Tuesday 14 April 2020

कोरोना और भारत का समाजशास्त्र – ६ (Corona and the Sociology of India - 6)



(भाग – ५ से आगे)
पहले दिन के ‘जनता-कर्फ़्यू” में भागीदारी  और कोरोना से अहर्निश लड़ने वाले अपने डॉक्टर, स्वास्थ्य-कर्मी, पुलिस, अत्यावश्यक सेवा मुहैया करानेवाले कर्मचारी एवं अन्य समाज सेवियों के प्रति अपना अप्रतिम सम्मान और एकजुटता  दिखाकर भारतीय समाज ने इस महामारी से युद्ध में न केवल अपनी सतर्कता, तत्परता और सामाजिक सहधर्मिता  के पाँचजन्य का उद्घोष कर दिया, प्रत्युत इस जगत में मानवीय अस्तित्व की रक्षा के प्रति अपनी संस्कृति  के संवेदनात्मक पक्ष को भी प्रकट किया। उसके तुरंत बाद प्रारम्भ होने वाली 'लोकबंदी' अर्थात  ‘लॉक डाउन’  निश्चित रूप से एक ऐसी स्थिति थी, जिससे निपटने में  हमारे चिर-संचित सांस्कृतिक तत्वों और सामाजिक मनोविज्ञान की सबसे बड़ी भूमिका थी और इस कसौटी पर भारतीय समाज का एक मज़बूत पक्ष उभरा है। हमने पहले ही कहा है कि “महामारी का यह मनोविज्ञान भी दोमुँहा होता है – एक ‘महामारी के ख़ौफ़’ का मनोविज्ञान  और दूसरा ‘ख़ौफ़ के मनोविज्ञान’ की महामारी! सौभाग्य से, भारतीय समाज के जीवट ने इस मनोविज्ञान को अपने पर हावी नहीं होने दिया है। ये आपदाएँ जान-माल की बर्बादी तो करती  ही हैं, सबसे ज़्यादा इनका असर हौसलों पर होता है, जिसे भारतीय समाज ने बहुत हद तक बचा रखा है। सदियों के अनुभव ने इस मामले में उसे अब काफ़ी ‘प्रफ़ेशनल’ बना दिया है। भारतीय जनता पहले एक सामजिक जीव है, फिर एक आर्थिक शरीर!”
                    भारतीय समाज ने परिस्थितियों के साथ जिस धैर्य और कुशलता से अपने को ढाला है, उसने एक नए आयाम ‘लॉक-डाउन के सामाजिक मनोविज्ञान’ का उद्घाटन किया है, जो न केवल मानव-व्यवहार के उद्भव और क्रमगत विकास की कड़ी में एक नया अध्याय है, बल्कि इसका सांगोपांग अवलोकन और अध्ययन आधुनिक समाजशास्त्रियों और समाज मनोवैज्ञानिकों के लिए बड़ा रोचक भी है। इसमें कहीं हमारे श्रमिक भाइयों द्वारा  इस ‘ताले’ को खोलने की छटपटाहट भी दिखी तो वह अपनों से जुड़ने की तड़प थी, न कि उसके पीछे कोई नकारात्मक तत्व! और, इस तड़प का उत्स भी हमारी सामाजिक भावनाओं के गर्भ में ही सुरक्षित है। परिस्थिति की गम्भीरता और   भारतीय जनसंख्या के आकार और प्रकार  के आलोक में यह कोई अप्रत्याशित अवसर भी नहीं था। थोड़ी देर से ही सही, उनकी छटपटाहट ने संवेदना के जिस ज्वार को आंदोलित किया और जिस तत्परता से समाज और सरकार ने उनकी समस्यायों के त्वरित निदान में अपना हाथ बढ़ाया, यह भी भारतीय समाज के संवेदना मूलक सांस्कृतिक पक्ष के घनत्व और मज़बूती को इंगित करता है। भीषण से भीषण झंझवातों को सह लेने और परिवर्तनों को, बिना अपना मौलिक स्वरूप खोए, आत्मसात करने की क्षमता भारतीय समाज की सबसे बड़ी विशेषता है। यह क्षमता इसे क़ुदरत ने कैसे दी है, इसका ज़िक्र तो पहले किया ही जा चुका है, साथ ही, इतिहास भी काल-प्रवाह के भिन्न-भिन्न खंडों में ऐसे अनवरत झटकों से इसकी झोली भरता रहा है। बाहरी