(भाग- ३ से आगे)
जबतक बीमारी की सही प्रकृति, उसके स्त्रोत, सम्बंधित जीवाणु की संरचना, उसके उत्पन्न होने और उसके बढ़ाने में सहयोगी कारण और उसकी समाप्ति और रोकथाम के समुचित उपायों का सम्पूर्ण वैज्ञानिक ढंग से पता नहीं चलता तबतक महामारी के साथ-साथ युक्तियों की महामारी, अफ़वाहों की महामारी और ढेर सारे प्रयोगों और नुस्ख़ों की महामारी भी अपनी जड़ फैलाने लगती है। इन सबके पीछे वह भय और आतंक होता है जिसका जन्म मनुष्य की जिजीविषा के गर्भ से होता है। और, सही मायने में कहा जाय तो ऐसी तात्कालिक युक्तियों या नुस्ख़ों के पीछे जो ताक़तें क्रियाशील रहती हैं, वह भी उसी समाज की चिंतन-प्रणाली से निकलती हैं। भलें ही, वह निरा अटकलबाज़ी हो लेकिन उनका उद्देश्य असामाजिक नहीं होता। बल्कि, उसके मूल में उस बीमारी से छुटकारे की और लोगों को ठीक करने की भावना ही होती हैं। इसमें कुछ अवांछित तत्व भी अपनी दुकान चमकाने सामने आ जाते हैं। किंतु, ऐसे में समाज उनके पुख़्ता प्रमाण से परे होने के बावजूद उसका प्रबल विरोध दो कारणों से नहीं कर पाता है। पहला कारण तो यह है कि कोई अन्य वैज्ञानिक विकल्प समाज के पास नहीं आया होता है और दूसरा, कुछ हद तक उसी समाज में स्थापित पुरानी मान्यताओं के अनुसार उनके उपयोगी होने की धारणा का पहले से प्रचलित होना होता है।
समाज द्वारा उसको नहीं रोके जाने का एक तीसरा कारण यह भी हो सकता है कि उस नुस्ख़े का औषधीय स्तर पर सकारात्मक असर न भी हो तो कम-से-कम नकारात्मक स्तर तो नहीं ही होता है। उलटे, समाज की पहले से स्थापित मान्यताओं के आलोक में रोगी पर एक सकारात्मक मनोवैज्ञानिक असर ज़रूर हो जाता है। समाज का ‘कलेक्टिव कोंसेंस’ किसी भी व्यवस्था या युक्ति को तभी तक आत्मसात करता है जबतक वह सामाजिक व्यवस्था को बल प्रदान करे या उसमें कोई व्यवधान न डाले। इसलिए जैसे ही कोई मानक वैज्ञानिक दवाई का इजाद हो जाता है, समाज शीघ्र उन ‘नीम-हकीम’ नुस्ख़ों को तिलांजलि दे देता है। या कभी-कभी, ऐसे नुस्ख़े जब उलटे असर कर जाते हैं तो वे स्वयं नकार दिए जाते हैं। विविधताओं से पूर्ण समाज में जहाँ ढेर सारी चिकित्सा की प्रणाली यथा – यूनानी, आयुर्वेदिक, होमियोपैथी, एलोपैथी, प्राकृतिक, योग आदि की पद्धतियाँ प्रचलन में हैं, वहाँ जबतक किसी भी पद्धति ने पूरे प्रायोगिक और प्रामाणिक तौर पर किसी अचूक वैज्ञानिक औषधि का आविष्कार नहीं किया हो, तो अनिश्चय की स्थिति में समाज को युक्तियों की इस महामारी की चपेट से निकलना कठिन हो जाता है। परम्पराओं से समृद्ध देश भारत में तो ऐसी सम्भावनाएँ और प्रबल हो जाती है जहाँ कोई गो-मूत्र, तो कोई लहशन, तो कोई चाय-कौफ़ी, तो कोई दूध-हल्दी, तो कोई जड़ी-बूटी जैसे अगणित नुस्ख़ों को आज़माने बैठ जाता है। इस स्थिति का समर्थन या विरोध दोनों का कोई ठोस कारण नहीं रहता, क्योंकि अन्य कोई मान्य विकल्प नहीं! महामारी के इस मनोविज्ञान से सत्ता और शासन भी प्रवाहित होते हैं और वैज्ञानिक रीतियों से मान्य उचित विधि से उस बीमारी के लिए इजाद की गयी दवाओं के अभाव में इन स्थानीय नुस्ख़ों पर कोई प्रतिबंध लगाने में सामाजिक जनमत के समक्ष वह स्वयं को लाचार पाते हैं। कुल मिलाकर समाज द्वारा इन ‘इमपिरिकल युक्तियों’ पर चुप्पी साधने के मूल में इनके प्रायोजकों और प्रयोक्ताओं की भावना में किसी खोट का न होना और उनका उद्देश्य मरीज़ को ठीक करना होता है। भारत में तकरीबन हर बीमारी में ऐसे देशी नुस्ख़ों की बहुतायत है। ऐसी स्थितियों में समाज बौद्धिक स्तर पर अत्यंत प्रयोगधर्मी अवस्था में होता है और ‘संशयवादियों’ के लिए तो अपने वजूद का अहसास दिलाने का यह अत्यंत सुनहला अवसर होता है। हालाँकि, उनकी भूमिका का उद्देश्य भी अत्यंत सकारात्मक ही होता है।
