Thursday, 20 May 2021

चम्पारण सत्याग्रह की चेतना - राजकुमार शुक्ल


 

पुस्तक का नाम - महात्मा गांधी के तीसरे गुरु पं राजकुमार शुक्ल।

लेखक इतिहासकार -  श्री भैरव लाल दास

प्रकाशक और मुद्रक - आदित्य इंटर प्राइजेज, दक्षिणी मंदिरी, पटना -१

मूल्य : पेपर बैक - 700 रुपये

          हार्ड बाउंड - 900 रुपये

पुस्तक समीक्षा

समीक्षक - विश्वमोहन




 पुस्तक चर्चा की सबसे पहली बात अर्थात इसका शीर्षक – ‘महात्मा गांधी के तीसरे गुरु पं राजकुमार शुक्ल’ पर सबसे बाद में बतियाएँगे। फ़िलहाल अभी इसी बात से शुरू करते हैं कि किताब का नाम किसी महापुरुष की जीवनी का आभास देता है और यह जीवनी स्वयं उस महापुरुष के द्वारा लिखी आत्मकथा न होकर किसी लेखक के द्वारा लिखी गयी ‘बायोग्राफ़ी’ की शक्ल में है। ऐसी कोई भी जीवनी जब भी हमारे सामने आती है तो हमारे विज्ञान पोषित प्रखर पाठक मन में अनेक प्रश्न उठ खड़े होते हैं। हम उस महापुरुष और उस लेखक के मध्य के मनोवैज्ञानिक तंतु की पड़ताल करने बैठ जाते हैं। आख़िर उसके लेखन का उत्स क्या है? उस वर्णित महापुरुष के साथ लेखक का कोई वैचारिक अंतरसंबंध है, या उसके हृदय के क्रोड़ से उस युगपुरूष के जीवन की गाथा उसकी करुणा बनकर उसकी लेखनी में फूट पड़ी है, या महापुरुष के प्रति उसकी प्रबल श्रद्धा या भक्ति की कोई अदृश्य डोर है जिसने लेखक की कलम की बागडोर थाम ली है, या फिर किसी पंथ, वाद या विचारधारा का कोई प्रबल आग्रह है! यह बात इसलिए और लाज़िमी हो जाती है कि इस देश में अपने आदर्श पुरुषों की जीवनी लिखने की एक सुदीर्घ और सनातन परम्परा रही है। भले ही इन परम्पराओं का उद्गम कभी क्रौंच वध से उत्पन्न करुणा की धारा में ‘रामायण’ बनकर बहा है, कहीं भक्ति की परम पराकाष्ठा में ‘रामचरितमानस’ की माधुरी में महका है या फिर कहीं राजपोषित चारणों की विरुदावली में अतिरंजित व्यंजना बनकर बहका है। इन जीवन चरितों को हम विश्व साहित्य की अनमोल धरोहर में सज़ा के तो रख सकते हैं, किंतु विशुद्ध वैज्ञानिक दृष्टि में इन्हें इतिहास की श्रेणी में नहीं रख सकते। हमें ‘संस्कृति के चार अध्याय’ लिखने के लिए साहित्य और इतिहास के बीच एक विभाजन रेखा तो खींचनी ही पड़ेगी। 

इस दुनिया में ‘होमो-सेपियन’ ही एक मात्र प्रजाति है जिसकी संज्ञानात्मक प्रतिभा इतनी विलक्षण है कि वह उन तमाम वस्तुओं पर भी धाराप्रवाह कथावाचन कर सकती है जो वस्तु इस दुनिया में कभी रही ही नहीं! समय के प्रवाह में उसकी यह क्षमता और बहुगुणित  ही होती गयी। कम्प्यूटर-गूगल युग की ‘कापी-पेस्ट’ सुविधा ने तो उसकी इस कला को अतिरिक्त पंख प्रदान कर दिए।

