(भाग – ४ से आगे)
भारतीय समाज के संबंध में कोरोना के प्रभाव के समाजशास्त्रीय पक्ष की पड़ताल के क्रम में हमें पहले कही गयी बातों का विशेष रूप से ध्यान रखना होगा। यह तथ्य है कि किसी भी क्रिया या प्रतिक्रिया पर प्रतिकारक की प्रकृति का भी प्रभाव पड़ता है। समाज न केवल एक सजीव प्राणी-समूह बल्कि एक निरंतर गत्यात्मक अवस्था को प्राप्त संस्था भी है जिसके उद्भव और उत्तरोत्तर विकास की यात्रा में न मात्र व्यक्ति, वरन वहाँ के क्षेत्र विशेष, आबोहवा, फ़सलों के प्रकार और उनकी उपज, पर्यावास, पर्यावरण, पशु-पक्षी, लोकाचार, रीति-रिवाज, पारिवारिक संगठन, व्यवसाय, पढ़ाई-लिखाई, उद्योग-धंधे, राजनीतिक स्थिति, जनसंख्या-घनत्व और ऐसे तमाम कारकों का बड़ा गहरा संबंध होता है और ये सभी कारक मिलकर उस समाज का एक अपना व्यक्तित्व गढ़ते हैं जो अपने चाल और चरित्र में अन्य समाजों से अपनी अलग पहचान रखता है। हमारी साझी चेतना भी एक सौ तीस करोड़ की आबादी वाले एक ऐसे विस्तृत भूभाग की वृहत पहचान है जो सभ्यता, संस्कृति, भाषा, भूगोल, इतिहास, मौसम, जलवायु, खेती-बाड़ी, भोजन, रहन-सहन, स्वभाव, शारीरिक बनावट, नस्ल, जाति, धर्म या जो कुछ भी आप सोच सकते हों, सर्व-प्रकारेण कल्पनातीत विविधताओं की विलक्षणता से भरा हुआ है।
रोटी से माटी और बानी से पानी तक बस भिन्नता ही भिन्नता! यहाँ तक कि बीमारियों तक की भी यहाँ अपनी एक ख़ास क्षेत्रीय पहचान है। अलग-अलग क्षेत्रों की अलग-अलग बीमारी, अलग-अलग महामारी! कहीं घेंघा तो कहीं कालाजार, कहीं जापानी एंसिफ़ेलाइटिस तो कहीं चमकी, कहीं प्लेग तो कहीं मलेरिया, कहीं चिकनगुनिया तो कहीं डेंगू! उस हिसाब से ऐसी महामारियों का विस्तार एक सीमित भौगोलिक क्षेत्र तक ही पसरा होता है और बाक़ी भाग उस बीमारी के असर से अछूते और अनभिज्ञ या उदासीन बने रहते हैं। ऐसी स्थिति में भी सामाजिक संवेदना का आकार सर्वत्र समरूप होता है और उस आपदा से लड़ने में सम्पूर्ण भारतीय समाज एक साथ खड़ा हो जाता है। किंतु, जब ऐसी विकट स्थिति पैदा हो जाय कि महामारी, सारे भारतीय भूभाग की बात कौन कहे, सारे संसार को अपनी चपेट में लेने चल पड़ी हो तो वह अपनी क्रूरता का विकरालतम अट्टहास करती होती है।
आम तौर पर, भारतीय समाज आहार, आचार और विचार, इन तीनों के स्तर पर अत्यंत सरल, सहिष्णु एवं समावेशी है। भारतीय अवाम की एक खासीयत यह भी है कि किसी भी स्थिति की प्रतिक्रिया देने से पूर्व बड़े धैर्य से, और कभी-कभी बेतकल्लुफ़ी के अन्दाज़ में भी, वह स्थिति का बड़े संयम के साथ अंत तक उसके चाल-ढाल का अवलोकन करती है। वह हड़बड़ी में अपना आपा नहीं खोती है। इसके पीछे एक बड़ा सांस्कृतिक कारण भी है जो उसके भूगोल और इतिहास की उपज है।
