Saturday 27 April 2019

इन्साफ का इन्कलाब।

विचित्र विडंबना है भाई
' बेसिक - स्ट्रक्चर ' गड़बड़ाई।
फैल गई
अब बात
घर घर।
हुए 'केशवानंद भारती'
पसीने से
तर - ब - तर।

तुला न्याय की
डोल गई।
कलई अपनी
खोल गई।
"मुजरिम ही हो भला
मुंसिफ!"
कचहरी ही, ये पोल
खोल गई।

देवी न्याय की
दिग दिगंत,
पीट गई
' विशाखा ' ढोल।
खुद के
नक्कारखाने में,
भले
तूती सी बोल।

ई- टेंडर ने
कर दिया,
टेंडर फिक्सिंग
गोल।
'बेंच-फिक्सिंग'
रह गया
बिन तोल के
मोल।

मांग रही
अवाम अब,
इन्साफ का
हिसाब।
धो दें, जनाब,
अंदरुनी
आजादी का
खिजाब।

फरेब का
उतार दें,
हुज़ूर
ये हिजाब।
कीजिए
इन्साफ का,
बुलंद
इन्कलाब।

31 comments:

  1. आदरणीय विश्वमोहन जी -- न्यायपालिका के प्रधान न्यायाधीश के ऊपर लगे यौन उत्पीडन मामले में सर्वोच्च न्यायालय के विवादस्पद निर्णय का विहंगमावलोकन करती रचना बहुत सार्थक है | | न्यायपालिका पर असंख्य लोगों की न्याय की उम्मीद टिकी है ,पर अपने न्यायधीश के मामले में इसका दोहरा रवैया बहुत से प्रश्नों को जन्म देता है | आरोपी को साफ साफ बचाने की कवायद और उसकी आड़ में ये कहा देना, कि न्यायपालिका के विरुद्ध षड्यंत्र का अंदेशा है -- एक बहुत ही बचकाने तर्क सा लगता है | न्याय की दृष्टि में आम और खास एक होने चाहिए | बल्कि आरोपी का सीधा सम्बन्ध न्याय पालिका से है , तो उन्हें इस केस की सुनवाई निर्धारित न्याय प्रक्रिया के माध्यम से ही करनी चाहिए क्योकि भंवरी देवी प्रकरण के फलस्वरूप निर्धारित की गयी विशाखा गाइडलाइन्स के अनुसार सहयोगियों से पीड़ित कामकाजी महिला को उसके कार्यस्थल पर ही अंदरूनी शिकायत समिति के माध्यम से न्याय मिलने का प्रावधान रखा गया है | फिर ये तो सर्वोच्च न्यायालय से जुड़ा का मामला है जिस का निष्पक्ष न्याय समस्त राष्ट्र के लिए एक मिसाल बन सकता है | सो उसे अपनी ही कर्मचारी द्वारा अपने वरिष्ठ पर लगाये गये आरोपों को गम्भीरता से लेकर उस पर सार्थक न्याय देना चाहिए |क्योकि इन्साफ देना न्यायालय का संवैधानिक अधिकार भी है और हर व्यक्ति के प्रति एक नैतिक कर्तव्य भी | माना कि आज कल झूठे आरोपों द्वारा प्रतिष्ठित लोगों की छवि को धूमिल करने के कुत्सित प्रयास भी हो रहे हैं पर ये भी कटु सत्य है कीकिसी भी न्यायविद को महाभियोग की प्रक्रिया के तहत हटाया नहीं गया |लेकिन इस चर्चित मामले में अपनी साख को बचाने और लोगों के न्याय प्रक्रिया पर विश्वास जताने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को बहुत ही पारदर्शिता से से न्याय करना होगा |.सार्थक ज्वलंत विषयात्मक रचना के लिए साधुवाद |

    ReplyDelete
  2. इतनी सुन्दर व्याख्या के साथ अपनी समीक्षा को प्रस्तुत करने के लिए साधुवाद. 'न्याय केवल होना ही नहीं चाहिए, प्रत्युत न्याय होता हुआ प्रतीत भी होना चाहिए' इसकी अंतर्ध्वनि से आपकी समीक्षा आद्योपांत गुंजित है. आभार और बधाई!!!