सभ्यताओं के आक्रमण  और लम्बे काल की विदेशी ग़ुलामी की विभीषिकाओं की अग्नि में भी तपकर इस समाज की सुवर्ण-संस्कृति लोकतंत्र का कुंदन बनकर ही दमकी और इसने सभी सभ्यताओं का आलिंगन कर उसे अपनी संस्कृति की वृहत धारा में घुला लिया और एक सर्वग्राही  भारतीय समाज अपनी अलग पहचान बनकर उभरा। यह विरासत में प्राप्त इस समाज की शक्ति है कि यह अब चुनौतियों में भी अवसर तलाशने लगी है और आधुनिकताओं को अपनी अपरंपार परम्पराओं में विलीन कर ‘नव-परंपरावाद’ का एक नया वितान तान रही है। यहीं इसका सनातन होना है।
                     समाज के एक बड़े शहरी  तबके ने ‘लॉक-डाउन’ को ‘बोरियत की समस्या’ के रूप में उभारकर मानों महामारी के आतंक और उसकी भयावहता को ठेंगा दिखा दिया हो! इस संकट काल में अपने स्वभाव के विनोद-प्रिय पक्ष का आलम्ब समाज के स्वस्थ मनोविज्ञान का परिचायक है। जनमत के अद्भुत जीवट के सामने ‘संशयवादियों ‘ की आलोचना की तमाम तिकड़में दम तोड़ती नज़र आ रही हैं। यह दम तोड़ना भी समाज-निर्माण में उनकी प्रकार्यात्मक भूमिका का ही  हिस्सा है। इसमें कोई संशय नहीं कि आलोचनाएँ विमर्श का एक ज़रूरी हिस्सा हैं, लेकिन कब?  तब, जब वह समाधान के लिए और समाधान के साथ प्रस्तुत की जाती हों! आप सिर्फ़ खोट निकालते रहें हर बात पर, और अपनी ओर से समाधान का कोई तार्किक प्रस्ताव प्रस्तुत न करें तो आपकी आलोचनाएँ अपनी  धार खो देती हैं। ध्यातव्य है, यह समाज सूचना क्रांति का समाज है और यह पीढ़ी साइबर युग में कुलाँचे भरने वाली पीढ़ी है। इसलिए अब विमर्श का स्वरूप भी  वस्तुनिष्ठ  निकष पर समाधान की तार्किक परिणती की ओर अग्रसर है न कि, बहस मात्र के लिए दलीलें पेश करने  की बाज़ीगरी! किसी ठोस समाधान को सुझाने की जगह पर व्यवहार के धरातल से दूर केवल सिद्धांत मूलक सवालों से भरी शिकायतों की अतिशयता एक मनोवैज्ञानिक विकार की आकृति में आपको  विश्वसनीयता की परिधि से बाहर धकेल देती  हैं और आप अप्रासंगिक होने लगते हैं। 
                     २१वीं सदी की पीढ़ी का यह भारतीय समाज अब आपसे कथनी  और करनी में सामंजस्य की अपेक्षा रखता है। आप उसे बचपन से बड़े होने तक सत्य, ईमानदारी और आदर्शों की बड़ी-बड़ी पोथियाँ पढ़ाते रहें और अपनी नौकरी का नियुक्ति पत्र लेकर जब आशीष लेने आपका चरण-स्पर्श करने पहुँचे तो आपका उससे पहला सवाल  - ‘इस नौकरी में कोई ऊपरी आमदनी है कि  नहीं ‘- आपके प्रति उसके मन में बनी अबतक की छवि और चरित्र के इस दुहरेपन के ख़िलाफ़ एक गहरा क्षोभ उत्पन्न कर देता है और विरसता तथा विद्रोह के भाव से वह भर उठता है। नयी पीढ़ी का समाज ज़्यादा व्यावहारिक है और बदली स्थितियों से अपना संतुलन बैठाने में ज़्यादा  ‘प्रफ़ेशनल’ है। लॉक-डाउन में उसके व्यवहार का यह आयाम ज़्यादा सकारात्मक होकर उभरा है। इसीलिए उसकी चौपाल ‘सोशल मीडिया’ में दैनिक चर्चाओं के चरित्र ने एक नयी चटपटी चाल पकड़ ली है। जनता महामारी से लड़ने वाले अपने योद्धाओं को पूरा सहयोग और समर्थन दे रही है। दूसरी ओर सोशल मीडिया पर