Saturday 4 April 2020

कोरोना और भारत का समाजशास्त्र -१ (Corona and the Sociology of India - 1)




चीन के एक शहर हुआन में जन्मे वाइरस ने एक नयी प्राण घातक बीमारी ‘कोरोना’ की दस्तक दे दी है जो अत्यंत तीव्र वेग से इस भूमंडल के बड़े भूभाग को लीलता जा रहा है। हालाँकि, जन्मदाता चीन ने अपने यहाँ कथित तौर पर इस पर विजय पा ली है, किंतु स्पेन, इटली, फ़्रान्स, जर्मनी, ब्रिटेन एवं अमेरिका सहित एक बहुत बड़े क्षेत्र में सुरसा की भाँति मुँह फैलाए यह बीमारी लोगों को मौत का ग्रास बनाती चली जा रही है। अपनी राजनीतिक व्यवस्था के विलक्षण चाल और चरित्र के आलोक में चीन की बातों पर दुनिया को विश्वास नहीं है। सम्भवतः, भविष्य में उस पर दुनिया में विस्तृत विवेचना और अन्वेषण भी  हो, किंतु आज के परिदृश्य में अभी सम्पूर्ण मानव जाति अपने मिटते वजूद को बचाने के लिए संघर्ष कर रही है। अबतक पचास से साठ हज़ार लोग काल कवलित हो चुके हैं और यह संख्या दिन दोगुणी रात चौगुनी की गति से बढ़ती जा रही है। अमेरिका के राष्ट्रपति ने तो यहाँ तक  आधिकारिक तौर पर घोषणा कर दी है कि अकेले उनके देश में यह संख्या दो लाख के पार जा सकती है।
ऐसी स्थिति में भारत में भी पैर पसारती नज़र आती इस बीमारी पर चौकन्ना होना स्वाभाविक है।  भारत सरकार ने बड़ी तेज़ी से सतर्कता दिखाते हुए इस बीमारी की रोकथाम के लिए क़दम उठाए हैं। चूँकि हमारी स्वास्थ्य सेवाओं की आधारभूत संरचना अभी तक इस बीमारी से जूझते अन्य विकसित देशों की तुलना में काफ़ी पीछे है, ऐसी स्थिति में सरकार ने ‘रोकथाम इलाज से बेहतर’ की रणनीति को प्राथमिकता दी है और ऐसा उचित भी है।

इसके तहत सरकार ने कई चरणों में युद्ध-स्तर पर अपने रोकथाम कार्यक्रम को लागू किया है। सबसे पहले चरण में विदेशों से आने वाले यात्रियों और अपने देश में संक्रमित नागरिकों  की जाँच, बीमारी के लक्षण पाए जाने पर उन्हें अलग से ‘आयसोलेशन’ और ‘क्वारंटाइन’ में पृथक रखने की व्यवस्था की गयी है। फिर, एक दिन का जनता-कर्फ़्यू लागू किया गया। एक दिन शाम को समस्त देशवासियों ने अपने-अपने घरों में ही रहकर इस बीमारी से लड़ने वाले स्वास्थ्य-कर्मियों, डॉक्टरों, पुलिस कर्मियों, सफ़ाई-कर्मियों और आवश्यक सेवा से जुड़े लोगों के प्रति घंटी, शंख, थाली आदि बजाकर अपने आभार व्यक्त किए। हालाँकि, कुछ भ्रमित तत्व उत्साह के अतिरेक में बाहर झुंड में निकलते भी देखे गए जो इस कार्यक्रम में निहित उद्देश्यों के  प्रतिकूल था। उसके तुरंत बाद सम्पूर्ण देश में ‘लॉकडाउन’ आज़मायिशी तौर पर २१ दिनों के लिए घोषित कर दिया गया। इस घोषणा के पूर्व प्रधान मंत्री ने इसके उद्देश्यों और कार्यान्वयन  की विधि पर प्रकाश डाला और जनता से सहयोग की अपील की।

