Wednesday, 29 October 2025

जाति का सच : रोज़ी-रोटी-बेटी या राजनीति!


लोकतंत्र की जन्मस्थली बिहार में अब लोकतंत्र की परिभाषा बदल गयी है। अब यह जातितंत्र में बदल गया है। यह जाति का, जाति के लिए और जाति के द्वारा तंत्र बन गया है। जाति ने भी अपना स्वरुप बदल लिया है। पहले जाति का संबंध रोज़ी, रोटी और बेटी से था। मतलब जाति की पहचान पहले रोज़ी से थी। जाति का आर्थिक कलेवर उस जाति का अपना रोज़गार था। सच पूछें तो जाति की अवधारणा के पीछे का सच उस जाति का पारंपरिक रोज़गार ही था। औद्योगिक क्रांति से लेकर सूचना क्रांति तक आते-आते रोज़गार का जातिगत बंधन लुप्तप्राय हो गया और इस मोबाइल युग में तो रोज़गार और व्यवसाय भी जाति के बंधन से मुक्त होकर पूरी तरह मोबाइल हो गए। कहने का तात्पर्य यह है कि अब किसी भी जाति का व्यक्ति कोई भी रोज़गार कर लेता है और अब जाति अपनी परंपरागत रोज़ी की पहचान किंचित नहीं रही। किसी भी व्यवसाय की आज कोई जाति नहीं है। अगर जाति है तो सिर्फ़ एक व्यवसायी की, और वह है – राजनीतिक नेता!

पहले लोग अपनी जाति की ही रोटी स्वीकार करते थे। अगर कोई अजनबी किसी गाँव में जाता था तो वह अपनी जाति का ही घर खोजता था, जहाँ की वह रोटी खा सके। लोग खाना देने और लेने के पहले जाति की सूचना अवश्य ले लेते थे। आज यह भेद पूरी तरह समाप्त हो चुका है। किसी भी होटल, ढाबे, रेस्टौरेंट, भोज, पार्टी या किसी भी खाने पीने के आयोजन में जाति की कोई भनक भी नहीं मिलती। कुल मिलाकर रोटी ने भी जाति से अपना नाता पूरी तरह तोड़ लिया है। रोटी की जुगाड़ में अब जाति हाशिए पर चली गयी है।

अब रही बात बेटी की तो पहले बेटी भी अपनी जाति में ही ब्याही जाती थी। सच कहें तो जाति का सबसे प्रबल आग्रह यदि किसी सामाजिक संस्था में था तो वह विवाह की संस्था ही थी। इस मामले में समाज अत्यंत रूढ़ था। ऐसा नहीं है कि यह रूढ़िवादिता अब समूल नष्ट हो गयी है, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि इस साइबर और सूचना क्रांति के प्रहार ने इस रूढ़िवादिता की चूलें हिला दी हैं। और, इससे सबसे ज़्यादा प्रभावित कोई प्रदेश हाल के समय में रहा है तो वह बिहार है। एक प्रमुख कारण इसका बिहार के सबसे बड़े सक्रिय अंश का बिहार से बाहर पलायन कर जाना, चाहे वह मेहनतकश मज़दूर हों, अच्छी शिक्षा की तलाश में बिहार छोड़ गए प्रतिभाशाली छात्रों की जमात हो या अच्छी नौकरी की तलाश में योग्य बिहारी नवयुवक और नवयुवतियाँ! हर क्षेत्र का बिहारी ‘क्रीमी लेयर’ बिहार छोड़कर बाहर चला गया और उसने बिहारी समाज की रूढ़िवादिता का परित्याग कर आधुनिक मूल्यों को अपना लिया। इसकी सबसे बड़ी मार बिहारी समाज में विवाह-सम्बन्धों की जातिगत रूढ़िवादिता और दहेज की कुप्रथा पर पड़ी। बहुत अधिक मात्रा में दहेजमुक्त और अंतर्जातीय विवाह बिहारी नवयुवकों और नवयुवतियों ने की और जाति बेचारी हाथ मलती रह गयी। यह प्रक्रिया अभी जारी है और इसकी गति के और अधिक त्वरित होने की संभावना भी अत्यंत बलवती है। 

