Saturday, 30 October 2021

लाल, पाल, बाल! (लघुकथा)

 ...सिर्फ बारह बोतल पानी लेकर गए थे। तीन दिन तक खाना नहीं खाया। बिस्कुट खाकर गुजारा किया... मेरे 'आर्य'पुत्र!, मेरे लाल!....हे लोक पाल!

उफ्फ! इतनी यातना तो  मेरे बाल (गंगाधर तिलक) ने भी मांडले जेल में नहीं सही..!!!!!

16 comments:

  1. आपकी इस लघुकथा के मर्म को समझ लिया मैंने विश्वमोहन जी। किन्तु यह सहज ही समझ में आ जाने वाला नहीं है। प्रत्येक पाठक इसे समझ नहीं सकेगा।

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    1. जी, अत्यंत आभार। मेरी दृष्टि में पाठक सदैव लेखक से ज़्यादा प्रबुद्ध होता है । आप तो स्वयं भी हमेशा इस तथ्य को साबित करते रहते हैं। सादर।

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  2. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (31-10-21) को "गीत-ग़ज़लों का तराना, गा रही दीपावली" (चर्चा अंक4233) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
    --
    कामिनी सिन्हा

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  3. वाह! थोड़े से शब्दों में कितना कुछ लपेट लिया।
    गजब लघुकथा।

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  4. सटीक व्यंग्य 👌👌🙏🙏

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  5. जी, अत्यंत आभार।

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  6. इतनी महान हस्ती कैसे वहाँ का खाना पानी लेती...हाँ ड्रग्स मिलता तो बात ही कुछ और होती।
    सटीक व्यंग।

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  7. सर जी चंद पंक्तियों में सटीक व्यंग ।बहुत बढ़िया,दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ ।

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    1. जी, बहुत आभार। अपकघर भी सर्वदा खुशियों से जगमग रहे।

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