भारत एक कृषि-प्रधान देश है। इसकी क़रीब सत्तर प्रतिशत आबादी की जड़ गावों में है और उसकी मुख्य रोज़ी-रोटी खेती-बाड़ी से चलती है। कृषि कर्म पर आश्रित रहने वाली इस मुल्क की बहुसंख्यक आबादी का क़ुदरत से एक ख़ास रिश्ता है। रोपनी-सोहनी से पटवन तक और फ़सलों की कटाई से खलिहान तक उसकी पूरी की पूरी निर्भरता भगवान और सिर्फ़ भगवान पर होती है। कभी वह सही समय पर सही मात्रा में पानी देकर खेतों में सोना उगलवा देता है, कभी नदियों का पेट फुलाकर अतिवृष्टि के सैलाब में उसके पशुओं को भी फ़सल के साथ बहा ले जाता है, तो कभी भयंकर सुखाड़ में, उसके हौसलों को छोड़, बाक़ी सब कुछ उखाड़ ले जाता है। कहते हैं कि भारतीय किसान पहले से ही क़र्ज़ लेकर जनमता है और क़ुदरत के साथ ज़िंदगी भर हार-जीत का जुआ खेलते-खेलते क़र्ज़ में ही मर जाता है। इसलिए क़ुदरत की बेरहमी का वह आदि हो गया रहता है। अब भला जो अपनी पूरी ज़िंदगी अपनी माटी के लिए क़ुदरत से जुआ खेलते-खेलते खेत हो जाता हो, उसका तन भले उजड़ जाए लेकिन उसका मन अपनी माटी से कभी नहीं उजड़ता! माटी और माता का असली प्रेम वहीं गढ़ता और जीता है। किसी कवि ने तभी तो कहा है कि:
“विषुवत रेखा का वह वासी,
जो नित जीता हाँफ-हाँफ कर।
कर देता वह हँसते-हँसते,
मातृभूमि पर प्राण नेछावर!”
जीने के लिए पेट भरने वह कहीं बाहर भले निकल जाए लेकिन मन उसका तभी भरेगा जब अपनी माटी में मरेगा! उसके लिए भारतेंदु हरिशचंद की ये बातें सिर्फ़ मरघटी महत्व की हैं कि :-
“मरनो भलो बिदेस में
जहाँ न अपनो कोय।
माटी खाए जानवरां,
महा महोच्छव होय!”
इसलिए चाहे जिए वह दुनिया के किसी भी कोने में, मरेगा अपनी जन्मदात्री भू-माता की गोद में ही! अंत समय में फूस की झोपड़ी में उसका आसरा देखने वाले बूढ़े माँ-बाप, भाई-बहन, नाते-रिश्ते और गाँव के गोतियारी के घर-आँगन को वह यूँ ही अकेला नहीं छोड़ सकता! यह सब उसकी संस्कृति के शोणित बन उसकी रगों में प्रवाहित हो रहे हैं। वह सिर्फ़ अपने लिए जीने वाला एक जैविक सत्ता मात्र नहीं है। अच्छे समय में भले इन्हें वह विस्मृत कर दे लेकिन क़यामत के दिनों में उनकी अर्थी को कंधा देने के लिए स्वयं अर्थी पर चढ़ जाएगा वह!
अब मुझे हाल में मज़दूरों की बड़ी मात्रा में अपने गाँव की ओर महाप्रयाण करने के सामाजिक मनोविज्ञान को और ज़्यादा विस्तार देने की ज़रूरत नहीं। साहित्यकार शिवदयाल जी के शब्दों में “अभी तक ‘असभ्य’ भारतीयों ने सबसे अधिक सभ्यता प्रदर्शित की है”। हम इसमें थोड़ा संशोधन सुझाएँगे, “अभी तक ‘असभ्य’ भारतीयों ने सबसे अधिक संस्कृति प्रदर्शित की है”। उधर अमेरिका में कई वर्षों से रह रहे रॉबर्ट पैकर अस्पताल पेंसिलवानिया के प्रसिद्ध चिकित्सक डॉक्टर रामचरित्र शर्मा जी का भी यही कहना है, “सामाजिक असंतुलन के बावजूद भारतीय समाज का सबसे संतुलित व्यवहार रहा”। और, ऐसे भी जिनका ग्रामीण जीवन से गहरा सरोकार है, उनके लिए ऐसी घटनाएँ पूरी तरह से स्वाभाविक और वांछित है। जो इस घटना को ‘प्रवासी मज़दूरों का माइग्रेशन” मात्र समझते हैं, उन्हें न केवल भारतीय समाज बल्कि भारतीय संस्कृति के गहन अध्ययन की आवश्यकता है। फ़िलहाल उन्हें अभी इतना ही सोच कर संतोष कर लेना चाहिए कि भारतीय जनता पहले एक सामजिक जीव है, फिर एक आर्थिक शरीर!
