Wednesday, 24 September 2025

देवी - माहात्म्य


 


प्रसिद्ध भोजपुरी गायिका देवी पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया में चर्चा का केंद्र बनी हुयी हैं। इसका कारण उनका आइ वी एफ की वैज्ञानिक तकनीक से माँ बनना है। साथ ही उनका यह मंतव्य भी प्रकट करना है कि विवाह की संस्था से उनका विश्वास उठ गया है किंतु  वह मातृत्व  का सुख-गौरव  पाने को लालायित थीं। इसीलिए माँ बनने के इस वैध, मान्य और प्रचलित वैज्ञानिक प्रणाली का उन्होंने चयन किया। यह एक निर्विवाद और समस्त प्रमाणों से परे एक शाश्वत तथ्य है कि मातृत्व इस समस्त प्राणी जगत की सर्वोतम  निधि है। जैविक स्तर पर यह एकमात्र संबंध है जो दृश्य और ज्ञात है।  इसके बाद ही तज्जन्य सहोदर संबधों का उदय हुआ। आत्मिक और भावनात्मक स्तर पर यह अलंघ्य है और इसके समांतर इस चराचर जगत में और कुछ भी नहीं है। यह ईशत्व से भी उत्तुंगतर है। महान सनातन परंपरा में अनुसूया माँ के समक्ष त्रिदेव भी नंगे नन्हें-मुन्ने हैं। यह महिमातीत है, निष्पाप है, निष्कलुष  है और पूजनीय है। नवरात्रि के महापर्व में समस्त आर्यावर्त माँ दुर्गा के नव रूपों की पूजा अर्चना करता रहा है। ये नव रूप  मातृत्व की बहुरंगी और सर्वतोमुखी ऊर्जा और चेतना की सार्वभौमिक और तात्विक अभिव्यक्ति हैं। मातृत्व की इस अनुपम आभा से अलंकृत होने वाली सुर-साधिका सरस्वती-सुता आदरणीय देवी को भी आत्मीय बधाई और जच्चा एवं बच्चा दोनों के सुखद एवं स्वस्थ भविष्य की शुभकामनाएँ।
किंतु इस सुखद समाचार का एक प्रतिकूल पहलू  रहा -  सोशल मीडिया में देवी की अतिरेकपूर्ण अभद्र आलोचना। आलोचना का संस्कार भारत की आत्मा है। विचार-विमर्श, शास्त्रार्थ और भावनाओं की अभिव्यक्ति हमारे रक्त में सनातन काल से प्रवाहित होते हुए हमारे आज के लोकतांत्रिक संविधान तक को ऊष्मा प्रदान करती है। किंतु आलोचना की संस्कृति का अतिक्रमण करते हुए कई लोग भाव, भाषा  और विचार के स्तर पर अपनी मर्यादाएँ लाँघ गए और समाज के उस विकृत चेहरे को छोड़ गए जो छद्म पौरुष के छल से छलित आज के समाज की वैचारिक नपुंसकता को सामने लाता है। ख़ैर, किसी ने इसे नैतिक मूल्यों पर कुठाराघात बताया। किसी ने सामाजिक मर्यादा के प्रतिकूल कहा। किसी को यह चिंता सता रही थी कि समाज में नवजात शिशु बिना पिता के कैसे पहचाना जाएगा। और किसी ने तो देवी के इस कृत्य के लिए उनके चरित्र पर ही सवाल उठा दिया।
सनद रहे कि इस तरह की ‘फ़ब्ती’ कसने वाले या ‘फ़तवे’ जारी करने वालों का अधिकांश  मध्यकालीन सोच-परस्त पुरुष समाज ही था। इनकी व्यंग्योक्तियों (इसे मैं आलोचना की श्रेणी में नहीं रखता) में मर्यादा, शालीनता और तथ्य का अंश अत्यल्प किंतु ‘मेल शौविनिज़्म’ की क्लीवता ज़्यादा थी। 
देवी भोजपुरी गीतों की सुमधुर और शालीन गायिका हैं। अपनी अश्लीलता से पहचाने  जानेवाले समयुगीन  भोजपुरी गीतों के इस दुर्भाग्यपूर्ण काल में  देवी के द्वारा गाए गीत शालीनता और सुसंस्कार के ताज़े झोंके और शुभ शकुन के समान हैं। हमारा भोजपुरिया समाज चोली, घाँघरा छाप अश्लीलता से आप्लावित गीतों को गाकर नैतिकता और मर्यादा का दिन-दहाड़े मर्दन करने वाले ‘गवैयों’ पर न केवल अपना  नामर्द मौन धारण कर लेता है, प्रत्युत उन्हें अपना जननायक  चुनकर विधायी संस्थाओं में पहुँचा आता है। अपनी मातृभाषा का शील हरण करने वाले इन छिछोरे खलनायकों को अपना महानायक  बनाते समय नैतिकता के इन ठेकेदारों को अपने समाज की शालीनता और मर्यादा के हरण की तब तनिक भी सुध नहीं रहती। लेकिन भोजपुरिया समाज की इस साफ़-सुथरी कलाकार के वैज्ञानिक और विधि-सम्मत  रीति से मातृत्व के गौरव ग्रहण करने में इसे नैतिक मूल्यों पर ग्रहण दिखायी देने लगता है। यह इस माटी में जनमी सनातन परंपरा की उन पूज्य कन्यायों को विस्मृत कर देना है जिनका मातृत्व भी कुछ ऐसी ही तकनीक के मिथकीय अलंकरण से सुशोभित है।आइ वी एफ तकनीक में माँ अपने शिशु को न केवल अपने गर्भ में वहन करती है, बल्कि उसके प्रसव अनुभव का सुख भी लेती हैं। हाँ, समाज के सामने यह नहीं आता कि उसने किसका तेज़ अपने गर्भ में निषेचित किया – वायु का, सूर्य का, धर्म का या किसी अन्य दिती/अदिति-पुत्र का! यहाँ तो खीर खाकर गर्भवती हुई महान माता से प्रसूत परम पूज्य मर्यादा पुरुषोत्तम की गौरव गाथा से आर्यावर्त गुंजित है। आप भले हीं मिथ के नाम पर इन घटनाओं का मखौल उड़ा लें, लेकिन यह निर्विवाद संभावनाओं से परे नहीं कि समकालीन समाज के किसी उन्नत विज्ञान का ही यह कौशल रहा हो। पार्वती पुत्र गणेश के जन्म की कथा से भला कौन अपरिचित होगा?
