(भाग – ६ से आगे)
विविधताओं से भरे इस समाज के विस्तृत फलक पर हमें भिन्न-भिन्न प्रवृतियों के उस वृहत स्पेक्ट्रम के दर्शन होते हैं, जिसमें आप को हर रंग के उदाहरण मिल जाएँगे। ऐसी भी स्थितियों का मिलना मुश्किल नहीं जहाँ पिछले दृष्टांत का प्रतिलोम उभर कर सामने आ जाए। किंतु समाजशास्त्रीय अवलोकन में हम समाज की उसी प्रवृति को पकड़ने, पढ़ने और अपने विश्लेषण में ज़्यादा ज़ोर देते हैं जो इसकी साझी चेतना, इसके सोशल नॉर्म, इसके आदर्श और सबसे बढ़कर उन मूल्यों को संवर्धित करने की दिशा में हो, जिसके आलोक में व्यक्ति ने संगठित होकर समाज नाम की इस महान संस्था का निर्माण किया। और, संगठन की यह आवश्यकता तथा प्रवृति विपत्ति के दिनों में कुछ ज़्यादा ही प्रबलता से घनीभूत हो जाती है। उस अर्थ में थोड़े हद तक ऐसी विपत्तियाँ भी मानव समाज के दीर्घ क़ालीन उद्देश्यों की पूर्ति में प्रकार्यात्मक ढंग से ही अपना योगदान देती हैं। लॉक-डाउन या घरवास या लोकबंदी के दिनों में भारतीय समाज के आचरण ने इसे रेखांकित किया है।
मनोवैज्ञानिकों का मानना है क़ि छोटी-मोटी व्यक्तिगत आदतों के बनने और टूटने की आधारशिला के निर्माण हेतु क़रीब तीन सप्ताह का समय पर्याप्त है। अतः परिस्थितियों के दवाब में जिस किसी व्यक्ति को धूम्रपान या उसके द्वारा सेवन किए जाने वाले किसी अन्य नशे की उपलब्धता तीन सप्ताह या उसके बाद तक नहीं मिली, तो धीरे-धीरे वह इन बुरी आदतों से छूटने हेतु वांछित शारीरिक और मनोवैज्ञानिक अवस्थाओं में पहुँच चुका होता है। इस ख़याल से इस लोकबंदी ने ढेर सारे लोगों को दुर्व्यसन के किसी न किसी ग़ुलामी से आज़ाद करने में एक अहम रोल अदा किया है। कुछ ऐसी व्याधियाँ भी जो अकेलेपन से उद्भूत थीं, पारिवारिक माहौल में आकार स्वतः दूर हो गयीं। बाहर की ‘सोशल-डिसटेंसिंग’ ने घर के अंदर ‘इमोशनल-प्राक्सिमटी’ का सूत्रपात कर दिया है। विशेषकर परिवार के बालकों और किशोर वय के सदस्यों के लिए तो यह स्थिति वरदान बन कर ही आयी है। हालाँकि इससे प्रतिकूल स्थिति के भी ढेर सारे दृष्टांत आए हैं जहाँ घर के अंदर चौबीसों घंटे की यह रिहायश परिवार के कुछ सदस्यों के लिए किसी क़ैद की सज़ा से कम साबित नहीं हुई और उनके कुंठा तथा अवसाद की स्थिति में भी पहुँचने की सूचना है। किंतु, ऐसे तत्व वहीं दृष्टिगोचर हुए हैं जहाँ पारिवारिक बंधन पहले से ही कमज़ोरी की कगार पर थे तथा सभ्यता के आघात ने संस्कृति को कुंद करना शुरू कर दिया था। फिर भी कुल मिलकर सकारात्मक तत्वों की रुझान ही ज़्यादा प्रभावी दिखी है। भारतीय समाज निपट देहाती से शुरू होकर विशुद्ध महानगरीय जीवन तक पसरा हुआ है। किंतु मध्यम-वर्ग मुख्यतः ग्रामीण-शहरी-निरंतरता की जीवन पद्धति में पगा हुआ है और यहीं वह वर्ग है जो भारतीय समाज के कलेक्टिव कोंसेंस का ध्वजा-वाहक है। इसलिए भारतीय समाज के जिस किसी भी समुदाय का मध्यम वर्ग सिकुड़ा हुआ है या मध्यम वर्गीय संस्कार समृद्ध नहीं है, वहाँ खुलेपन की कमी है और वहाँ कुंठा, असामाजिकता एवं दिग्भ्रमिता का प्राधान्य है।
