पुस्तक का नाम - बिहार में आंदोलन, राजनीति और विकासलेखक - शिवदयालप्रकाशक - प्रलेक प्रकाशनबिहार के राजनीतिक और सामाजिक बदलाव की भौतिकी और उसके रसायन की पड़ताल को अपना केंद्र बिंदु बनाती शिवदयाल जी की यह पुस्तक पाठकों को बिहार के इतिहास, भूगोल, समाज शास्त्र, बिहारी जीवन के सामाजिक मनोविज्ञान और सामाजिक आर्थिक चरित्र की तह में ले जाती है और उनके मस्तिष्क में पहले ‘सोचने’ का बीज डालकर फिर ‘समझने’ की छटपटाहट छोड़ जाती है। हमारी दृष्टि में पुस्तक की सबसे बड़ी सार्थकता यही है, क्योंकि ‘सोचने’ के अभाव में ‘समझना’ चिंतन की ओर नहीं, प्रत्युत दासता की ओर ले जाता है। इधर सोशल मीडिया के जमाने में सोचने की प्रक्रिया थम-सी गई लगती है। दिन पर दिन मूल्यहीन होती राजनीति और अयोग्य व अपराधी राजनीतिज्ञों के बहुमत के माहौल में तो राजनीति में सोचने और चिंतन करने की संस्कृति को भी लकवा ही मार गया है। समाज का बौद्धिक वर्ग भी अब राजनीतिक पंथों की चाकरी करता एक बुद्धि-जीवी गिरोह में तब्दील हो गया है।किताब के पुरोवाक में १९१२ में निर्मित बिहार के २००० में विखंडन की चर्चा है। गौरतलब है कि झारखंड ने आंदोलन कर अपने को बिहार से अलग कर लिया। यह विभाजन के सामाजिक मनोविज्ञान के उलट है। आमतौर पर अविकसित और बीमार भाग अपने को अलग करने की माँग करता है। यहाँ विकसित और स्वस्थ औद्योगिक झारखण्ड ने अपने को अविकसित और बीमार बिहार से अलग कर लिया। खैर, इन्ही विडंबनाओं का नाम बिहार है। पहला अध्याय परंपरा के अनुकूल बिहार के वैभवशाली अतीत का स्वस्ति वाचन है जो एक बिहारी पाठक के सुकून का एकमात्र आलंब और आज के बिहारी नेताओं की निर्लज्जता की अभिव्यक्ति का अल्फ़ाज़ भी है। बिहारी राष्ट्रवाद के मिथक की चर्चा करते हुए लेखक की यह बात गौरतलब है कि ‘ वास्तव में बिहारी राष्ट्रीयता सचमुच मजबूत होती तो एक आदिवासी मुख्यमंत्री को मौक़ा देकर भी बिहार विभाजन को रोकने को कोशिश की जा सकती थी।’ असल में अपनी ऐतिहासिकता का आग्रह बिहार को कभी बिहारी बनने ही नहीं देगा।’बिहार ने अपनी पहचान को भारत की अस्मिता में विलयित करके रखा।बिहार से भारत ही नहीं दुनिया को देखने की परम्परा रही है।’आज के संदर्भ में लेखक की यह बात बिल्कुल जायज है कि “कई बार ऐसा लगता है जैसे भारत इकतीस राज्यों का संघ नहीं बल्कि वास्तव में छह हज़ार जातियों का संघ है।” और यह जातीय भाव बिहार में इतना उग्र है कि यह किसी भी तरह के क्षेत्रीयतावाद या बिहारी राष्ट्रीयता की लता को पनपने ही नहीं देगा। जातिवाद की इस आग में यहाँ की राजनीति घी ढारती है। सच कहें तो बिहार में जाति रोजी, रोटी और बेटी से मुँह मोड़कर अब राजनीति की गोद में बैठ गई है। १९०१ के जनगणना कमिश्नर रिजले के जाति आधारित सर्वेक्षण के प्रस्ताव को संदेह की दृष्टि से देखा गया था।स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना १९५१ में जातीय गणना को निषिद्ध किया गया। २१ वीं सदी की जनगणना में अब जाति समा गई है। कुल मिलाकर तेजी से बदलते युवा बहुल समाज में जाति के टूटते बंधन को अब नेताओं ने फिर से बांधना शुरू कर दिया है। जाति के समाजशास्त्र के भविष्य को देखना अब बड़ा रोचक होगा।मंडल के जवाब में उठे कमंडल ने समाज का मंथन जरूर किया है।गठबंधन का रसायन बदल गया। एक ऐसा समय राजनीति में आया जब जो जितना छोटा होगा वह उतना शक्तिशाली! और, सत्ता की चाभी उसी के हाथ में। “छोटी इकाइयों में बाँटकर बड़ी लड़ाइयाँ नहीं लड़ी जा सकती।”