(भाग - २ से आगे)
मेरा यह मानना है कि इस प्रकृति का प्रत्येक घटक अपने व्यवहार में अपने उस सम्पूर्ण के व्यवहार से अलग नहीं होता जिसका वह अंश होता है। यह एक ऐसा सार्वभौमिक तथ्य है जो भौतिक से लेकर परा-भौतिक, सभी क्षेत्रों में समान रूप से लागू होता है - “‘आत्मा- परमात्मा’, ‘परमाणु – अणु - पदार्थ’, ‘कोशिका – उत्तक – अंग – शरीर’।“ कोशिका से उत्तक, उत्तक से अंग और अंगों से शरीर का निर्माण होता है। अतः शरीर की इकाई कोशिका होती है और हम किसी भी शरीर के वांछित पक्षों की जानकारी उसकी कोशिका के अध्ययन से कर सकते हैं। आप शरीर को उसकी कोशिका से अलग कर के नहीं देख सकते। ठीक वैसे ही शरीर के व्यवहार को उसके अंगों से पृथक कर के नहीं देख सकते। उसी तरह समाज का भी निर्माण उसकी मूलभूत इकाई व्यक्ति से होता है और दोनों का आपसी व्यवहार भी शरीर और उसके अंग की तरह एक सजीव विधा में ही होता है। मनुष्य स्वभाव से सामाजिक प्राणी है और समाज भी सजीव व्यक्तियों से बना एक सजीव प्राणी-समूह ही है जिसका एक सामूहिक व्यक्तित्व भी होता है जो उन समस्त व्यक्तित्वों का समाहार है जो इसके घटक हैं।
समाज में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति की एक व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी होती है जो वह समाज की संरचना को बनाए रखने के लिए अदा करता है। इसके पीछे सामाजिक व्यवस्था की चिरंजीविता की चेतना है जिसमें व्यक्ति के भी अस्तित्व के बने रहने के बीज पनपते हैं। यह एक दूसरे पर निर्भर रहने की भावना समाज के प्रत्येक व्यक्ति में अन्य व्यक्तियों से जुड़ने का स्वभाव निर्मित करती है और यहीं से एक-दूसरे के साथ रहने की साझी भावना का प्रादुर्भाव होता है। समाज की व्यवस्था के क़ायम रहने और उसके कुशल संचालन का यही मूल है। इसी साझी भावना को हम ‘कलेक्टिव कोंसेंस’ या ‘सामूहिक चेतना’ कहते हैं। यह समाज के अंदर साझी मान्यताओं और नैतिक वृत्तियों के साथ व्यक्ति की एकरूपता और अनुकूलता बनाये रखने और उन साझे मूल्यों का व्यक्ति में उनके अनुपालन की स्वाभाविक बाध्यता स्थापित करने का मूल कारक है। समाज में किसी भी अनुकूल या प्रतिकूल स्थिति आने पर समाज की जो प्रतिक्रिया उसके सदस्य व्यक्तियों द्वारा होती है, उस प्रतिक्रिया का संचालन उसी सामूहिक चेतना द्वारा होता है। किसी बाहरी आक्रमण, विपत्ति, महामारी या अप्रत्याशित प्राकृतिक विभीषिका में समाज का यहीं ‘कलेक्टिव कोंसेंस’ होता है जो उसका सामना करने की ‘साझी चेतना’ उत्पन्न करता है या फिर समाधान का साझा प्रयास प्रस्तुत करता है। किसी एक युक्ति पर समूचा समाज एक साथ क़दम से क़दम मिलाकर चल पड़ता है। यहीं समाज का मनोविज्ञान है। एक साथ खड़े होकर अपनी रक्षा के लिए शासन से गुहार लगाना या ईश्वर से प्रार्थना करना या फिर अपने बचाव में उठाए गए किसी भी क़दम के समर्थन में पूरी तरह समर्पित हो जाना - इसी ‘कलेक्टिव कोंसेंस’ या ‘साझी चेतना’ की उपज है। ये ‘कलेक्टिव कोंसेंस’ ही समय, स्थान और परिस्थिति के मुताबिक़ व्यक्ति के आचरण किए जाने वाले उन 'तत्वों' को आवश्यक और वांछित घोषित करते हैं जिनका निर्वाह किया जाना समाज में व्यवस्था क़ायम रखने के लिए अपरिहार्य है। ये 