    ReplyDelete
  3. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरूवार 2 मई 2019 को साझा की गई है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी, अत्यंत आभार आपका।

      Delete
  4. बेहतरीन रचना आदरणीय

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी, अत्यंत आभार आपका।

      Delete
  5. समसामयिक विषयों को समेटती बहुत ही सुंंदर रचना।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी, अत्यंत आभार आपका।

      Delete
  6. Replies
    1. जी, अत्यंत आभार आपका।

      Delete
  7. वाह!बहुत सुंदर और सटीक!
    सही कहा आपनें ,खामी तो बेसिक ढाँचे मेंं ही है ,हर जगह दोहरा रवैया ...न्याय व्यवस्था के प्रति अविश्वास की भावना को ही जन्म देता है ।

    ReplyDelete
  8. समसमयिक विषय पर बड़ी सटीक प्रस्तुति ,सादर नमस्कार

    ReplyDelete
  9. इन्कलाबी नारों से अगर बदलाव संभव हो पता
    तो आज आवाम-ए हिंदुस्तान यूँ बिलखता न नज़र आता

    जनाब,आज की तारीख़ में देश का कौन-सा तंत्र भ्रष्टाचार नामक रोग से ग्रसित नहीं है?
    देश की दिन-ब-दिन होती दुर्गति में किस तंत्र का योगदान कम है ये भी एक विचारणीय प्रश्न है।
    खैर,
    आपकी क़लम तो हर विषय पर अपनी अद्भुत क्षमता का प्रमाण देती आयी है। एक और मनन योग्य धरोहर समाज के लिए बुद्धिजीवियों के लिए सौंप दिया आपने।

    आभार और शुक्रिया आपका।

    ReplyDelete
    Replies
    1. १८५७ से १९४७ तक और फिर १९७५ की क्रांतियाँ और समस्त समसामयिक हलचले तो तत्कालीन इन्क़लाबी नारों से उद्भूत परिवेश का निकष ही प्रतीत होती हैं. और दूसरी बात कि कोई भी तंत्र तभी तक जीवित रहता है जबतक वह उन उद्देश्यों की पूर्ति करने में सक्षम हो जिस हेतु वह अपने अस्तित्व में आया. जी, आपकी टिप्पणियों से अनुगृहित हुआ, आभार!!!

      Delete
  10. बहुत सुन्दर समसामयिक सटीक एवं सार्थक प्रस्तुति...
    मांग रही
    अवाम अब,
    इन्साफ का
    हिसाब।
    धो दें, जनाब,
    अंदरुनी
    आजादी का
    खिजाब।
    बहुत ही लाजवाब
    वाह!!!

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी, अत्यंत आभार आपके आशीष का!!!

      Delete
  11. मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ा है तुमने,
    डंक मारने, झपटें तो, शिकवा मत करना.
    आँख मूंदकर, नहीं बैठना, सीखा तुमने,
    खुली आँख, आफ़त ढाए, अचरज मत करना.

    ReplyDelete
    Replies
    1. वाह! आप क़त्ल पे कत्ल करते रहें और हमें मायूसी का भी हक नहीं.... जी, आभार आपके आशीष का।

      Delete
  12. 'बेंच-फिक्सिंग'
    रह गया
    बिन तोल के
    मोल।
    वाह ! लोगों की बंद आँखें खोलने के लिए आपकी ये दो पंक्तियाँ ही बहुत हैं। पर गांधारी जैसे खुद ही अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर अंधे धृतराष्ट्र का साथ देने वालों का क्या?

    ReplyDelete
    Replies
    1. बात की तह तक जाने का आभार।

      Delete
  13. आवश्यक सूचना :

    सभी गणमान्य पाठकों एवं रचनाकारों को सूचित करते हुए हमें अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है कि अक्षय गौरव ई -पत्रिका जनवरी -मार्च अंक का प्रकाशन हो चुका है। कृपया पत्रिका को डाउनलोड करने हेतु नीचे दिए गए लिंक पर जायें और अधिक से अधिक पाठकों तक पहुँचाने हेतु लिंक शेयर करें ! सादर https://www.akshayagaurav.in/2019/05/january-march-2019.html

    ReplyDelete
  14. जी, अत्यंत आभार आपका!!!!

    ReplyDelete
  15. न्यायालय में भी भ्रष्टाचार होता हैं यह देख कर आम जनता के मन को बहुत ठेस पहुंचती हैं। लेकिन आज भी लोगों को न्यायव्यवस्था पर यकीन हैं। इसलिए ही तो हम यह वाक्य सुनते हैं कि कोर्ट में देख लूंगा।
    आज के परिस्थिति पर बहुत ही सटीक लेख विश्वमोहन जी।

    ReplyDelete
  16. तुला न्याय की
    डोल गई।
    कलई अपनी
    खोल गई।...बहत खूब...टाइटिल और भी अच्‍छा

    ReplyDelete
  17. धो दें, जनाब,
    अंदरुनी
    आजादी का
    खिजाब।
    बहुत ही लाजवाब

    ReplyDelete
  18. बहुत सुन्दर कविता |ब्लॉग पर आगमन हेतु आभार

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी, अत्यंत आभार आपका।

      Delete