अब तेज़ी से बदलते युग में जाति ने इन तीनों से क़रीब-क़रीब अपना नाता तोड़ लिया है। रोज़ी और रोटी अब जाति के बंधन से मुक्त हो गयी हैं। वैवाहिक संबंधों में भी अंतर्जातीयता अपनी जड़ें जमाती चली जा रही है। जाति के स्वरुप के इस सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के पीछे बिहार के पिछड़ेपन और उससे प्रसूत विस्थापन की बड़ी अहम भूमिका है। बिहारी समाज का एक बड़ा अंश अब बिहार छोड़कर बाहर आ गया है। अपनी आजीविका और शिक्षा के संघर्ष में इस तबके ने अपने जातिगत पूर्वाग्रहों की लगभग तिलांजलि दे दी है।

रोज़ी, रोटी और बेटी को छोड़ती जाति अब मात्र राजनीतिक पाखंड बनकर रह गयी है। इस तथ्य को यदि किसी ने बड़ी शिद्दत से महसूस किया है तो रोज़ी-रोटी और पढ़ाई-लिखाई के अवसरों की तलाश में बिहार से पलायन कर गयी वह एक बड़ी बिहारी जनसंख्या है। इस तलाश में दर-दर भटकती बिहारी जनता ने अब अपनी अस्मिता भी तलाश ली है। राष्ट्र्कवि दिनकर की इस संतति ने अब भलीभाँति इन पंक्तियों के मर्म को आत्मसात कर लिया है कि :

“जाति जाति रटते जिनकी पूँजी केवल पाखंड

मैं क्या जानूँ जाति? जाति हैं ये मेरे भुजदंड।“

ठीक इसके उलट, बिहार में पीछे छूट गए लोगों के बीच के लम्पट, अपराधी, अशिक्षित और भ्रष्ट असामाजिक तत्वों ने अपना आशियाना राजनीति में ढूँढ लिया है। आप बिहार के राजनीतिक भू मंडल पर तनिक एक बार अपनी दृष्टि फेर कर देख लें। आपको आज की बिहारी राजनीतिक जमात के अधिकांश में शायद ही उस प्रजाति का कोई अंश भी नज़र आए जिसका प्रतिनिधित्व बाबू कुँवर सिंह, राजकुमार शुक्ल, खुदीराम बोस, शहजानंद सरस्वती, सच्चिदानंद सिन्हा, राजेंद्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण, श्री कृष्ण सिंह या ऐसे और अनेक नाम जो यहाँ छूट रहे हैं, करते थे। राजनीतिक नेताओं का अधिकांश आज काले धन कमाए बिचौलिए, दलाल, भू-माफ़िया, ठेकेदार, अपराधी और भ्रष्टाचार में आकंठ निमग्न सरीखों से ही भरा हुआ है। इनकी न कोई सांस्कारिक  पृष्ठभूमि, न कोई समाज सेवा की तपोभूमि, न कोई वैचारिक दृष्टि और न ही कोई राजनीतिक सोच। राजनीतिक वातावरण इतना विषाक्त हो गया है कि कोई भी शरीफ़, शिक्षित, अमन-चैन पसंद और गंभीर व्यक्ति राजनीति में  जाने की सोच नहीं सकता। जाहिल, अनपढ़, असभ्य और  कुसंस्कृत भ्रष्टाचारियों की यह क़ौम ही अब धीरे-धीरे बिहार की राजनीति की पहचान बनती जा रही है। स्वस्थ सोच और वैचारिक दृष्टिकोण के नितांत अभाव वाले ऐसे सड़क छाप नेताओं को अपनी भीड़ बनाने और बढ़ाने का अब एक ही ठौर है – जाति! जाति के नाम पर जनता को गोलबंद कर अब ये अपनी दुकान चला रहे हैं। दुर्भाग्यवश, इनको पनाह देनेवाले राजनीतिक दल भी कुसंस्कार के कीचक में आकंठ डूब चुके हैं। जाति तंत्र के पोषक और पथ प्रदर्शक यहीं राजनीतिक दल बन गए हैं। इस अवसर पर ज़रा जानकी वल्लभ शास्त्रीजी की बातों को याद कर लें :

