Sunday 8 October 2017

अंतर आई.आई.टी. और जे.एन.यु. का!

वैश्विक स्तर पर यदि दो कालजयी विभूतियों के नाम मुझे लेने हों जिनकी प्रतिभा से मैं चमत्कृत हूँ तो वो दो नाम होंगे - महान वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टीन और महान सामजिक आर्थिक समाजशास्त्री कार्ल मार्क्स. इन दोनों महात्माओं ने इस धरती को अपने बेमिशाल कृतित्व समर्पित किये हैं. इनके चिंतन में गहन दर्शन का पुट है और भविष्य तथा भवितव्य के लिए प्रखर दृष्टि है. दोनों ने अपने अपने क्षेत्र में जो प्रतिमान स्थापित किये हैं उसकी एक उर्वरा दार्शनिक पृष्ठभूमि है. इसलिए मै दोनों को क्रमशः एक वैज्ञानिक या समाजशास्त्री से बढ़कर एक अद्भुत स्वप्नद्रष्टा मानता हूँ जिन्होंने मानव संतति को भविष्य के लिए एक विलक्षण विचार पथ दिया. हाँ ये जरुर एक खासियत रही कि इनके सपनों के बीज विशुद्ध वैज्ञानिक धरा पर पनपे. ऐसा नहीं कि कल्पना के डैने पर सवार होना या सपनों के सतरंगी संसार में कुलांचे भरना केवल साहित्यकारों या विज्ञानेतर सामाजिक शास्त्रों के अध्येताओं का ही शगल है. केकुल नामक प्रसिद्द रसायनशास्त्री ने नींद में ही सपने में एक सांप देखा जो अपनी पूंछ अपने मुंह में दबाये था. इसी सपने से प्रेरित होकर उहोने बेंजीन जैसे एरोमेटिक साइक्लिक कार्बनिक यौगिकों की संरचना का अविष्कार किया. अवोगाद्रो की परिकल्पना, आर्कीमिडिज के बाथटब में स्नान की कहानी और लीवर की सहायता से पूरी धरती को उलट देने की उनकी कल्पना तो किंवदंती ही बन  गयी है.
न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत को उलटते हुए आइन्स्टीन ने जब स्पेशल और जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी को सामने रखा, क्वांटम मेकानिक्स में कणिका-तरंग द्वैत की बात की  और फिर उन्होंने गुरुत्वीय तरंगो की कल्पना की , तो वे वैज्ञानिक से ज्यादा कहीं दार्शनिक और सृष्टि के सूत्रपात के  आध्यात्मिक अन्वेषण के प्रखर स्वप्नद्रष्टा नज़र आये. हालांकि तब वे गुरुत्वीय तरंगों के अस्तित्व की कोई ठोस प्रायोगिक पुष्टि करने में सफल नहीं रहे और मन मसोस कर रह गए कि यदि उनके पास अति संवेदनशील यंत्र रहते तो इन अति क्षीण कमजोर और अल्प संवेदी तरंगो को माप लेते . खैर, उन्होंने न्यूटन के त्रिविमीय ढाँचे में एक आयाम समय का भी डाला .चूँकि न्यूटन के त्रिविमीय ढाँचे में पीछे की ओर भी जाने की दिशा थी जो समय पर लागु नहीं हो पाती इसलिए आइन्स्टीन ने स्पेस-टाइम जाल का सिंगल एंटिटी प्रतिदर्श रखा जिसमे पिंड के घूर्णन के कारण हुआ संकुचन उसे परिक्रमा पथ प्रदान करता है.  