कस्तूरबा के गांधी ( नाटक)
रचनाकार - प्रोफेसर रमा यादव
प्रकाशक - संजना बुक्स, डी 70/4, अंकुर एनक्लेव, करावल नगर, दिल्ली 110090
फोन 9650480219, 8860898399
sanjanabooks16@ gmail.com
ज़िंदगी भी एक नाटक ही है। अंतर बस इतना रहता है कि किरदार के हाथ में इसकी पांडुलिपि नहीं होती यात्रा के आरंभ में। यात्रा का भविष्य बिलकुल अनजान होता है। पथ और पाथेय पथिक के साथ एक अराजक डोर में बँधे होते हैं। कई किरदार मिलते बिछुड़ते हैं। समय, स्थान, परिस्थिति सभी कभी अपने स्वतंत्र प्रवाह में तो कभी एक दूसरे की बहाव में बहे चले जाते हैं। कुछ भी नियोजित नहीं होता। सब कुछ फ्रेश सब कुछ टटका! पूरी की पूरी यात्रा अपने हर क्षण की एक निरुद्देश्य एंट्रॉपी में गमन करती है। किंतु, जैसे ही यात्रा अपने इति श्री बिंदु पर अशेष होती है, यात्रा के किरदार को अपना ‘हिन्डसाईट’ कुछ और ही दिखता है। मतलब, यात्रा के क्रम में ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर आगे की यात्रा जितनी ही अनिश्चित, अपरिभाषित, अनियोजित, संदिग्ध, उद्भ्रांत और अनजाना दिख रही थी, यात्रा के अवसान बिंदु पर पहुँचकर पीछे ताकने पर वह समस्त यात्रा-पथ उतना ही निश्चित, सुपरिभाषित, सुनियोजित, स्पष्ट, नि:भ्रांत और मानो पहले से जानी-पहचानी राह के सफ़र के रूप में दिखायी पड़ता है। गाड़ी के पार्श्व दर्पण के उलट अतीत के बिंब अपनी वास्तविक दूरी से नज़दीक दिखने लगते हैं। दृष्टि की लौकिकता प्रखर हो जाती है और दृष्टिकोण अलौकिक। दृष्टि देह की देह पर होती है। परंतु, दृष्टिकोण आत्मा का होता है।दैहिक उद्यम का यह आंतरिक संवाद आत्मा के स्तर पर होने लगता है। एक ऐसी ही लौकिक गाथा के पारलौकिक संवाद की द्रष्टा हैं - नाट्य समूह ‘ शून्य’ की संस्थापक नाटककार रमा यादव और इनका मंत्र उचार गूंज रहा है इनकी नाट्य कृति ‘कस्तूरबा के गाँधी’ में। कस्तूरबा और गाँधी की आत्माओं की बातचीत के ये शब्द पार्श्व दीप्ति में आभासित हो रहे हैं। रमा जी की इस नाट्य प्रस्तुति की पृष्ठभूमि भी बड़ी रोचक है।
“गाँधी पर बहस मुबाहिसे होते ही रहते हैं,……..ऐसा करते- करते कब गाँधी मन में गहरे समा गये पता ही नहीं चला। …….उस समय जब मंच पर बापू को देखती तो मेरे मन के भीतर की ‘स्त्री’ बापू को ‘बा’ की नज़र से परखती। तभी जब टीकम ने कहा कि गाँधी पर नाटक लिखो जो अलग नज़रिए से हो। मैं सहज ही हाँ कर दी।…….. जब नाटक लिखने बैठी तो एकदम ‘बा’ मेरे मन में आ बैठीं…मैनें जैसे ही नाटक का पहला संवाद लिखा तो ‘बा’ भीतर से बोल उठीं।…. इस तरह से ‘ कस्तूरबा के गाँधी’ की रचना हुई।”
नाटककार के अंतस् में पैठी ‘बा’ की आत्मा का बापू की आत्मा के संग यह आलाप न केवल एक दंपति के मनोभावों का सहज उच्छ्वास है, प्रत्युत उसके भीतर से समसामयिक कालखंड का दीर्घ इतिहास झाँकता है।पति- पत्नी की इस टोका-टोकी और छेड़- छाड़ की मिठास अतीत की तिक्तता को घुलाकर आत्मिक अभिसार के शाश्वत आसव का प्रसार कर रही है। भौतिक द्वैत आध्यात्मिक अद्वैत में समा जाता है।
