प्रसिद्ध भोजपुरी गायिका देवी पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया में चर्चा का केंद्र बनी हुयी हैं। इसका कारण उनका आइ वी एफ की वैज्ञानिक तकनीक से माँ बनना है। साथ ही उनका यह मंतव्य भी प्रकट करना है कि विवाह की संस्था से उनका विश्वास उठ गया है किंतु वह मातृत्व का सुख-गौरव पाने को लालायित थीं। इसीलिए माँ बनने के इस वैध, मान्य और प्रचलित वैज्ञानिक प्रणाली का उन्होंने चयन किया। यह एक निर्विवाद और समस्त प्रमाणों से परे एक शाश्वत तथ्य है कि मातृत्व इस समस्त प्राणी जगत की सर्वोतम निधि है। जैविक स्तर पर यह एकमात्र संबंध है जो दृश्य और ज्ञात है। इसके बाद ही तज्जन्य सहोदर संबधों का उदय हुआ। आत्मिक और भावनात्मक स्तर पर यह अलंघ्य है और इसके समांतर इस चराचर जगत में और कुछ भी नहीं है। यह ईशत्व से भी उत्तुंगतर है। महान सनातन परंपरा में अनुसूया माँ के समक्ष त्रिदेव भी नंगे नन्हें-मुन्ने हैं। यह महिमातीत है, निष्पाप है, निष्कलुष है और पूजनीय है। नवरात्रि के महापर्व में समस्त आर्यावर्त माँ दुर्गा के नव रूपों की पूजा अर्चना करता रहा है। ये नव रूप मातृत्व की बहुरंगी और सर्वतोमुखी ऊर्जा और चेतना की सार्वभौमिक और तात्विक अभिव्यक्ति हैं। मातृत्व की इस अनुपम आभा से अलंकृत होने वाली सुर-साधिका सरस्वती-सुता आदरणीय देवी को भी आत्मीय बधाई और जच्चा एवं बच्चा दोनों के सुखद एवं स्वस्थ भविष्य की शुभकामनाएँ।
किंतु इस सुखद समाचार का एक प्रतिकूल पहलू रहा - सोशल मीडिया में देवी की अतिरेकपूर्ण अभद्र आलोचना। आलोचना का संस्कार भारत की आत्मा है। विचार-विमर्श, शास्त्रार्थ और भावनाओं की अभिव्यक्ति हमारे रक्त में सनातन काल से प्रवाहित होते हुए हमारे आज के लोकतांत्रिक संविधान तक को ऊष्मा प्रदान करती है। किंतु आलोचना की संस्कृति का अतिक्रमण करते हुए कई लोग भाव, भाषा और विचार के स्तर पर अपनी मर्यादाएँ लाँघ गए और समाज के उस विकृत चेहरे को छोड़ गए जो छद्म पौरुष के छल से छलित आज के समाज की वैचारिक नपुंसकता को सामने लाता है। ख़ैर, किसी ने इसे नैतिक मूल्यों पर कुठाराघात बताया। किसी ने सामाजिक मर्यादा के प्रतिकूल कहा। किसी को यह चिंता सता रही थी कि समाज में नवजात शिशु बिना पिता के कैसे पहचाना जाएगा। और किसी ने तो देवी के इस कृत्य के लिए उनके चरित्र पर ही सवाल उठा दिया।
सनद रहे कि इस तरह की ‘फ़ब्ती’ कसने वाले या ‘फ़तवे’ जारी करने वालों का अधिकांश मध्यकालीन सोच-परस्त पुरुष समाज ही था। इनकी व्यंग्योक्तियों (इसे मैं आलोचना की श्रेणी में नहीं रखता) में मर्यादा, शालीनता और तथ्य का अंश अत्यल्प किंतु ‘मेल शौविनिज़्म’ की क्लीवता ज़्यादा थी।
