उग रही हैं
रिश्तों की फ़सल,
जगह-जगह!
क्यारियाँ, कोले,
खेत, फ़ार्म हाउस,
सब-के-सब।
‘पट’ गए हैं
इन रिश्तों से!
कहीं मन के रिश्ते,
कहीं निरा तन के!
कहीं धन के,
तो कहीं
सिर्फ़ आवरण के!
कहीं धराशायी हो रही है
पककर पुरानी फ़सलें,
तो कहीं अंकशायी
सद्य:स्नात, लहलहायी!
कहीं बोए जा रहे हैं
बीज, संभावनाओं के!
कीटनाशक छिड़के जा रहे हैं।
डाले गए हैं थोड़े
रासायनिक खाद भी!
रिश्तों का रसायन
बनाने को!
कृत्रिम रिश्तों की
इस पैदावार पर
भारी पड़ गयी है,
प्रदूषित प्रकृति !
कभी सूखा,
कभी बाढ़,
कभी भूस्खलन,
तो फिर रहे-सहे
रिश्तों का दम
घुटा दिया है,
महामारी 'का रोना' ने!
वाह
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteजी, अत्यंत आभार!!!
ReplyDeleteबिल्कुल सही लिखा आपने।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteकोरॉना - का रोना। रोचक अंदाज में महामारी कोरोना के कारण रिश्तों में आए तनाव और कलुष्ता को इंगित करती रचना। सच में कोरोना काल में रिश्तों की परिभाषा ही बदल गई। समाज में इस दौरान आपसी सम्बन्धों एक नया इतिहास लिखा गया। जिनमें ज्यादातर मामली निराश करने वाले थे।🙏🙏
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteआदरणीय विश्वमोहन जी, नमस्ते👏! बहुत सुंदर रचना! महामारी कोरोना ने सचमुच रिश्तों को पुनः परिभाषित किया है। आपकी ये पंक्तियाँ:
ReplyDeleteतो फिर रहे-सहे
रिश्तों का दम
घुटा दिया है,
महामारी 'का रोना' ने!
लाजवाब हैं। साधुवाद!--ब्रजेंद्रनाथ
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteमित्र, ऑल इस वेल ! डोंट वरी, बी हैप्पी !
ReplyDeleteइंडिया इज़ शाइनिंग !
थ्री इडियट्स के महामना 'रेंचो शामलदास छांछड़' की याद आ गयी। अत्यंत आभार आपका!!!
Deleteसही
ReplyDeleteजी, आभार।
Deleteसच है कि इस महामारी ने रिश्तों पर वज्रपात किया है ।
ReplyDeleteपूरी रचना ही सोचने पर विवश कर रही है ।
सही कहा महामारी की मार सबसे ज्यादा रिश्तों ने ही झेली...इंसानियत जैसा रिश्ता तो भूल ही गये लोग...कोरोना या छूत समझ नहीं आया।
ReplyDeleteबहुत सटीक जवं सारगर्भित सृजन।
कभी सूखा,
ReplyDeleteकभी बाढ़,
कभी भूस्खलन,
तो फिर रहे-सहे
रिश्तों का दम
घुटा दिया है,
महामारी 'का रोना' ने!
सही कहा आपने . कोरोना के बहाने रिश्तों में बहुत दूरियां आईं । पहले ही लोग रिश्ता निभाने से कतराते थे । कोरोना ने मौका दे दिया बहाना बनाने का । बहुत सार्थक सृजन ।
जी, अत्यंत आभार!!!!
Deleteबिल्कुल सही
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
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