ऋग्वेद के दसवें मंडल में सूर्या सावित्री के परिणय संकार का वर्णन मिलता है। इसी के साथ इस भू-मंडल पर विवाह नामक संस्था का श्री गणेश हुआ माना जाता है। अपने विवाह के रस्मों की ऋचाएँ सूर्या सावित्री ने स्वयं रचा जो विवाह सूक्त में संकलित हैं। आज भी सनातनी विवाह संस्कारों में इन मंत्रों का उच्चारण किया जाता है। विवाह का प्रमुख उद्देश्य तदयुगीन समाज में अराजक स्त्री-पुरुष संबंधों को एक मर्यादित स्वरुप देने के साथ संतति की उत्पति और वंश परम्परा को स्थापित रखना था। पुरुषार्थ के प्रमुख अंग ‘काम’ के निर्वाह की मर्यादित संस्था के रूप में सामाजिक और धार्मिक उद्देश्यों की पूर्ति का आलम्ब विवाह बना। तबसे आज तक विवाह की यह संस्था भारत ही नहीं वरन वैश्विक समुदाय के अधिकांश की परिवार प्रणाली का अटूट स्तम्भ बनकर रही। एक नारी के द्वारा प्रारंभ की गयी इस व्यवस्था में नारियों का स्थान सदैव सम्मानीय रहा। उनका यह सम्मान वेदों से भी पूर्व की शैव और शाक्त परंपरा में मिलता है। रामायण और महाभारत के काल का नारी गौरव सर्वज्ञात है। पुरुष के दंभ को चुनौती देने वाली  पंच कन्याएँ  उस ज़माने की नारीवादी नायिकाओं के रूप में आज भी प्रातः स्मरणीय हैं। राजा जनक के दरबार में वाचक्नवी कुमारी गार्गी से शास्त्रार्थ में ऋषि याज्ञवल्क्य के पसीने छूट गए। लोपमुद्रा, अपाला जैसी ऋषिकाओं ने वेद की ऋचाएँ रचीं। समय के प्रवाह में समाज दहता रहा। धीरे धीरे छद्म पौरुष ने अपना विकृत चेहरा उठाना शुरू किया। विकृतियाँ घर बनाने लगीं। फिर भी विवाहेत्तर संबंधों से उत्पन्न शिशु मौलिक वैदिक परंपरा में उपेक्षा और उपहास का विषय कभी नहीं बना और आज के लोकतांत्रिक संविधान और सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा दी गयी व्यवस्थाओं में भी यही स्थिति विद्यमान है। 
‘अनेकता में एकता’ का सूत्र वाक्य ऋग्वेद में मिलता है। ‘एकं सत, विप्रा: बहुधा वदंति’। इस अमृत मंत्र के द्रष्टा थे – वैशाली के महर्षि मामतेय देवोत्तम। बालक देवोत्तम ज्ञान अर्जन हेतु गुरु के आश्रम में गए और गुरु से आश्रम में प्रवेश देने की याचना की। गुरु का गुरुत्तर प्रश्न चुनौती बनकर उभरा, ‘वत्स! तुम्हारे पिता का नाम क्या है। तुम्हारा गोत्र क्या है?’ बालक ने कहा, ‘माँ से पूछकर बताता हूँ’। माँ ममता ऋषियों के आश्रम में दासी थी। माँ ने बालक को बताया, ‘पुत्र, हमें भी नहीं पता कि तुम्हारे पिता कौन हैं।‘ बालक देवोत्तम दौड़ा-दौड़ा गुरु के पास पहुँचा और उन्हें सच सच सारी बातें बता दी। गुरु बालक की निर्भिकता, सत्यवादिता और ज्ञान पिपासा से अत्यंत प्रभावित हुए। उन्हें गले लगाया और अपने अश्राम में ले लिया। माँ के नाम पर अपना गोत्र धारण किए मामतेय देवोत्तम महान ऋषि हुए और ऋग्वेद के सूक्तों की रचना में अपना योगदान दिया। इसलिए देवी की संतति के पिता का प्रश्न उठाने वाले शिखंडियों को पहले अपनी सनातन परंपरा में झाँकना चाहिए। संतति समाज की निधि है। वह किसी बाप के नाम का मुहताज नहीं। वह भी आज के समाज के किसी वैसे बाप का नहीं जो बचपन में उसे सदाचार और सत्य का पाठ  पढ़ाए, और जब बड़ा होकर बेटा नौकरी मिलने पर उसका आशीर्वाद लेने जाय तो उस बाप का पहला प्रश्न हो, ‘ऊपर की आमदनी कितनी है?’ संभवत: ऐसे बापों के चारित्रिक दोहरेपन के कारण ही नयी पीढ़ी ने उसमें अपना भरोसा खो दिया है और उससे कटती जा रही है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी अविवाहित महिलाओं से जन्मे बच्चों के बारे में सिविल अपील संख्या 5003/2015 में यह व्यवस्था दी है :
“The conundrum is whether it is imperative for an unwed mother to specifically notify the putative father of the child whom she has given birth to of her petition for appointment as the guardian of her child. The common perception would be that three competing legal interests would arise, namely, of the mother and the father and the child. We think that it is only the last one which is conclusive, since the parents in actuality have only legal obligations. A child, as has been ubiquitously articulated in different legal forums, is not a chattel or a ball to be shuttled or shunted from one parent to the other……”