देवी भोजपुरी गीतों की सुमधुर और शालीन गायिका हैं। अपनी अश्लीलता से पहचाने जानेवाले समयुगीन भोजपुरी गीतों के इस दुर्भाग्यपूर्ण काल में देवी के द्वारा गाए गीत शालीनता और सुसंस्कार के ताज़े झोंके और शुभ शकुन के समान हैं। हमारा भोजपुरिया समाज चोली, घाँघरा छाप अश्लीलता से आप्लावित गीतों को गाकर नैतिकता और मर्यादा का दिन-दहाड़े मर्दन करने वाले ‘गवैयों’ पर न केवल अपना नामर्द मौन धारण कर लेता है, प्रत्युत उन्हें अपना जननायक चुनकर विधायी संस्थाओं में पहुँचा आता है। अपनी मातृभाषा का शील हरण करने वाले इन छिछोरे खलनायकों को अपना महानायक बनाते समय नैतिकता के इन ठेकेदारों को अपने समाज की शालीनता और मर्यादा के हरण की तब तनिक भी सुध नहीं रहती। लेकिन भोजपुरिया समाज की इस साफ़-सुथरी कलाकार के वैज्ञानिक और विधि-सम्मत रीति से मातृत्व के गौरव ग्रहण करने में इसे नैतिक मूल्यों पर ग्रहण दिखायी देने लगता है। यह इस माटी में जनमी सनातन परंपरा की उन पूज्य कन्यायों को विस्मृत कर देना है जिनका मातृत्व भी कुछ ऐसी ही तकनीक के मिथकीय अलंकरण से सुशोभित है।आइ वी एफ तकनीक में माँ अपने शिशु को न केवल अपने गर्भ में वहन करती है, बल्कि उसके प्रसव अनुभव का सुख भी लेती हैं। हाँ, समाज के सामने यह नहीं आता कि उसने किसका तेज़ अपने गर्भ में निषेचित किया – वायु का, सूर्य का, धर्म का या किसी अन्य दिती/अदिति-पुत्र का! यहाँ तो खीर खाकर गर्भवती हुई महान माता से प्रसूत परम पूज्य मर्यादा पुरुषोत्तम की गौरव गाथा से आर्यावर्त गुंजित है। आप भले हीं मिथ के नाम पर इन घटनाओं का मखौल उड़ा लें, लेकिन यह निर्विवाद संभावनाओं से परे नहीं कि समकालीन समाज के किसी उन्नत विज्ञान का ही यह कौशल रहा हो। पार्वती पुत्र गणेश के जन्म की कथा से भला कौन अपरिचित होगा?
ऋग्वेद के दसवें मंडल में सूर्या सावित्री के परिणय संकार का वर्णन मिलता है। इसी के साथ इस भू-मंडल पर विवाह नामक संस्था का श्री गणेश हुआ माना जाता है। अपने विवाह के रस्मों की ऋचाएँ सूर्या सावित्री ने स्वयं रचा जो विवाह सूक्त में संकलित हैं। आज भी सनातनी विवाह संस्कारों में इन मंत्रों का उच्चारण किया जाता है। विवाह का प्रमुख उद्देश्य तदयुगीन समाज में अराजक स्त्री-पुरुष संबंधों को एक मर्यादित स्वरुप देने के साथ संतति की उत्पति और वंश परम्परा को स्थापित रखना था। पुरुषार्थ के प्रमुख अंग ‘काम’ के निर्वाह की मर्यादित संस्था के रूप में सामाजिक और धार्मिक उद्देश्यों की पूर्ति का आलम्ब विवाह बना। तबसे आज तक विवाह की यह संस्था भारत ही नहीं वरन वैश्विक समुदाय के अधिकांश की परिवार प्रणाली का अटूट स्तम्भ बनकर रही। एक नारी के द्वारा प्रारंभ की गयी इस व्यवस्था में नारियों का स्थान सदैव सम्मानीय रहा। उनका यह सम्मान वेदों से भी पूर्व की शैव और शाक्त परंपरा में मिलता है। रामायण और महाभारत के काल का नारी गौरव सर्वज्ञात है। पुरुष के दंभ को चुनौती देने वाली पंच कन्याएँ उस ज़माने की नारीवादी नायिकाओं के रूप में आज भी प्रातः स्मरणीय हैं। राजा जनक के दरबार में वाचक्नवी कुमारी गार्गी से शास्त्रार्थ में ऋषि याज्ञवल्क्य के पसीने छूट गए। लोपमुद्रा, अपाला जैसी ऋषिकाओं ने वेद की ऋचाएँ रचीं। समय के प्रवाह में समाज दहता रहा। धीरे धीरे छद्म पौरुष ने अपना विकृत चेहरा उठाना शुरू किया। विकृतियाँ घर बनाने लगीं। फिर भी विवाहेत्तर संबंधों से उत्पन्न शिशु मौलिक वैदिक परंपरा में उपेक्षा और उपहास का विषय कभी नहीं बना और आज के लोकतांत्रिक संविधान और सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा दी गयी व्यवस्थाओं में भी यही स्थिति विद्यमान है।