दूसरी बात यह है कि किसी भी युगपुरूष का जीवन समष्टि की यज्ञशाला में उसके निरंतर आहूत होने का आख्यान है। इसलिए उसका जीवन चरित किंचित एकाकी नहीं होता, बल्कि अपने समकालीन समाज के समग्र तत्वों को अपने कंधों पर थामे आगे बढ़ता है और यह उसके व्यक्तिगत प्रसंगों का वाचन कम और तद्युगीन जीवन के प्रवाह की दशा और दिशा का दर्पण ज़्यादा होता है। समाज से उसके गहन अंतर संबंधों और ‘इंटरैक्शन’ से उद्भूत हलचलों का उद्घाटन होता है उसकी चरित-चर्चा में। इतिहास की एक ख़ासियत और है कि जब इसके किसी बिंदु पर ठहरकर पीछे के किसी परिदृश्य का विहंगमावलोकन हम करते हैं तो उस काल खंड की घटित सारी घटनाओं में एक सुव्यवस्थित क्रम दिखायी पड़ता है और उनका प्रतिफलन एक परिभाषित परिणाम, मानो यही तो होना था! किंतु, जब उस काल खंड में बैठकर आप स्वयं जीने का प्रयास करें तो वहीं सारी घटनाएँ एक अत्यंत आराजक व्यतिक्रम में भागती नज़र आती हैं और उनका भविष्य बिलकुल अनिश्चित और अपरिभाषित! समकालीन समाज का यह महापुरुष नायक ही होता है जो घटनाओं की अराजकता को मथकर नवनिर्माण का एक अमृत कुम्भ समाज के हाथों में थमा जाता है और स्वयं इतिहास बनकर काल के गर्भ में विलीन हो जाता है। इसलिए विशेष रूप से जब ऐसे महापुरुष के जीवन चरित को आप लिखते हैं तो इतिहास की इस विलक्षणता का संज्ञान लेते हुए अपने दृष्टिकोण में लेखक को वैज्ञानिक वस्तुनिष्ठता का समावेश करना पड़ता है। किंवदंतियों और दंतकथाओं की उपत्यका से ऊपर आकर तथ्यों और सबूतों की तकनीक की तकली चलानी पड़ती है। तब जाकर  उससे सत्य का सूत निकलता है।

तीसरी बात यह है कि आज बाज़ार सर चढ़कर बोल रहा है। वही टिकता है जो बिकता है। इस बाज़ारूपन के दंश का सबसे अधिक आघात हमारे देश के सुदूर इलाक़ों के उन माटी के लालों को झेलना पड़ा जिन्होंने स्वतंत्रता की बलि वेदी पर हँसते-हँसते अपने प्राण नयौछावर कर दिए और ‘अनसंग हीरो’ बनकर सदा के लिए अपनी माटी में दफ़न हो गए। किसी इतिहासकार के सुध की सुधा उन्हें नसीब नहीं हुई। बाज़ार में बिकने वाले इतिहासकारों की ‘इतिहास अभिजात्यों की, अभिजात्यों के लिए और अभिजात्यों के द्वारा’ शैली ने इन राष्ट्र सपूतों को विस्मृति के नेपथ्य में धकेल दिया।

वह पीढ़ी बड़ी अभागी होती है जिसका कोई इतिहास नहीं होता और उससे भी ज़्यादा अभागी वह पीढ़ी होती है जो अपने इतिहास को संजो नहीं पाती और भुला देती है। पीढ़ियों में इतिहास बोध के इस संस्कार को जगाने में इतिहासकारों की बड़ी अहम भूमिका होती है। वही समाज अपनी विरासत के दर्पण में अपने भविष्य को चमकाता है, जिसके इतिहास के सजग सिपाही उसके इतिहासकार होते हैं जो उससे  अतीत के सत्य का साक्षात्कार कराते हैं और वैज्ञानिक वस्तुनिष्ठता की आभा में पीढ़ियों को उसके इतिहास से आलोकित करते हैं। 