सम्पूर्ण क्रांति और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की वैचारिकी को लेखक ने बड़ी गहरायी में उतरकर देखा है। शिवदयालजी सम्पूर्ण क्रांति के ठोस और वैचारिक आधार को ढूँढ तो लेते हैं, लेकिन इस मेहराब पर अपेक्षित इमारत के खड़े न हो पाने के कारणों को पूरी तरह नहीं बता पाते। भले ही उनके मन ने इसकी संभावनाओं को अभी भी जीवित रखा है। हाँ, जयप्रकाश नारायण के लिए ‘ राजनीति में महत्वपूर्ण न पाने की कुंठा वाले जयप्रकाश’ लिखने वाले इतिहास के नौसिखुए कलाकार प्रियंवद की उन्होंने काफ़ी तर्कपूर्ण ख़बर ली है। हालाकि, इतनी तल्ख़ी की कोई ज़रूरत नहीं थी क्योंकि परवर्ती घटनाओं ने ऐसे अनाड़ी कलाकारों के इतिहास लेखन को स्वतः अप्रासंगिक बना दिया है।शिवदयालजी ने रामदेव मांझी और पाँचु मांझी की शहादत की यादों की छाया में बोधगया भूमि आंदोलन का सुंदर और सशक्त शब्द चित्र खींचा है। यह क्रांति प्रसूत चेतना का महापर्व था। लेकिन वह भी अब ढाक के तीन पात! ‘उस जमीन की मिल्कियत से भुइयाँ जैसी दलित जातियों का वैसा भावात्मक लगाव नहीं जैसा कि एक आम किसान का अपनी जमीन के प्रति होता है।।’ इस प्रश्न के सांस्कृतिक संदर्भ की पड़ताल में यह बात लेखक की तीक्ष्ण समाजशास्त्रीय दृष्टि से लुका नहीं पाती कि जातीय चेतना अभी भी सांस्कृतिक विलंबन ( cultural lag) का आखेट है।‘विकल्प की तलाश जारी रखनी होगी ‘ अपने इस लेख में शिवदयाल जी ने बड़ी शिद्दत से समाजवाद के प्रखर प्रवक्ता किशन पटनायक को याद किया है। किसी वस्तु के पूर्णतः नष्टप्राय हो जाने के बाद उसकी गढ़ियायी और जीवंत छाया एक धरोहर के रूप में किसी चित्रकार की पेंटिंग में ही हो सकती है।शिवदयाल जी का खचित किशन पटनायक का यह शब्द चित्र समाजवाद की स्मृति की कुछ वैसी ही धरोहर है।बिहार में राजनीति और विकास के बीच के द्वंद्व की चर्चा करते हुए लेखक इसके बहिवर्ती और अंतर्वती दोनों कारकों की पड़ताल करता है। लेखक का मानना है कि ‘ पिछड़े समाजों अथवा क्षेत्रों में विकास के लिए जिम्मेदार तत्वों में सत्ता संरचना और राजनीति की दिशा, शासन की नीतियाँ और कार्यक्रम, ब्यूरोक्रेसी, निष्पक्षता और विश्वसनीयता, उत्पादन संबंधों का स्वरूप, उत्पादन एवं वितरण तंत्र की सक्रियता और सबके ऊपर आमजन की इच्छा शक्ति शामिल है।’ बिहार की राजनीति ही बिहार के विकास का सबसे बड़ा रोड़ा है। बिहार की राजनीति और विकास एक दूसरे के विलोम बनकर आमने- सामने खड़े हैं। राजनीतिक इच्छा शक्ति का नितांत अभाव है। राजनीतिक नेतृत्व के पास विकास की दृष्टि का सर्वथा अभाव है।दलतंत्र के इस दलदल में कुकुरमुत्ते की तरह उगने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों की दशा और दिशा पर भी लेखक ने अपनी आँखें फेरी हैं। सिद्धांततः तो स्थानीय मुद्दों की अनदेखी ही निर्दलीय उम्मीदवारों के उदय का कारण होना चाहिए। लेकिन यहाँ मुद्दा स्थानीय हित नहीं बल्कि व्यक्तिगत अहं है।पैसा, जाति और ताक़त ही राजनीति के सबसे जरूरी आयाम हैं। अब तो राजनीतिक संरक्षण में एक नया भू - माफिया वर्ग भी मैदान में उतर आया है, जिसका अपराधियों और भ्रष्ट अधिकारियों के साथ फ़ेविकोल का जोड़ असली जमीन मालिकों पर भारी पड़ रहा है। बिहार में भूमि सुधार की असफलता पर तंज कसते हुए लेखक का यह विचार ध्यातव्य है कि “ मंडलवाद के उफान के दौर में एक समय ऐसा लगा था कि बिहार में सामंतवाद के दिन गिने - चुने हैं, लेकिन बाद में सामंतशाही को चुनौती देनेवाली जमातों ने ही सामंतों का एक नया वर्ग बना लिया। नवसामंतों का यह वर्ग अपने प्रतियोगियों (पूर्वकालीनों ) से भी ज़्यादा रूढ़ और नृशंस साबित हुआ, अपने यथास्थितिवादी आग्रहों में ये और भी संवेदनहीन निकले, चाहे वह जातीय आग्रहों का मामला हो या जमीन के मसले हों।”