इस तरह उनके मॉडल में  दो पिंडो के पारस्परिक स्पेस-टाइम जाल का विकृत संकुचन (distortion) ही किसी पिंड को दूसरे पिंड की ओर धकेलता है जिसे हम उन दोनों पिंडों के बीच का गुरुत्वाकर्षण कहते है; न कि जैसा न्यूटन ने कहा कि दोनों पिंड एक दूसरे को अपने 'गुरुत्व-पाश' में खींचते हैं. उन्होंने न्यूटन के नियमों को अत्वरित गति लोक तक ही सीमित रखा और त्वरित गतिशील जगत में न्यूटन की निरपेक्षता को नकारकर अपनी सापेक्षिक अवधारणा को स्थापित किया. अर्थात किसी वस्तु या पिंड की स्थिति दर्शक की स्थिति पर निर्भर करता है. एक ही पिंड की स्थिति टाइम स्पेस जाल के भिन्न भिन्न रिफरेन्स फ्रेम में अवस्थित दर्शकों के लिए भिन्न भिन्न होगी. कणिका-तरंग द्वैत में उन्होंने पदार्थ और उर्जा को आपस में परिवर्तनीय माना.
विज्ञान जगत में आइन्स्टीन की दृष्टि ने हलचल मचा दी. कुछ वैज्ञानिकों ने तो इसे सिरे से ख़ारिज ही कर दिया. कुछ ने क्वांटम सिद्धांत का भी मज़ाक उड़ाया. लेकिन ध्यान रहे , यह विज्ञान की दुनिया है. यहाँ कोई वाद या पंथ नहीं होता. यहाँ लोग न्यूटन और आइन्स्टीन का झंडा टांगकर उसके नीची जिंदाबाद या मुर्दाबाद के नारे नहीं लगाते. यहाँ किसी सिद्धांत के आलोचक होने का मतलब है पूरी तन्मयता से उस सिद्धांत के उत्तरोतर शोध में संलग्न हो जाना और उसकी तार तार व्याख्या करना, स्वीकृति या अस्वीकृती की! ठीक वैसे ही जैसे आइन्स्टीन ने न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत को खगोलीय पिंडों की स्थिति को मापने के क्रम में गलत साबित किया कि कैसे दूर तारों से आती किरणों का पथ मध्य में पड़ने वाले ब्लैक होल के प्रभाव में मुड़ जाता है.
आज आइन्स्टीन के गुरुत्वीय तरंग की परिकल्पना के करीब १०० वर्ष बीत गए. पर, वैज्ञानिकों ने अपने अदम्य शोध से प्रायोगिक तौर पर उन तरंगों की उपस्थिति को खोज निकाला है और अब तो भौतिकी का नोबल पुरस्कार इन्ही वैज्ञानिकों को मिल गया है. ये तरंगे कथित तौर पर १.२ बिलियन वर्ष पहले किसी दो ब्लैक होल के टकराने से उत्पन्न हुई थी .और आगे हम अब यह आशा भी कर सकते हैं कि आइन्स्टीन की कल्पनाओं की गुत्थी पर यूं हीं पड़ताल की प्रक्रिया जारी रही तो शीघ्र ही इस सृष्टि के निर्माण का सूत्र भी हमारे हाथ होगा !
अब हम अपने दूसरे प्रिय नायक समाजशास्त्री कार्ल मार्क्स की बात करें. समाज में अर्थ के बंटवारे की पड़ताल मार्क्स ने उत्पादन के साधन के स्वामित्व के अलोक में की. उन्होंने दो वर्ग चिन्हित किये . एक इन साधनों का प्रभु - 'बुर्जुआ' वर्ग, और दूसरा इस पर आश्रित श्रमिक वर्ग - 'सर्वहारा'.  