अपने लॉक-डाउन को कैसे स्वस्थ ढंग से व्यतीत करें, इस पर  सार्थक, मनोरंजक और  चटपटी चर्चायें  कर रही है। सोशल-डिस्टेन्सिंग का पालन करते हुए अपने घरों में सिमटे लोग मनोवैज्ञानिक स्तर पर तनिक भी हारे हुए महसूस नहीं कर रहे हैं। सोशल मीडिया की चौपाल पर समाज से वे पूरी तरह जुड़े हुए हैं। रोज़-रोज़ की दौड़-धूप और आपा-धापी  में जहाँ एक दूसरे की सुध लेने की मोहलत नहीं थी, वहाँ अब फ़ुर्सत ही फ़ुर्सत है। साथ देने के लिए फ़ोन, फ़ेसबुक, व्हाटसप , ट्विटर, ब्लॉग सब कुछ पड़ा है सामने! दुर्गति तो उलटे उनकी हो रही है जो अबतक ‘बहुत व्यस्त हैं’ का तमग़ा लटकाकर समाज से मुँह चुराते फिर रहे थे।
                    परिवार इस दुनिया की सबसे पुरातन और सनातन संस्था है जिससे व्यक्ति का जनमते ही सबसे पहला परिचय होता है। सामाजिक जीवन की सर्वोत्तम पाठशाला भी परिवार ही है। परिवार ही वह स्थल है, जहाँ व्यक्ति  मानवता और नागरिकता का पहला पाठ पढ़ता है, जहाँ उसमें  सुख-दुःख, हर्ष-विषाद जैसे समस्त भावों का बीजारोपन होता है, जहाँ वह अपने सदस्यों के साथ अपनी भावनाएँ बाँटता है, जहाँ  वह हँसना और रोना सीखता है और जो उसकी सुरक्षा का सबसे पहला और अंतिम आश्रय होता है। यहीं से वह एक नए परिवार के निर्माण की सतत संस्कृति के यज्ञ का सम्पादन करता है। इधर तेज़ी से बढ़ते व्यावसायिक माहौल  के प्रबल आघात से सामाजिक जीवन की यह सर्वोत्तम  पाठशाला चरमराती और बिखरती-सी लग रही थी। लेकिन लॉक-डाउन में आज अपने परिवार में ‘लॉक’ होकर व्यक्ति फिर से उन चिर संचित  पारिवारिक भावनाओं और मूल्यों को ‘अनलॉक’ करने लगा है। महामारी से इस संघर्ष ने परिवार की इस संस्था के सार्वभौमिक सत्य को फिर से रेखांकित कर दिया है। आज परिवार फिर से जी उठा है। परिवार और परिवार में व्यक्ति का व्यक्ति से भावनात्मक बंधन मनुष्य को मिला एक दैवीय उपहार है जो उसे सामाजिक जीवन जीने का रस देता है। इस अवधि में बीते लोक-पर्वों को जिस सादगी और गरिमा से उसने बिताया है, इससे न केवल परिवार के संस्कार  पुष्ट हुए हैं, बल्कि लोक-आस्था  भी समृद्ध हुई है और तेज़ी से अपनी मौलिकता खोते जा रहे त्योहारों ने फिर से अपना लोक रंग प्राप्त कर लिया है। परिवार के वरिष्ठ जन अपनी नयी पीढ़ी से सतत सम्पर्क में आए हैं।  इन बंद दिनों में परिवार के लोग आपस में जिस तरह से खुले हैं और उनके दिलों में  जिस प्रगाढ़ता से पारिवारिक मूल्यों का भावनात्मक रोपण हुआ है, उस आधार पर हम इसे  ‘लॉक-डाउन’ कम और ‘घरवास’ ज़्यादा कह सकते  हैं। सही मायने में यह भारतीय समाज का ‘घरवास’ है। परिवार की घर वापसी हुई है। किसी कारण से जो  प्राणी अपने परिवार से अलग भी छूट  गया है, भावनाओं के स्तर पर उसमें पारिवारिक निकटता की प्यास ज़्यादा उजागर होने लगी है। कुल मिलाकर लोग मकानों से वापस अपने घर में  लौट गए हैं। साथ हँसना, साथ रोना, साथ बर्तन माँजना, साथ झाड़ू-पोंछा देना, साथ खाना, साथ पीना और साथ जीना यहीं दिनचर्या है – इस घरवास की!...................क्रमशः………….