ऊपर की सारी बातें एक-एक करके आपके मनो-मस्तिष्क में चिंगारी बनकर फूटने लगती है जब भैरव लाल दास जी की पुस्तक ‘महात्मा गांधी के तीसरे गुरु पं राजकुमार शुक्ल’ को एक बार आप पढ़ना शुरू कर दें और ख़त्म करते-करते यह इतिहास बोध की एक उल्का बनकर आपकी चेतना में समा जाती है। चंपारण आंदोलन की पृष्टभूमि के गढ़े जाने से लेकर इसकी पूर्णाहूति और फिर इसके उत्तरकाल की हलचलों का लेखक ने बड़ा सरल, सुबोध और सुरुचिपूर्ण चित्रण किया है। इसी चित्रांकन से राजकुमार शुक्ल के व्यक्तित्व का एक प्रखर बिम्ब उभरकर सामने आता है। लेखक ने शोधधर्मिता के संस्कार से तथ्यपरक अन्वेषण की शैली में अपनी इस रचना को तराशा है जहाँ किंवदंतियाँ, दंतकथाएँ और वैचारिक पूर्वाग्रह फटकने नहीं पाते। सारे संदर्भ संदेह से परे और प्रामाणिक हैं।

राज कुमार शुक्ल द्वारा गांधी को लिखा गया पत्र, कांग्रेस की कार्यसमिति की विषय सूची, उसमें पारित प्रस्ताव, शुक्लजी की डायरी, गांधी की आत्मकथा, चंपारण आंदोलन के दिनों को बयान करती गांधी की डायरी, राजेंद्र प्रसाद और कृपलानी सरीखे नेताओं के संस्मरण, बेतिया के एसडीओ, चंपारण के एसपी, कलेक्टर, तिरहुत के कमिश्नर, बिहार उड़ीसा के गृह सचिव, ले. गवर्नर, बंगाल के गवर्नर, भारत सरकार के सचिव आदि मुलाजिमों के पत्र, सरकारी दस्तावेज़, स्पेशल ब्रांच की ख़ुफ़िया रिपोर्ट, अग्रेरियन कमिटि में शुक्लजी और रैयतों के बयान, बंगाल न्याय विभाग, भू-राजस्व विभाग, चंपारण कलेक्टर और तिरहुत कमिश्नर की गोपनीय शाखा, भारत सरकार के होम डिपार्टमेंट की प्रोसीडिंग्स, स्टेट आर्कायव बंगाल, नेशनल आर्कायव दिल्ली, चंपारण डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर, इंडिया ऑफ़िस लाइब्रेरी औफ लंदन जैसे अनगिन जगहों के अभिलेखों से सामग्रियाँ जुटाकर इतिहासकार ने अपनी इस कृति का कलेवर बुना है।

प्रकारांतर में श्री भैरव लाल दास जी ने यह भी बतला दिया है कि ख़ुद गांधीजी द्वारा अपने वृतांतों में शुक्ल जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के दिए गए विस्तार से इतर किसी भी भारतीय इतिहासकार ने शुक्ल जी के प्रसंग पर कोई गम्भीर प्रयास नहीं किया है। इस देश के किसी भी विश्वविद्यालय के द्वारा शुक्लजी के लिए शोध की किसी परम्परा या चेयर की शुरुआत करने का कोई दृष्टांत नहीं मिलता। दासजी द्वारा चंपारण आंदोलन के दौरान गांधीजी की प्रासंगिक टिप्पणियों के उल्लेख से पाठकों की आँखें खुल जाती हैं और वे शुक्लजी की कहानी सीधे गांधीजी की ज़ुबानी सुनने लगते हैं। यह इतिहासकार की अपनी एक विशेष शैली है जो कथ्य की प्रामाणिकता को अत्यंत रोचक शैली में परोसती है।