ऐसे भी हमारी सनातन संस्कृति  में एक संतान का परिचय अपनी माँ के नाम से दिए जाने के अनेकों उदाहरण विद्यमान है। कौन्तेय,राधेय, देवकीनन्दन, गांधारी पुत्र, गंगा पुत्र आदि आदि। इन समस्त उद्धरणों और पौराणिक प्रकरणों के आलोक में छद्म पुरुष मानसिकता से ग्रसित आलोचकों की अमर्यादित आलोचनाएँ न सिर्फ़ बेमानी हैं, प्रत्युत उनके द्वारा आसमान में थूकने के समान है।
हाँ, देवी के द्वारा विवाह की संस्था के प्रति व्यक्त अविश्वास पुरुष  के चरित्र पर ही ज़्यादा सवाल उठाते हैं।  आज जिस तरह से विवाह टूटते जा रहे हैं यह समाज के लिए नयी चुनौती बनकर उभरा है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री पारसंस का एक सिद्धांत है  ‘Theory of functionalism’( प्रकार्यवाद का सिद्धांत)। इसके अनुसार समाज की या किसी भी व्यवस्था की कोई संस्था या इकाई तब तक ही जीवित रहती है जबतक वह अपने आदर्शों के मापदंड पर खरी उतरती है और अपनी स्थापना के उद्देश्यों  का पूर्णत: पालन करती है। अब यह बात किसी से छुपी नहीं है कि दोहरे मानदंड वाले आज के पुरुष प्रधान समाज में दहेज-हत्या और बलात्कार की सुरसा ने जो अपना मुख फैलाया है, यह बिलकुल स्वाभाविक है कि विवाह जैसी संस्थाओं को वह लीलती जा रही है। कुछ पुरुषों का यह भ्रम है कि समाज में स्त्रियों की शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता के उठते स्तर का विवाह की संस्थाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। यदि ऐसा है तो फिर उन पिताओं से पूछिए जो ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के इस महायज्ञ में अपने को आहूत कर रहे हैं। सच तो यह है कि छद्म पौरुष का नपुंसक और निकम्मा तत्व अपनी नाकाबिलियत और आशिक्षा के सामने सिर उठाते नारी वर्चस्व को पचा नहीं पा रहा है और उसकी कुंठा आलोचना के नाम पर असभ्य भाषा, और गंदी ज़ुबान में सोशल मेडिया पर बसा रही है। समाज में दहेज हत्या और बलात्कार जैसी घटनाओं पर इस पुरुष समाज का मुँह नहीं खुलता। आज तक हमने नहीं सुना कि इस तथाकथित पुरुष समाज ने ऐसे कुकृत्यों में शामिल किसी व्यक्ति और उसके परिवार का सामाजिक बहिष्कार किया हो या फिर सामाजिक दंड का कोई ऐसा विधान रचा हो कि ऐसी घटनाओं की पुनरावृति करने का कोई साहस न कर सके और इन पर स्थायी रोक लग सके। इसी देश में जब एक अनव्याहा पुरुष (फ़िल्म निर्माता करण जौहर) सरोगेशी की तकनीक से दो बच्चों का बाप बनता है, तो इस नपुंसक समाज  के मुँह पर काठ मार जाता है। इसलिए देश की देवी बेटी के इस निर्भीक क़दम को किसी भी पैमाने पर असभ्य भाषा में की गयी आलोचनाओं से नहीं जोड़ा जा सकता है। समय और प्रकृति असभ्य वृत्तियों का स्वत: नाश कर देती हैं।
समाज में आलोचना के नाम पर पनप रही ऐसी कुत्सित प्रवृतियों और सामाजिक कुरीतियों पर लगाम कसना समाज का काम है। जब इन आसुरी वृत्तियों का अत्याचार सर चढ़कर बोलने लगता है तो व्यवस्था की प्रकृति अपने अंदर से ही समाधान की तलाश कर लेती है। अवतार की धारणा के पीछे भी यही सच है। दुर्गा सप्तशती के ग्यारहवें अध्याय में भी देवी ने  अपने इसी महात्म्य  की उद्घोषणा की है:
“इत्थम यदा यदा बाधा  दानवोत्था भविष्यति,
तदा तदा अवतीर्य अहं करिष्यामि अरि संक्षयम।“ 