'दोनों के मध्य की विषमता और एक के द्वारा दूसरे के शोषण और दमन की त्रासद प्रक्रिया असंतोष के गहरे बीज बोती है. उत्पाद का सरप्लस मालिक का खज़ाना भरता है और नौकर तिल तिल कर मरता है. अपनी ही बनायी वस्तु जब निर्माता श्रमिक को बाज़ार में खट्टे अंगूर की तरह अप्राप्य नज़र आती है तो उसमे गहन विरसता का भाव उत्पन्न हो जाता है और यहाँ से शुरू होती है श्रमिक मन में असंतोष के गहराने की तीव्र प्रक्रिया. बुर्जुआ 'थीसिस' के विपरीत एक विद्रोही सर्वहारा 'एंटी थीसिस' जन्म लेना शुरू होता है और इन दो प्रबल 'ध्रुवों' के मध्य विद्रोह की भावना घनीभूत होकर इतनी तीक्ष्ण हो जाती है कि 'वर्ग संघर्ष' का सूत्रपात होता है जिसकी परिणति वर्गहीन समाज के 'सिंथेसिस' में होती है. मार्क्स ने बड़ी तार्किक कुशलता और वैज्ञानिक ढंग से इस प्रक्रिया के आलोक में समाज की समस्त संस्थाओं यथा, शिक्षा, धर्म, विवाह आदि की व्याख्या बुर्जुआ वर्ग के हितों को साधने वाले टूल के रूप में की. आप उनके सिद्धांतों से सहमत या असहमत हो सकते हैं लेकिन उनकी व्याख्या और मीमांसा की वैज्ञानिकता पर दांतों तले अंगुली दबाने के सिवा कुछ नहीं बचता. उनकी अद्भुत सामजिक आर्थिक विवेचना के 'मैटेरिअल डाईलेकटीज्म' पर हेगेल और ऐंजल्स के दार्शनिक द्वैत का असर बतलाते हैं. उन्होंने बड़ी दक्षता से समाज में क्रांतिकारी संघर्ष की अवधारणा रखी.
बड़ी तेजी से समकालीन परिवेश में मार्क्स की अवधारणा अपना जादुई असर दिखाते दिखी. समाज का प्रबुद्ध शिक्षित वर्ग इस अद्भुत समाज-वैज्ञानिकी की ओर उन्मुख हुआ. एक नवीन बुद्धिजीवी धारा से सामाजिक धरा सिक्त हुई . समाज, साहित्य, संस्कृति सर्वत्र इसकी धूम सुनाई दी. पर, दुर्भाग्यवश यह विचार दर्शन अपने ऐसे कपूतों के हत्थे चढ़ा कि वाद और पंथ के दुर्गन्धमय पंक में धंसकर इसका बंटाधार हो गया. यह सामाजिक दर्शन राजनितिक कुचाल और सियासी स्वार्थ में फंस गया. मार्क्स की वैचारिक आत्मा के महत आदर्श  को उनके ही मार्क्सवादी कपूतों ने अपनी स्वार्थी सत्ता लोलुपता में छलनी छलनी कर दिया. समाज-परिवर्तन के इस अनोखे क्रांतिकारी दर्शन  को इन मार्क्स विध्वंसक कुलवीरों ने सत्ता का औज़ार बना लिया और इसकी इस कदर ह्त्या कर दी कि अब यह क्यूबा से मिटकर कोलकाता के रास्ते केरल में अपने पिंड दान की तैयारी कर रहा है.
अपने इन दो सर्वप्रिय आदर्शों के उपरोक्त उद्वरणों के आलोक में मैं आपके समक्ष विज्ञानं के साधक आलोचक सपूतों और विज्ञानेतर शास्त्रों के अंध'पंथी' झंडाधारी कपूतों के बीच की रेखा को खींचना चाहता हूँ.  हमने दो प्रतिगामी सिद्धांत ,कणिका बनाम तरंग, के पुरोधा न्यूटन और आइन्स्टीन को समान रूप से पूजा और अपनाया. ऐसे भी विज्ञान में दो विपरीत ध्रुवों में आकर्षण ही होता है. उन्हें किसी ने  दक्षिणपंथी और वामपंथी डिक्लेयर कर अलग अलग झंडों के नीचे खड़ा कर लड़ाया नहीं. नतीज़ा आपके सामने है.
संभवतः यहीं विज्ञान और अ-विज्ञान में  अंतर है .