टोलस्टोय से गांधी को मिली आध्यात्मिक सीख कि ‘शत्रु से भी प्यार से पेश आओ’ के साक्षात दर्शन शुक्लजी के चरित्र में तब होते हैं जब उनकी मृत्यु के उपरांत उनके चिर शत्रु, निलहे एमन, द्वारा उनके श्राद्ध हेतु भावपूर्ण ढाई सौ रुपए समर्पित किए जाते हैं और आँखों में आँसू भरे वह राजेंद्र बाबू के सामने शुक्लजी के प्रति अपने दिल के उद्गारों को व्यक्त करता है। इतिहासकार बड़ी सफलता से शुक्लजी के व्यक्तित्व की उस विराट आभा को सामने लाने में सफल हो जाता है, जिसके आलोक में ज्योतित चंपारण  आंदोलन के दौरान वहाँ के किसानों की आँखों में गांधी को सत्य और अहिंसा के दर्शन होते हैं। जिस चंपारण के हालात को केवल देखने-समझने के लिए गांधी गए थे उसकी मिट्टी में शुक्लजी द्वारा पहले से प्रवाहित आंदोलन के संस्कार की गंडकी में प्रवेश करते ही उनकी अंतरात्मा की शक्ति जाग उठी और बस दो-तीन दिनों में ही इस जागृत आत्मबल की आहट ने ब्रिटिश साम्राज्य की कुंडी खटखटा दी।

इतिहासकार ने शुक्लजी और उनके समकालीन ताने-बाने के चित्रण में अपनी तेजस्वी इतिहासधर्मिता और प्रखर सूझ-बूझ का परिचय दिया है। भलें ही कहीं-कहीं घटनाओं, प्रसंगों और वक्तव्यों की पुनरावृति ने कथानक को थोड़ा-सा बोझिल बना दिया है, लेकिन वे प्रसंग इतने महत्वपूर्ण और रोचक हैं कि पाठक फिर से सचेत होकर उठ खड़ा होता है। 

अब अंत में हम सबसे पहले अर्थात शीर्षक वाली बात पर आते हैं। यह शीर्षक भैरव लाल दास जी ने प्रसिद्ध इतिहासकार गिरिराज किशोर के विचारों से लिया है। फिर भी, राजकुमार शुक्ल को गांधी का तीसरा गुरु कहना कहाँ तक न्यायसंगत है इस पर चर्चा अवश्य होनी चाहिए। आम तौर पर इस तरह के विशेषणों में उस व्यक्ति विशेष से कोई अनुमति लेने की परम्परा नहीं है। न तो किसी ने गांधी से पूछकर उनका नाम महात्मा रखा न ही उनसे पूछकर किसी ने उन्हें बापू कहना शुरू किया और न ही उनकी सहमति से उनके द्रोणाचार्य की तलाश और घोषणा की जाने लगी। सही मायने में ‘गुरु’ एक व्यक्ति विशेष तक सीमित न होकर वह कोई भी घटना, परिस्थिति, समय, स्थान या ऐसी कोई भी सजीव या निर्जीव मूर्ति (एकलव्य के गुरु) तक हो सकती है, जो किसी व्यक्ति के जीवन के तत्व को जगा दे, उसकी आत्मा के सूक्ष्म का विस्तार विराट में कर दे, उसे अपने गंतव्य का रास्ता दिखा दे और उसका दिल जीत ले। गांधी का ‘पैसिव रेसिस्टेंस’ या ‘सविनय अवज्ञा’ वह ब्रहमास्त्र था जो उनके गहन आध्यात्मिक मंथन से नि:सृत अमृत था। पहले ‘सदाग्रह’ और बाद में ‘सत्याग्रह’ नाम से लोकप्रिय उनका यह एक नवीन आध्यात्मिक दर्शन था जिसमें विरोध तो था, स्वामिभक्ति भी थी। अन्याय को नकारना तो था, किंतु प्रेम के तंतु में बँधे रहकर ही। अपनी बात मनवाना तो था, लेकिन सत्य और अहिंसा के आग्रह से ही। और, ‘ईश्वर के साम्राज्य को अपने हृदय में धारण करने’ के इस संस्कार को पोषित होने में गांधी की ख़ुद की पारिवारिक विरासत, दादा उत्तमचंद की बाएँ हाथ से अपने नए राजा को सलामी मारने के पीछे अपने दाहिने हाथ में पुराने राजा की संजोयी स्वामिभक्ति की कहानी, पिता करमचंद के अपनी स्वामिभक्ति की रक्षा के ख़ातिर अंग्रेज़ एजेंट द्वारा प्रताड़ित होने की कहानी, स्कूल में ‘केटल’ शब्द लिखने के लिए नक़ल से इंकार करने की कहानी, माँ पुतलीबाई के उपवास और धार्मिक संस्कार की कहानी, पिता की मृत्यु के क्षण, रस्किन की पुस्तक ‘अंटु द लास्ट’ का प्रभाव, टोलस्टोय से उनका पत्राचार, गोखले की सीख  और अंत में चंपारण के इस अनगढ़ निर्मल हृदय वाले किसान राजकुमार शुक्ल द्वारा ‘दिल जीत लिए’ जाने की उनकी स्वीकारोक्ति, इन तमाम प्रसंगों का एक सम्यक् वितान तना हुआ है। ये सारे प्रकरण उनके अंतस में ‘पैसिव रेसिस्टेंस’ के संस्कार को भरते रहे और चंपारण  में जाकर इसने अपनी पहचान की पूर्णता प्राप्त कर ली। १९२७ में मीरा बेन को लिखे पत्र में गांधी ने लिखा, ‘चंपारण  ने ही मुझे भारत में पहचान करायी।‘ 