“कुपथ-कुपथ रथ दौड़ाता जो पथ निर्देशक वह है,

लज्जा लजाती जिसकी कृति से धृति उपदेशक वह है”

समाज को जाति में बाँटकर ये राजनीतिक दल अपनी जीत का समीकरण तय करते हैं। जाति के नेता उस जमात के अपराधी, भ्रष्ट धन-कुबेर और बाहुबली होते हैं। छल-बल और पैसे के जोड़ पर जाति को गोलबंद किया जाता है। दूसरी जातियों का भय दिखाकर भी जातीय एकता को पुष्ट किया जाता है। जाति के नाम पर समाज को बाँटने वाले इन सड़क छाप नेताओं का जाति का सारा वितंडा चुनाव और राजनीति तक ही सीमित है। आज के इस ज़माने में जहाँ भाई को भाई नहीं पूछ रहा है और बेटे की अवहेलना से दंशित बाप वृद्धाश्रम की ख़ाक छानने पर विवश हो रहा है, वहाँ भला जाति के नाम पर कोई किस सदाव्रत की उम्मीद कर सकता है? जनता अपनी ग़रीबी, अशिक्षा, बेरोज़गारी और मजबूरी के चलते जाति की कड़ाह में तले जाने को अभिशप्त है। इस जातिगत दुर्भाव से जहाँ एक ओर समाज में वैमनस्य, ईर्ष्या, अस्वस्थ स्पर्धा और फूट के कारण सामाजिक समरसता समाप्त होती जा रही है, वहीं प्रतिभाएँ भी दम तोड़ रही हैं। कई प्रतिभाशाली युवक जातीय नेताओं के चक्कर में बर्बाद हो रहे हैं। जातिगत दुराग्रहों की दुर्नीति में प्रतिभा छटपटा रही है। हालाँकि इन तमाम विसंगतियों में यह भी स्पष्ट है कि अपने पुत्र/पुत्री की अच्छी शिक्षा या अपने परिवार के स्वास्थ्य के मामले में राज्य के बुरी तरह असफल हो जाने के कारण मजबूर जनता सेवा की गुणवत्ता की तलाश में अपना सब कुछ खोने को विवश है। जाति के नाम पर चुने गये अशिक्षित जाहिल मुखिया द्वारा गाँव के विद्यालय की निगरानी करने और लम्पट विधायक के राज्य की स्वास्थ्य सेवा का प्रभारी मंत्री बनाने के दृष्टांत भी सामने आ रहे हैं। जाति तंत्र लूट तंत्र में परिणत होता जा रहा है।

चुनाव क्षेत्रों का विश्लेषण वहाँ की आम समस्या के आधार पर नहीं बल्कि जातीय समीकरण के आधार पर किया जा रहा है। चुनाव में उम्मीदवारों का चयन भी उनकी योग्यता और क्षेत्र की समस्यायों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर कम और उनकी जाति के आधार पर ज़्यादा किया जा रहा है। क्षेत्र की बदहाली और उससे जूझने वाले जूझारू नेताओं की तलाश में अब किसी राजनीतिक दल की कोई रुचि शेष नहीं रही है। सता के मुकुट को पहनना ही अब राजनीतिक दलों का मुख्य ध्येय है। दिनकर की पंक्तियाँ इन नेताओं का सही चरित्र चित्रण है:-