इस स्थिति में समाज में एक सकारात्मक पक्ष बड़ी तेज़ी से उभरता है - बीमारी से लड़ने के लिए हर स्तर पर अनुसंधान, शोध, अन्वेषण और नवाचार तथा नये प्रयोगों की दिशा में तेज़ी। समाज में वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, रसायन-शास्त्री, और तकनीशियन जैसे शिक्षित विशेषज्ञ वर्ग अपने क्षेत्र में नेतृत्व की कमान सम्भाल लेते हैं और आम तौर पर रोड़े अटकाने वाला लालफ़ीताशाह वर्ग सहयोगी की भूमिका में आ जाता है। समाज के दबाव के आगे रोड़े अटकाने वाले जो नौकरशाही के नुस्ख़े होते हैं, बेअसर हो जाते हैं। बीमारी से लड़ने के लिये तमाम उपकरणों के उत्पादन में तेज़ी आ जाती है। अधिक से अधिक मरीज़ों को देखने की सुविधा का निर्माण युद्ध-स्तर पर हो जाता है। स्वास्थ्य की आधारभूत संरचनाओं को सुदृढ़ करने में सरकारें जुट जाती है और उसके लिए आपात-व्यवस्था के तहत धन जुटाया जाता है। सरकारें अपनी योजनाओं और नीतियों का पुनरावलोकन कर ढेर सारे तात्कालिक हित में परिवर्तन लाती है। राजनीतिक शक्ति का नियंत्रण मज़बूत हो जाता है। केंद्रीय सत्ता मज़बूत हो जाती है। आर्थिक नीतियों पर सामाजिक अपरिहार्यताओं का प्रभुत्व हो जाता है। कल्याणकारी योजनाओं में तेज़ी आ जाती है। नियमों में ढील दे दी जाती है और इसी बहाने स्वास्थ्य क्षेत्र में आशातीत उपलब्धियाँ जुटा ली जाती हैं।
इस तरह की गतिविधियाँ बड़े पैमाने पर इस बार देखने को मिल रही हैं। बहुत अधिक मात्रा में नवाचार विधि से अत्याधुनिक और कम दाम वाले वेंटिलेटर का डिज़ाइन आइआइटी रूड़की और एम्स ने मिलकर न केवल तैयार कर लिया बल्कि सरकार ने उनका शीघ्र उत्पादन भी शुरू करा दिया। इसी तरह मास्क, डॉक्टर और अन्य स्वस्थ्य-कर्मियों के लिए आत्म-प्रतिरक्षा वस्त्र (PPE), सेनिटाइज़ेशन लिक्विड आदि का उत्पादन भी तेज़ी से होने लगा। गली, मुहल्लों और घरों का सेनिटाइज़ेशन किया जाने लगा। डीआरडीओ ने सस्ते मास्क और आइआइटी बीएचयू वाराणसी ने सस्ते फ़्यूमिगेशन चैम्बर के डिज़ाइन तैयार कर लिए। इस तरह के ढेर सारे उपकरण युद्ध स्तर पर अनेक संस्थानों ने तैयार कर लिए जो इस महामारी के आवरण में लिपटे वरदान-से साबित हुए। इस क्षेत्र में बरसों से नौकरशाही के जाल में उलझी योजनाओं को द्रुत गति से सुलझाकर उन्हें मंज़ूरी दे दी गयी। लोगों को हाथ की, साबुन से, सफ़ाई के लिए बाध्य किया जाने लगा। अस्पतालों को चाक-चौबंद कर दिया गया। रेल के डिब्बों तक में आइसीयू बना दिए गए। बड़े-बड़े मैदानों को अस्थायी अस्पतालों में बदल दिया गया। बड़े-बड़े व्यापारिक घरानों, स्वयंसेवी संगठनों, औद्योगिक संस्थानों और सरकारी विभागों ने अपने पारम्परिक कार्य को छोड़कर अपने सारे संसाधन कोरोना से लड़ने में झोंक दिए। नागरिकों ने अत्यंत समर्पण भाव से इस परिवर्तन को अंगीकार कर लिया।
अतः समाजशास्त्र की यह प्रवृति स्पष्ट हो गयी कि चाहे कितना भी खंडित और अव्यवस्थित समाज क्यों न हो, जब किसी बाहरी विपत्ति या आक्रमण से लड़ने में उसके अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाए तो अंदर की सारी विसंगतियाँ भूलकर समाज की ‘साझी-चेतना’ जागृत होकर पूरे समाज को एक सूत्र में बाँध देती है। समाज के सभी वर्ग अपने भेद-भाव भुलाकर और आपसी गिले-शिकवे विस्मृत कर पारस्परिक सहयोग की भावना से एक जुट हो जाते हैं। एक-सूत्रता के इस यज्ञ में समाज के जो घटक अपनी नकारात्मक प्रवृति को सामने लाते हैं, उनका भंडा फोड़ हो जाता है और समाजिकता की दौड़ में वे न केवल पीछे छूट जाते हैं, बल्कि वे बीमार हो जाते हैं और उन्हें शेष समाज की रौ में बहने में लम्बा वक़्त लग जाता है।