समस्या का साहसपूर्ण सामना करने में, विशेष रूप से प्राकृतिक आपदाओं का, बाढ़ से सुखाड़ तक और चमकी से सुनामी तक, भारतीय समाज बहुत अनुभवी और सहिष्णु है। ये आपदाएँ जान-माल की बर्बादी तो करती ही हैं, सबसे ज़्यादा इनका असर हौसलों पर होता है जिसे भारतीय समाज ने बहुत हद तक बचा रखा है। सदियों के अनुभव ने इस मामले में उसे अब काफ़ी ‘प्रफ़ेशनल’ बना दिया है। इन बातों का उल्लेख करना यहाँ अत्यंत आवश्यक इसलिए भी है कि यह समाज की आंतरिक शक्ति ही होती है जिसका सीधा सामना ‘महामारी के मनोविज्ञान’ से होता है। और, उससे भी ज़्यादा ज़रूरी यह बताना कि यह शक्ति अचानक नहीं आती, बल्कि भारतीय समाज ने सदियों की अपनी ज़िंदगी में जीकर इन्हें सहेजा और संजोया है। महामारी का यह मनोविज्ञान भी दोमुँहा होता है – एक ‘महामारी के ख़ौफ़’ का मनोविज्ञान और दूसरा ‘ख़ौफ़ के मनोविज्ञान’ की महामारी!
सौभाग्य से, भारतीय समाज के जीवट ने इस मनोविज्ञान को अपने पर हावी नहीं होने दिया है। इस मेहनत कश जनता का सामना मौसम के हर रंगों से होता है। हड्डियों को कँपाने वाली शीत लहरी से लेकर चिलचिलाती धूप में गरम हवा के झोंकों में वह ख़ून-पसीना एक कर अपनी आजीविका का निर्वाह करती है। समस्त रोगों के ज़हरीले से ज़हरीले विषाणुओं को अपने बहते पसीने में घुला लेने की विलक्षण रोग प्रतिरोधक क्षमता उसने हासिल कर ली है। विषाणुओं से उसकी यह जंग उसके जन्म के कुछ ही दिनों बाद शुरू हो जाती है, जब उसकी माँ उसे खेतों की मेड़ पर लिटाकर पानी से भरे लबालब खेत में धान की रोपनी करने उतर जाती है। बाहर महानगरों में मज़ूरी करने वाली यह जमात किराए के छोटे-छोटे कमरों में झुंड में खाते-पीते, सोते-जागते सुख-दुःख में एक दूसरे के आँसू पोंछते साथ-साथ रहती है। सामुदायिक जीवन की एक झलक देखनी हो, तो आप इनके साथ इनकी झुग्गियों या चाल में एक-दो दिन बिता कर देख लें। और, संयोग से, इस बात के पुख़्ता वैज्ञानिक प्रमाण भी हैं कि अपनी इस सामुदायिक जीवन-प्रणाली की बदौलत इन्होंने न केवल व्यक्तिगत स्तर पर बल्कि सामुदायिक रोग प्रतिरोधक क्षमता भी क़ुदरत से हासिल कर ली है। वैज्ञानिक जगत में इस क्षमता को ‘’हर्ड- इम्यूनिटी’ (herd-immunity) कहते हैं। आँकड़े गवाह हैं कि महामारियों ने यूरोपीय देशों की तुलना में भारतीय उपमहाद्वीप में मौत के मामले में थोड़ा कम क़हर बरपाया है। यह परिणाम निस्सन्देह यहाँ के सामाजिक जीवन की ही देन ज़्यादा प्रतीत होते हैं।