'तत्व' उस समाज के 'आदर्श' या 'नॉर्म' के रूप में स्थापित होते हैं। इन ‘सामाजिक आदर्शों’ या ‘सोशल नॉर्म’ के द्वारा ही समाज व्यक्ति को एक सामाजिक प्राणी होने हेतु वांछित व्यवहार करने की न केवल दिशा का निर्देश करता है बल्कि, उन आदर्शों के आलोक में वह व्यक्ति की विचार प्रणाली को भी विकसित करता है। लम्बे समय तक इन आदर्शों की राह पर चलता समाज जिन मूल्यों को सीखता और सहेजता है, वे समस्त मूल्य उसके विचार-दर्शन की अमूल्य धरोहर बन उस समाज के आचरण के अमिट मौलिक तत्व बन जाते हैं जिसे उस समाज की ‘संस्कृति’ कहते हैं। यह समाज के व्यक्तित्व का आंतरिक आध्यात्म है और मौलिक संस्कार है। प्रतिकूल परिस्थिति में समाज और उसके व्यक्तियों के आचरण में उसकी संस्कृति की यह छाप स्पष्ट दिखायी देती है। एक ओर अपनी जान पर खेलकर दूसरे को बचा लेने की संस्कृति वाले समाज का व्यक्ति उदाहरण स्थापित कर चला जाता है, तो दूसरी ओर ऐसे दूषित संस्कृति वाले समाज की उपज भी देखने को मिलती हैं जो अपनी जान बचाने वाले की ही जान लेने पर उतारू हो जाती है।
सामाजिक आदर्शों की टूटन सामाजिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर देती है, क्योंकि तब संस्कृति नष्ट हो जाती है। 'सभ्यता' और 'संस्कृति' में मूल अंतर यहीं है कि सभ्यता हमारे आचार-व्यवहार की 'बाह्य-अभिव्यक्ति' है जबकि संस्कृति वैचारिक स्तर पर अनंत काल से सीखकर हमारे अंदर में संजोये मानवीय आदर्श और भावनात्मक मूल्यों की अनमोल थाती ! संस्कृति 'आंतरिक-अनुभूति' है और सभ्यता 'बाह्य-अभिव्यक्ति' ! संस्कृति हमारा ‘एसेन्स’ है और सभ्यता उसका ‘अपियरेंस’! इन आदर्शों के टूटने का अर्थ है कि 'कलेक्टिव कोंसेंस' का कमज़ोर हो जाना। ऐसा तब होता है जब समाज में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाय कि व्यक्ति उस जमात द्वारा निर्मित नियमों, उसूलों और आदर्शों की राह पर चलने में अपने को असुरक्षित महसूस करने लगे। उसे अपने जीवन रक्षक से विश्वास उठने लगे। पहले से बने तमाम आदर्श खोखले होकर ढहने लगे और व्यक्ति में अपने समाज के विरुद्ध विरसता, घुटन, शर्म और अलगाव का भाव उत्पन्न होने लगे। ऐसी स्थिति में निराशा, उद्देश्यहीनता और जीवन से पलायन के भाव का उदय होने लगता है और व्यक्ति आपराधिक कुकृत्यों से आत्महत्या करने तक उतारू हो जाता है।
प्रत्येक समाज अपनी संस्कृति और सभ्यता के आलोक में अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग ढंग से आचरण करता है। आज के युग में जब सूचना क्रांति ने इस भू मंडल को एक भू-ग्राम में तब्दील कर दिया है तो सभ्यता का रंग भी स्थानीय से बदलकर अब ‘वैश्विक’ हो गया है। अतः अभिव्यक्ति के बाहरी स्वरूप में समरूपता आती जा रही है। फिर भी कौन समाज कितना सहिष्णु, कितना संवेदनशील, पारस्परिक सहानुभूति से कितना पूर्ण, मानवीय भावनाओं से कितना परिचालित और करुणा-भाव से दूसरों के प्रति कितनी शुचिता का आचरण करता है – इसका निर्धारण उसकी संस्कृति के तत्व ही करते हैं। यह एक अत्यंत सूक्ष्म विषय है और महामारी या आपदा-काल में ही समाज अपने इन तमाम तत्वों के वजूद की अग्नि-परीक्षा से गुज़रता है।