अतः समाजशास्त्र की यह प्रवृति स्पष्ट हो गयी कि चाहे कितना भी खंडित और अव्यवस्थित समाज क्यों न हो, जब किसी बाहरी विपत्ति या आक्रमण से लड़ने में उसके अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाए तो अंदर की सारी विसंगतियाँ भूलकर समाज की ‘साझी-चेतना’ जागृत होकर पूरे समाज को एक सूत्र में बाँध देती है। समाज के सभी वर्ग अपने भेद-भाव भुलाकर और आपसी गिले-शिकवे विस्मृत कर पारस्परिक सहयोग की भावना से एक जुट हो जाते हैं। एक-सूत्रता के इस यज्ञ में समाज के जो घटक अपनी नकारात्मक प्रवृति को सामने लाते हैं, उनका भंडा फोड़ हो जाता है और समाजिकता की दौड़ में वे न केवल पीछे छूट जाते हैं, बल्कि वे बीमार हो जाते हैं और उन्हें शेष समाज की रौ में बहने में लम्बा वक़्त लग जाता है।
कभी-कभी उनकी नकारात्मकता प्रकार्यात्मक( functional) भी साबित हो जाती है। 'प्रकार्यात्मक' का मतलब उन सामाजिक कार्यों से है जो समाज की स्थापना के उद्देश्य और आकांक्षाओं की पूर्ति कर समाज की संरचना को मज़बूती और व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करते हैं। समाज की संरचना और व्यवस्था को कमज़ोर करने वाले तत्व अप्रकार्यात्मक (dys-functional) माने जाते हैं। किंतु कभी-कभी घोर अनैतिक अप्रकार्यात्मक घटना घटने या ऐसे पाप कर्म करने से समाज के ‘कलेक्टिव-कोंसेंस’ को इतना बड़ा झटका लगता है कि सम्पूर्ण सामाजिक संरचना अंदर से हिल जाती है और उस घटित कार्य के प्रति घृणा और नफ़रत की इतनी उग्र प्रतिक्रिया समाज में होती है कि समाज की ‘साझी-चेतना’ के प्रबल कोप के आगे भविष्य में ऐसे असामाजिक तत्वों को ऐसे घृणित कार्य करने की हिम्मत नहीं होती और उनके समर्थन में आने वाले ‘संशयवादी’ तत्व भी शर्म से सिर नहीं उठा पाते। भविष्य के लिए ऐसे कुकर्म ‘असामाजिक’ घोषित और रेखांकित हो जाते हैं और इसकी पुनरावृति नहीं होती। इससे सामाजिक संरचना मज़बूत होती है और समाज की व्यवस्था को स्थायित्व और बल मिलता है। इसीलिए समाजशास्त्रियों ने ऐसे असामाजिक तत्वों को भी यदा-कदा ‘आवश्यक शैतान’ के रूप में ‘फ़ंक्शनल’ तत्व ही माना है।
एक अन्य महामारी होती है ‘संदेह के मनोविज्ञान’ की बीमारी। हर व्यक्ति दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखता है कि कहीं वह संक्रमित तो नहीं और उसमें कहीं फैला न दे! यदि किसी वर्ग विशेष में इस संक्रमण के होने की भावना प्रबल हो जाती है तो वह वर्ग समाज में अछूत-सा हो जाता है और सभी उससे कन्नी काटने लगते हैं। यहाँ तक कि एक सुसंस्कृत समाज का कोई व्यक्ति संक्रमित होता है तो वह स्वयं अपने को दूर रखता है। ऐसे ढेर सारे चिकित्सकों के दृष्टांत मिले हैं जो संक्रमित मरीज़ों के इलाज के समय एक ख़ास अवधि तक स्वयं को अपने परिवार के सदस्यों से भी दूर रखते हैं। यह एक शिक्षित समाज का चिन्ह है। अभी हाल में अपने गाँव लौटे लाखों की संख्या में बिहार के प्रवासी मज़दूर अपने गाँव की सीमा में प्रवेश से पूर्व पहले अपना मेडिकल जाँच करा कर संतोष जनक पाए जाने पर ही गाँव में प्रवेश कर पाए। यह साबित करता है कि समाज की ‘साझी-चेतना’ एक अत्यंत प्रबल तत्व है जो समाज की व्यवस्था को संचालित करता है।....................................................................क्रमश:
Use of digital means, may be for payments or for communication like demand for zoom have also indicated that Indian society even in remote area is prepared for adopting technology.