‘अनेकता में एकता’ का सूत्र वाक्य ऋग्वेद में मिलता है। ‘एकं सत, विप्रा: बहुधा वदंति’। इस अमृत मंत्र के द्रष्टा थे – वैशाली के महर्षि मामतेय देवोत्तम। बालक देवोत्तम ज्ञान अर्जन हेतु गुरु के आश्रम में गए और गुरु से आश्रम में प्रवेश देने की याचना की। गुरु का गुरुत्तर प्रश्न चुनौती बनकर उभरा, ‘वत्स! तुम्हारे पिता का नाम क्या है। तुम्हारा गोत्र क्या है?’ बालक ने कहा, ‘माँ से पूछकर बताता हूँ’। माँ ममता ऋषियों के आश्रम में दासी थी। माँ ने बालक को बताया, ‘पुत्र, हमें भी नहीं पता कि तुम्हारे पिता कौन हैं।‘ बालक देवोत्तम दौड़ा-दौड़ा गुरु के पास पहुँचा और उन्हें सच सच सारी बातें बता दी। गुरु बालक की निर्भिकता, सत्यवादिता और ज्ञान पिपासा से अत्यंत प्रभावित हुए। उन्हें गले लगाया और अपने अश्राम में ले लिया। माँ के नाम पर अपना गोत्र धारण किए मामतेय देवोत्तम महान ऋषि हुए और ऋग्वेद के सूक्तों की रचना में अपना योगदान दिया। इसलिए देवी की संतति के पिता का प्रश्न उठाने वाले शिखंडियों को पहले अपनी सनातन परंपरा में झाँकना चाहिए। संतति समाज की निधि है। वह किसी बाप के नाम का मुहताज नहीं। वह भी आज के समाज के किसी वैसे बाप का नहीं जो बचपन में उसे सदाचार और सत्य का पाठ पढ़ाए, और जब बड़ा होकर बेटा नौकरी मिलने पर उसका आशीर्वाद लेने जाय तो उस बाप का पहला प्रश्न हो, ‘ऊपर की आमदनी कितनी है?’ संभवत: ऐसे बापों के चारित्रिक दोहरेपन के कारण ही नयी पीढ़ी ने उसमें अपना भरोसा खो दिया है और उससे कटती जा रही है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी अविवाहित महिलाओं से जन्मे बच्चों के बारे में सिविल अपील संख्या 5003/2015 में यह व्यवस्था दी है :
“The conundrum is whether it is imperative for an unwed mother to specifically notify the putative father of the child whom she has given birth to of her petition for appointment as the guardian of her child. The common perception would be that three competing legal interests would arise, namely, of the mother and the father and the child. We think that it is only the last one which is conclusive, since the parents in actuality have only legal obligations. A child, as has been ubiquitously articulated in different legal forums, is not a chattel or a ball to be shuttled or shunted from one parent to the other……”
ऐसे भी हमारी सनातन संस्कृति में एक संतान का परिचय अपनी माँ के नाम से दिए जाने के अनेकों उदाहरण विद्यमान है। कौन्तेय,राधेय, देवकीनन्दन, गांधारी पुत्र, गंगा पुत्र आदि आदि। इन समस्त उद्धरणों और पौराणिक प्रकरणों के आलोक में छद्म पुरुष मानसिकता से ग्रसित आलोचकों की अमर्यादित आलोचनाएँ न सिर्फ़ बेमानी हैं, प्रत्युत उनके द्वारा आसमान में थूकने के समान है।