‘रघुपति राघव राजा राम’ की सुरम्य धुन से धुलती एक छोटी सी कोठरी। चारपाई, चरखा, चौकी, कलम, दावात, कुछ काग़ज़-पतर और कोने में मिट्टी का घड़ा।कमर में इंगरसोल घड़ी लटकाये गाँधी कुछ लिखने में मशगूल।खद्दर की धोती में हाथ पोंछती और कुछ भुनभुनाती कस्तूरबा का बग़ल के कक्ष से सहसा प्रवेश।नाटक के श्री गणेश का यह सहज दृश्य इसके किरदारों के जीवन दर्शन की आभा से दर्शकों को आरंभ में ही प्रक्षालित कर देता है।
‘ सोचा क्यों न मैं भी तुम्हें आज गांधी कहकर पुकारूँ …’ कस्तूरबा की हँसी से उपजे ये वाक्य बातचीत की शुरुआत में ही अपने पति के साथ समानता के धरातल पर जुड़कर आत्मीयता के वातावरण के सृजन का स्वाभाविक पत्नीधर्मा प्रयास है।’कस्तूर तुम तो मेरे साथ रहोगी न यूँ ही हमेशा….’ इस वाक्य में मानो गाँधी की समस्त अंतर्भूत करुणा एक साथ छलक कर बाहर आ जाती है और बा की मन वीणा के सारे तार एक साथ झंकृत हो उठते हैं - ‘ तुमसे अलग थोड़ी ही हूँ … जिस दिन से तुम्हारे साथ आ गई तुम्हारी हो ली…. जहाँ ले चले चलती रही। मैंने न घर देखा न बार बस रात दिन तुम्हें देखा… ये जो तुम एकदम ज़िद्दी और झक्की।’ यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि यह वाक्य लिखते समय बा सचमुच रचनाकार के मन आँगन में उतर आयी हैं। रमा यादव स्वयं एक नारी हैं और नारी मन की पीड़ा को उन्होंने अपने शब्द चित्रों में एक कुशल चितेरे की तरह उतार दिया है। संभवतः यह संवाद लिखते समय उनके मन में उतर आयी बा के सामने उनका पूरा अतीत उतर आया होगा।
फिर बा के हाथों को थामकर जैसे बहुत कुछ एक साथ सोचते हुए बापू की भाव प्रवण स्वीकारोक्ति, ‘कुछ जगह तो ग़लतियाँ हुई हैं मुझसे….. कुछ जगह क्यों कई जगह पर ग़लतियाँ हुई हैं……’ दर्शकों को ऊहापोह में डाल देता है।वह यह सोचने को विवश हो जाता है कि बापू की इस गलती का इशारा विचारधारा की ओर है या व्यक्तिगत जीवन की ओर!
गाँधी के हाथ से सूत के गोले को चरखे पर चढ़ाती कस्तूरबा सहज भाव में गुनगुनाने लगती हैं, चदरिया झीनी रे झीनी ….। इस आलाप में जहां एक ओर गाँधी की राजनीति में अध्यात्म तत्व की आहट सुनाई देती है, वहीं बा के अतीत की खट्टी मीठी स्मृतियों का राग भी गूँजता है। गाँधी का अध्यात्म व्यावहारिक था। यह यथार्थ पर टिका था, न कि किसी स्वप्निल आदर्श पर।वहीं कस्तूरबा पग पग पर इस आधात्मिकता की अग्नि में तप रहीं थी और पक रहीं थीं। बा की डबडबातीं आँखों में गाँधी के आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत की टीस तैर रही है।व्रती ने अपने निर्णय में सहचरी के मन का स्पर्श तक न किया! भारतीय संस्कार में सप्तपदी की शर्तों पर यह कुलिश वज्राघात है जिसमें किसी भी पतिव्रता का भहराकर गिर जाना स्वाभाविक है।