12 comments:

  1. सच है पर 100% ढाला है नहीं कहा जा सकता है कुछ ने ढाला है कुछ को ढाल दिया गया है बाकि उत्तम। अगली कड़ी में मिलते हैंं।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी, बिलकुल सही । '१०० प्रतिशत या कितना प्रतिशत?' की तो हम बात ही नहीं कर सकते। हम तो सिर्फ़ रुझान और प्रवृत्तियों की ही बात कर सकते हैं । जी बहुत आभार!

      Delete
  2. सच है...सम्यक् ज्ञान

    ReplyDelete
  3. भारतीय जनता पहले एक सामजिक जीव है, फिर एक आर्थिक शरीर!” बहुत ही सुंदर बात कही आपने -हम लाख भौतिकता के पीछे भागे मगर हमारी भीतर हमारे संस्कारों की इतनी गहरी पैठ हैं कि जब चुनाव का वक़्त आता हैं तो परिवार और समाज से मुँह नहीं फेर पाते ,परिस्थितियाँ जैसी भी हो अपना मौलिक स्वरूप नहीं खोते।
    एक और बात आपने बहुत खरी कही कि -आलोचनाएँ विमर्श का एक ज़रूरी हिस्सा हैं, लेकिन कब? तब, जब वह समाधान के लिए और समाधान के साथ प्रस्तुत की जाती हों! आप सिर्फ़ खोट निकालते रहें हर बात पर, और अपनी ओर से समाधान का कोई तार्किक प्रस्ताव प्रस्तुत न करें तो आपकी आलोचनाएँ अपनी धार खो देती हैं।
    बिपति के समय जो कुछ नहीं करने के काबिल होते हैं -वो खोट निकलने का काम ही कर लेते हैं।
    आपका ये लेख काफी रोचक होता जा रहा हैं ,वैसे इसे पढ़ने के लिए इत्मीनान का समय निकलना पड़ रहा हैं ,इसलिए प्रतिक्रिया देने में भी देरी हो रही। अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा ,सादर नमन आपको

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी, बहुत आभार। आप इत्मिनान से पढ़ें और अपना पूरा समय लें। आलोचना और समालोचना तो इस समाज के आवश्यक तत्व है। विचारों की अनुकूलता और प्रतिकूलता का सम्मुच्य ही तो विमर्श है, बशर्ते कि वह प्रासंगिक, तार्किक और सार्थक हो।