लोग अपने को पुराने दिनों की ओर लौटते देखने लगे हैं, जहाँ ख़ुद से भी थोड़ी गुफ़्तगू करने का वक़्त उन्हें नसीब हो रहा है तथा अपनी ज़िंदगी को अब बहुत क़रीब से देखने लगे हैं वे! पहले विवशता , फिर आदत, फिर स्वभाव और फिर आनंद! लोकबंदी में इस चक्र ने उनके आहार, आचार और विचार तीनों को बहुत गहरे तक प्रभावित किया है। मांसाहार बहुतों का छूट गया। पारिवारिक जनों के साथ लम्बे समय तक समय बिताने के क्रम में दिल से दिल के आलाप ने एक अत्यंत आह्लादकारी और आत्मीय सम्बन्धों का सूत्रपात कर दिया है। संचार माध्यमों ने तो अंदर को बाहर से जोड़ ही रखा है। अंदर के रस का प्रवाह बाहर भी उसी सरसता से बहकर सामाजिकता की भाव-लताओं को सिंचित कर रहा है। परिवार जन एक दूसरे की खोज-ख़ैर ले रहे हैं और हाल-चाल पूछ रहे हैं। तेज़ी से बढ़ती मॉल-संस्कृति पर अनायास विराम लग गया है। चायनीज़ फ़ास्ट-फ़ूड स्टॉल को कोरोना वाइरस ने डँस लिया है। घर में बने भोजन के स्वाद का न केवल परिचय मिल रहा है, बल्कि उसे पकाने में भी हाथ बँटाना पड़ रहा है। पारिवारिक जीवन जीने की इस आकस्मिक बाध्यता ने सामजिकता की सूखती-सी बेलि-लता को फिर से पनपाना शुरू कर दिया है। परिवार में पनपते इस पारस्परिक सामंजस्य की कड़ी में अब व्यक्ति ख़ुद से भी मेल बिठाने लगा है। उसने अपने अंतर्मन की आकांक्षाओं को पहचानना शुरू कर दिया है। अब उसका कल का अकेलापन आज के एकांत में बदल गया है जहाँ उसे अपूर्व शांति और आध्यात्मिक सुख मिल रहा है। वह अपने व्यक्तित्व के नए आयाम को तलाशने लगा है और अपने अंदर छिपे नए किरदार को तराशने लगा है। इस दीर्घ घरवास ने उसे अपनी रचनात्मक रुचियों को सजाने-सँवारने का भरपूर मौक़ा दिया है। उसके व्यक्तित्व का सृजनतमक पक्ष उभरकर सामने आ गया है।
घर के अंदर सिमटे जीवन की इस शैली के बड़े सामाजिक प्रभाव दृष्टिगोचर हो रहे हैं। अपराध की घटनाएँ समाप्तप्राय हो गयी हैं। चोरी, राहजनी, छिना-झपटी जैसी छोटी घटनाएँ बिलकुल बंद हो गयी हैं। रहन-सहन और खान-पान के इस अनुशासन ने छोटे-मोटे रोगों में भारी कमी की है और ऐसे रोगियों की संख्या आशातीत रूप से घट गयी है। पर्यावरण के प्रदूषण से जनित रोग हाशिए पर चले गए हैं। और तो और, बड़े-बड़े महानगरों के शव दाह गृहों में १५ से २० प्रतिशत की कमी की सूचना अंकित की गयी है। समझा जा रहा है की सड़क-दुर्घटना