पदार्थ के प्रयोग भौतिक जगत के वे मूल सूत्र हैं जो तथ्यों की जाँच-पड़ताल कर कार्य और कारण सिद्धांत के आलोक में प्राकृतिक घटनाओं की व्याख्या करते हैं। इसे ही हम भौतिक जगत का वैज्ञानिक दृष्टिकोण कहते हैं। यहाँ हम तब तक किसी बात को नहीं मानते जब तक प्रामाणिकता के धरातल पर अपने प्रयोगों द्वारा उसके होने की पुष्टि नहीं कर लेते। ये प्रयोग सार्वजनिक और सार्वभौमिक होते हैं। कहने का मतलब यह है कि प्रयोग की उस अमुक विधा को चाहे कोई भी दुहराए, परिणाम सदैव वहीं मिलेगा। हाँ, इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि बाकी कारक भी न बदलें! अर्थात प्रयोग का वातावरण। जैसे किस दबाव या तापमान के परिवेश में वह प्रयोग किया जा रहा है। इन कारकों का प्रयोग के प्रतिकारक और प्रतिफल दोनों की भौतिक और रासायनिक बनावट और बुनावट पर असर पड़े बिना नहीं रहता।आप नाइट्रोजन और ऑक्सिजन के आपसी संयोग को ही देख लें। ये एक से अधिक तरीक़ों से आपस में रासायनिक संयोग कर अलग अलग यौगिक संरचनाएँ बना लेते हैं। किंतु, प्रकृति में घटने वाली इन घटनाओं में एक व्यवस्था ज़रूर है। रासायनिक संयोग के भी अपने ख़ास नियम होते हैं। अब यह भी ख़ास रुचि का विषय है कि प्राकृतिक घटनाओं की यह सारी व्यवस्था भी एक अव्यवस्था के गर्भ से ही निकलती हैं।ठीक वहीं बात जो गीता में कृष्ण ने ' न होने' से 'होने ' का होना बताया था। ताप गतिकी का नियम (Law of thermodynamics) है कि 'ब्रह्मांड की अव्यवस्था अनवरत बढ़ोतरी की ओर अग्रसर है ( Entropy of the universe is increasing)।' कहने का मतलब ठीक वैसा ही है जैसे कि अफ़रातफ़री के महौल में आप एक ओर एकान्त ढूँढकर अपने मन को पहले शांत करने का प्रयास करें और फिर बुद्धि-विवेक से उस माहौल से निपटने की कोई रणनीति का इजाद कर लें या करने की चेष्टा करें। यह हुई अव्यवस्था के माहौल में व्यवस्था के प्रवाह का प्रयास। यहीं इस प्रकृति के प्रत्येक परमाणु के एक दूसरे और अपने ख़ुद के प्रति व्यवहार का मूल है। स्थायित्व हेतु न्यूनतम ऊर्जा का सिद्धांत भी यहीं है।सभी एक दूसरे और स्वयं के प्रभाव और प्रवाह में बढ़े जा रहे हैं - असंतुलन और संतुलन के द्वैत के बंधन से शाश्वत मुक्ति के प्रयास की छटपटाहट में। उनका यह प्रवाह ठीक उसी महाविस्फोट की प्रक्रिया की लय में है जिसमें एक सूक्ष्म बिंदु महानाद की ध्वनि में फटकर इस ब्रह्मांड को आकार देती फैलती जा रही है।