भारत मूलतः प्राचीन संस्कारों से शोभित सनातन परम्पराओं वाला देश है। संयुक्त परिवार की प्रणाली इसकी मौलिक पहचान रही है। सामुदायिक संवेदना और वसुधैव कूटुंबकम की भावना का रुधिर इसकी धमनियों में प्रवाहित होता है। अपने-पराए की क्षुद्र भावना से अछूता रहकर ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ का सुवास  इस माटी की संस्कृति में सदा सुवासित होते रहा है। हमारे मूल्यों की जड़ें इतने गहरे तक जमी हैं कि हज़ारों वर्षों के अनवरत आक्रमण और प्रहार के पश्चात भी कोई बाहरी सभ्यता हमारी मूल संस्कृति को गहरे तक जाकर पराजित नहीं कर पायी। हाँ, सभ्यताओं के वस्त्र फ़ैशन में ढलते ज़रूर रहे, किंतु संस्कृति का कलेवर अक्षुण रहा। औद्योगिक क्रांति ने समाज के संयुक्त परिवार की संरचना को तोड़ा ज़रूर, किंतु संयुक्तता की भावना को झकझोर नहीं पायी। इसलिए  तथाकथित ‘तर्कवादियों’ के लाख जुमलों के बावजूद भी थाली पिटने और शंख बजाने में भारत के अवाम ने बढ़ चढ़कर यदि योगदान दिया तो इसके मूल में भारतीयों के उन्ही 'एक-दूसरे के सुख-दुःख में सहभागी होने ' की सामाजिक भावना का संस्कार ज़्यादा था,  न कि कोई अंधानुकरण या दक़ियानूसी भाव !
अब हम इस लेख को आगे बढ़ाने से पूर्व थोड़ा इस देश के समाज को जकड़ी और दिन-पर-दिन जकड़ती जा रही धार्मिक संकीर्णता,  साम्प्रदायिक कट्टरता और कठमुल्लापन बनाम तर्क-विद्या की समस्त युक्तियों का अतिक्रमण करती ‘अतितर्कवादिता’  की व्याधि का शिकार बने कुछ आधुनिक नैयायिकों की चर्चा भी संक्षेप में कर लें। ऐसा करना इसलिए भी प्रासंगिक होगा कि ऐसी विकट स्थिति में जब हम समाज में होने वाली हलचलों का जायज़ा लेते हैं, तो समाज को गहरे तक हिला देने वाले ऐसे अवांछित तत्वों से मुँह भी तो नहीं मोड़ सकते।
तार्किक विवेचना और शास्त्रार्थ इस देश की मौलिक परम्परा रहे हैं। तब ऐसे समस्त शास्त्रार्थों का आधार दार्शनिक होता था जिसकी विषयवस्तु पदार्थवादी जगत से दूर आध्यात्मिक सरोकारों से पूर्ण होती थी। सनातन धर्म का स्वरूप आध्यात्मिक ज़्यादा था और पदार्थवादी कम। सही ढंग से यदि बोलें तो धर्म का लक्ष्य ही था इस पदार्थवादी संसार में आवागमन के चक्र से मुक्ति अर्थात मोक्ष। कालांतर में जैसे-जैसे ‘अर्थ’(पदार्थ) ‘धर्म’(आध्यात्म) पर चढ़ता गया, ‘काम’(नाएँ) प्रबल होती गयीं और ‘मोक्ष’ पीछे छूट गया। परिणाम यह हुआ कि  ‘पुरुषार्थ’ की सारी अवधारणा प्रदूषित होकर कर्मकांडीय कला में प्रवेश कर गयी। कर्मकांड की इस प्रधानता ने ढेर सारे विकारों का जन्म दिया। पंडितों की दूकान खुल गयी। कर्मकांड सम्पादन हेतु स्वघोषित पात्रों ने विकृत जन्म-आधारित कुत्सित वर्ण-व्यवस्था को जन्म दिया। समाज में वर्ण आधारित विषमता, वैमनस्य, मनुवाद आदि बीमारियों ने पाँव ज़माने शुरू किए। अंत में समाज जातियों में तितर-बितर होकर बिखरने लगा। अंधविश्वास, अशिक्षा, निरक्षरता,  धार्मिक और जातीय कट्टरता में एक कुरूप और कुतर्की समाज का ढाँचा मज़बूत होने लगा। समय आगे बढ़ता रहा और इतिहास भी ख़ुद को गढ़ता रहा। मध्य काल और मुग़ल काल के बीतते-बीतते तो भारतीय समाज के रग-रग में  धर्मांधता, साम्प्रदायिक उन्माद, जातिगत भेदभाव और कठमुल्लेपन का ज़हर फैलने लगा। ऐसी स्थिति में देश में प्रतिक्रियात्मक लहजे में एक विचारशील तबके का उदय हुआ जो उस समय के शिक्षित आभिजात्य वर्ग का अंग था और देश का नव शिक्षित वर्ग भी उससे अच्छा ख़ास प्रभावित था। यह वर्ग देश की बौद्धिकता का प्रतिनिधि वर्ग था और उसने एक क्रांति के लहजे में तत्कालीन समाज को सड़े-गले साम्प्रदायवादी विचार और व्यवहार के अंधे कूप से निकालकर तर्कवादी सोच के एक नए धरातल पर रखने का आंदोलन शुरू किया। अपनी कथनी और करनी में एकरूपता लाकर इस वर्ग ने किसी भी वस्तु को ‘आब्जेक्टिविटी’ की कसौटी पर कसकर उसे एक नवीन वैज्ञानिक दृष्टि से देखने की समझ पैदा की। भारतीय समाज में उभरने वाला यह तत्व समाज के विकास का एक बड़ा शुभ शकुन बनकर उभरा, जिसने शनै:-शनै: इस देश की लोकतांत्रिक जड़ों को पुष्ट किया। 
प्रत्येक संस्था में स्वार्थ का समावेश अक्सर  उसके आदर्श को ही अपना ढाल बनाकर उसके उन तमाम मूल्यों को तार-तार कर देता है जो उस संस्था के आदर्शों के मूल में होते हैं।  धीरे-धीरे  वे  मूल्य दूषित होकर उस संस्था के ‘थीसिस’ को ‘एंटी-थीसिस’ में बदल देते हैं और फिर उसका प्रभाव प्रतिगामी होने लगता है।………………………..क्रमश:           