      Delete
  4. आदरणीय विश्वमोहन जी, आपका एक और सारगर्भित लेख पढ़कर अच्छा लगा। लॉकडॉउन ने जिस सामाजिक विमर्श को जन्म दिया , आप लेख श्रृंखला के माध्यम से उसका विश्लेषण भली भाँति कर रहे हैं । इस आपदाकाल में कोरोना कर्मवीरों की छवि -- सच्चे जनसेवकों के रूप में उभरी है। पुलिस और सेना ने जिस निस्वार्थ भाव से इस संकट काल को संभाला है वह सराहना से परे है। जनमानस ने भी इन्हें भरपूर सम्मान दिया है। चिकित्सकों ने तो अपने आप और परिवार को भुलाकर कर्तव्य को प्राथमिकता देकर दूसरी खुदाई बनकर दिखाया है। और घर की याद में छटपटाते मेहनतकशो का मीडिया में कल परसों छाया चित्र मन को विदीर्ण कर गया, जब वे बहुत बेबसी से सरकार से कह रहे थे कि उन्हें ना खाना चाहिए ना पैसे , वे बस अपने घर लौटना चाहते है । अर्थात उनकेअसुरक्षित मन का एक मात्र सुरक्षा कवच , मानो उनकी जन्म भूमि ही है। उनकी छटपटाहट कोई राजनैतिक स्वांग नहीं उनकी अपनी माटी और अपनों के प्रति अगाध आत्मीयता है, जिसे वे सबको बताना चाहते हैं!उनकी प्रगाढ़ आत्मीयता को शहर की चकाचौँध अभी तक आच्छादित नहीं कर पाई है , क्योकि वह प्रगति के उस शिखर को कभी छु नहीं पाया जहाँ संवेदनाएं शून्य हो जाती हैं ।यूँ भी जीवन ऐसे वर्ग के प्रति बहुत अधिक कठोर रहा है ,पर उसने इसे सहजता से लेकर, निस्वार्थ भाव के साथ,अपनी कर्मठता से देश -समाज के अर्थतंत्र को संवारा है। दूसरी तरफ लॉकडॉउन ने शहरी जीवन में पारिवारिक स्तर पर एक ऐसी क्रांति का सूत्रपात किया है , जो अप्रत्याशित है । घर में सहायिकाओं की छुट्टी हो जाने से परिवार का युवावर्ग विशेष रूप से घरेलू दायित्व के प्रति सजग हुआ है। जिनमें कॉलेज जाने वाली बेटियां और ऑफिस जाने वाली बहुएं रसोई की तरफ बड़े उन्मुक्त भाव से नये - नये पकवान बनाने को उद्दत् हुई हैं तो बुजुर्गों की खुशी का ठिकाना नहीं , पूरा परिवार जो उनकी आँखों के सामने है। ना किसी को दफ्तर जाने की जल्दी , ना बच्चों के स्कूल की चिंता। शायद आपाधापी में खोई सदी के लिए ये लघुविराम जरूरी था। दुनिया का कारोबार भले चौपट है , परिवार में आपसी स्नेह का कारोबार भली भाँति फलफूल रहा है। सूचना क्रांति ने इस घरवास को बोझिलता से बचाया है और रचनात्मकता को बढ़ाया है। सच कहूँ तो लॉकडॉउन के पर्याय के रूप में मुझे " घरवास " शब्द अत्यंत प्रिय और सार्थक लगा। सचमुच इस घरवास से आज परिवार फिर से जी उठा है । इतने सुंदर लेख के लिए साधुवाद 🙏🙏

    ReplyDelete
    Replies
    1. लेख के कुछ बिंदुओं को आपने न केवल और विस्तार दिया है, बल्कि कुछ अनछुए पहलुओं को भी उभारा है। आपकी इस रचनात्मक समीक्षा का हृदयतल से आभार।

      Delete
  5. एक ‘महामारी के ख़ौफ़’ का मनोविज्ञान और दूसरा ‘ख़ौफ़ के मनोविज्ञान’ की महामारी! सौभाग्य से, भारतीय समाज के जीवट ने इस मनोविज्ञान को अपने पर हावी नहीं होने दिया है।
    सही कहा आपने लेकिन अभी आपदा टली नहीं हैं भाव दिन व दिन बदलते रहते है उम्मीद तो यही है कि हम भारतीय इस मनोविज्ञान को अपने ऊपर हावी न होने दें....
    बहुत ही सुन्दर विश्लेषणात्मक लेख।
    सादर नमन🙏🙏🙏🙏

    ReplyDelete
    Replies
    1. ईश्वर से प्रार्थना है कि यह आपदा जल्दी टल जाए। आपके सुंदर आशीर्वचनों का हृदयतल से आभार!!!!

      Delete
  6. सही कहा आपनें ,लोग मकानों से अब घरों में लौट गए हैं । इतने समय तक ,इस तरह साथ रहे तो बरसों हो गए थे ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. घर का निर्माण रिश्तों की ईंट और भावनाओं के गारे से होता है। बहुत आभार आपका।

      Delete