 देखना और भोगना में अंतर होता है। जिसे गांधी चंपारण  में देखने गए थे उसे राज कुमार शुक्ल भोगते आ रहे थे। यह भी संयोग ही है कि आंदोलन और विरोध की जिस विधा  को  टोलस्टोय जब अपने पत्रों के द्वारा गांधी को  प्रशिक्षित कर रहे थे,  ठीक उसी साल और उसके आस पास उसी विधा में साठी विद्रोह की प्रयोगशाला में शुक्ल जी अपने साथी आंदोलनकारियों को बेतिया के दशहरे मेले में दीक्षित कर रहे थे और आंदोलन के उसी संस्कार को अपने हज़ारों साथी आंदोलनकारियों के साथ उन्होंने गांधी के हाथों में उससे ९ साल बाद यथावत सौंप दी थी। बेतिया की भीड़ देख गांधी हतप्रभ हो गए थे। तभी तो शुक्ल जी के बारे में १९१७ के कैलेंडर की तिथियों के बदलने के साथ-साथ गांधी की डायरी के वाक्यों के कलेवर और तेवर भी बदलने लगे थे :

  ६ अप्रिल – ….उसकी बेचैनी और लगन देखकर ही चंपारण  जाना चाहता हूँ…….. शायद शुक्ल जी के परिचय का दायरा ठीक ठाक हो…. 

७ अप्रिल – …….तभी राजकुमार शुक्ल से भेंट हुई। मुझे जितनी तसल्ली हुई, उससे कई गुना ज़्यादा ख़ुशी उनके चेहरे से झलक रही थी….. 

९ अप्रिल – …..दोनों की एक-सी जोड़ी थी। दोनों किसान जैसे लगते थे, बल्कि मैंने तो पाँव में कुछ भी नहीं पहना, गोखले की मृत्यु के बाद मैंने साल भर पैदल चलने का फ़ैसला किया है…. 