22 comments:

  1. समसामयिक आपके इस महामारी जन्य आलेख का पहला पैराग्राफ यानि भूमिका सपाट है परंतु दूसरे पैराग्राफ़ में धार्मिक विवेचना किसी परिपक्व लेखक की पुस्तक से उद्धत विवेचना सी प्रतीत हो रही है।

    कृपया धर्म पर लिखने से पहले धर्म की सही परिभाषा पर प्रकाश डालें आदरणीय विश्वमोहन जी आपसे विनम्र आग्रह है। आप की विद्ववता और विषयवस्तु के वृहद विश्लेषण क्षमता से हम जैसे उत्सुक पाठक लाभान्वित हो सके।
    धर्म क्या है?
    धर्म किसे कहते है?
    धर्म और सम्प्रदाय में क्या अंतर है?
    आपसे आशा है आप अवश्य मेरी जिज्ञासा का समाधान करेगे।
    सादर।

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    1. जी, अभी तो शुरुआती दौर में ही लेख है। समाप्त होने पर सारे प्रश्नों का उत्तर इत्मीनान से मिलेगा। फिलहाल, इस बात की गंठरी बांध लें कि हमारे लेख में किसी अन्य लेखक से आयातित उद्धृतांश किञ्चित नहीं होता। यदि कभी किसी को उद्धृता किया जाना हो तो उनके वाक्य को अवतरण चिह्न (उल्टे कॉमे) में उनके प्रति सादर आभार व्यक्त कर के या उनके नाम का उल्लेख कर के किया जाता है। हम स्वयं 'साहित्यिक डाकेजनी'के प्रबल विरोधी रहे हैं। यदि आप मेरे इस लेख के किसी अंश पर अपने आरोप साबित कर दें तो सार्वजनिक मंच पर लिखने से सन्यास ले लेंगे। ॐ शांति😀🌹