महामारी अपने साथ संक्रमण का रोग लेकर आती है – अर्थात छूत का रोग। अर्थात एक रोगी के छूने से दूसरे को भी रोग हो जाय। सभ्यता को छूत की रोग बड़ी आसानी से लग जाती है, किंतु सामान्य तौर पर संस्कृति इससे अछूती ही रहती है। दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि न केवल यह महामारी अप्रत्याशित रूप से आती है, प्रत्युत इसकी प्रकृति भी अज्ञात होती है। यह अपने जैविक स्वरूप में अभूतपूर्व होती है। अपने प्रारम्भिक रूप में इसका आक्रमण अचानक होता है और चिकित्सीय-नुस्ख़े की बात तो दूर, अपने कारणों की भी कोई थाह नहीं देती। ‘एक बीमारी ने दस्तक दे दी है’ इसकी आहट मिलते-मिलते कई जानें काल का ग्रास बन चुकी होती हैं और तबतक महामारी स्वयं में आम जन के दिलो-दिमाग़ में एक ‘महामारी-मनोविज्ञान ‘ के रूप में घर कर चुकी होती है।
इस महामारी-मनोविज्ञान के सामाजिक व्यवस्था पर फ़ौरी और दूरगामी दोनों तरह के प्रभाव होते हैं। अनिश्चितता, भय, आतंक, और अफ़वाहों का माहौल गरमाने लगता है। एक तीव्र भावनात्मक ज्वार का उदय होता है। समाज की 'साझी चेतना' यानी ‘कलेक्टिव कोंसेंस’ संशय और किमकर्तव्यविमुढ़ता की स्थिति में आ जाती है। अवसाद तथा आपाधापी में भय और आतंक का माहौल इतना गहराने लगता है कि पीड़ित व्यक्ति अपने को समाज में अत्यंत हीन समझने लगता है और कभी-कभी स्थिति तो यहाँ तक आ जाती है कि बीमारी का लगना एक सामाजिक लांछन या कलंक का पर्याय बन जाता है।
बीमारी अप्रत्याशित! प्राण घातक! संशय की स्थिति! कोई दवाई नहीं! इसके स्त्रोत का कोई अता-पता नहीं! तरह-तरह की भ्रांतियाँ! अफ़वाह! न रुकने वाले संक्रमण और मौत का सिलसिला! ऊपर से रोटी सेंकनेवाले असामाजिक तत्व! कुल मिलाकर एक ऐसी स्थिति बनने लगती है कि महामारी का यह मनोविज्ञान स्वयं धीरे-धीरे एक ‘अभिशप्त-मनोविज्ञान’ की महामारी बन जाता है और यह 'अभिशप्त-मनोविज्ञान' भी स्वयं एक महामारी की तरह ही फैलने लगता है, जो महामारी से कम घातक नहीं। अक्सर महामारी के चले जाने के बाद भी दीर्घकाल तक यह मनोविज्ञान समाज में घर बनाए रहता है। …………………………………… क्रमश:................
जारी रखें। जिस सोच से परे चला गया था मनुष्य उसे वापस लौट कर आत्मचिंतन करना ही पड़ेगा । बस एक रोटी सिंकने वालों की भट्टी का कोयला पता नहीं किस विज्ञान से बुझेगा?
ReplyDeleteजी, बहुत आभार। आपके ये शब्द मेरे लिए महज़ टिप्पणी नहीं, उससे बढ़कर बहुत कुछ है।
Delete
ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(११-०४-२०२०) को 'दायित्व' (चर्चा अंक-३६६८) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
जी, बहुत आभार।
Deleteबेहद सूक्ष्म विश्लेषण।
ReplyDeleteनिश्चत है कि मनुष्य अपनी जिम्मेदारियों के प्रति सजग हो जाये तो जीवन की जटिल.समस्याओं का हल सुलभ हो हो जाये परंतु हम स्वार्थी मनुष्य अपनी सुविधा के अनुसार ही सारे नियम निर्धारित करते हैं।
पदार्थ,जीव और जीवन के गूढ़ रहस्य समझ पाना आम मनुष्य के लिए संभव नहीं।
सृष्टि की इन्हीं विषमताओं ने ब्रह्मांड में जीवन की रोचकता बना रखी है शायद।
बहुत सुंंदर,सुगढ़ लेखन।
सादर।
जी, बहुत आभार!
Deleteगहन चिंतन से उपजी रचना, जीवन के कुछ रहस्यों से पर्दा उठाती हुई
ReplyDeleteजी, बहुत आभार!