हमारे मन, बुद्धि और अहंकार की अवस्था भी ठीक वैसी ही है। यह भी ऐसी अव्यवस्था और अफ़रातफ़री के माहौल में अपनी चेतन-सत्ता से मिलने को न केवल छटपटाते है, बल्कि उस दिशा में अपने सारे उपकरणों को प्रयोग में लगा देते हैं। यह प्रयोग अपने अंदर के अस्तित्व को बाहरी अस्तित्व में घोल देना होता है, जहाँ अपना -पराया कुछ नहीं होता है। सब कुछ एक जगह सिमट जाता है, अभेद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, समस्त ऊर्जा एक साथ चेतना में समा जाती है और अपनी आवृतियों को एक दूसरे में घोलकर उस 'बिग-बैंग' के महानाद की आवृति के संग अनुनाद की स्थिति में आ जाने को तत्पर हो जाती है। प्रयोग के इसी तुरीय स्वरूप को हम प्रार्थना कहते हैं। इस प्रयोग के प्रकार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, परंतु प्रकृति सदैव सार्वजनिक और सार्वभौमिक ही होती है। अर्थात, सूक्ष्म का विस्तार में विलय और विस्तार का सूक्ष्म में सिमट जाना। इसमें हम अपनी ऊर्जा दूसरों की शुभकामना, दूसरों के कल्याण और अपने आस्तित्व की रक्षा के लिए दूसरों के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए करते हैं।यहाँ यह दूसरा और कोई नहीं बल्कि उस परम पिता परमेश्वर का ही अभिन्न अंश है जो इस चराचर जगत सहित हममें भी व्याप्त है। आध्यात्मिक जगत के इसी प्रयोग का नाम उपासना है। यह न केवल वैज्ञानिक प्रयोगों से भी ऊँचे धरातल पर अवस्थित है, जो न केवल सीधे अनुभव के स्तर पर हमें आभासित होता है, बल्कि प्रयोक्ता को चेतना के इस उत्कर्ष का स्पर्श पाने के लिए निरंतर प्रयास भी करने पड़ते हैं। तब जाकर वह इस प्रयोग को सम्पादित करने के संस्कार से सम्पन्न हो पाता है। उचित संस्कार के अभाव में प्रतिभा माहुर बन जाती है। इसका सबसे प्रमुख कारक मन का निश्छलता और बुद्धि का जागरूकता और चैतन्य के उच्चतम बिंदु पर स्थित रहना है। ऐसे प्रयोगों के प्रभाव का विस्तार उनके ज्ञान से उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति तक होता है।
गांधी के 'सत्य का प्रयोग' में प्रार्थना की भूमिका कुछ ऐसे ही आध्यात्मिक तत्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं। आइए, उनके इस आध्यात्मिक प्रयोग अर्थात प्रार्थना के प्रभाव की कहानी हम आपको उनके सरलतम सिपाही डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के शब्दों में सुनाते हैं: -
" सारे देश में जहाँ-तहाँ हिंदू-मुस्लिम दंगे हो रहे थे। गांधीजी इन घटनाओं से बहुत चिंतित और परेशान थे। बहुत ऊबकर उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए इक्कीस दिनों का उपवास करने का निश्चय किया। महात्माजी के उपवास की ख़बर छपते ही सारे देश में बड़ी चिंता व्याप्त हो गयी। अभी-अभी वह बड़ी ख़तरनाक बीमारी से उठे थे। सब लोग, विशेषकर डॉक्टर अंसारी - जो उनके स्वास्थ्य से अच्छी तरह परिचित थे - बहुत चिंतित हो गए। उन्होंने इस निश्चय से गांधीजी को डिगाने का बहुत प्रयत्न किया। अपने प्रेम तथा अपनी डॉक्टरी कला, दोनों का प्रयोग किया।पर गांधीजी अपने निश्चय से नहीं डिगे। अंत में वह इतने सफल हुए कि उन्होंने गांधीजी से वचन ले लिया कि उनकी मृत्यु ही अगर इस उपवास का नतीजा होनेवाला हो, तो उस हालत में वह उपवास तोड़ डालेंगे। उपवास आरम्भ हुआ। ख़बर पाते ही मैं दिल्ली पहुँच गया। डॉक्टर अंसारी तो दिन-रात देखभाल करते ही रहे।
