Thursday 27 June 2019

कुटिल कौम! कैसी फितरत!!



धुकधुक सी धौंकनी धरणी की,
धधक-धधककर धिपती है।
हांफ-हांफकर हवा लहकती,
धरती की छाती लीपती है।

प्राण-वायु निष्प्राण जान-सी,
मारे- मारे फिरती है।
वसुधा के वल्कल-वक्ष पर,
किरण आग-सी गिरती है।

पेड़ों की सूखी टहनी का,
डाल-डाल मुरझाता है।
और फुनगी का पात-पात,
मरघट मातम सुर गाता है।

कंधे पर जुआ बैलों के,
बिन जोते जल जाता है।
धंसा फाल लोहे का हल के,
खेतों में गल जाता है।

 लू की लकलक लपटों में,
काल तरंगे घूमती है।
श्मशान में शिशुओं को,
'चमकी' से चाट चट चूमती है।

पत्रकार के पाखंडो से,
आई सी यू सहम जाता है।
मृगछौनों के मौत का मातम,
नहीं रहम कोई खाता है।

सियासत की सड़ी सड़कों पर,
गिद्ध-चील मंडराते है।
बच्चों की लाशों को ज़ुल्मी,
नोच-नोचकर खाते हैं।

जब-जब हबस हैवानियत की,
मुर्दों में मदमाती है।
रक्त राजनीति से रंजित,
माटी यह सरमाती है।

प्रदूषण है पग-पग पर,
प्रशासन हो या कुदरत!
गरीब-गुरबा ही मरते है,
कुटिल कौम!कैसी फितरत!!








19 comments:

  1. नमस्कार सर
    तत्कालीन परिस्थितियों पर कुठाराघात है आपकी ये अभिव्यक्ति।अति सुंदर।

    ReplyDelete
  2. दारुण दावानल है, ना जाने कैसा अभिशाप है।
    नोनिहाल कैसे काल कलवरित हो रहे हैं
    और संवेदनाओं के सिर्फ नाटक हो रहें हैं।
    हृदय द्रवित करती प्रस्तुति ।

    ReplyDelete
  3. आभार हृदयतल से।

    ReplyDelete
  4. अभिव्यक्ति ऐसी कि पढ़ने सुननेवाले के हृदय में कसक उठा दे। कई मुद्दों को छूती हुई प्रभावशाली रचना। सादर।

    ReplyDelete
    Replies
    1. लेखक की लय जब पाठक पढ़ ले तो रचना सार्थक हो जाती है। बहुत आभार।

      Delete
  5. मानवीय संवेदनाओ को झझकोरती और राजनैतिक विद्रूपता का पर्दाफाश करती रचना जिसमें रोष है , क्षोभ है साथ में सनसनी के भूखे मीडिया को कड़ी फटकार है | सादर

    ReplyDelete
  6. अच्छी कविता विश्वमोहन जी .

    ReplyDelete
  7. पर्दाफाश करती रचना

    ReplyDelete
  8. What’s Happening i’m new to this, I stumbled upon this I’ve discovered It positively helpful and it has helped me out loads.

    ReplyDelete