यहीं आई.आई.टी. और जे.एन.यु. में अंतर है!                                

Saturday 7 October 2017

गलथेथरई!




नमस्कार,
जी,
गलथेथरई!
ये हमारा नया विचार मंच है.
यहां कोई कुंठा नहीं,
कोई घुटन नहीं,
प्रत्युत भारत के पवित्र संविधान में "हम, भारत के लोग.....आत्मार्पित करते हैं"  के मंत्रोच्चार से प्रतिस्थापित  'विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार' की  मूक प्रतिमा के सामने विनीत भाव से खड़े होकर, उसकी आत्मा की रक्षा के लिए, बड़े ही सभ्य एवं सुसंस्कृत भाषा में, किसी भी वाद या पंथ के प्रति पूर्ण रूप से निरपेक्ष होकर; तथाकथित सेक्युलर और राष्ट्रवादी बुद्धिजीवियों से एक वैज्ञानिक विरसता के साहित्यिक भाव के साथ; अपने स्वाभाविक सनातन भारतीय  लय  में  सिर्फ  "बतकुच्चन"      करना और करने के लिए बुद्धिमान समाज को प्रेरित करना इसका मुख्य उद्देश्य है.
पहली बात तो ये कि इस अभिप्राय के लिए उपयुक्त शब्द की तलाश करते करते हम ' द जैज सिंगर ' (रिलीज ६ अक्टूबर) से बेगम अख्तर (जन्म तिथि ७ अक्टूबर) तक पहुँच गए. तब जाके भगवान के ' मिशन ऑफ़ चैरिटी ' (मदर टेरेसा द्वारा ७ अक्टूबर को स्थापित) योजना के तहत बहुत दूर अँधेरे में टिमटिमाती भोजपुरी के दिये से निःसृत एक अद्भुत शब्द प्रकाश के दर्शन हुए
" गलथेथरई "! मन बाग़ बाग़ हो गया !
भगवान् ने शुरुआती झटके में ही छप्पर फाड़ के दे दिया. अच्छा नाम मिल गया. नाम के पीछे ही राम भी चलते हैं. तुलसी बाबा तो पहले ही बता गए हैं. मुझे नहीं लगता है कि विश्व की कोई अन्य भाषा इतने बड़े लक्ष्य को सान्धने के लिए कोई इतना अचूक शब्द भेदी बाण पहले से तैयार रखे हो. आखिर रखे भी तो कैसे? आवश्यकता अविष्कार की जननी है. परम्पराओं से शब्दों का निर्माण होता है. ये "राईट टू एक्सप्रेशन" हमारी सनातन थाती है. नए चैनलों का चलन तो वाकई नया है. हमारे यहाँ धोबी गर्भवती महारानी को जंगल भिजवा देता था. और तत्कालीन मिडिया इसे मर्यादा पुरुषोतम पंथ के सेक्युलर दर्शन के रूप में प्रचारित करती थी. समाज में बुद्धिमान ज्यादा थे , बुद्धिजीवी कम. इसलिए पैनल डिस्कशन की परंपरा पुष्ट न हो पाई . लकिन जैसे जैसे बुद्धीजीवी संख्या में बुद्धिमानों पर भारी पड़ते गये. चौक, चौराहे, नुक्कड़, फुलवारी, बैठकें, पगडंडी यत्र तत्र सर्वत्र कंठो के स्पंदन बढ़ते गए और जिह्वा रानी ने उनसे निकली  स्वरलहरियों को चट पट चाट सा चटपटा बनाकर पवन तरंगों पर उड़ेल दिया. कालांतर में "एवोलुशनरी-स्पिरिट" में गाल भी बजने लगे और बजने की पारंगतता , तीव्रता तथा आवृति ने विकास के वो माप दंड छुए कि लाख चुप कराने की अथक कोशिश के बाद भी चुप नहीं होते. सुधार की कोई गुंजाईश न देखकर  गाल बजाने की इस प्रवृति को " गलथेथरई" शब्द की महिमा का सुख मिला और किम्वदंती तो यहाँ तक है कि भगवान ने इस कला में पारंगत लोगों को कलियुग के उन्नयन काल में बुद्धिजीवी और चैनल-पत्रकार होने का वरदान तक दे दिया.
अब ईंट का जबाब तो पत्थर से ही दिया जाता है. शठे शाठ्यम समाचरेत! लेकिन हम इन अल्प और दीर्घ दूरी की मारक क्षमता वाले बुद्धिजीवियों का अपनी मध्यम प्रतिरोधक बुद्धिमानी से सामना करेंगे. ये  सही है कि हम उन उन्मादी धर्म भ्रष्ट, बिधर्मी, छद्म तथा स्वयंभू गो रक्षकों के कुश के जंगल को चाणक्य की मठठा शैली में उत्पाटित करेंगे. लेकिन उन शांतिप्रिय अहिंसा के पुजारी बौद्ध नागरिकों की तरह हाथ पे हाथ धरे भी नहीं बैठे रहेंगे जिनके सामने देखते ही देखते बख्तियार नामक बदमाश ने महज २०० बलवाइयों के बल पर पूरे नालंदा विश्वविद्यालय को सुपुर्द-ए-ख़ाक कर दिया.
हम न वाम के पिछलग्गू होंगे न दाम के, न उतारापेक्षी होंगे न दक्षिणापेक्षी. बस शुभापेक्षी! हममें से बहुतांश आज़ाद भारत में जन्मे लोग हैं. हम अपनी विरासत के संग्रहालय में उन्ही तत्वों को स्वीकारेंगे जो मानवीय हो, आधुनिक हो, वैज्ञानिक हो, हमारी संकृति को विनिमज्जित करती हो और हमारे संस्कारों को परिष्कृत. हम नवीनता के उन्मेषक और आध्यात्मिक उद्बोधन के उद्घोषक होंगे. जाति, धर्म, लिंग, रंग और भेद के सड़े-गले अंश को फेंक देंगे और कौटुंबिक भावनाओं को सहेजेंगे. शेर की मांद में हुंहुआ रहे सियारों को हुँकारेंगे. बात बात पर पंथ और वाद के तवे पर राजनीती की रोटी सेंकने वाले कायर धूर्तों को अपनी गलथेथरई का ग्रास बनायेंगे.
जी,
हम गलथेथरई करेंगे!

आइये हमारे महा गलथेथरई यज्ञ में सह ऋत्विज बन विराजिये.