में होने वाली मौतों की संख्या शून्य हो गयी है। अस्पतालों में शल्य-चिकित्सा के दौरान होने वाली मृत्यु बंद हो गयी है। आपराधिक घटनाओं में होने वाली मौत बंद हो गयी है। साफ़-सफ़ाई के कारण भी औसत-स्वास्थ्य-स्तर सुधर गया है। धुआँ उगलती गाड़ियों के सड़क से हट जाने के कारण कार्बन उत्सर्जन का स्तर क़रीब-क़रीब शून्य हो गया है। वातावरण से कार्बन और ग्रीन हाउस गैसें ग़ायब हो गयी है। पार्टिकल मैटर का अनुपात काफ़ी घट गया है। एलर्जी, दमे और साँस की समस्या में अत्यधिक गिरावट आ गयी है। बड़ी तेज़ी से पर्यावरण अपनी पुरानी स्वच्छता और निर्मलता की ओर लौट रहा है। हवाएँ शुद्ध हो गयी हैं। उपवन में वसंत की बहार है। शोर थम गया है। पत्र-दलों और तरु-लताओं में संगीत का वेग है। वातावरण की शांति और निस्तब्धता में कोयल की कुक और चिड़ियों की चहक की मिठास घुल गयी है। हिमालय की हिमाच्छादित चोटियाँ दूर से ही नज़र आने लगी हैं। आसमान स्वच्छ एवं नीला दिख रहा है। चाँद की दूधिया चाँदनी अपनी धवलता में निखर उठी है। नीरभ्र अंतरिक्ष में टिमटिमाते अगणित तारे गिनती करने लायक़ साफ़-साफ़ दिखने लगे हैं। भूमंडल के निरंतर गरमाने की प्रक्रिया (ग्लोबल वार्मिंग) थम-सी गयी है। पारा नीचे गिर गया है और वायुमंडल का सामान्य तापक्रम १ से २ डिग्री सेल्सियस तक कम हो गया है। सामाजिक जीवन और प्रकृति के आपसी तालमेल की प्रगाढ़ता स्पष्ट से स्पष्टतर हो चली है।
ऊर्जा के क्षेत्र में आशातीत बचत हुई है। कार्यालयों में अपव्यय होने वाली बिजली की काफ़ी बचत हो रही है। और सबसे ज़्यादा तो, तेल की खपत बिलकुल कम हो गयी है। आवश्यकता अविष्कार की जननी है। ढेर सारे निजी क्षेत्र के और सरकारी कार्यालयों ने भी घर से ही इंटर्नेट के माध्यम से काम करने की प्रथा शुरू कर दी हैं। शिक्षण-संस्थानों ने भी ‘विडीओ-कॉनफेरेंसिंग’ के माध्यम से अपने संस्थानों में पढ़ाई-लिखाई का काम शुरू कर दिया। यह आम आदमी की जेब की बहुत बड़ी बचत है। आनेवाले दिनों में इसका व्यापक असर पड़ने वाला है। एक ऐसी प्रणाली विकसित की जा सकती है, जिसमें छात्रों को अपने घर पर बैठे उच्च तकनीकी शिक्षा मिल जाए और उनकी काफ़ी मोटी रक़म ख़र्च कर छात्रावासों या महँगे ‘पीजी’ में रहने की बाध्यता ख़त्म हो जाए ! बाज़ारों के बंद रहने के कारण अनावश्यक ख़र्चों पर विराम लग गया है और लोग केवल अपनी अति आवश्यक आवश्यकताओं की ही पूर्ति कर रहे हैं। मितव्ययिता जीवन प्रणाली में प्रवेश कर गयी है। आराम संबंधी और विलासिता की आवश्यकताओं पर पूरी तरह लगाम लग गया है। कुल मिलाकार समाज अपने पुरातन स्वरूप वाली शांत, स्वस्थ, निश्चिन्त और तनाव मुक्त शैली की ज़िंदगी में लौट गया है। लोग भी पूरी तरह