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    2. अरे महोदय आप तो मेरी सराहना को नकारात्मक मोड दे दिये हम तो आपकी सुगढ़ और परिपक्व शैली में लिखे इस लेख की सराहना में लिखे थे उपरोक्त बातें। क्षमाप्रार्थी है आपसे मेरी बातों को कृपया अन्यथा न लें आप मेरे प्रिय लेखक हैंं हमें आपकी लेखन क्षमता पर लेशमात्र भी संदेह हो नहीं सकता।
      सादर।

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  2. तार्किक विवेचना और शास्त्रार्थ इस देश की मौलिक परम्परा रहे हैं। तब ऐसे समस्त शास्त्रार्थों का आधार दार्शनिक होता था जिसकी विषयवस्तु पदार्थवादी जगत से दूर आध्यात्मिक सरोकारों से पूर्ण होती थी। सनातन धर्म का स्वरूप आध्यात्मिक ज़्यादा था और पदार्थवादी कम। सही ढंग से यदि बोलें तो धर्म का लक्ष्य ही था इस पदार्थवादी संसार में आवागमन के चक्र से मुक्ति अर्थात मोक्ष। कालांतर में जैसे-जैसे ‘अर्थ’(पदार्थ) ‘धर्म’(आध्यात्म) पर चढ़ता गया, ‘काम’(नाएँ) प्रबल होती गयीं और ‘मोक्ष’ पीछे छूट गया।

    वाह

    कुछ घुसा हमारी मूढ़ बुद्धि में भी।

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  3. आपकी उच्च स्तरीय बातें मेरी मोटी बुद्धि वाली मोटे दिमाग में जितना समानी थी उतनी ही समाई ... पर आज तक हम ये नही समझ पाए कि ... अगर हम शुरू से ही सनातनी और मोक्ष के पक्षधर थे तो उ इतिहास में पढ़ाया गया .. आदिमानव, पाषाण युग, लौह युग ( हम हिंदी मीडियम वाले सरकारी स्कूल के उपज हैं) .. उ सब भारत से बाहर किसी और देश में था ... शायद
    ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ वाली धारणा प्राचीन काल में भी जमीनी हक़ीक़त थी , संदेह है। शायद आज के सत्यमेव जयते जैसे आज अदालतों में टँगे ज़ुमले की तरह रही होगी जो आज हमें पुरखों की किताबों में पढ़ने को मिल रही है।

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    1. पहले ऋग्वेद से आरंभ होकर उपनिषद तक आइये, फिर बतियाते हैं 😀🙏🙏🌹🌹

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  4. आदरणीय विश्वमोहन जी ,इस लेख के अगले भाग का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा ,बहुत दिन बाद कुछ ऐसा पढ़ने को मिला जिस को आगे पढ़ने की उत्सुकता बनी रहेगी ,सादर नमन आपको

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  5. I slightly differ here from what the author has claimed about indian culture, especially putting his stamp of certification on joint family tradition as our unique & distinct identity. Such jointness is invariably found in many other countries(read cultures)like China,South Korea etc to name a few. The mass event like 'थाली पिटना, शंख बजाना' was witnessed in other countries too like Italy, Brazil and that too before we could lay our hands on. These events evidently testify to the fact that it was just a spontaneous response to an identical stimulus which helped people converge on a common threat. We must shy away from unnecessarily indulging in self-eulogy.
    Secondly, the author tries to compartmentalize life into a binary mode. He states that abandoning spirituality and moving towards materialism is a sin which according to the author will take us to the precipice. It is not so. Most of the capitalist countries have some kind of state religion and they are more radical and fundamental than any other so called spiritual civilization.
    Finally, we know who we are only when we know who we are not.
    -Nilank Kumar

