Sunday 5 April 2020

कोरोना और भारत का समाजशास्त्र - २ (Corona and the Sociology of India - 2)



(भाग - १ से आगे)
                                             

‘एंटी-थीसिस’ में रूपांतरण की इस प्रक्रिया ने इन तर्कवादियों को ‘संशयवादी’ में परिवर्तित कर दिया। अब ये अपना मतलब साधने के लिए विषय को तथ्यों की कसौटी पर कसने के बजाय अपने विरोधियों के प्रति नकारात्मकता और संशय का वातावरण पैदा करने लगे। भिन्न-भिन्न विचारधाराओं के झंडे तले खड़े ये कुतर्की ‘संशयवादी’ समाज को अपनी सहूलियत  के अनुसार एकपक्षीय  जानकारी देकर बरगलाने लगे।  धर्म को अफ़ीम कहने वाले कुछ घड़े  अब स्वयं समाजवाद की चाशनी लपेटकर मज़हब का मवाद परोसने लगे। तो दूसरी ओर कुछ घड़े छोटी से छोटी घटना को भी मज़हबी ऐनक में देखने लगे। समाज का अबतक इन मामलों में उदास रहने वाले निष्पक्ष तबके में भी इनकी संशयवादिता ने ऊब, कुढ़न और विद्रोह के भाव भरने शुरू कर दिए।  इनके पूर्वाग्रही चरित्र ने प्रतिक्रियात्मक क़ट्टरवादिता का बीज बोना शुरू कर दिया। वह यह भूल गए कि भारतीय समाज एक बहुरंगी और विविधताओं से परिपूर्ण समाज है। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत सही अर्थों में हज़ारों साल बाद जाकर यह देश एक सम्पूर्ण राजनीतिक इकाई के रूप में एक सार्वभौम राज्य के रूप में स्थापित हुआ था जहाँ सत्ता की ताक़त ‘हम, भारत के लोग’ से निकलती थी। इस अवस्था को मूर्त रूप प्रदान करने में इस बहुरंगी समाज के लोगों ने विविधताओं में अटूट एकता का परिचय देते हुए स्वतंत्रता संग्राम में जो अपना योगदान दिया उसमें कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक की समूची धरती की महक समाहित थी। जो पहली सरकार बनी, उसमें भी सभी राजनीतिक और सामाजिक रंगों के नुमाइंदे  शामिल हुए। इस देश ने एक धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था चुनी। एक मिश्रित अर्थव्यवस्था के तहत कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के आलोक में समाजवादोन्मुख ताना बाना बुनने  लगा।
धीरे-धीरे सियासतदानों को सत्ता का सुख मिलने लगा और इसके प्रति लालसा भी बढ़ती गयी। इधर भारतीय समाज भी बढ़ते समय के साथ अपनी आवश्यकताओं और आकांक्षाओं की पहचान करता चला गया। अलग अलग समयों में अलग अलग जगह पर समाज के भिन्न भिन्न तबक़ों ने अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अलग अलग तेवर में अपने आंदोलन किए। जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार से लेकर सत्ता में अपनी प्रखर भागीदारी तक के लिए आंदोलन के स्वर उठते रहे और सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया चलती रही। बड़े पैमाने पर आबादी के एक बड़े भाग को विस्थापन का दंश भी झेलना पड़ा। रोज़गार की तलाश में अपना पेट भरने के लिए यह तबक़ा अपनी जन्म भूमि से उखड़कर अपने अवसरों के लिए उपयुक्त जगहों की तलाश में नए-नए शहरों में ज़िला, प्रांत और भाषा की सीमा को पार कर अपने पाँव ज़माने लगा। नयी माटी में रच बसकर उसने वहाँ के अर्थतंत्र की बागडोर थाम ली।
     इधर वंशानुगत विरासत में प्राप्त अपने बौद्धिक प्रभुत्व को अब ‘नव-संशयवादी’ अपने-अपने स्वार्थों की पूर्ति में भजाने  लगे। शिक्षा में विकास की मंथर गति और ग़रीबी ने अवसरों को सीमित कर रखा था और समाज के हर तबके में एक आभिजात्य वर्ग का बोलबाला रहा जो अपने हितों के अनुरूप सूचनाओं को काट-छाँटकर  अपने विचारों को प्रचारित करता और अवसरों को ऊपर ही लोक लेता। कविवर जानकीवल्लभ शास्त्री ने इस स्थिति को इन शब्दों में व्यक्त किया : -
 “ऊपर-ऊपर पी जाते हैं जो पीने वाले हैं,
 कहते ऐसे ही जीते हैं जो जीने वाले हैं।“