अब एक मामले के उदाहरण (केस-स्टडी) के तौर पर बिहार के एक गाँव के मूल निवासी से अपनी बात-चीत का उदाहरण मैं आपके समक्ष प्रस्तुत करता हूँ। वह दिल्ली में तिपहिया वाहन चलाकर अपना गुज़र-बसर करता है और गाँव पर उसकी छोटी खेती-बाड़ी का कार्य परिवार के अन्य सदस्य देखते हैं। खेती-बाड़ी के ‘सीज़न’ में वह गाँव जाकर कृषि-कार्य भी सम्पादित कर लेता है। दिल्ली में एक छोटे-से कमरे में वह चार लोग साथ-साथ रहते है। इसी तरह से अपना गुज़र-बसर चलाने वालों की संख्या केवल दिल्ली में लाख से ज़्यादा होगी। ग़ौरतलब है क़ि दिल्ली में ढाई लाख के आसपास सरकार द्वारा पंजीकृत तिपहिया वाहन हैं। इसका अन्दाजा इससे लगा सकते हैं कि जब रेल-बस सारे साधन बंद हो गए और लॉक डाउन (लोकबंदी) के बाद दो तीन दिन रहकर इनके साथियों को यह यक़ीन होने लगा कि अभी यह स्थिति बहुत लम्बी खिंचेगी तो क़रीब बीस हज़ार की संख्या में लोग अपनी तिपहिया ऑटो में अपने पाँच और साथियों को बिठाकर सड़क मार्ग से अपने गाँव की ओर रवाना हो गए। बिहार के भिन्न-भिन्न शहरों में उनके गंतव्य की दिल्ली से दूरी के आधार पर यात्रा में उनका खरचा आया - ढाई से तीन हज़ार रुपए! यह एक साधारण सी बानगी है - भारत के सामुदायिक जीवन की! सौभाग्य से, आज के दिन तक उनमें से किसी के भी संक्रमित होने की कोई ख़बर नहीं मिली है। हाँ, संक्रमण की एक-दो ख़बरें जो आयी हैं वे वहीं लोग हैं जिनका सम्बंध बाहर के मध्य-पूर्व और अरब देशों से या फिर एक समूह-विशेष में फैले संक्रमण से है।
सौभाग्य से, भारतीय समाज के जीवट ने इस मनोविज्ञान को अपने पर हावी नहीं होने दिया है। इस मेहनत कश जनता का सामना मौसम के हर रंगों से होता है। हड्डियों को कँपाने वाली शीत लहरी से लेकर चिलचिलाती धूप में गरम हवा के झोंकों में वह ख़ून-पसीना एक कर अपनी आजीविका का निर्वाह करती है। समस्त रोगों के ज़हरीले से ज़हरीले विषाणुओं को अपने बहते पसीने में घुला लेने की विलक्षण रोग प्रतिरोधक क्षमता उसने हासिल कर ली है। विषाणुओं से उसकी यह जंग उसके जन्म के कुछ ही दिनों बाद शुरू हो जाती है, जब उसकी माँ उसे खेतों की मेड़ पर लिटाकर पानी से भरे लबालब खेत में धान की रोपनी करने उतर जाती है। बाहर महानगरों में मज़ूरी करने वाली यह जमात किराए के छोटे-छोटे कमरों में झुंड में खाते-पीते, सोते-जागते सुख-दुःख में एक दूसरे के आँसू पोंछते साथ-साथ रहती है। सामुदायिक जीवन की एक झलक देखनी हो, तो आप इनके साथ इनकी झुग्गियों या चाल में एक-दो दिन बिता कर देख लें। और, संयोग से, इस बात के पुख़्ता वैज्ञानिक प्रमाण भी हैं कि अपनी इस सामुदायिक जीवन-प्रणाली की बदौलत इन्होंने न केवल व्यक्तिगत स्तर पर बल्कि सामुदायिक रोग प्रतिरोधक क्षमता भी क़ुदरत से हासिल कर ली है। वैज्ञानिक जगत में इस क्षमता को ‘’हर्ड- इम्यूनिटी’ (herd-immunity) कहते हैं। आँकड़े गवाह हैं कि महामारियों ने यूरोपीय देशों की तुलना में भारतीय उपमहाद्वीप में मौत के मामले में थोड़ा कम क़हर बरपाया है। यह परिणाम निस्सन्देह यहाँ के सामाजिक जीवन की ही देन ज़्यादा प्रतीत होते हैं।
