए।
कुछ 'चिट्ठागिरी' के लिए।
कुछ पर्चा के लिए,
कुछ 'चर्चा' के लिए,
कुछ तो, सबका मुँह बंद किये,
'लिकों के आनंद' के लिए,
देश गौरव गान के लिए,
नारी के उत्थान के लिये,
और..
.....और क्या!
और कुछ,
सही मायने में सवर्ण।
सिर्फ और सिर्फ,
साहित्य अकादमी पुरस्कारों के लिए!
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteजी, आभार!!!!
Deleteबहुत सुंदर,बिल्कुल सच लिखा है आपने ।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteआदरणीय कविवर, कविता उपेक्षित होगी पर अपने विविध रूपों के साथ ब्लॉग जगत में तो परवान पर है। और यूँ तो मुझे नहीं पता पर यहाँ तोएक ही कविता चर्चा मंच पर भी चली जाती है और पाँच लिंकों पर भी, उसी पर विमर्श वगैरह भी थोडा बहुत हो जाता है। और क्या पता ब्लॉग के किसी रचनाकार को भविष्य में साहित्य एकादमी भी मिल जाए। वो विशेष कथित सवर्ण कविताएँ कौन सी हैं नहीं पता 🤗🤗सादर 🙏🙏
ReplyDeleteहा हा . .. अरे! यहां तो कविता वर्तमान दौर में भिन्न भिन्न राजनीतिक आग्रहों और दुराग्रहों के घनचक्कर में पिसते आम जन का बिम्ब है। आपकी इस व्यंग्य रचना से ब्लॉग रचनाकारों के लिए आशा को खोज लाने के लिए अत्यंत आभार। आपकी सकारात्मकता को ढेर सारी शुभकामनाएं!!!🙏🙏🙏
Deleteकहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना... आपकी रचना का गूढ़ मर्म मुझ मूढ़मति को इतना ही समझ आया कि
ReplyDeleteअसहमतियों,आलोचनाओं से तटस्थ
जाति-धर्म,समाज और देश की
समस्याओं के
पचड़़ो में पड़े बिना,
अविवादित,दायित्व मुक्त होने के कारण
संपादकों एवं निर्णायकों को
चिंतामुक्त रखती हैं
वहीं अच्छी रचनाएँ
साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए
नामित होती हैं।
सादर।
जी, भला आप जैसी प्रबुद्ध विदुषी की निगाहें अपना निशाना चुके! लेकिन आपकी दृष्टि के आलोक में तो 'उर्वशी' अ-पुरस्कृत ही रह जाती! वह भी ज्ञानपीठ से! अत्यंत आभार आपकी छिद्रान्वेषी दृष्टि का!😀🙏🙏🙏
Deleteपता नहीं क्यूँ? पर कुछ लिखने / कहने को विवश हूँ।
ReplyDeleteकविता!! एक मनोदशा की नवजात अभिव्यक्ति मात्र है। अब वो मनोदशा कैसी है, नहीं पता! शायद लिखने वाला, शब्दों का विदूषक है, प्रकृति को भापने वाला गूढ विश्लेषक है, परिस्थितियों को जानने वाला आलेखक है या कोई सामान्य मूक दर्शक!
परन्तु हर दशा में, यह एक अभिव्यक्ति है जो कहीं न कहीं कवि जैसे मन को एक संतोष प्रदान करती है।
अब वो रचना किसी मंच पर जाय, किसी चर्चा में जाय, इसमें उसका कोई हाथ नहीं होता।
रही बात पुरस्कारों की, तो आम लेखक इतना प्रभावशाली व्यक्तित्व भी नहीं होता कि उसकी उत्कृष्ट लेखनी को भी कोई सराहना तक को आए। ऐसा इसलिए भी होता है कि, एक प्रबुद्ध जन, स्व आत्मसम्मान की ऐसी दीवारों में रहना पसन्द करता है कि उसका मन ही यह गँवारा नही करता कि वह उसकी तारीफ भी करे।
शेष, ईश्वर जो तय करे...
पर, कविमन, कुछ न लिखे, यह संभव नही। और, उसे रोक पाना किसी के वश में भी नहीं।
वाह! बहुत ही सटीक विश्लेषण। निश्चय ही आपके चिंतन ने न केवल इस विषय को गरिमा प्रदान की है, बल्कि बाह्य प्रलोभनों से निर्लिप्त कवि और उसकी कविता के अंतरसंबंधों की मधुर रागिनी को छुआ है जहाँ आत्मा के स्तर पर चलता उनका संवाद निरंतर सृजन के नए आयामों को जन्म देता रहता है।
Deleteइस व्यंग्य रचना से गंभीर तत्वों को बटोरने के लिए साधुवाद और अत्यंत आभार।🙏🙏🙏
कविता केवल आप्त-वर्ण के लिए होती है आगे उसकी नियति ।
ReplyDeleteजी, है तो आप्त-वर्ण के लिए, किंतु जो है उसकी नियति के नियामक की नियत तो आप्त नहीं है। वैचारिक संकीर्णता के दलदल में धँसी नियति!!!बहुत आभार आपके इस आप्त-वचन का!