जब समाज अपनी आकांक्षाओं के साथ उसकी पूर्ति हेतु अपनी  क्षमताओं को भी जान लेता है, तभी समाज में क्रांति की अवस्था का जन्म होता है। २१वीं शताब्दी की सूचना क्रांति ने समाज के इस आत्मबोध की प्रकिया में आग में घी का काम किया और बड़ी तेज़ी से सूचनाओं के आदान प्रदान की तेज़ी ने सूचना और ज्ञान के क्षेत्र में आभिजात्य वर्ग की बपौती  को ख़त्म कर दिया। अब भारतीय समाज एक प्रबुद्ध और जागरूक समाज में बदल चुका था और उसे किसी वस्तु या स्थिति के आकलन हेतु उन चुनिंदा ‘संशयवादियों’ पर निर्भर रहने की विवशता समाप्त हो गयी थी। अब इतिहास, भूगोल, राजनीति, कूटनीति, अर्थनीति, गाँव, प्रांत, देश, विदेश सबकी जानकारी सीधे उपलब्ध हो गयी थी। सियासतदानों द्वारा रचे गए सम्प्रदाय, जाति, भाषा, क्षेत्र आदि के तमाम प्रपंचों के सीधे अवलोकन, परीक्षण और मूल्याँकन की स्थिति में समाज का प्रत्येक व्यक्ति आ गया था। सत्ता पक्ष से विपक्ष तक और ‘भक्त’ से ‘विभक्त’ तक सभी उसकी निगरानी में आ गए थे। समाज की मूलभूत इकाई के रूप में व्यक्ति को अब अपनी स्वतंत्र सत्ता का आभास हो गया था और समाज को प्रभावित करने की उसने अपनी नयी भूमिका की तलाश कर ली थी। अब कौन सा रोज़गार उसे चुनना है, किस जगह पर विस्थापित होना है, कितने दिनों के लिए इस विस्थापन के दंश को सहना है, किस उत्पाद  का उपयोग करना है, किस विचारधारा को चुनना है और किसे नहीं सुनना है – ये सारे फ़ैसले लेने के लिए जो भी आवश्यक कारक चाहिए, उसे एक क्लिक मात्र पर इंटरनेट पर उपलब्ध था और उसकी निर्भरता अब उन ठेकेदारों से बिलकुल ख़त्म हो गयी जिनके पीछे-पीछे अबतक वह छोटी-छोटी बातों पर निर्भर करता था। कुल मिलाकर ‘laissez faire’ (यथेच्छाकारिता) की स्थिति में व्यक्ति पहुँच गया।  इस स्थिति ने समाज के उस वर्ग में एक नयी चेतना और स्वायत्तता की भावना का सूत्रपात किया जो अबतक निचले पायदान पर दबे कुचले खड़े थे। छोटे और बड़े के बीच की मनोवैज्ञानिक दीवार ढह गयी। सबसे बड़ी बात यह हुई कि आत्मविश्वास से लबरेज़ अब यह व्यक्ति अपने निर्णय ख़ुद  लेने और स्वतंत्र चिंतन करने का आदि होने लगा। यहीं नहीं, बिहार और झारखंड के सुदूर गाँव के हाट  में चाय की दुकान पर बैठे ग्रामीण उत्तर कोरिया  से अमेरिका के सम्बन्धों से लेकर अर्थ-जगत में जापान और चीन की स्थिति का इतना सटीक विश्लेषण करने लगे कि बड़े-बड़े कूटनीतिक रणनीतिकार और अर्थशास्त्री दाँतों तले अंगुलियाँ दबाने लगें! चुनावों का परिणाम बड़े-बड़े स्वघोषित राजनीतिक पंडितों के विश्लेषण से बिछुड़कर आम वोटर की अंगुलियों में सिमट गया।
ठीक इसके उलट, इस महत्वपूर्ण बौद्धिक नवजागरण और  सामाजिक परिवर्तन को  बिलकुल नज़रंदाज़ करते ये  तथाकथित ‘संशयवादी’ अभी तक अपने बौद्धिक उन्माद के मद से बाहर निकले नहीं हैं। वह अभी गंगा-जमुना का पानी ही नापते रहे उधर समंदर में सुनामी खड़ा हो गया। इन्हें इस बात का अभी भी आभास नहीं है कि पदार्थ की कणिकाओं और उसकी ऊर्जा-तरंगों में अबतक का उलझा शास्त्रीय विज्ञान छलाँग मारकर अब चेतना और परामनोविज्ञान के क्वांटम  विज्ञान की ऊँचाई में समा गया है। और, सबसे हैरत अंगेज़ तथ्य तो यह है कि वैज्ञानिक सोच का दावा करने वाले इन  ‘संशयवादियों’ ने विज्ञान का ककहरा भी नहीं देखा  है। नयी पीढ़ी अपने साइबर युग में एक नयी वैज्ञानिक सोच के साथ स्वयं निर्णय लेने की स्थिति में आ गयी है और ये ‘संशयवादी’ अभी अपनी पुरानी पूर्वाग्रही सोच की सड़ी-गली गलियों में भटक रहे हैं। इन संशयवादियों को नए मूल्यों को स्वीकारने में एक अंतरभूत भय सताता है कि कहीं फिर से उन  धर्मांध साम्प्रदायिक पाखंडियों की पुनर्वापसी न हो जाय  जिनके विरुद्ध उनके पूर्वजों ने तर्कवाद का बिगुल  बजाया था। जबकि सत्य यह है कि आज की तिथि में दोनों चोर-चोर मौसेरे भाई हो गए हैं और २१वीं सदी के समाज को इसकी आहट मिल गयी है। अब भारतीय समाज बंद समाज नहीं रहे बल्कि ‘ग्लोबल-विलेज’ के खुले झरोखे बन गए हैं।
किसी भी समाज का सबसे मूलभूत चरित्र अपने संगठित स्वरूप में भलीभाँति तब उजागर होता है जब वह किसी बाहरी आक्रमण  या किसी गम्भीर आंतरिक संकट के दौर से गुज़रता है। यहीं वह वक़्त होता है जब समाज नयी चुनौतियों का सामना करने के लिए कमर कसता है और उसके आंतरिक चरित्र के भिन्न-भिन्न घटकों का उद्घाटन भी होता है। अपने अंदर से ही ऊर्जा को बटोरकर आसन्न संकट से दो चार हाथ करने की जुगत जुटाते समाज में ‘मेटामोरफ़िज़म’ के कुछ नए तत्वों का समावेश भी दृष्टिगोचर होता है। कोरोना के वर्तमान संकट के दौर में भारतीय समाज को भी एक ऐसे ही  अग्नि-परीक्षा के दौर से गुज़रना पड़  रहा है। …………………………………………क्रमशः