Wednesday, 23 July 2025

बिहार में आंदोलन, राजनीति और विकास




पुस्तक का नाम - बिहार में आंदोलन, राजनीति और विकास
लेखक - शिवदयाल
प्रकाशक - प्रलेक प्रकाशन
बिहार के राजनीतिक और सामाजिक बदलाव की भौतिकी और उसके रसायन की पड़ताल को अपना केंद्र बिंदु बनाती शिवदयाल जी की यह पुस्तक पाठकों को बिहार के इतिहास, भूगोल, समाज शास्त्र, बिहारी जीवन के सामाजिक मनोविज्ञान और सामाजिक आर्थिक चरित्र की तह में ले जाती है और उनके मस्तिष्क में पहले ‘सोचने’ का बीज डालकर फिर ‘समझने’ की छटपटाहट छोड़ जाती है। हमारी दृष्टि में पुस्तक की सबसे बड़ी सार्थकता यही है, क्योंकि ‘सोचने’ के अभाव में ‘समझना’ चिंतन की ओर नहीं, प्रत्युत दासता की ओर ले जाता है। इधर सोशल मीडिया के जमाने में सोचने की प्रक्रिया थम-सी गई लगती है। दिन पर दिन मूल्यहीन होती राजनीति और अयोग्य व अपराधी राजनीतिज्ञों के बहुमत के माहौल में तो राजनीति में सोचने और चिंतन करने की संस्कृति को भी लकवा ही मार गया है। समाज का बौद्धिक वर्ग भी अब राजनीतिक पंथों की चाकरी करता एक बुद्धि-जीवी गिरोह में तब्दील हो गया है।
किताब के पुरोवाक में १९१२ में निर्मित बिहार के २००० में विखंडन की चर्चा है। गौरतलब है कि झारखंड ने आंदोलन कर अपने को बिहार से अलग कर लिया। यह विभाजन के सामाजिक मनोविज्ञान के उलट है। आमतौर पर अविकसित और बीमार भाग अपने को अलग करने की माँग करता है। यहाँ विकसित और स्वस्थ औद्योगिक झारखण्ड ने अपने को अविकसित और बीमार बिहार से अलग कर लिया। खैर, इन्ही विडंबनाओं का नाम बिहार है। पहला अध्याय परंपरा के अनुकूल बिहार के वैभवशाली अतीत का स्वस्ति वाचन है जो एक बिहारी पाठक के सुकून का एकमात्र आलंब और आज के बिहारी नेताओं की निर्लज्जता की अभिव्यक्ति का अल्फ़ाज़ भी है। बिहारी राष्ट्रवाद के मिथक की चर्चा करते हुए लेखक की यह बात गौरतलब है कि ‘ वास्तव में बिहारी राष्ट्रीयता सचमुच मजबूत होती तो एक आदिवासी मुख्यमंत्री को मौक़ा देकर भी बिहार विभाजन को रोकने को कोशिश की जा सकती थी।’ असल में अपनी ऐतिहासिकता का आग्रह बिहार को कभी बिहारी बनने ही नहीं देगा।’बिहार ने अपनी पहचान को भारत की अस्मिता में विलयित करके रखा।बिहार से भारत ही नहीं दुनिया को देखने की परम्परा रही है।’
आज के संदर्भ में लेखक की यह बात बिल्कुल जायज है कि “कई बार ऐसा लगता है जैसे भारत इकतीस राज्यों का संघ नहीं बल्कि वास्तव में छह हज़ार जातियों का संघ है।” और यह जातीय भाव बिहार में इतना उग्र है कि यह किसी भी तरह के क्षेत्रीयतावाद या बिहारी राष्ट्रीयता की लता को पनपने ही नहीं देगा। जातिवाद की इस आग में यहाँ की राजनीति घी ढारती है। सच कहें तो बिहार में जाति रोजी, रोटी और बेटी से मुँह मोड़कर अब राजनीति की गोद में बैठ गई है। १९०१ के जनगणना कमिश्नर रिजले के जाति आधारित सर्वेक्षण के प्रस्ताव को संदेह की दृष्टि से देखा गया था।स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना १९५१ में जातीय गणना को निषिद्ध किया गया। २१ वीं सदी की जनगणना में अब जाति समा गई है। कुल मिलाकर तेजी से बदलते युवा बहुल समाज में जाति के टूटते बंधन को अब नेताओं ने फिर से बांधना शुरू कर दिया है। जाति के समाजशास्त्र के भविष्य को देखना अब बड़ा रोचक होगा।मंडल के जवाब में उठे कमंडल ने समाज का मंथन जरूर किया है।गठबंधन का रसायन बदल गया। एक ऐसा समय राजनीति में आया जब जो जितना छोटा होगा वह उतना शक्तिशाली! और, सत्ता की चाभी उसी के हाथ में। “छोटी इकाइयों में बाँटकर बड़ी लड़ाइयाँ नहीं लड़ी जा सकती।”