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    1. The author is seeking to explore the sociological elements in the behavioural pattern of Indian Society on the wake of the corona outbreak and has nowhere dwelt upon the saga of ethnocentrism in the context of joint family or other institutions.The critique above, inter alia,supports the view point (still under nascent stage of construction) by drawing analogy from contemporary societies in a fashion typical of what we call the 'phase entanglement' in modern quantum physics.With words of thanks, I will urge the critic to put hold on the element of his skepticism till the article matures.

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    2. Hold your horses. Why skepticism when somebody is putting up a divergent view.

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    3. I just requested you to wait till the article concludes. You are very much welcome and so entitled to express your views and critique.

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  6. चिंतनपरक लेख  और उस पर सार्थक विमर्श !शायद धर्म की स्थापना   जीवन में कल्याणकारी   नैतिक मापदंडों की  सीमायें तय करने के लिए हुई थी जिसमें जीवनपर्यंत बहुजनहिताय सुकर्म  की  प्रेरणा  और जीवनोपरांत मोक्ष   पाने के प्रयासों  का  प्रावधान किया था  पर  बौद्धिकता    के अनावश्यक  हस्तक्षेप से  आज धर्म   कुत्सित  रूप   में आ गया है | धर्मान्धता से  मानवता  को जो हानि हुई  उसके सही आंकड़े  कहाँ  उपलब्ध हैं |दूसरे मानव की पलायनवादी प्रवृति अक्सर उसे कोरोना जैसे संकटों में डाल देती है  | मानव सभ्यता पर आये आकस्मिक संकट कोरोना के बहाने शुरू हुए इस  समाजशास्त्रिय विमर्श की अगली कड़ी का इन्तजार रहेगा |

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  7. पढ़कर कुछ ज्ञानवर्धन ही हुआ। लेखमाला पूर्ण होने पर एक बार फिर संपूर्ण लेखमाला को जोड़कर पढ़ना अच्छा रहेगा। सादर आभार।

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    1. आपके आशीष उत्साह बढ़ाते हैं।

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  8. पहला और दूसरा पैराग्राफ में कोरोना वायरस और उसके प्रसार का सटीक विवेचना है परंतु आगे के पैराग्राफ को कोरोना वायरस से लगता जैसे ज़बरदस्ती सम्बद्ध किया गया है।चिकित्सा शास्त्र से संबंधित विषाणु जनित बीमारी को धर्म और संस्कृति से जुड़ाव असंबद्ध लगता है पर इसी बहाने लेख में देश के सांस्कृतिक और सभ्यता की चर्चा प्रशंसनीय है।

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    1. जी, विषय का केंद्र कोरोना वायरस नहीं, बल्कि कोरोना के भारतीय समाज पर पड़ने वाले प्रभाव की समाज शास्त्रीय विवेचना है। उसी दिशा में होनेवाली मीमांसाओं के निर्माण के क्रम में समस्त समाज शास्त्रीय तंतुओं को टटोलते हुए पड़ताल की दिशा में यह लेख बढ़ेगा। इसलिए इसके किसी भी अंश को 'क्वारेण्टाइन' में रख कर न पढ़ें, बल्कि लेख की संपूर्णता के संदर्भ में पढ़ें। अत्यंत आभार आपकी इस ध्यानाकर्षक टिप्पणी का। आशा है, आपकी दृष्टि का यह आशीष आगे भी मिलेगा।

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  9. देर से आने के लिए ,नहीं बहुत देर से आने के लिए क्षमा चाहती हूँ ...प्रथम भाग में आपनें जो भी बताया उशवो अब भूतकाल हो गया , कहते हैं न जो सोवत है वो खोवत है ,खैर ....जागे तभी सवेरा .....(मैं अपने लिए लिख रही हूँ )

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    1. आपके स्नेहाशीष का आभार।

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