Deleteआदरणीय विश्वमोहन जी , समाज के बारे में गूढ़ तथ्यों को शब्दांकित करता लेख चिंतन का महत्वपूर्ण पडाव है, जहाँ शनैः-शनैःसामाजिकता की तस्वीर स्पष्ट दिखाई पड़ रही है | जैसा कि आपके पिछले लेख में लिखा जा चुका है सोशल मीडिया ने आधुनिक मानव के मनोविज्ञान को पूर्णतः बदल कर रख दिया है | उसे अभिव्यक्ति के लिए किसी दूसरे साधन की राह नहीं देखनी पड़ती | पर इस स्वछंद मंच ने उसे थोड़ा सा या कहीं -कहीं बहुत ज्यादा उदंड भी बना दिया है | यहीं उसकी सामाजिकता के शाश्वत संस्कार भी खंडित हो रहे हैं | भूमंडल से भूग्राम में तब्दील होती कथित वैश्विक सभ्यता का रंग भी मूल आभा खोकर एक नए ही शायद कहें बदरंग रूप में सामने आ रहा है जहाँ चकाचौध का असीम साम्राज्य और कभी ना समाप्त होने वाली लालसाओं के बीहड़ जंगल हैं | इसके साथ मानव सहिष्णुता, संवेदनशील और पारस्परिक सहानुभूति जैसे मूल मानवीय गुणों से वंचित हो रहा है | पर आपने सही कहा महामारी अथवा महारोग जो हर सदी में यदा -कदा आता ही रहता है वह भी बिना किसी पूर्व दस्तक के अचानक अपनी भयावहता के साथ सामने आ खड़ा होता है तो समाज के भीतरी संस्कारों की परीक्षा भी होती है | इसका मनोविज्ञान हर दौर और हर इंसान के लिए अलग अलग होता है | किसी को अपनी जान बचाने की फ़िक्र होती है तो कोई समस्त मानवता की पीड़ा को सहेजने के लिए तत्पर रहता है , जैसा कि कोरोना योद्धाओं के रूप में चिकित्सक , सफाईकर्मियों और सेना , पुलिस आदि का नया सहयोगात्मक रवैया सबके लिए बहुत बड़ी आशा बनकर उभरा है | इस प्रकार के नये रोगों को कोई कलंक अथवा लांछन समझना नितांत अधम सोच का नतीजा है | कोई भी रोग किसी को भी हो सकता है | धर्म , जाति , क्षेत्र . राष्ट्र की यहाँ कोई सीमा नहीं | बेहतरीन चिंतनपरक लेख के लिए हार्दिक साधुवाद | आपके लेख पाठकों की चिंतनशक्ति को बढाने में सक्षम हैं | सादर
ReplyDeleteआपकी सारगर्भित दृष्टि और अनमोल आशीष का आभार!
Deleteआदरणीय विश्वमोहन जी, समाज के प्रबुद्ध वर्ग को सच में आज यह डर सता रहा है कि इस महामारी के बाद के परिणाम ज्यादा खतरनाक होंगे। आर्थिक, सामाजिक और मानसिक दुष्परिणाम व्यापक होंगे, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता।
ReplyDelete'महामारी या आपदा-काल में ही समाज अपने इन तमाम तत्वों के वजूद की अग्नि-परीक्षा से गुज़रता है।'
बिल्कुल सही लिखा है आपने। मुझे लगता है कि भारतीय समाज योग, अध्यात्म, आयुर्वेद, मानवता, भूतदया, परोपकार, आदि तत्त्वों के कवच के कारण इस शत्रु से उतना नुकसान तो नहीं झेलेगा जितना अन्य देशों ने झेला।
फिर भी अग्निपरीक्षा का समय तो है ही। जितना मजबूती से कवच को पहने रहेंगे, उतना ही संरक्षित रहेंगे। स्व अनुशासन की कमी और गरीबी भारतीयों की एक बड़ी कमजोरी सिद्ध होगी इस लड़ाई में ।
आपकी इस टिप्पणी ने चिंतन के कुछ और नए द्वार खोल दिए हैं। बहुत आभार।
Deleteकिसी भी परिस्थिति में चाहे वो अच्छी हो या बुरी " सामूहिक चेतना " का गहरा असर समाज पर होता हैं इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति की व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी बनती हैं कि वो अपनी सोच को सही दिशा प्रदान करें। क्योँकि मानव मस्तिष्क पर भीड़तंत्र का भी गहरा असर होता। मानव मन और समाज की मानसिकता का बड़ी गहराई से चिंतन कर रहे हैं आप ,जिस पर सबको एक बार मंथन करने की जरूरत हैं ,सादर नमन
ReplyDeleteबहुत वाजिब बिंदु की ओर आपने इंगित किया है -'मानव मस्तिष्क पर भीड़-तंत्र का असर"। वस्तुतः 'भीड़- मनोविज्ञान' का स्वरूप अब काफ़ी बदल गया है। पहले इसके लिए भीड़ का इकट्ठा होना ज़रूरी होता था, जहाँ एक दुष्ट नेता (demagouge) उस मनोविज्ञान की आड़ में अपने विश्वस्त सिपाहियों के साथ मिलकर एक उन्माद पैदा कर देता था। अब सोशल मीडिया के जमाने में तो इतना भी परिश्रम की आवश्यकता नहीं रह गयी। इसलिए अब सामूहिक चेतना को ऐसे तत्वों से बचाने के लिए समाज स्वयं कोई निदान ढूँढेगा।समाज अपना रास्ता स्वयं बना लेता है। हालाँकि, बहुधा सामाजिक परिवर्तन के बीज भी ऐसे ही उन्मादों के बीच से होकर निकले हैं। बहुत आभार आपकी समीक्षात्मक दृष्टि की।
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