से संवेदनशील होकर अत्यंत सामाजिक और अनुशासित भाव से अपने नागरिक मूल्यों का पालन करते हुए इस बीमारी के संक्रमण चक्र को तोड़ने के लिए कटिबद्ध हैं। दूक़ानों पर उचित दूरी बना के खड़े होना, मास्क लगाना, हाथों को भली-भाँति साबुन से साफ़ करना और संक्रमण की शंका होने पर जाँच करा कर ख़ुद ‘आयसोलेशन’ या ‘कवारेंटाइन’ में चले जाना दिनचर्या हो गयी है। कहीं-कहीं तो लोगों ने इस बिंदु पर अत्यंत अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले में बेतिया के पास बैरिया प्रखंड के बगही बघंबरपुर से एक ऐसी ही उत्साह जनक सूचना प्राप्त हुई है। वहाँ दिल्ली, महाराष्ट्र, केरल, लुधियाना और नेपाल से २९ मार्च तक लौटे ४० प्रवासियों को पंचायत वालों ने ही बिना किसी सरकारी सहायता के अपने स्तर पर पंचायत भवन में ही कवारेंटाइन की व्यवस्था करा दी। उचित मेडिकल संरक्षण में रखकर १४ दिनों बाद स्वास्थ्य परीक्षण करने के पश्चात उन्हें वस्त्र और मास्क के साथ गाँव वालों ने भावभीनी विदायी दी। गाँव वालों की यह भावपूर्ण व्यवस्था सर्वत्र चर्चा का विषय बना हुआ है। यह पूरा ज़िला कोरोना मुक्त है। …………………………………क्रमशः …………………………
सटीक। लेकिन घटित हो रही घटनाओं की रिपोर्टिंग भी कम हो रही है। प्रतीत हो रहा है कि कमी है लेकिन वास्तविकता से दूर है।
ReplyDeleteजी, सहमत।
Deleteसार्थक , सटीक विश्लेषण को विस्तार देता विद्वतापूर्ण लेख। सादर आभार 🙏🙏
ReplyDeleteजी, बहुत आभार।
Deleteजी, आभार।
ReplyDeleteबहुत सटीक, सार्थक और सुन्दर विश्लेषण।
ReplyDeleteजी, बहुत आभार।
DeleteSocial distance
ReplyDeleteCorona break
Thanks a lot for this social gesture! Stay home, stay safe !!!
Deleteबहुत ही बढ़िया विश्लेषण..
ReplyDelete(गिर कर संभलना इसे ही कहते है)
बधाई
जी, बहुत आभार!
Delete" कुल मिलाकार समाज अपने पुरातन स्वरूप वाली शांत, स्वस्थ, निश्चिन्त और तनाव मुक्त शैली की ज़िंदगी में लौट गया है। अंतिम खण्ड में आप ने जो विचार दिए हैं वो बेहद सराहनीय हैं "शायद इसे ही कहते है अपना अपना दृष्टिकोण " आधे ग्लास पानी को कोई आधा भरा कहता हैं तो कोई आधा खाली " किसी भी बिपरीत परिस्थिति में सारी नकारत्मकता के वावजूद " सकारात्मक सोच " अच्छी संभावनाएं ढूढ़ ही निकलता हैं और वही आपने किया हैं ,आपकी इस दृष्टिकोण को सादर नमन
ReplyDeleteजी, बहुत आभार आपकी विवेचना का!
Deleteऐसा प्रतीत है रहा है जैसे पुराने दिन लौट गए हों ...घर का शुद्ध भोजन , और भोजन को न बिगाड़ने की आदत भी बन रही है ।
ReplyDeleteसाँझा चूल्हे का स्वाद मिल रहा है। जी, बहुत आभार आपके इन लेखों को पढ़ने का।
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