सम्पूर्ण क्रांति और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की वैचारिकी को लेखक ने बड़ी गहरायी में उतरकर देखा है। शिवदयालजी सम्पूर्ण क्रांति के ठोस और वैचारिक आधार को ढूँढ तो लेते हैं, लेकिन इस मेहराब पर अपेक्षित इमारत के खड़े न हो पाने के कारणों को पूरी तरह नहीं बता पाते। भले ही उनके मन ने इसकी संभावनाओं को अभी भी जीवित रखा है। हाँ, जयप्रकाश नारायण के लिए ‘ राजनीति में महत्वपूर्ण न पाने की कुंठा वाले जयप्रकाश’ लिखने वाले इतिहास के नौसिखुए कलाकार प्रियंवद की उन्होंने काफ़ी तर्कपूर्ण ख़बर ली है। हालाकि, इतनी तल्ख़ी की कोई ज़रूरत नहीं थी क्योंकि परवर्ती घटनाओं ने ऐसे अनाड़ी कलाकारों के इतिहास लेखन को स्वतः अप्रासंगिक बना दिया है।
शिवदयालजी ने रामदेव मांझी और पाँचु मांझी की शहादत की यादों की छाया में बोधगया भूमि आंदोलन का सुंदर और सशक्त शब्द चित्र खींचा है। यह क्रांति प्रसूत चेतना का महापर्व था। लेकिन वह भी अब ढाक के तीन पात! ‘उस जमीन की मिल्कियत से भुइयाँ जैसी दलित जातियों का वैसा भावात्मक लगाव नहीं जैसा कि एक आम किसान का अपनी जमीन के प्रति होता है।।’ इस प्रश्न के सांस्कृतिक संदर्भ की पड़ताल में यह बात लेखक की तीक्ष्ण समाजशास्त्रीय दृष्टि से लुका नहीं पाती कि जातीय चेतना अभी भी सांस्कृतिक विलंबन ( cultural lag) का आखेट है।
‘विकल्प की तलाश जारी रखनी होगी ‘ अपने इस लेख में शिवदयाल जी ने बड़ी शिद्दत से समाजवाद के प्रखर प्रवक्ता किशन पटनायक को याद किया है। किसी वस्तु के पूर्णतः नष्टप्राय हो जाने के बाद उसकी गढ़ियायी और जीवंत छाया एक धरोहर के रूप में किसी चित्रकार की पेंटिंग में ही हो सकती है।शिवदयाल जी का खचित किशन पटनायक का यह शब्द चित्र समाजवाद की स्मृति की कुछ वैसी ही धरोहर है।
बिहार में राजनीति और विकास के बीच के द्वंद्व की चर्चा करते हुए लेखक इसके बहिवर्ती और अंतर्वती दोनों कारकों की पड़ताल करता है। लेखक का मानना है कि ‘ पिछड़े समाजों अथवा क्षेत्रों में विकास के लिए जिम्मेदार तत्वों में सत्ता संरचना और राजनीति की दिशा, शासन की नीतियाँ और कार्यक्रम, ब्यूरोक्रेसी, निष्पक्षता और विश्वसनीयता, उत्पादन संबंधों का स्वरूप, उत्पादन एवं वितरण तंत्र की सक्रियता और सबके ऊपर आमजन की इच्छा शक्ति शामिल है।’ बिहार की राजनीति ही बिहार के विकास का सबसे बड़ा रोड़ा है। बिहार की राजनीति और विकास एक दूसरे के विलोम बनकर आमने- सामने खड़े हैं। राजनीतिक इच्छा शक्ति का नितांत अभाव है। राजनीतिक नेतृत्व के पास विकास की दृष्टि का सर्वथा अभाव है।
दलतंत्र के इस दलदल में कुकुरमुत्ते की तरह उगने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों की दशा और दिशा पर भी लेखक ने अपनी आँखें फेरी हैं। सिद्धांततः तो स्थानीय मुद्दों की अनदेखी ही निर्दलीय उम्मीदवारों के उदय का कारण होना चाहिए। लेकिन यहाँ मुद्दा स्थानीय हित नहीं बल्कि व्यक्तिगत अहं है।पैसा, जाति और ताक़त ही राजनीति के सबसे जरूरी आयाम हैं। अब तो राजनीतिक संरक्षण में एक नया भू - माफिया वर्ग भी मैदान में उतर आया है, जिसका अपराधियों और भ्रष्ट अधिकारियों के साथ फ़ेविकोल का जोड़ असली जमीन मालिकों पर भारी पड़ रहा है। बिहार में भूमि सुधार की असफलता पर तंज कसते हुए लेखक का यह विचार ध्यातव्य है कि “ मंडलवाद के उफान के दौर में एक समय ऐसा लगा था कि बिहार में सामंतवाद के दिन गिने - चुने हैं, लेकिन बाद में सामंतशाही को चुनौती देनेवाली जमातों ने ही सामंतों का एक नया वर्ग बना लिया। नवसामंतों का यह वर्ग अपने प्रतियोगियों (पूर्वकालीनों ) से भी ज़्यादा रूढ़ और नृशंस साबित हुआ, अपने यथास्थितिवादी आग्रहों में ये और भी संवेदनहीन निकले, चाहे वह जातीय आग्रहों का मामला हो या जमीन के मसले हों।”