ReplyDeleteThe society is also generous to help the poor.
Lockdown heroes in the society like doctors, nurses and sanitary workers are performing their work honestly despite of risk to their lives.
Hopefully the crisis will come to end sooner. The society then will work harder to recover the economic regression.
Certainly, the changes in society are well discrnible and as the time grows society is also growing to grapple with the situation. Thanks a lot for your responding.
Deleteसटीक और सार्थक विशलेषण।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में रविवार 12 अप्रैल 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जी, आभार।
Deleteआदरणीय विश्वमोहन जी . समाज में अप्रत्याशित महामारी के मनोविज्ञान पर आपकी गहन विवेचना अत्यंत सराहनीय है और पाठकों को एक महत्वपूर्ण मनन को प्रेरित करती है | महामारी के साथ आये कलुषित अमानवीयता भरे कुकृत्यों की जितनी भर्त्सना की जाए कम है |ये कुप्रयास महारोग की विभीषिका झेलते जनमानस के तपते अस्तित्व पर अंगार बरसाने जैसा है | औषधीय नुस्खे सुझाने वाले नीम हकीम इतने घातक नहीं होते जितने ये अधम प्रवृतियों वाले नराधम होते हैं और वैसे भी शिक्षित समाज में इतना विवेक आ ही चुका है कि वह अच्छे बूरे में भेद कर सके | चिकित्सीय उपचार के साथ समाज की सकारात्मक सोच भी बहुत बड़ा असर करती है महामारी के निदान में | एक शिक्षित व्यक्ति में ये विवेक जरुर होता है कि उसके किसी गलत कदम से समाज कहाँ प्रभावित होता है | जैसा कि कोरोना में बुद्धिमान लोग जानते हैं सामाजिक दूरी महामारी के उपचार का एक ही एक अहम् अंग है जबकि कुतर्की लोग इसे धर्म -सम्प्रदाय आदि से जोड़ने लगते हैं | | सही लोग भली भांति जानते हैं इससे उसके परिवार को लाभ है ही , साथ में ये समाज और देश के भी हित में है | इन अबके साथ अपने गाँव - गली लौटकर अपनी जड़ों में समाने को आतुर ये कम शिक्षित प्रवासी श्रमिकों के रूप में सामने आई सांझी चेतना अपठित और अबूझ है | शायद आत्मीयता के इस अद्भुत रसायन का कोई विकल्प संसार में नहीं और कोई प्रयोगशाला इसका विश्लेषण कर पाने में सक्षम हो ऐसा नहीं लगता | ईश्वर से प्रार्थना है महामारी कोरोना का ये भीषण संकट काल मानवता के उदय का नवप्रभात हो | अत्यंत उच्चस्तरीय विवेचनायुक्त , चिंतनपरक आलेख श्रृंखला के लिए साधुवाद |सादर -
ReplyDeleteवाह! आपकी विद्वतपूर्ण विवेचना ने लेख को और विस्फारित कर दिया। बहुत आभार और सादर नमन।
Deleteबहुत सुंदर और सटीक लेख लिखा आदरणीय।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteविश्वमोहन जी दोबारा चिट्ठा जगत में आने के बाद पहली बार आपके ब्लॉग पर आई हूं, कोरोना पर इतना गहराई से लिखा आपने सबसे पहले साधुवाद, कोरोना का दंश झेलते हुए मैंने अपनों को बहुत करीब से देखा है, पलायन करते अपने ही श्रमिकों को महसूस किया है, अस्पताल में भूख से परेशान नर्स और वार्ड ब्वाय तक के दर्द को बांटने की कोशिश की है। फिर भी बहुत कम कर पाई हूं। जितना कर लो कम ही लगता है।