“ऊपर सिर पर कनक छत्र, भीतर काले के काले,

शर्माते है नहीं जगत में जाति पूछने वाले।“

आजतक जाति की किसी दुकान पर बिहार में यह देखने को नहीं मिला कि कोई जातीय संगठन अपने ग़रीब प्रतिभाशाली बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के लिए अपना कोई संस्थागत सहयोग कार्यक्रम चला रहा हो, अपनी जाति के ग़रीब-बुरवा के इलाज में कोई सहयोग राशि बाँट रहा हो, अपनी जाति की ग़रीब बेटियों के विवाह में अपना कोई योगदान दे रहा हो, या जाति के नाम पर दहेज छोड़वा दिया हो। उलटे इन दहेज लोलुपों पर नयी पीढ़ी ने अंतर्जातीय विवाह का ज़ोरदार तमाचा अवश्य जड़ा है।

अगर बिहार की जनता अब भी नहीं चेती तो वह अपनी मूर्खता और चेतना शून्यता का भारी मूल्य चुकाने को मजबूर होगी। अब तो आशा नयी पीढ़ी से ही है। पुरानी पीढ़ी बुरी तरह लकवा ग्रस्त हो गयी है और उससे कुछ भी आशा करना पत्थर से सिर फोड़ना है। पिछली शताब्दी का अंतिम दशक बिहार के इतिहास का काला पन्ना रहा है। राज्य की अधिकांश जनता को अपने राज्य की विसंगतियों का आखेट बनकर राज्य छोड़ने को मजबूर होना पड़ा। अप्रवासी बने इन बिहारियों को भारी बेइज़्ज़ती के माहौल में कठिन संघर्ष करना पड़ा। आज अपने मेहनत के बल पर इन्होंने अपनी और अपने राज्य की एक मेहनतकश जूझारू छवि बनायी है। इस संघर्ष में इन्होंने अपने आश्रय-स्थल समाज को भी न केवल समझा-बुझा है, बल्कि उसके सापेक्ष अपने राज्य की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का भी आकलन किया है। इस आकलन ने इन्हें ‘क्या खोया और क्या पाना है’ की अंतर्दृष्टि दी है। 

इसलिए यह सही समय है जब राज्य की जनता अब जागे और जाति के नाम पर वोट माँगने वाले इन जाहिल नेताओं का राजनीतिक बहिष्कार करे और जाति से ऊपर उठकर सही और योग्य उमीदवारों को चुने। राज्य प्रदत्त व्यवस्था चाहे वह शिक्षा हो या स्वास्थ्य उसकी सबसे बड़ी उपभोक्ता राज्य की ग़रीब जनता ही है। इसलिए इस तबके के लिए यह चुनाव जीवन-मरण का प्रश्न है और उसका पुनीत दायित्व है कि चुनाव में जात को लात मारकर वह समाज की व्यवस्था बिगाड़ने वाले नेताओं को उनकी औक़ात ज़रूर दिखावे। ऐसे समय में समझदार राजनीतिक चेतना वाले राज्य के प्रबुद्ध जनों से भी एक नयी राजनीतिक संस्कृति की अपेक्षा है। वह न एक ओर, उम्मीदवारों के प्रचार में जातिगत समीकरणों से ऊपर उठकर माटी और मानुष के विकास की ज़रूरत को समझे, बल्कि जनता को भी शिक्षित और जागरूक करे, ताकि लोकतंत्र को जातितंत्र में बदलने से रोका जाय। विकास की इकाई व्यक्ति हो, न कि जाति। ऐसे किसी भी राजनीतिक प्रयास की ओर बिहार की माटी बड़ी उम्मीद भरी निगाहों से देख रही है और ऐसे किसी भी जननायक के लिए वह बहुत उज्जवल भविष्य संजोये हुए है। 



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