अब एक मामले के उदाहरण (केस-स्टडी) के तौर पर बिहार के एक गाँव के मूल निवासी से अपनी बात-चीत का उदाहरण मैं आपके समक्ष प्रस्तुत करता हूँ। वह दिल्ली में तिपहिया वाहन चलाकर अपना गुज़र-बसर करता है और गाँव पर उसकी छोटी खेती-बाड़ी का कार्य परिवार के अन्य सदस्य देखते हैं। खेती-बाड़ी के ‘सीज़न’ में वह गाँव जाकर कृषि-कार्य भी सम्पादित कर लेता है। दिल्ली में एक छोटे-से कमरे में वह चार लोग साथ-साथ रहते है। इसी तरह से अपना गुज़र-बसर चलाने वालों की संख्या केवल दिल्ली में लाख से ज़्यादा होगी। ग़ौरतलब है क़ि दिल्ली में ढाई लाख के आसपास सरकार द्वारा पंजीकृत तिपहिया वाहन हैं। इसका अन्दाजा इससे लगा सकते हैं कि जब रेल-बस सारे साधन बंद हो गए और लॉक डाउन (लोकबंदी) के बाद दो तीन दिन रहकर इनके साथियों को यह यक़ीन होने लगा कि अभी यह स्थिति बहुत लम्बी खिंचेगी तो क़रीब बीस हज़ार की संख्या में लोग अपनी तिपहिया ऑटो में अपने पाँच और साथियों को बिठाकर सड़क मार्ग से अपने गाँव की ओर रवाना हो गए। बिहार के भिन्न-भिन्न शहरों में उनके गंतव्य की दिल्ली से दूरी के आधार पर यात्रा में उनका खरचा आया - ढाई से तीन हज़ार रुपए! यह एक साधारण सी बानगी है - भारत के सामुदायिक जीवन की! सौभाग्य से, आज के दिन तक उनमें से किसी के भी संक्रमित होने की कोई ख़बर नहीं मिली है। हाँ, संक्रमण की एक-दो ख़बरें जो आयी हैं वे वहीं लोग हैं जिनका सम्बंध बाहर के मध्य-पूर्व और अरब देशों से या फिर एक समूह-विशेष में फैले संक्रमण से है।
अपने गाँव को लौट गए वे सारे मज़दूर और किसान जहाँ एक ओर सुकून और चैन की साँस ले रहे हैं, वहीं दूसरी ओर अपने प्रवास में ही फँस गए मज़दूरों को अपने गाँव से वियोग की तड़प सता रही है। कारण भोजन, वस्त्र या आवास या अन्य कोई आर्थिक नहीं, बल्कि उनके जीवन का सामाजिक संस्कार है जो इस विकट घड़ी में अपनों से दूर रहने पर उन्हें बरबस कचोटता और टीसता है। इसका एक बड़ा सामाजिक प्रभाव अभी भविष्य के गर्भ में है कि कोरोना की काली घटा के छँटने के उपरांत कितने मज़दूरों की अपने काम पर पुनर्वापसी होगी और कितने फँसे मज़दूर उन्मुक्त पंछी की तरह अपने घोंसलों की ओर भागेंगे। इनके लौटने से एक सकारात्मक प्रभाव तो इनके अपने गाँव में हुआ ही है कि यह गेहूँ की कटनी का समय है और यह काम इनके कारण ही अब बख़ूबी सम्पादित हो जाएगा। लेकिन इसके ठीक उलट, वे प्रदेश जहाँ से ये निकल चुके हैं अपनी फ़सलो की कटाई के कठिन दिनों से गुज़र रहे होंगे। ……………… क्रमशः ………………………………..
सटीक और सामयिक प्रस्तुति
ReplyDeleteजी, बहुत आभार आपका!!!