हाँ, देवी के द्वारा विवाह की संस्था के प्रति व्यक्त अविश्वास पुरुष के चरित्र पर ही ज़्यादा सवाल उठाते हैं। आज जिस तरह से विवाह टूटते जा रहे हैं यह समाज के लिए नयी चुनौती बनकर उभरा है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री पारसंस का एक सिद्धांत है ‘Theory of functionalism’( प्रकार्यवाद का सिद्धांत)। इसके अनुसार समाज की या किसी भी व्यवस्था की कोई संस्था या इकाई तब तक ही जीवित रहती है जबतक वह अपने आदर्शों के मापदंड पर खरी उतरती है और अपनी स्थापना के उद्देश्यों का पूर्णत: पालन करती है। अब यह बात किसी से छुपी नहीं है कि दोहरे मानदंड वाले आज के पुरुष प्रधान समाज में दहेज-हत्या और बलात्कार की सुरसा ने जो अपना मुख फैलाया है, यह बिलकुल स्वाभाविक है कि विवाह जैसी संस्थाओं को वह लीलती जा रही है। कुछ पुरुषों का यह भ्रम है कि समाज में स्त्रियों की शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता के उठते स्तर का विवाह की संस्थाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। यदि ऐसा है तो फिर उन पिताओं से पूछिए जो ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के इस महायज्ञ में अपने को आहूत कर रहे हैं। सच तो यह है कि छद्म पौरुष का नपुंसक और निकम्मा तत्व अपनी नाकाबिलियत और आशिक्षा के सामने सिर उठाते नारी वर्चस्व को पचा नहीं पा रहा है और उसकी कुंठा आलोचना के नाम पर असभ्य भाषा, और गंदी ज़ुबान में सोशल मेडिया पर बसा रही है। समाज में दहेज हत्या और बलात्कार जैसी घटनाओं पर इस पुरुष समाज का मुँह नहीं खुलता। आज तक हमने नहीं सुना कि इस तथाकथित पुरुष समाज ने ऐसे कुकृत्यों में शामिल किसी व्यक्ति और उसके परिवार का सामाजिक बहिष्कार किया हो या फिर सामाजिक दंड का कोई ऐसा विधान रचा हो कि ऐसी घटनाओं की पुनरावृति करने का कोई साहस न कर सके और इन पर स्थायी रोक लग सके। इसी देश में जब एक अनव्याहा पुरुष (फ़िल्म निर्माता करण जौहर) सरोगेशी की तकनीक से दो बच्चों का बाप बनता है, तो इस नपुंसक समाज के मुँह पर काठ मार जाता है। इसलिए देश की देवी बेटी के इस निर्भीक क़दम को किसी भी पैमाने पर असभ्य भाषा में की गयी आलोचनाओं से नहीं जोड़ा जा सकता है। समय और प्रकृति असभ्य वृत्तियों का स्वत: नाश कर देती हैं।
समाज में आलोचना के नाम पर पनप रही ऐसी कुत्सित प्रवृतियों और सामाजिक कुरीतियों पर लगाम कसना समाज का काम है। जब इन आसुरी वृत्तियों का अत्याचार सर चढ़कर बोलने लगता है तो व्यवस्था की प्रकृति अपने अंदर से ही समाधान की तलाश कर लेती है। अवतार की धारणा के पीछे भी यही सच है। दुर्गा सप्तशती के ग्यारहवें अध्याय में भी देवी ने अपने इसी महात्म्य की उद्घोषणा की है:
“इत्थम यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति,
तदा तदा अवतीर्य अहं करिष्यामि अरि संक्षयम।“
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