वह सर्वथा सत्य के इस अनोखे उपासक की टोका-टोकी का अनवरत दंश सहती रही। फिर भी, बा ने वैवाहिक जीवन की डोर को थामे रखा। इतिहास के समकालीन घटनाक्रम की स्मृतियों में विचरती बा नयनों की बोली में ही बापू को बहुत कुछ समझा जाती हैं। और निरुत्तर गाँधी सिर नीचा किए उसमें गड़े जा रहे हैं। बा के तर्कों से पराजित होने का संशय उनकी आँखों से झाँक रहा है। बा की आंतरिक दृढ़ता बापू के स्मरण में ‘कर्कश’ शब्द बनकर उभरती है। दूसरी ओर बा बापू को जिद्दी करार देती है। फिर, यह कहकर कि ‘यह ज़िद ही बापू की ताक़त थी’, पतिव्रता की पुष्ट परंपराओं के पालने में पलने वाली यह परिणीता अपने प्रियतम पर अपने अभिसार के मधुर भावों को न्योछावर कर देती है। भले ही पखाना साफ़ करने के बापू के फ़ैसले से बा ने ख़ुद को प्रताड़ित महसूस किया हो, किंतु आज के इस अलौकिक मुहूर्त में वह कृतज्ञ भाव से स्वीकार रही है कि गांधी के इस हठ ने गाँधी के साथ-साथ उसे भी तार दिया।
बापू के इस कथन में कि, ‘समझ नहीं आता कि किस तरह मनुष्य पर ये बुराइयाँ इतनी हावी हो जाती हैं…… क्यों वो आदमी होकर भी आदमी का दुश्मन हो जाता है ,,,,,क्यों एक जाति मैला ढोने का ही काम करती रहे …….हमारे ही गंदगी साफ़ करे और हम ही उसे अछूत नाम दे दें’, नाटककार ने समूचे गांधी दर्शन को उड़ेल दिया है। रह रहकर बापू की बातों से बा पर उनकी ज़्यादतियों की यादों से उपजा अपराध भाव बरस पड़ता है, “ जिसने पग-पग पर साथ दिया, उसी की भावनाओं को न समझा।इसे अत्याचार नहीं तो क्या कहेंगे? ये हर कदम पर मेरा साथ देती चली गई ……” बापू का यह स्वगत संबोधन पाठक और दर्शक को करुणा की अजस्त्र धार में छोड़ आता है। यहाँ गांधी का अपराध भाव हो या एक नारी रचनाकार के मन में अपने मरद की मर्दानगी से मर्माहत पत्नी की मनोव्यथा!, अभिव्यक्ति की सशक्तता ने दृश्य को अत्यंत संजीदा बना दिया है। बापू के अपराध भाव से स्पंदित बा अब उन्हें उनके मूल्यों के उदात्त गौरव का पुनर्स्मरण कराती है, ‘ मुझे याद है तुमने जो कहा था कि -“ यदि मेरे सामने ये सिद्ध हो जाये कि अस्पृश्यता हिंदू धर्म का एक आवश्यकता अंग है तो मैं अपने को ऐसे धर्म के प्रति विद्रोही घोषित कर दूँगा।” अर्वाचीन भारत की वर्तमान विद्रूपता पर बा की विभ्रांति बिलख पड़ती है, “ आज फिर ये सब लोग हाशिये पर आ गये हैं…. मज़दूरों का तो कोई ठौर ठिकाना-सा ही नहीं लगता। कई बार मन तड़प पड़ता है…….” संवेदना की व्यंजना इतनी सघन है मानों नाटककार में स्वयं कस्तूरबा समा गई हों!
हाँ, लेकिन संवेदना और समर्पण की हहराती लहर में बा का यूँ बह जाना, “ ये भी नहीं कि मैं पुरानी मान्यताओं को मानती थी इसलिए तुम्हें परमेश्वर मान चुकी थी। मेरा अपना ख़ुद का भी एक मस्तिष्क था …….मैं तुम्हारे साहस की क़ायल थी गांधी”, फेमिनिस्ट वीरांगनाओं के उत्साह पर पानी अवश्य देर सकती है।
तीन अंकों में पसरे इस नाटक की बनावट और बुनावट अत्यंत सुगठित है। पुस्तक के संपादन में यत्र तत्र त्रुटियाँ आँखों में गड़ती है। टंकण त्रुटियाँ भी हैं। काल दोष भी दिखता है। चंपारण सत्याग्रह का समय १९१७ की जगह १९२० वर्णित है। पुस्तकाकार में प्रस्तुत यह नाटक आज की एक अत्यावश्यक कृति है। प्रकाशक संजना बुक्स ने अत्यंत सार्थक और आकर्षक मुखपृष्ठ के साथ इस पुस्तक को पाठकों के समक्ष परोसा है । अस्तु!