शिक्षा व्यवस्था का तो बंटाधार हो गया है। प्राथमिक शिक्षा से गुणवत्ता गायब, माध्यमिक शिक्षा का कोई नामलेवा नहीं और उच्च शिक्षा पतन के गर्त में! बड़ी संख्या में राज्य से बच्चे मजबूरी में बाहर पढ़ने जा रहे हैं। लेखक की इस तहक़ीक़ात से यह बात भलीभांति समझ में आ जाती है कि यहाँ की शिक्षा व्यवस्था चलाने वाले अधिकारी और नेता स्वयं अपने बच्चों को बिहार में क्यों नहीं पढ़ाते।
विकासोन्मुखी गवर्नेंस पर भी लेखक ने अपनी वस्तुनिष्ठ दृष्टि फेरी है। एक ओर लेखक सड़क निर्माण और अन्य आधारभूत संरचनाओं के क्षेत्र में हो रही निरंतर प्रगति को रेखांकित करता है तो दूसरी ओर इसकी विसंगतियों और पर्यावरण और पर्यावास में हो रहे निरंतर क्षरण को आड़े हाथों भी लेता है। शिवदयाल जी ने शराबबंदी क़ानून के कार्यान्वयन के प्रमुख किरदारों की बेवक़ूफ़ी की भी बखूबी चर्चा की है। बिहार का प्रशासनिक तंत्र अपराध के राजनीतिकरण और राजनीति के अपराधीकरण के बीच जाके फँस गया है। जड़ता, ह्रास, संवेदनहीनता, कोताही जैसे लक्षणों वाली बीमारी ‘बिहार सिंड्रोम’ के बढ़ने का तो आलम ये है कि लेखक को चिंता है कि कहीं यह संक्रामक होकर अन्य राज्यों को भी अपने चपेट में न ले ले। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लेखक की यह चिंता बेवजह नहीं है।
लेखक ने कोरोना काल में मजदूरों के आव्रजन से उत्पन्न स्थिति पर गहरा विचार किया है। इसी की ओट में उन्होंने आव्रजन के इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान को भी खंगाल लिया है। लेखक इन अप्रवासी मज़दूरों के मन में उपजे भय के भाव पर करुणा से विगलित हो जाता है। ‘ एक मजूर की याद ‘ में मज़दूर जीवन की मार्मिक छवि अत्यंत करुण अल्फ़ाज़ों में छलक उठी है। जब करुणा के साथ भय भी उपजने लगे तो समझ लीजिए विनाश दरवाज़े पर दस्तक दे रहा है, या फिर किसी विप्लव, क्रांति या बदलाव की पूर्वपीठिका पक गई है।
लेकिन लेखक आशावादी है और उसकी यह आशावादिता उसे भारतीय मूल्य परंपरा से जोड़े रखती है। वह परिवर्तन की प्रक्रिया की वैज्ञानिक परंपरा के आलोक में समाज का अवलोकन कर रहा है।प्रकृति अपने वजूद की रखवाली का रास्ता ख़ुद तलाश लेती है। “ मानव जाति का इतिहास प्रकृति के साथ अनुकूलन का ही इतिहास नहीं है बल्कि प्रकृति को अपने अनुकूल बनाने का इतिहास भी है।” पदार्थ हमेशा जड़वत पदार्थ ही नहीं बना रहता। वह अपने को ऊर्जा में रूपांततरित करने की थ्रेशहोल्ड चेतना ख़ुद तलाश लेता है। शिवदयाल जी की यह आशा इन पंक्तियों में व्यक्त होती हैं, “ लेकिन जहाँ से राजकाज की सीमा समाप्त होती है वहीं से जनता की पहलकदमी और उद्यमशीलता से निर्माण का काम प्रारंभ होता है। भ्रष्ट और अकर्मण्य राजव्यवस्था जनता के सामने कठिन से कठिनतर परिस्थितियाँ तो पैदा कर सकती है, लोगों की बेहतर जीवन जीने की आकांक्षा का दमन नहीं कर सकती। राजनीति लाख नचावे, समाज अपनी राह चलता है।” बिहारियों के अद्भुत जीवट का पर्दाफाश भी हैं ये पंक्तियां! यहाँ पर शिवदयाल जी ने बिहार और बिहारी के नब्ज को छू लिया है।
यह पुस्तक मुख्य रूप से शासन से जुड़े किरदारों, समाजशास्त्रियों और सबसे जरूरी आज के युवा वर्ग के लिए पठनीय और संग्रहणीय भी है। सोचने और समझने का भाव जगाने वाली इस पुस्तक के लिए शिवदयाल जी को हार्दिक बधाई !!!