१० अप्रिल – सुबह १० बजे पटना पहुँचा।……………. मेरा किसी से भी ऐसा परिचय नहीं था   अभी बिहार में होटल भी नहीं है…………मुझे लगा था कि राजकुमार शुक्ल भले ही अनपढ़ किसान हैं, पर उनकी जान-पहचान होगी। ट्रेन में ही मुझे उनके बारे में बनी धारणा बदलने की ज़रूरत लगने लगी, पर पटना पहुँचकर तो मुझे भरोसा हो गया कि अब मुझे ही चीज़ों को अपने हाथ में लेकर काम करना होगा, क्योंकि उनके वश में कुछ ख़ास नहीं है।…….

११ अप्रिल – …….कल देर रात बहुत कम समय की सूचना के बावजूद, जिस तरह प्रो कृपलानी और उनके शिष्यों ने मुज़फ़्फ़रपुर पहुँचने पर हमारा स्वागत किया, उस गर्मजोशी के बाद लगा कि पटना का अनुभव झूठा था।उस मनोरंजक अनुभव के चलते राजकुमार शुक्ल के प्रति मेरा आदर बढ़ गया।……..


१९ जुलाई – ख़ास तौर पर सबसे पहले बोले राजकुमार शुक्ल पर तो सारा गोरा खेमा एकदम टूट पड़ा ………. पर राजकुमार के कहने की शैली बड़ी अच्छी थी……..आबवाबों की वसूली का जो क़िस्सा सुनाया उससे सब हैरान थे…… 

ऊपर के उद्धरण शुक्ल जी के प्रति दिन-पर-दिन गांधी की बढ़ती श्रद्धा की झलकी मात्र हैं। यदि उन्हें चंपारण लाने के लिए शुक्ल जी द्वारा किए गए सम्पूर्ण उद्योग से लेकर पूरे आंदोलन के दौरान और उसके बाद भी शुक्ल जी की गतिविधियों का गहरायी से अवलोकन करें तो दास जी की इस पुस्तक से तीन बातें तो बिल्कुल साफ़ हो जाती हैं – पहली यह कि शुक्ल जी ने गांधी जी को अत्यल्प समय में ही चंपारण की स्थिति को इतना बख़ूबी समझा दिया कि उन्हें अब अपने से स्थिति को देखने-समझने की और ज़्यादा ज़रूरत नहीं रह गयी। दूसरी यह कि गांधी के नैतिक और आध्यात्मिक दर्शन के गूढ़ सिद्धांत को शुक्लजी ने चंपारण की प्रयोगशाला में १९०८ के आस पास से ही प्रायोगिक जामा पहना रखा था और तीसरी यह कि गांधी ने शुक्लजी के व्यक्तित्व से स्वयं सत्याग्रह के कई तत्व बटोरे। 

अब गांधी के जीवन में गुरु प्रभाव डालने वाले तत्वों की गिनती तो इतिहासकारों की अपनी बौद्धिक जुगाली का विषय होगा लेकिन यह पुस्तक पाठकों को वहाँ तक तो अवश्य छोड़ जाती है कि उसे इस बात का अहसास होने लगता है कि गांधी के चंपारण-सत्याग्रह  में शुक्लजी  की चेतना निरंतर आंदोलित होते रही। 

                        --- विश्वमोहन

                     



17 comments:

  1. बहुत सुंदर

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  2. सुंदर सारगर्भित समीक्षा, आपको और राजकुमार शुक्ल जी को हार्दिक शुभकामनाएं ।

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    1. शुक्लजी की स्मृतियों को नमन। जी, अत्यंत आभार। इतिहासकार भैरव लाल दास जी को भी अशेष शुभकामनायें