         

10 comments:

  1. यहीं वह वक़्त होता है जब समाज नयी चुनौतियों का सामना करने के लिए कमर कसता है और उसके आंतरिक चरित्र के भिन्न-भिन्न घटकों का उद्घाटन भी होता है।

    सहमत। जारी रखें।

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  2. गहन चिंतन। अगले भाग का इंतजार है।

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  3. सार्थक चर्चा का ज्ञानवर्धक पडाव | सादर

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    1. आभार आपके बहुमूल्य आशीष का।

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  4. बिलकुल सहमत -" किसी वस्तु या स्थिति के आकलन के लिए ‘संशयवादियों’ पर निर्भर रहने की विवशता अब समाप्त हो चुकी हैं.हमें किस उत्पाद का उपयोग करना है, किस विचारधारा को चुनना है और किसे नहीं सुनना है – ये सारे फ़ैसले लेने के लिए जो भी आवश्यक कारक चाहिए, उसे एक क्लिक मात्र पर इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। सभी अपनी बुद्धि विवेक से चयन कर सकते है। "
    एक बात तो आपने लाज़बाब कही -" तथाकथित ‘संशयवादी’ अभी तक अपने बौद्धिक उन्माद के मद से बाहर निकले नहीं हैं। वह अभी गंगा-जमुना का पानी ही नापते रहे उधर समंदर में सुनामी खड़ा हो गया "
    सही कहा आपने -ये वो वक़्त है, जब समाज नयी चुनौतियों का सामना कर रहा हैं और साथ ही आंतरिक चरित्र के भिन्न-भिन्न स्वरूप भी उजागर हो रहे हैं।
    बेहतरीन समाजिक विश्लेषण ,अगले भाग का इंतज़ार रहेगा ,सादर नमन आपको

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    1. कविताओं के इस फ़ास्ट फूड के जमाने में नीरस वैचारिक लेखों के पाठक विरले ही मिलते हैं। निश्चय ही आप जैसे पाठकों का उत्साह वर्धन हमारे लिए संजीवनी के समान है। बहुत आभार आपका।

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  5. वाह!!बेहतरीन विश्लेषण किया है आपने विश्वमोहन जी ।

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