Deleteआदरणीय विश्वमोहन जी,
ReplyDeleteआपके लेखों को बड़े धैर्य और चिंतन के साथ पढ़ने की आवश्यकता होती है। ये ऐसे हैं ही नहीं कि सरसरी तौर पर पढ़ लिया और टिप्पणी कर दी। बाहरी तौर पर ये नीरस लग सकते हैं परंतु 'ज्यों ज्यों बूडै स्याम रंग त्यों त्यों उज्ज्वल होय' की तरह लगातार क्रम से पढ़ने और ध्यान से पढ़ने पर इनके प्रवाह की गहराई में डूबते चले जाते हैं।
सचमुच हमारे गाँव देहात के लोगों की आस्था और उनकी प्रतिकार शक्ति प्रतिकूल परिस्थितियों में रहते रहते खूब मजबूत हो चुकी है।
आज आदरणीय ज्ञानदत्त पांडेय जी का ब्लॉग 'मानसिक हलचल' पढ़ रही थी,जिसमें उन्होंने यही लिखा है कि गाँव देहात की जिंदगी पर कोरोना का ऐसा कोई खास असर नहीं दिख रहा है, लोग अनजान नहीं है परंतु भयग्रस्त भी नहीं हैं।
मजदूर वर्ग को भी बस यही चिंता है कि शहरों में भूखे रहने से अच्छा गाँव पहुँच जाएँ कैसे भी। देखिए ना कितना यकीन है कि गाँव उन्हें सँभाल लेगा, उन्हें वहाँ भूखे नहीं मरना पड़ेगा।
यहाँ शहर में उनके साथ भेदभाव होता है। परसों की बात है,चालीस बिहारी दिहाड़ी मजदूर हमारे परिसर में रह रहे हैं,कुछ कमरे किराए लेकर साझा में रहते हैं। लॉकडाउन के चलते वे यहाँ फँस गए। राशन खत्म हो गया। बिल्डिंग के लोगों में से कुछ ने एक सप्ताह का राशन और सिलिंडर का इंतजाम किया। आगे की मदद के लिए एक रसूखदार से संपर्क किया। मदद करने से पहले समाजसेवक ने उनकी जाति पूछी और निम्न जाति के होने के कारण उनकी मदद से इंकार कर दिया। बाद में शायद लोगों के समझाने पर कुछ मदद की। इतना तो है कि यह महामारी लोगों के असली चेहरे उजागर करने में बहुत मदद करेगी।
अगले भाग की प्रतीक्षा है। सादर।
जो पेड़ गहरी जड़ें जमा चुका होता है, एक तो उसका गिरना मुश्किल होता है और उखड़ना नामुमकिन और यदि गिर भी जाये तो फिर से नई टहनियां, नई कोंपले और नई पत्तियां उग आती है। भारतीय ग्रामीण समाज का भी यही सत्य है। बहुत आभार और भविष्य के लिए भी आशाएं आपसे इस सूक्ष्मदर्शी समीक्षा के लिए।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (13-04-2020) को 'नभ डेरा कोजागर का' (चर्चा अंक 3670) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
*****
रवीन्द्र सिंह यादव
जी, बहुत आभार।
Deleteभारत की संस्कृति कितनी पुरानी है और कितनी गहरी हैं इसकी जड़ें, इसका भान आज इस विपदा काल में जगत को बखूबी हो रहा है, सामयिक सार्थक लेखन !
ReplyDeleteसौ फीसदी सहमत। तभी तो हम सनातन हैं। यह आत्म मुग्धता की बात नहीं, बल्कि वैज्ञानिक तथ्य है। बहुत आभार आपका।
Deleteसही दिशा में चलता दस्तावेज। अगली कड़ी की प्रतीक्षा।
ReplyDeleteजी, बहुत आभार!!!
Deleteबहुत शानदार सारगर्भित लेख ।
ReplyDeleteजी, बहुत आभार!!!
Deleteसही कहा विषम परिस्थितियों में रहते रहते शरीर में विषाणुओं से लड़ने की क्षमता भी बढ़ जाती है।
ReplyDeleteसटीक उदाहरण और वैज्ञानिक तथ्य रखते हुए बहुत ही शानदार विश्लेषणात्मक लेख लिखा है आपने।
अगले अंक की प्रतीक्षा में....
जी, अत्यंत आभार आपके आशीष का!