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  3. आदरणीय विश्वमोहन जी, आपकी सुदक्ष लेखनी से पुस्तक की सांगोपांग समीक्षा बहुत अच्छा लगी। एक जननायक और युगपुरुष गाँधी जी के जीवन को गहनता से प्रभावित करने वाला इंसान आम कैसे हो सकता है ? निश्चित रूप से राजकुमार शुक्ल जी सरीखे नायकों ने इतिहास के एक कालखंड को प्रभावित किया है | गाँधी जी को चंपारण आमंत्रित कर आत्मबोध कराने के पीछे उनकी किसान हित की विराट भावना ही थी |जनकल्याण की निर्मल भावना के साथ -साथ ,उस अनपढ़ नायक ने गाँधी जैसी विभूति को प्रभावित कर और महात्मा' शब्द से अलंकृत कर अपना नाम इतिहास में अमर कर लिया |आपकी समीक्षा ने पुस्तक के मुख्य बिन्दुओं को प्रकाश में लाकर पाठकों से पुस्तक का बड़ा रोचक परिचय कराया है | इतिहासकार माननीय 'श्री भैरव लाल दास जी ' के प्रामाणिक तथ्यों से युक्त यह स्तुत्य प्रयास , शुक्ल जी का परिचय नये और पुराने पाठक वर्ग से करवाएगा | सचमुच किसी पीढ़ी का इतिहास ना होना जितना दुर्भाग्य पूर्ण है उससे कहीं अधिक दुःखद अपने इतिहास को ना सहेजना है। शुक्ल जी पर ये शोध और जानकारियां उनके विस्मृत गौरव को नई आभा प्रदान करेंगी। यूं उनकी गिनती unsung hero में करना न्याय संगत नहीं। उनका स्मरण चंपारण सत्याग्रह के सूत्रधार के रूप में सदैव किया जाता रहा है। पर इतिहास में उनके योगदान पर इतिहासकारों का पक्षपात पूर्ण रवैया रहा है ये कड़वा सच है। आशा है ये पुस्तक उनके जीवन के अनछुए पहलुओं से अवगत कराएगी।
    इतनी महत्वपूर्ण पुस्तक की रोचक समीक्षा के लिए आपको बहुत -बहुत बधाई औरआभार । माननीय भैरव लाल दास जी को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई इस श्रम साध्य , प्रमाणिक जीवनी लेखन के लिए। उनका ये वंदनीय , अतुलनीय प्रयास ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे , यही कामना करती हूं🙏🙏

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    1. समीक्षा की इतनी वृहत और सकारात्मक विवेचना का हृदय से आभार।

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    2. कृपया, समीक्षा बहुत अच्छा लगी को ----बहुत अच्छी लगी पढ़ें | सादर

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    3. ठीक है। टंकण अशुद्धि को इतनी गंभीरता से लेने की आवश्यकता नहीं है😀🙏

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  4. The number of unsung heroes from our freedom struggle are legion. The effort to bring their stories out of the dusty files lying in some obscure government archive or library to the fore requires commitment, conviction and patience. The endeavour by Shri Bhairav Lal Das is to be lauded.
    Your review of his book gives an extra fillip and meaning to Shri Das`s toil.
    A well written, balanced and insightful critique. Compliments... Mr Vishwamohan.

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    1. My gratefulness to you for your encouraging words!🙏

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  5. सही कहा आपने कि जब किसी किताब का नाम किसी महापुरुष की जीवनी का आभास देता है और यह जीवनी स्वयं उस महापुरुष के द्वारा लिखी आत्मकथा न होकर किसी लेखक के द्वारा लिखी गयी ‘बायोग्राफ़ी’ की शक्ल में है। ऐसी कोई भी जीवनी जब भी हमारे सामने आती है तो हमारे विज्ञान पोषित प्रखर पाठक मन में अनेक प्रश्न उठ खड़े होते हैं। हम उस महापुरुष और उस लेखक के मध्य के मनोवैज्ञानिक तंतु की पड़ताल करने बैठ जाते हैं। आख़िर उसके लेखन का उत्स क्या है?
    इस पुस्तक "चम्पारण सत्याग्रह की चेतना - राजकुमार शुक्ल" को भी इसी तरह के सवालों से घिरना तो होगा पर जैसे आपकी समीक्षा से पता चलता है कि....
    शुक्ल जी के बारे में १९१७ के कैलेंडर की तिथियों के बदलने के साथ-साथ गांधी की डायरी के वाक्यों के कलेवर और तेवर भी बदलने लगे थे :
    और तिथिवत विवरण जो आपने समीक्षा के साथ ही सरल एवं विस्तृत रूप में किया है निश्चय ही सारे भ्रमों को तोड़कर पाठक वर्ग में पुस्तक को प्रचलित ही नहीं करेगा वरन लेखक आदरणीय भैरव लाल दास जी की लेखन की मंशा को भी पूरा करेगा।शुक्ल जी को इतिहास के पन्नों में यथावत स्थान एवं सम्मान भी मिलेगा....
    हमारे इतिहास की जानकारी देती इस महत्वपूर्ण पुस्तक हेतु आ. भैरवलाल दास जी को एवं शानदार रौचक एवं श्रमसाध्य समीक्षा हेतु आपको अनंत बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएं।
    🙏🙏🙏🙏