ReplyDeleteआपको पढ़ कर अच्छा लगा। आपने क्रमशः लगाया है आशा है कुछ और मेरी रिपोर्टिंग के लिए उपयोगी हो।
जी, बहुत आभार। यह मेरे लेखों की श्रृंखला का चौथा भाग है। इससे पहले तीन और आ चुके हैं। आज शाम तक पांचवा भाग भी आ जायेगा। आपकी बातें बहुत सुकून देने वाली लगी। आशा है, समस्त श्रृंखला को पढ़कर आप अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया देंगी। सादर प्रणाम
Deleteआपके सार्थक लेख को सादर प्रणाम।
ReplyDeleteरेणु दी के विस्तृत विवेचना के बाद मेरे कहने को कुछ शैष नहीं है। रेणु दी ने सचमुच बहुत अच्छी समीक्षा लिखी है।
किसी भी लेखक की लेखनी ऐसी सारगर्भित विद्वत्तापूर्ण समीक्षा से गर्वित होती है।
बहुत आभार आपका।
अगले भाग की प्रतीक्षा।
सादर।
जी, बहुत आभार। मैं पहले ही कह चुका हूँ कि गंभीर लेखों के पाठक गिने-चुने हैं और समीक्षक तो नहीं के बराबर! ऐसे में मेरे पाठक और समीक्षक मेरी लेखनी की संजीवनी हैं।
Deleteसही कहा
ReplyDeleteजी, बहुत आभार आपका।
Deleteइस लेख में जो दो बातें मेरे मन पर गहन प्रभाव डालती हैं
ReplyDelete1) चाहे कितना भी खंडित और अव्यवस्थित समाज क्यों न हो, जब किसी बाहरी विपत्ति या आक्रमण से लड़ने में उसके अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाए तो अंदर की सारी विसंगतियाँ भूलकर समाज की ‘साझी-चेतना’ जागृत होकर पूरे समाज को एक सूत्र में बाँध देती है
2) समाज की ‘साझी-चेतना’ के प्रबल कोप के आगे भविष्य में ऐसे असामाजिक तत्वों को ऐसे घृणित कार्य करने की हिम्मत नहीं होती और उनके समर्थन में आने वाले ‘संशयवादी’ तत्व भी शर्म से सिर नहीं उठा पाते। भविष्य के लिए ऐसे कुकर्म ‘असामाजिक’ घोषित और रेखांकित हो जाते हैं और इसकी पुनरावृति नहीं होती।
अर्थात कोरोना के भी सकारात्मक प्रभाव तो होंगे।
मुझे लगता है कि सबसे बड़ा सकारात्मक प्रभाव तो यही होगा कि लोग स्वअनुशासन और आत्मनियंत्रण सीख रहे हैं। दूसरों के बारे में भी सोच रहे हैं।
आपकी विद्वता और आपकी लेखनी के सामर्थ्य पर कुछ कहना मेरे लिए संभव नहीं। साधुवाद ही कह सकती हूँ।
पूर्ण सहमत। कोरोना के बाद का समाजशास्त्र निश्चय ही अत्यंत रुचि का विषय होगा। अत्यंत आभार आपकी सूक्ष्म दृष्टि का। आपके द्वारा बढ़ाया गया मनोबल मेरी लेखनी को शक्ति देता है।
Delete" चाहे कितना भी खंडित और अव्यवस्थित समाज क्यों न हो, जब किसी बाहरी विपत्ति या आक्रमण से लड़ने में उसके अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाए तो अंदर की सारी विसंगतियाँ भूलकर समाज की ‘साझी-चेतना’ जागृत होकर पूरे समाज को एक सूत्र में बाँध देती है।"यकीनन यही ‘साझी-चेतना’ ही हमें जीत दिलाने में सक्षम होती हैं ,महामारी के मनोविज्ञान का बेहतरीन विश्लेषण ,सादर नमन आपको
ReplyDeleteसम्भवतः साझी चेतना के इसी स्वरूप को समय-समय पर जागृत करने के लिए प्रकृति विभीषिकाओं को परोसकर संतुलन लाने की चेष्टा करती है। भारतीय आध्यात्म में अवतारवाद की व्याख्या भी इसी परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत की जाती है। सादर आभार ।
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