Deleteआदरणीय विश्वमोहन जी , लेख श्रृंखला का ये एक और चिंतनपरक निबन्ध आज समाज में व्याप्त भावनात्मकता का दर्पण है | इसका मनोविज्ञान पढने में मुझ जैसे अल्प ज्ञानी सक्षम नहीं पर फिर भी कहना चाहूँगीं -- जिस संस्कार को कथित शिक्षित वर्ग भुलाने के लिए तत्पर है उसे अपेक्षाकृत कम शिक्षित - माटी के लाल श्रमवीर ने संजो कर रखा है वह है जननी , जन्म भूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है | शहर में बहुत साल बिता देने पर भी उसे छोड़ते समय उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं होता , पर गाँव में बहुत कुछ है जिसे वह गाँव से पलायन के समय छोड़ आया था उसे लौटकर फिर मिल जाएगा | फिर कहूँगी आत्मीयता का ये रसायन ही शाश्वत सौहार्द भाव और अपनों के प्रति संवेदनाएं मुरझाने नहीं देता | अपनी माटी की गंध उसे हमेशा अपने भावापाश में बांधे रखती है | मानव की पलायनवादी ने नयी सभ्यताओं को जन्म दिया है तो संस्कृतियों को विस्तार दिया है | जो लोग अपनी जड़ों से कट जाते हैं उनकी संस्कृति भी अस्तित्व गंवा बैठती है | पर भारतवर्ष की संस्कृति में राम कृष्ण के संस्कार है | कठोर आपदाओं की परीक्षा से गुजरकर भी वे मजबूती से हालत का सामना करने में सक्षम हो जाते हैं और अपनों से लगाव उन्हें अपनों के सानिध्य में ले ही आता है | आखिर विपदा में ही एक व्यक्ति के धीरज की परीक्षा होती है -- गोस्वामी जी ने लिखा है --
ReplyDeleteधीरज , धर्म , मित्र अरु नारी
आपद काल परखिये चारी -
यही प्रार्थना कि आम आदमी का धीरज अचल रहे अडिग रहे \ वैसे आजकल सुना जा रहा है किसानों को ,मजदूरों की कमी के चलते सरकार ने, एक दूसरे की मदद से, फसलों की कटाई और निपटान का आग्रह किया है | यानि समुदायिक और सामूहिक भावना को नवजीवन मिलने वाला है |सच है कोरोना एक सामाजिक क्रांति बनकर समाजशास्त्र में नए अध्याय जोड़ रहा है | इस क्रम में मुझे पूरी आशा है आपके लेख उस समाजशास्त्रीय विमर्श का एक अहम् अंग होंगे | हो सकता है किसी दिन इन्हें समाज शास्त्र के सलेबस में पढ़ाया जाए | सार्थक लेख के लिए साधुवाद|🙏🙏
वाह! अपनी सधी समीक्षा में विषय को इतना सुंदर विस्तार देने के लिए हृदय तल से आभार। बस आपका आशीष यूँ ही मिलता रहे!
Deleteकृपया भावापाश नहीं भावपाश पढ़ें
ReplyDeleteजी।
Delete" आम तौर पर, भारतीय समाज आहार, आचार और विचार, इन तीनों के स्तर पर अत्यंत सरल, सहिष्णु एवं समावेशी है।" हमारा सयमित आचरण ही भारतीय सांस्कृतिक का मेरुदंड हैं।
ReplyDeleteहमारे मातृभूमि के अन्नदाता किसनों के मनोविज्ञान का बड़ी बारीकी से चित्रण किया हैं आपने , कोरोना और समाजशास्त्र पर आपकी ये शोधात्मक सृजन इतिहास की धरोहर बन रही हैं ,सादर नमन आपको
तभी तो, गांधी को सत्य के दर्शन इन किसानों की आँखों में ही दिखायी दिए! अत्यंत आभार आपके उत्साह वर्द्धक शब्दों का!
Deleteवाह!बहुत ही सुंदर समीक्षात्मक लेख 👌👌सही बात है विश्वमोहन जी ,जो लैग अपने गाँवों में पहुँच गए ,वो अपनी जमीन पाकर मन ही मन अपने भाग्य की सराहना कर रहे होंगे ..अपनी जगह ,अपनी मिट्टी ..।
ReplyDeleteअपनी मिट्टी का स्पर्श सदैव सकून देता है। बहुत आभार ।
Delete