उधर गांधीजी के उपवास के दिन बीतते चले जाते थे।डॉक्टर अंसारी दिन में दो बार उनके पेशाब की जाँच करते। एक दिन अद्भुत घटना हुई। मैंने डॉक्टर अंसारी से ही सुनी। एक दिन पेशाब की जाँच करने पर उन्होंने देखा, उसमें असीटोन की मात्रा अधिक निकली! यह अच्छा लक्षण नहीं है।यदि इसकी मात्रा बढ़ जाये तो आदमी बेहोश हो जाता है। उसके बाद उस आदमी को बचाना कठिन हो जाता है। इससे वह चिंतित हुए। उन्होंने महात्माजी से कहा कि अब आप ख़तरे के निकट पहुँचने वाले हैं और हो सकता है कि इक्कीस दिन पूरे होने के पहले ही आपको अपने वादे के अनुसार उपवास तोड़ना पड़े।
असीटोन की मात्रा बढ़ती गयी। डॉक्टर अंसारी ने निश्चय किया कि अब अधिक ठहरना बहुत ख़तरनाक होगा। उन्होंने यह बात महात्माजी से कही। आग्रह भी किया कि अब उपवास तोड़ना चाहिए। वह डरते थे कि कुछ ही घंटों बाद बेहोशी आ सकती है। उन्होंने यह सब कहा और खिलाने पर ज़िद की। महात्माजी ने कहा कि आपने अपनी विद्या से सब कुछ तो देख लिया है और सब हिसाब लगा लिया है; पर रात भर मुझे छोड़ दीजिए। इस पर डॉक्टर साहब राज़ी नहीं होते थे। तब गांधीजी ने कहा क़ि आपने सबका हिसाब तो लगाया है, पर प्रार्थना के असर का हिसाब तो लगाया ही नहीं; आज मुझे छोड़ दीजिए। डॉक्टर साहब मान गए। दूसरे दिन पेशाब की जाँच कर उन्होंने कहा कि असीटोन का अब ख़तरा नहीं है और खिलाने का आग्रह छोड़ दिया। उसके बाद, उपवास की अवधि में, फिर कभी असीटोन का उपद्रव न हुआ। डॉक्टर अंसारी की चिंता जाती रही। उन्होंने हम लोगों से कहा कि इस चमत्कार का कोई कारण हमारी चिकित्सा नहीं बताती - हम नहीं समझ सकते, यह कैसे हुआ!
महात्माजी, उपवास की पूरी अवधि में प्रत्येक दिन, अपने नियमानुसार चरख़ा कातते रहे। उनको किसी तरह चारों ओर तकिया रखकर बिठा दिया जाता। उसी तरह बैठे-बैठे वह चरख़ा चला लेते। अंत में जब उपवास समाप्त करने का समय आया, तब प्रार्थना करके, चर्खा चलाकर और भजन गाकर, उन्होंने नारंगी का रस पीकर उपवास तोड़ा। मौलाना मुहम्मद अली ने इस अवसर पर बूचड़खाने से एक गौ ख़रीदकर महात्माजी को भेंट की।इसमें कितना प्रेम और सद्भाव भरा था।"
तो आज जब एक वैश्विक संकट की स्थिति मँडरा रही हो, तो इसमें प्रार्थना का महत्व और बढ़ जाता है, जन-कल्याण के लिए। चाहें मौन रहे, चाहे घंटा-घड़ियाल-शंख बजाएँ, चाहे मंत्रोच्चार करें, चाहें भजन -कीर्तन गाएँ, चाहे अजान अदा करें, चाहे गुरुबानी को गाएँ, जैसे भी करें - विश्व-कल्याण की आकांक्षा , ईश्वर के आशीष की कामना , इस घड़ी आपकी सेवा में लगे देवदूतों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता के भावों की अभिव्यक्ति, और सकारात्मक ऊर्जा के प्रवाह हेतु - अपने एकान्त में आप भी प्रार्थना करो ना!