 

Wednesday, 19 February 2025

कस्तूरबा के गाँधी





 कस्तूरबा के गांधी ( नाटक)

रचनाकार - प्रोफेसर रमा यादव

प्रकाशक - संजना बुक्स, डी 70/4, अंकुर एनक्लेव, करावल नगर, दिल्ली 110090

फोन 9650480219, 8860898399

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ज़िंदगी भी एक नाटक ही है। अंतर बस इतना रहता है कि किरदार के हाथ में इसकी पांडुलिपि नहीं होती यात्रा के आरंभ में। यात्रा का भविष्य बिलकुल अनजान होता है। पथ और पाथेय पथिक के साथ एक अराजक  डोर में बँधे होते हैं। कई किरदार मिलते बिछुड़ते हैं। समय, स्थान, परिस्थिति सभी कभी अपने स्वतंत्र प्रवाह में तो कभी एक दूसरे की बहाव में बहे चले जाते हैं। कुछ भी नियोजित नहीं होता। सब कुछ फ्रेश सब कुछ टटका! पूरी की पूरी यात्रा अपने हर क्षण की एक निरुद्देश्य एंट्रॉपी में गमन करती है। किंतु, जैसे ही यात्रा अपने इति श्री बिंदु पर अशेष होती है, यात्रा के किरदार को अपना ‘हिन्डसाईट’ कुछ और ही दिखता है।  मतलब, यात्रा के क्रम में ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर आगे की यात्रा  जितनी ही अनिश्चित, अपरिभाषित, अनियोजित, संदिग्ध, उद्भ्रांत और अनजाना दिख रही थी, यात्रा के अवसान बिंदु पर पहुँचकर पीछे ताकने पर वह समस्त यात्रा-पथ उतना ही निश्चित, सुपरिभाषित, सुनियोजित, स्पष्ट, नि:भ्रांत और मानो पहले से जानी-पहचानी राह के सफ़र  के रूप में दिखायी पड़ता है। गाड़ी के पार्श्व दर्पण के उलट अतीत के बिंब अपनी वास्तविक दूरी से नज़दीक दिखने  लगते हैं। दृष्टि की लौकिकता प्रखर हो जाती है और दृष्टिकोण अलौकिक। दृष्टि देह की देह पर होती है। परंतु, दृष्टिकोण आत्मा का होता है।दैहिक उद्यम का यह आंतरिक संवाद आत्मा के स्तर पर होने लगता है। एक ऐसी ही लौकिक गाथा के पारलौकिक संवाद की द्रष्टा हैं - नाट्य समूह ‘ शून्य’ की संस्थापक नाटककार रमा यादव और इनका मंत्र उचार गूंज रहा है इनकी नाट्य कृति ‘कस्तूरबा के गाँधी’ में। कस्तूरबा और गाँधी की आत्माओं की बातचीत के ये शब्द पार्श्व दीप्ति में आभासित हो रहे हैं। रमा जी  की इस नाट्य प्रस्तुति की पृष्ठभूमि भी बड़ी रोचक है।