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    1. समीक्षा की भी इतनी सुंदर समीक्षा। वाह! नमन आपकी विवेचना प्रज्ञा को। अत्यंत आभार।

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  6. जब समीक्षा इतनी सूचनाप्रद, उपयोगी तथा नेत्र खोल देने वाली है तो पुस्तक की उपयोगिता के लिए क्या कहा जाए? निश्चय ही यह इतिहास को शुद्धता के साथ समग्रता में जानने एवम् समझने में रुचि रखने वालों के लिए एक अनमोल अभिलेख होगी। ठीक कहा आपने कि वही टिकता है जो बाज़ार में बिकता है। सर चढ़कर बोल रहे बाज़ार के बाज़ारुपन का यह अत्यन्त पीड़ादायी कटु सत्य विवश होकर गले उतारना पड़ता है विश्वमोहन जी। क्या करें?

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    1. जी, अत्यंत आभार आपकी इतनी सारगर्भित टिप्पणी का।

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  7. [17/12, 20:04] Anamika Raje: प्रवाहमान पर बंधी हुई ,प्रभावशाली पर सहज , रोचक पर संतुलित, तथ्यपरक पर सरस भाषा और शैली।
    पंक्तियों पर पंक्तियां हड़बड़ा देती हैं ! गहन विश्लेषण और व्यापक दृष्टिकोण है आपका!
    कुछ पंक्तियों से गुज़रते हुए मेरे चेहरे के भाव भी हड़बड़ाहट भरे थे!
    जैसे -
    "किसी भी युगपुरूष का जीवन समष्टि की यज्ञशाला में उसके निरंतर आहूत होने का आख्यान है।"
    "इतिहासकारों की ‘इतिहास अभिजात्यों की, अभिजात्यों के लिए और अभिजात्यों के द्वारा’ शैली" 
    "मिट्टी में शुक्लजी द्वारा पहले से प्रवाहित आंदोलन के संस्कार की गंडकी में प्रवेश करते ही उनकी अंतरात्मा की शक्ति जाग उठी और बस दो-तीन दिनों में ही इस जागृत आत्मबल की आहट ने ब्रिटिश साम्राज्य की कुंडी खटखटा दी।
    और अंत में "
    "अब गांधी के जीवन में गुरु प्रभाव डालने वाले तत्वों की गिनती तो इतिहासकारों की अपनी बौद्धिक जुगाली का विषय होगा लेकिन यह पुस्तक पाठकों को वहाँ तक तो अवश्य छोड़ जाती है कि उसे इस बात का अहसास होने लगता है कि गांधी के चंपारण-सत्याग्रह  में शुक्लजी  की चेतना निरंतर आंदोलित होते रही। "
    आपका लेखन पढ़ना मेरे लिए सौभाग्य की बात है सर ।
    हरि ऊँ तत्सत
    🙏🙏💐💐

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    1. जी, अत्यंत आभार आपकी इस उत्साहवर्द्धक टिप्पणी के लिए।🙏🙏

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