नहीं रहेगा 'करोना'।
हमारे मन, बुद्धि और अहंकार की अवस्था भी ठीक वैसी ही है। यह भी ऐसी अव्यवस्था और अफ़रातफ़री के माहौल में अपनी चेतन-सत्ता से मिलने को न केवल छटपटाते है, बल्कि उस दिशा में अपने सारे उपकरणों को प्रयोग में लगा देते हैं। यह प्रयोग अपने अंदर के अस्तित्व को बाहरी अस्तित्व में घोल देना होता है, जहाँ अपना -पराया कुछ नहीं होता है। सब कुछ एक जगह सिमट जाता है, अभेद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, समस्त ऊर्जा एक साथ चेतना में समा जाती है और अपनी आवृतियों को एक दूसरे में घोलकर उस 'बिग-बैंग' के महानाद की आवृति के संग अनुनाद की स्थिति में आ जाने को तत्पर हो जाती है। प्रयोग के इसी तुरीय स्वरूप को हम प्रार्थना कहते हैं। इस प्रयोग के प्रकार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, परंतु प्रकृति सदैव सार्वजनिक और सार्वभौमिक ही होती है। अर्थात, सूक्ष्म का विस्तार में विलय और विस्तार का सूक्ष्म में सिमट जाना। इसमें हम अपनी ऊर्जा दूसरों की शुभकामना, दूसरों के कल्याण और अपने आस्तित्व की रक्षा के लिए दूसरों के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए करते हैं।यहाँ यह दूसरा और कोई नहीं बल्कि उस परम पिता परमेश्वर का ही अभिन्न अंश है जो इस चराचर जगत सहित हममें भी व्याप्त है। आध्यात्मिक जगत के इसी प्रयोग का नाम उपासना है। यह न केवल वैज्ञानिक प्रयोगों से भी ऊँचे धरातल पर अवस्थित है, जो न केवल सीधे अनुभव के स्तर पर हमें आभासित होता है, बल्कि प्रयोक्ता को चेतना के इस उत्कर्ष का स्पर्श पाने के लिए निरंतर प्रयास भी करने पड़ते हैं। तब जाकर वह इस प्रयोग को सम्पादित करने के संस्कार से सम्पन्न हो पाता है। उचित संस्कार के अभाव में प्रतिभा माहुर बन जाती है। इसका सबसे प्रमुख कारक मन का निश्छलता और बुद्धि का जागरूकता और चैतन्य के उच्चतम बिंदु पर स्थित रहना है। ऐसे प्रयोगों के प्रभाव का विस्तार उनके ज्ञान से उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति तक होता है।
गांधी के 'सत्य का प्रयोग' में प्रार्थना की भूमिका कुछ ऐसे ही आध्यात्मिक तत्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं। आइए, उनके इस आध्यात्मिक प्रयोग अर्थात प्रार्थना के प्रभाव की कहानी हम आपको उनके सरलतम सिपाही डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के शब्दों में सुनाते हैं: -
" सारे देश में जहाँ-तहाँ हिंदू-मुस्लिम दंगे हो रहे थे। गांधीजी इन घटनाओं से बहुत चिंतित और परेशान थे। बहुत ऊबकर उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए इक्कीस दिनों का उपवास करने का निश्चय किया। महात्माजी के उपवास की ख़बर छपते ही सारे देश में बड़ी चिंता व्याप्त हो गयी। अभी-अभी वह बड़ी ख़तरनाक बीमारी से उठे थे। सब लोग, विशेषकर डॉक्टर अंसारी - जो उनके स्वास्थ्य से अच्छी तरह परिचित थे - बहुत चिंतित हो गए। उन्होंने इस निश्चय से गांधीजी को डिगाने का बहुत प्रयत्न किया। अपने प्रेम तथा अपनी डॉक्टरी कला, दोनों का प्रयोग किया।पर गांधीजी अपने निश्चय से नहीं डिगे। अंत में वह इतने सफल हुए कि उन्होंने गांधीजी से वचन ले लिया कि उनकी मृत्यु ही अगर इस उपवास का नतीजा होनेवाला हो, तो उस हालत में वह उपवास तोड़ डालेंगे। उपवास आरम्भ हुआ। ख़बर पाते ही मैं दिल्ली पहुँच गया। डॉक्टर अंसारी तो दिन-रात देखभाल करते ही रहे।
उधर गांधीजी के उपवास के दिन बीतते चले जाते थे।डॉक्टर अंसारी दिन में दो बार उनके पेशाब की जाँच करते। एक दिन अद्भुत घटना हुई। मैंने डॉक्टर अंसारी से ही सुनी। एक दिन पेशाब की जाँच करने पर उन्होंने देखा, उसमें असीटोन की मात्रा अधिक निकली! यह अच्छा लक्षण नहीं है।यदि इसकी मात्रा बढ़ जाये तो आदमी बेहोश हो जाता है। उसके बाद उस आदमी को बचाना कठिन हो जाता है। इससे वह चिंतित हुए। उन्होंने महात्माजी से कहा कि अब आप ख़तरे के निकट पहुँचने वाले हैं और हो सकता है कि इक्कीस दिन पूरे होने के पहले ही आपको अपने वादे के अनुसार उपवास तोड़ना पड़े।
असीटोन की मात्रा बढ़ती गयी। डॉक्टर अंसारी ने निश्चय किया कि अब अधिक ठहरना बहुत ख़तरनाक होगा। उन्होंने यह बात महात्माजी से कही। आग्रह भी किया कि अब उपवास तोड़ना चाहिए। वह डरते थे कि कुछ ही घंटों बाद बेहोशी आ सकती है। उन्होंने यह सब कहा और खिलाने पर ज़िद की। महात्माजी ने कहा कि आपने अपनी विद्या से सब कुछ तो देख लिया है और सब हिसाब लगा लिया है; पर रात भर मुझे छोड़ दीजिए। इस पर डॉक्टर साहब राज़ी नहीं होते थे। तब गांधीजी ने कहा क़ि आपने सबका हिसाब तो लगाया है, पर प्रार्थना के असर का हिसाब तो लगाया ही नहीं; आज मुझे छोड़ दीजिए। डॉक्टर साहब मान गए। दूसरे दिन पेशाब की जाँच कर उन्होंने कहा कि असीटोन का अब ख़तरा नहीं है और खिलाने का आग्रह छोड़ दिया। उसके बाद, उपवास की अवधि में, फिर कभी असीटोन का उपद्रव न हुआ। डॉक्टर अंसारी की चिंता जाती रही। उन्होंने हम लोगों से कहा कि इस चमत्कार का कोई कारण हमारी चिकित्सा नहीं बताती - हम नहीं समझ सकते, यह कैसे हुआ!
