Saturday, 7 October 2017

गलथेथरई!




नमस्कार,
जी,
गलथेथरई!
ये हमारा नया विचार मंच है.
यहां कोई कुंठा नहीं,
कोई घुटन नहीं,
प्रत्युत भारत के पवित्र संविधान में "हम, भारत के लोग.....आत्मार्पित करते हैं"  के मंत्रोच्चार से प्रतिस्थापित  'विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार' की  मूक प्रतिमा के सामने विनीत भाव से खड़े होकर, उसकी आत्मा की रक्षा के लिए, बड़े ही सभ्य एवं सुसंस्कृत भाषा में, किसी भी वाद या पंथ के प्रति पूर्ण रूप से निरपेक्ष होकर; तथाकथित सेक्युलर और राष्ट्रवादी बुद्धिजीवियों से एक वैज्ञानिक विरसता के साहित्यिक भाव के साथ; अपने स्वाभाविक सनातन भारतीय  लय  में  सिर्फ  "बतकुच्चन"      करना और करने के लिए बुद्धिमान समाज को प्रेरित करना इसका मुख्य उद्देश्य है.
पहली बात तो ये कि इस अभिप्राय के लिए उपयुक्त शब्द की तलाश करते करते हम ' द जैज सिंगर ' (रिलीज ६ अक्टूबर) से बेगम अख्तर (जन्म तिथि ७ अक्टूबर) तक पहुँच गए. तब जाके भगवान के ' मिशन ऑफ़ चैरिटी ' (मदर टेरेसा द्वारा ७ अक्टूबर को स्थापित) योजना के तहत बहुत दूर अँधेरे में टिमटिमाती भोजपुरी के दिये से निःसृत एक अद्भुत शब्द प्रकाश के दर्शन हुए
" गलथेथरई "! मन बाग़ बाग़ हो गया !
भगवान् ने शुरुआती झटके में ही छप्पर फाड़ के दे दिया. अच्छा नाम मिल गया. नाम के पीछे ही राम भी चलते हैं. तुलसी बाबा तो पहले ही बता गए हैं. मुझे नहीं लगता है कि विश्व की कोई अन्य भाषा इतने बड़े लक्ष्य को सान्धने के लिए कोई इतना अचूक शब्द भेदी बाण पहले से तैयार रखे हो. आखिर रखे भी तो कैसे? आवश्यकता अविष्कार की जननी है. परम्पराओं से शब्दों का निर्माण होता है. ये "राईट टू एक्सप्रेशन" हमारी सनातन थाती है. नए चैनलों का चलन तो वाकई नया है. हमारे यहाँ धोबी गर्भवती महारानी को जंगल भिजवा देता था. और तत्कालीन मिडिया इसे मर्यादा पुरुषोतम पंथ के सेक्युलर दर्शन के रूप में प्रचारित करती थी. समाज में बुद्धिमान ज्यादा थे , बुद्धिजीवी कम. इसलिए पैनल डिस्कशन की परंपरा पुष्ट न हो पाई . लकिन जैसे जैसे बुद्धीजीवी संख्या में बुद्धिमानों पर भारी पड़ते गये. चौक, चौराहे, नुक्कड़, फुलवारी, बैठकें, पगडंडी यत्र तत्र सर्वत्र कंठो के स्पंदन बढ़ते गए और जिह्वा रानी ने उनसे निकली  स्वरलहरियों को चट पट चाट सा चटपटा बनाकर पवन तरंगों पर उड़ेल दिया. कालांतर में "एवोलुशनरी-स्पिरिट" में गाल भी बजने लगे और बजने की पारंगतता , तीव्रता तथा आवृति ने विकास के वो माप दंड छुए कि लाख चुप कराने की अथक कोशिश के बाद भी चुप नहीं होते. सुधार की कोई गुंजाईश न देखकर  गाल बजाने की इस प्रवृति को " गलथेथरई" शब्द की महिमा का सुख मिला और किम्वदंती तो यहाँ तक है कि भगवान ने इस कला में पारंगत लोगों को कलियुग के उन्नयन काल में बुद्धिजीवी और चैनल-पत्रकार होने का वरदान तक दे दिया.
अब ईंट का जबाब तो पत्थर से ही दिया जाता है. शठे शाठ्यम समाचरेत! लेकिन हम इन अल्प और दीर्घ दूरी की मारक क्षमता वाले बुद्धिजीवियों का अपनी मध्यम प्रतिरोधक बुद्धिमानी से सामना करेंगे. ये  सही है कि हम उन उन्मादी धर्म भ्रष्ट, बिधर्मी, छद्म तथा स्वयंभू गो रक्षकों के कुश के जंगल को चाणक्य की मठठा शैली में उत्पाटित करेंगे. लेकिन उन शांतिप्रिय अहिंसा के पुजारी बौद्ध नागरिकों की तरह हाथ पे हाथ धरे भी नहीं बैठे रहेंगे जिनके सामने देखते ही देखते बख्तियार नामक बदमाश ने महज २०० बलवाइयों के बल पर पूरे नालंदा विश्वविद्यालय को सुपुर्द-ए-ख़ाक कर दिया.
हम न वाम के पिछलग्गू होंगे न दाम के, न उतारापेक्षी होंगे न दक्षिणापेक्षी. बस शुभापेक्षी! हममें से बहुतांश आज़ाद भारत में जन्मे लोग हैं. हम अपनी विरासत के संग्रहालय में उन्ही तत्वों को स्वीकारेंगे जो मानवीय हो, आधुनिक हो, वैज्ञानिक हो, हमारी संकृति को विनिमज्जित करती हो और हमारे संस्कारों को परिष्कृत. हम नवीनता के उन्मेषक और आध्यात्मिक उद्बोधन के उद्घोषक होंगे. जाति, धर्म, लिंग, रंग और भेद के सड़े-गले अंश को फेंक देंगे और कौटुंबिक भावनाओं को सहेजेंगे. शेर की मांद में हुंहुआ रहे सियारों को हुँकारेंगे. बात बात पर पंथ और वाद के तवे पर राजनीती की रोटी सेंकने वाले कायर धूर्तों को अपनी गलथेथरई का ग्रास बनायेंगे.
जी,
हम गलथेथरई करेंगे!

आइये हमारे महा गलथेथरई यज्ञ में सह ऋत्विज बन विराजिये.              

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