शिक्षा व्यवस्था का तो बंटाधार हो गया है। प्राथमिक शिक्षा से गुणवत्ता गायब, माध्यमिक शिक्षा का कोई नामलेवा नहीं और उच्च शिक्षा पतन के गर्त में! बड़ी संख्या में राज्य से बच्चे मजबूरी में बाहर पढ़ने जा रहे हैं। लेखक की इस तहक़ीक़ात से यह बात भलीभांति समझ में आ जाती है कि यहाँ की शिक्षा व्यवस्था चलाने वाले अधिकारी और नेता स्वयं अपने बच्चों को बिहार में क्यों नहीं पढ़ाते।विकासोन्मुखी गवर्नेंस पर भी लेखक ने अपनी वस्तुनिष्ठ दृष्टि फेरी है। एक ओर लेखक सड़क निर्माण और अन्य आधारभूत संरचनाओं के क्षेत्र में हो रही निरंतर प्रगति को रेखांकित करता है तो दूसरी ओर इसकी विसंगतियों और पर्यावरण और पर्यावास में हो रहे निरंतर क्षरण को आड़े हाथों भी लेता है। शिवदयाल जी ने शराबबंदी क़ानून के कार्यान्वयन के प्रमुख किरदारों की बेवक़ूफ़ी की भी बखूबी चर्चा की है। बिहार का प्रशासनिक तंत्र अपराध के राजनीतिकरण और राजनीति के अपराधीकरण के बीच जाके फँस गया है। जड़ता, ह्रास, संवेदनहीनता, कोताही जैसे लक्षणों वाली बीमारी ‘बिहार सिंड्रोम’ के बढ़ने का तो आलम ये है कि लेखक को चिंता है कि कहीं यह संक्रामक होकर अन्य राज्यों को भी अपने चपेट में न ले ले। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लेखक की यह चिंता बेवजह नहीं है।लेखक ने कोरोना काल में मजदूरों के आव्रजन से उत्पन्न स्थिति पर गहरा विचार किया है। इसी की ओट में उन्होंने आव्रजन के इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान को भी खंगाल लिया है। लेखक इन अप्रवासी मज़दूरों के मन में उपजे भय के भाव पर करुणा से विगलित हो जाता है। ‘ एक मजूर की याद ‘ में मज़दूर जीवन की मार्मिक छवि अत्यंत करुण अल्फ़ाज़ों में छलक उठी है। जब करुणा के साथ भय भी उपजने लगे तो समझ लीजिए विनाश दरवाज़े पर दस्तक दे रहा है, या फिर किसी विप्लव, क्रांति या बदलाव की पूर्वपीठिका पक गई है।लेकिन लेखक आशावादी है और उसकी यह आशावादिता उसे भारतीय मूल्य परंपरा से जोड़े रखती है। वह परिवर्तन की प्रक्रिया की वैज्ञानिक परंपरा के आलोक में समाज का अवलोकन कर रहा है।प्रकृति अपने वजूद की रखवाली का रास्ता ख़ुद तलाश लेती है। “ मानव जाति का इतिहास प्रकृति के साथ अनुकूलन का ही इतिहास नहीं है बल्कि प्रकृति को अपने अनुकूल बनाने का इतिहास भी है।” पदार्थ हमेशा जड़वत पदार्थ ही नहीं बना रहता। वह अपने को ऊर्जा में रूपांततरित करने की थ्रेशहोल्ड चेतना ख़ुद तलाश लेता है। शिवदयाल जी की यह आशा इन पंक्तियों में व्यक्त होती हैं, “ लेकिन जहाँ से राजकाज की सीमा समाप्त होती है वहीं से जनता की पहलकदमी और उद्यमशीलता से निर्माण का काम प्रारंभ होता है। भ्रष्ट और अकर्मण्य राजव्यवस्था जनता के सामने कठिन से कठिनतर परिस्थितियाँ तो पैदा कर सकती है, लोगों की बेहतर जीवन जीने की आकांक्षा का दमन नहीं कर सकती। राजनीति लाख नचावे, समाज अपनी राह चलता है।” बिहारियों के अद्भुत जीवट का पर्दाफाश भी हैं ये पंक्तियां! यहाँ पर शिवदयाल जी ने बिहार और बिहारी के नब्ज को छू लिया है।यह पुस्तक मुख्य रूप से शासन से जुड़े किरदारों, समाजशास्त्रियों और सबसे जरूरी आज के युवा वर्ग के लिए पठनीय और संग्रहणीय भी है। सोचने और समझने का भाव जगाने वाली इस पुस्तक के लिए शिवदयाल जी को हार्दिक बधाई !!!
Wednesday, 23 July 2025
बिहार में आंदोलन, राजनीति और विकास
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