महात्माजी, उपवास की पूरी अवधि में प्रत्येक दिन, अपने नियमानुसार चरख़ा कातते रहे। उनको किसी तरह चारों ओर तकिया रखकर बिठा दिया जाता। उसी तरह बैठे-बैठे वह चरख़ा चला लेते। अंत में जब उपवास समाप्त करने का समय आया, तब प्रार्थना करके, चर्खा चलाकर और भजन गाकर, उन्होंने नारंगी का रस पीकर उपवास तोड़ा। मौलाना मुहम्मद अली ने इस अवसर पर बूचड़खाने से एक गौ ख़रीदकर महात्माजी को भेंट की।इसमें कितना प्रेम और सद्भाव भरा था।"
तो आज जब एक वैश्विक संकट की स्थिति मँडरा रही हो, तो इसमें प्रार्थना का महत्व और बढ़ जाता है, जन-कल्याण के लिए। चाहें मौन रहे, चाहे घंटा-घड़ियाल-शंख बजाएँ, चाहे मंत्रोच्चार करें, चाहें भजन -कीर्तन गाएँ, चाहे अजान अदा करें, चाहे गुरुबानी को गाएँ, जैसे भी करें - विश्व-कल्याण की आकांक्षा , ईश्वर के आशीष की कामना , इस घड़ी आपकी सेवा में लगे देवदूतों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता के भावों की अभिव्यक्ति, और सकारात्मक ऊर्जा के प्रवाह हेतु - अपने एकान्त में आप भी प्रार्थना करो ना!
नहीं रहेगा 'करोना'।
आमीन
ReplyDeleteअत्यंत आभार।
Deleteवैश्विक संकट की इन घड़ियों में आपने सकारात्मकता और आशावाद का संदेश दिया है। मुझे भी यही लगता है कि हम भारतीय कोरोना के संकट से जल्दी ही बाहर आएँगे। इस का एक कारण भारतीयों का आध्यात्मिक होना, देशों की अपेक्षा मजबूती से परस्पर भावनात्मक जुड़ाव, हमारा खानपान और हमारी जिजीविषा है। आज सुबह से खबरों में देखा कि मजदूर और दिहाड़ी काम करनेवाले पैदल ही 200 से 900 किमी तक की यात्रा करके गाँवों की ओर लौट पड़े हैं। ये कितनी बड़ी जिजीविषा है!सरकार ने जरूरी कदम उठाए हैं, लोगों को अपनी सुरक्षा के प्रति सजग भी रहना चाहिए परंतु घबराना नहीं चाहिए।
ReplyDeleteपरिस्थिति का सोदाहरण विवेचन करता बहुत अच्छा लेख। सादर।
इसमें नियोक्ताओं की संवेदनहीनता और हमारी दूरदर्शिता की कमी भी झलकती है। नियोक्ताओं को विश्राम काल घोषित कर इस अवधि का पूर्ण वेतन मज़दूरों के लिए सुनिश्चित करना चाहिए था और उन्हें घर पहुंचाने की व्यवस्था भी करनी चाहिए थी। आखिर हवाई जहाज जब ईरान भेजा जा सकता है लोगों को वहाँ से लाने के लिए तो इन गरीब मज़दूरों को घर क्यों नहीं भिजवाया जा सकता है।
Deleteआपने इस नीरस लेख (आजकल के कविता प्रधान वातावरण में) को पूरा पढ़ा और अपने सार्थक विचार दिए, इसका हृदय से असभार।
यह तो तय है नहीं रहेगा कोरोना... बस दुआ है क्षति से प्रकृति उबर जाए
ReplyDeleteदुआओं का असर हमेशा दवाओं से बेहतर और चमत्कारिक रहा है। ईश्वर आपकी दुआ क़बूल करे! शुभकामना!!!