Deleteबहुत खूब, सच ही है शायद, बहुत ही बढ़िया है , बधाई हो ,
ReplyDeleteजी, बहुत आभार आपकी सहमति का इस व्यंग्य से उजागर होती विद्रूपता की।
Deleteमौजूदा वक्त पर गहरा कटाक्ष करती आपकी रचना...। समय को महसूस लेना एक कविता को अंदर अंकुरित करता है और समय को जी लेना उसे भाव में उतार देता है। बहुत बधाई आपको।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteकविता चाहे राजनीति की तंग गलियों में कराहे चाहे चर्चा पर्चा या किसी भी मंच पर वाहवाही पाये क्या फर्क पड़ता है हाँ जितना आगे जाये अपनी पहचान खोती जाये वह उसके लेखक के नहीं हर उस पाठक के नाम से पहचानी जाये जिसके मन को भाये और कुछ नहीं...यही नियति है यहाँ आम कवी की...तो फिर खास कविता की ???
ReplyDeleteसही कहा आपने साहित्य अकादमी पुरस्कार!!
खास कविता (सवर्ण कविता) .....
अब अनेकता में एकता वाले हमारे प्यारे भारत में वर्णभेद से भला साहित्य जगत भला कैसे अछूता रह सकता है....
पुरस्कार चाहिए तो सवर्ण कविता....
वाह!!!
लाजवाब कटाक्ष
जी, अत्यंत सार्थक टिप्पणी के लिए आपका हृदय से आभार!!!!
Deleteआदरणीय विश्वमोहन जी। मैं न कवि हूँ, न शायर्। केवल गद्य में ही सृजन करता हूँ। और स्पष्ट कहूं तो केवल अपने लिए करता हूँ। कोई उसे पढ़े तो ठीक, न पढ़े तो भी ठीक। मेरे मन की घुटन निकल गई, मुझे अपने भीतर हलकेपन का अहसास हुआ, एक आत्मसंतोष का भाव मेरे भीतर जागृत हुआ तो मेरा सृजन सार्थक हुआ (हाँ, इतना मैं अवश्य ध्यान रखता हूँ कि मेरा लेखन किसी को हानि पहुँचाने वाला न हो)। यदि मैं कविता करता तो उस क्षेत्र में भी सृजन के प्रति मेरा दृष्टिकोण यही होता क्योंकि पढ़ने वाले वही पढ़ते हैं जो उन्हें पढ़ना है, समझने वाले वही समझते हैं जो उन्हें समझना है तथा सम्मान देने वाले उसी को सम्मान देते हैं जिसे उन्हें सम्मान एवं (अपने सीमित संसार में) मान्यता देनी है। इसलिए मेरी दृष्टि में यदि आजीविका के निमित्त कुछ नहीं सिरजा जा रहा है तो लेखन एवं कविता का प्रयोजन स्वांतः सुखाय ही होना चाहिए। सच्चे लेखक तथा कवि स्वांतः सुखाय के लिए ही सृजन कर सकते हैं क्योंकि वही उनके लिए स्वाभाविक होता है। सच्ची कविता एवं शायरी का कोई वर्ण नहीं होता तथा ऐसा सृजन स्वयमेव ही सर्जक के लिए पुरस्कार होता है।
ReplyDeleteजी, बिलकुल सत्य का उद्घाटन आपने किया। तुलसीदास ने भी तो रामचरित मानस में यही लिखा कि :
Delete"स्वांत:सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा भाषा निबंध मति मंजुल मातनोति"
लेकिन जब रचनाकार की आत्मा का विस्तार सूक्ष्म से विराट में हो जाता है तो उसका स्व परमार्थ का पर्याय बन जाता है और विराट का सुख उसके सूक्ष्म में समा जाता है और उसके सूक्ष्म का आनंद विराट में पसर जाता है।
और अंत में गद्य भी तो कविताओं का निकस ही कहा गया है हमारे शास्त्रों में। अत:आप अपनी कलम से सृजन की धारा प्रवाहित करते रहें और सरस्वती की साधना में अनवरत रत रहें। आपको ढेर सारी शुभकामनाएँ!!!
आभार!!
ReplyDeleteहे कवि !
ReplyDeleteतुम श्रेष्ठ कवि हो फिर अपनी कविता को किसी जाति में या फिर किसी वर्ण में क्यों बांधते हो?
एक छोटा सा किस्सा सुनो - अल्मोड़ा में मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी मुझे - 'बनिया' कह कर पुकारते थे और मैं उनके इस संबोधन पर उनकी पीठ पर दो मुक्के मार कर उन्हें धन्यवाद देता था.
तो बन्धु, मेरी किसी भी रचना को अगर किसी ने भी - 'बनिया रचना' कहा तो उसका हशर क्या होगा, यह तुम सोच लो.
जी, हम तो सदैव आपके विचारों की प्रखरता के क़ायल रहे हैं। गीता में भगवान ने वर्णों का वर्गीकरण तो कर्मों के आधार पर किया। किंतु गुरु गुड और चेला चीनी! कुछ वर्ण ने अपना वर्ण ऐसे निखार लिया कि उसके सामने कृष्ण की चमक भी फीकी पड़ गयी। अब आप 'बनिया' को ही लीजिए। आज यह वर्ण परमात्मा से भी अधिक व्यापक और सर्वभूतात्माहै। बहुत शीघ्र ही समस्त ब्रह्मांड में अब केवल इसी का वजूद होगा और सभी प्राणी जन्म से ही इस की छत्रछाया में होंगे। कविता बेचारी किस गली की मूली है! अत्यंत आभार ज्ञान के अबतक के इस अछूते पक्ष का उद्घाटन करने के लिए!
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