Sunday 19 January 2020

“सत्यमेव जयते, अहिंसा परमो धर्म:”

“सत्यमेव जयते, अहिंसा परमो धर्म:”


भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त ‘विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार’ हमारी सनातन परम्परा के मूल से नि:सृत है। प्रारम्भ से ही हमारा सनातन दृष्टिकोण जीवन के एक ऐसे दर्शन की तलाश में रहा है जो ‘आत्मवत सर्व भूतेषु य: पश्यति स: पंडित:’ के भाव में पगा हो और जिससे ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना का प्रवाह होता है। अतः हमारी अभिव्यक्ति की परम्परा के उत्स में ही इस व्यवहार दर्शन का प्राधान्य रहा जो ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’की ओर उन्मुख हो। और तो और, पारिवारिक अनुष्ठान में एक बालक नचिकेता भी अपने वैचारिक विरोध की अभिव्यक्ति को प्रबल स्वर देने में पीछे नहीं हटता और अपने पिता की अनैतिकता को ललकार देता है। हमारा समस्त उपनिषद दर्शन ऐसी ही वैचारिक शुचिता और अभिव्यक्ति की गरिमा के अध्यात्म का आख्यान है।
समस्त भारतीय विचार-कुल-परम्परा शास्त्रार्थ की विलक्षण विवेचना प्रणाली से विभूषित है। सारत: ‘विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार’ हमारी सनातन परम्परा में महज़ एक क़ानूनी अधिकार ही नहीं बल्कि एक विराट सांस्कारिक उत्तरदायित्व का वहन भी है जो अपना विरोध भी अपने व्यवहार की विनम्रता और विचार के चेतन स्तर पर प्रकट करता है। जहाँ दुर्दांत हत्यारे डकैत अँगुलीमाल के समक्ष बुद्ध का संयत व्यवहार और चेतना-दीप्त प्रतिवाद ‘मैं तो ठहर गया, भला तू कब ठहरेगा?’ उसके अंतर्मन को झकझोर देता है और वह डाकू ‘ठहर’ जाता है। विरोध की अभिव्यक्ति का यहीं दर्शन आर्यावर्त की धारा की उर्वरा शक्ति है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इसी अध्यात्म को स्वर दिया बापू ने अपने सत्याग्रह में राजकुमार शुक्ल के सदाग्रह पर चंपारण  में १९१७ में! अब देखिए और तुलना कीजिए इसी साल घटने वाली दो घटनाओं की। एक रूस में और दूसरी भारत के चंपारण में। रूस में भी जनता सामंती अत्याचार में त्राहि-त्राहि कर रही थी। चंपारण में भी निलहे ज़मींदार जनता का ख़ून सोख रहे थे। क्रांति की धारा दोनों धराओं पर एक साथ बही। विरोध के स्वर दोनों के आकाश में एक साथ गूँजे। किंतु कितना अंतर था दोनों में ! एक की धरती लहू से लबरेज़ थी तो दूसरे का आँगन अहिंसा के अध्यात्म से आप्लावित ! 
चंपारण की अवाम ने राजकुमार शुक्ल के नेतृत्व में अपने आंदोलन का नायक गांधी को चुना और गांधी ने अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अनुवाद अपने सत्याग्रह में किया। सत्य और अहिंसा के अध्यात्म में चंपारण का कण-कण आंदोलन का चेतन स्वरूप बन गया और क्रूर सामंती व्यवस्था ने उसके समक्ष घुटने टेक दिए। अभिव्यक्ति की इसी दार्शनिक परम्परा का प्रवाह आगे हुआ और समस्त भारत भूमि ‘बिना खड्ग, बिना ढाल’  सिक्त होकर अंग्रेज़ी सत्ता से रिक्त हो गयी।
दूसरी ओर रूस के नायक की अभिव्यक्ति की कोख से ख़ून की धारा बहने लगी। भीषण नरसंहार हुआ। करोड़ों जानें गयीं। नायक तानाशाह हिटलर की गोद में जा बैठा और इतिहास रक्त-रंजित हो उठा। 
हमारा उद्देश्य इतिहास बाँचना नहीं, विरोध की इस विकृत शैली की विसंगतियों के आलोक में अपनी उदात्त परम्पराओं का स्मरण कर अपने पवित्र संविधान में दिए गए ‘विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार’ का सांस्कारिक और सार्थक निर्वाह करने की आवश्यकता को रेखांकित करना है। ऐसा न कि हम पथ-भ्रमित लम्पट तत्वों की चपेट में आकर इस आध्यात्मिक अधिकार की गरिमा को धूमिल कर दें!
“सत्यमेव जयते, अहिंसा परमो धर्म:”              

8 comments:

  1. आत्ममंथन जरूरी है इस से पहले देर हो जाये। सटीक।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी, अत्यंत आभार आपका।

      Delete
  2. भारतीयता की पहचान,अहिंसा परमोधर्म एक भूला- बिसरा दर्शन हो चला है। अतिभौतिकवाद में डूबे लोग इसकी गरिमा और महिमा भूलने पर उतारू हैं। हिंसा ने भी अब अहिंसा का मुखौटा पहन लिया है। आत्ममंथन को प्रेरित करता सार्थक निबंध 👌👌👌

    ReplyDelete
  3. जी, अत्यंत आभार आपका।

    ReplyDelete

  4. ये दीजिए....

    आपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 23 जनवरी 2020 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत आभार आपके इस 'सोमवार' के सुंदर लिंक का आज 23 जनवरी को।🌹😀

      Delete
  5. विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार’ हमारी सनातन परम्परा में महज़ एक क़ानूनी अधिकार ही नहीं बल्कि एक विराट सांस्कारिक उत्तरदायित्व का वहन भी है जो अपना विरोध भी अपने व्यवहार की विनम्रता और विचार के चेतन स्तर पर प्रकट करता है.....
    बहुत ही सारगर्भित एवं विचारणीय लेख लिखा है आपने सटीक उदाहरणों के साथ....नवयुवाओं को इस पर मनन अवश्य करना चाहिए अपनी संस्कृति
    की महिमा को समझकर अहिंसात्मक तरीके से अपने विचारों की अभिव्यक्ति कर अपने देश के गौरव को बनाए रखना चाहिए । लेकिन आज समाज का एक बड़ा तबका गांधी विरोधी है जो ये मानता है कि देश को आजादी गाँधी जी की अहिंसा और सत्याग्रहों से नहीं बल्कि क्रांतिकारियों की सरफरोशी से मिली ....।
    फिर सत्यमेव जयते का इंतजार और धैर्य इन्हे फिजूल लगता है और अपनों का खूनखराबा करने में ये स्वं को क्रांतिकारी समझ बैठते हैं...।
    सादर नमन एवं साधुवाद इस विचारणीय लेख के लिए...।

    ReplyDelete
    Replies
    1. हृदयतल से आभार आपकी इस सार्थक और उत्साहपूर्ण टिप्पणी का।

      Delete