Deleteसमस्त विश्व समुदाय के निमित्त , सद्भावनाओं को प्रेरित करता सुंदर आलेख आदरणीय विश्वमोहन जी | भारत की सनातन परम्परा ही वासुदेवकुटुम्बकम की रही है | जहाँ हरेक के लिए प्रार्थना का प्रावधान है | मानव के साथ- साथ समस्त प्रकृति को पूज्य मानकर उसके अस्तित्व के अमरत्व की प्रार्थना की जाती है | आज इस वैश्विक विपदा की घड़ी में जरुर दुआएं और प्रार्थनाएं दरकार हैं | कहते हैं ब्रहमांड में प्रार्थना के रूप में हम जैसा आत्मीय सन्देश प्रवाहित करते हैं , वैसी ही आत्मीयता हमें प्राप्त होती है | शायद यही हम भारतियों की प्रबल आंतरिक शक्ति है और वैसे भी हम शांति और अहिंसा के पुजारी रहें हैं | आज प्रगति की अंधी दौड़ में हांफती , मिटती जिन्दगी उन सीमाओं का अतिक्रमण करने लगी थी जो उसके आतंरिक विकास के लिए बनाई गयीं थी | उसी भटकाव के चलते सारी मानव सभ्यता बहुत बड़े संकट से रूबरू है |अरूप ,अदृश्य सत्ता के प्रति प्रार्थनाओं के स्वरों की महिमा किसी से छिपी नहीं है | हर धर्म में इसे माना गया है और बहुधा इसके चामत्कारिक परिणाम देखने में आये हैं | निश्चित रूप सभी को प्रार्थना करनी चाहिए जो जरुर फलीभूत होगी |और जल्द ही ये संकट की घड़ी टल जायेगी | क्योकि हर प्रार्थना -भीतर एक अद्भुत आशा और विश्वास जगाती है जो किसी भी आधि - व्याधि से मुक्ति के लिए अतिआवश्यक है | विचारणीय विषयात्मक , प्रेरक लेख के लिए साधुवाद |
ReplyDeleteजी, इस लेख को पढ़ने और परखने का अप्रतिम आभार। उपासना और आशीष के प्रभाव अद्भुत होते हैं। आपके आशीष का हृदयतल से आभार!!!
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 28 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी, बहुत आभार आपका।
Deleteप्रार्थना की शक्ति को रेखांकित करता विचारणीय आलेख।
ReplyDeleteजी, बहुत आभार आपका।
Deleteआदरणीया/आदरणीय आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर( 'लोकतंत्र संवाद' मंच साहित्यिक पुस्तक-पुरस्कार योजना भाग-२ हेतु नामित की गयी है। )
ReplyDelete'बुधवार' ०१ अप्रैल २०२० को साप्ताहिक 'बुधवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य"
https://loktantrasanvad.blogspot.com/2020/04/blog-post.html
https://loktantrasanvad.blogspot.in/
टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'बुधवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'
प्रार्थना में बहुत बड़ी शक्ति है आपका उदाहरण हर किसी के संदेह को मिटाने वाला है महात्मा गाँधी जैसे महापुरुष की प्रार्थना को फलीभूत होता देख पढ कर सभी का विश्वास उस परम सत्ता पर अटूट होगा और फिर जन जन के मन की प्रार्थना सेसारा जहाँ रोग मुक्त हो जायेगा.... विज्ञान का पुष्टिकरण देते हुए प्रार्थना की शक्ति कोस्पष्ट करता शानदार लेख ।
ReplyDeleteसाधुवाद।
आपके आशीष हमें सदैव सकारात्मकता से भर देते हैं। आभार!!!
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