“गाँधी पर बहस मुबाहिसे होते ही रहते हैं,……..ऐसा करते- करते  कब गाँधी मन में गहरे समा गये पता ही नहीं चला। …….उस समय जब मंच पर बापू को देखती तो मेरे मन के भीतर की ‘स्त्री’  बापू को ‘बा’ की नज़र से परखती। तभी जब टीकम ने कहा कि गाँधी पर नाटक लिखो जो अलग नज़रिए से हो। मैं सहज ही हाँ कर दी।…….. जब नाटक लिखने बैठी तो एकदम ‘बा’ मेरे मन में आ बैठीं…मैनें जैसे ही नाटक का पहला संवाद लिखा तो ‘बा’ भीतर से बोल उठीं।…. इस तरह से ‘ कस्तूरबा के गाँधी’ की रचना हुई।”

नाटककार के अंतस् में पैठी ‘बा’ की आत्मा का बापू की आत्मा के संग यह आलाप न केवल एक दंपति के मनोभावों का सहज उच्छ्वास है, प्रत्युत उसके भीतर से समसामयिक कालखंड का दीर्घ इतिहास झाँकता है।पति- पत्नी की इस टोका-टोकी और छेड़- छाड़ की मिठास अतीत की तिक्तता  को घुलाकर आत्मिक अभिसार के शाश्वत आसव का प्रसार कर रही है। भौतिक द्वैत आध्यात्मिक अद्वैत में समा जाता है।

‘रघुपति राघव राजा राम’ की सुरम्य धुन से धुलती एक छोटी सी कोठरी। चारपाई, चरखा, चौकी, कलम, दावात, कुछ काग़ज़-पतर और कोने में मिट्टी का घड़ा।कमर में इंगरसोल घड़ी लटकाये गाँधी कुछ लिखने में मशगूल।खद्दर की धोती में हाथ पोंछती और कुछ भुनभुनाती कस्तूरबा का बग़ल के कक्ष से सहसा प्रवेश।नाटक के श्री गणेश का यह सहज दृश्य इसके किरदारों के जीवन दर्शन की आभा से दर्शकों को आरंभ में ही प्रक्षालित कर देता है।

‘ सोचा क्यों न मैं भी तुम्हें आज गांधी कहकर पुकारूँ …’ कस्तूरबा की हँसी से उपजे ये वाक्य बातचीत की शुरुआत में ही अपने पति के साथ समानता के धरातल पर जुड़कर आत्मीयता के वातावरण के सृजन का स्वाभाविक पत्नीधर्मा प्रयास है।’कस्तूर तुम तो मेरे साथ रहोगी न यूँ ही हमेशा….’ इस वाक्य में मानो गाँधी की समस्त अंतर्भूत करुणा एक साथ छलक कर बाहर आ जाती है और बा की मन वीणा के सारे तार एक साथ झंकृत हो उठते हैं - ‘ तुमसे अलग थोड़ी ही हूँ … जिस दिन से तुम्हारे साथ आ गई तुम्हारी हो ली…. जहाँ ले चले चलती रही। मैंने न घर देखा न बार बस रात दिन तुम्हें देखा… ये जो तुम एकदम ज़िद्दी और झक्की।’ यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि यह वाक्य लिखते समय बा सचमुच रचनाकार के मन आँगन में उतर आयी हैं। रमा यादव स्वयं एक नारी हैं और नारी मन की पीड़ा को उन्होंने अपने शब्द चित्रों में एक कुशल चितेरे की तरह उतार दिया है। संभवतः यह संवाद लिखते समय उनके मन में उतर आयी बा के सामने उनका पूरा अतीत उतर आया होगा।

फिर बा के हाथों को थामकर जैसे बहुत कुछ एक साथ सोचते हुए बापू की भाव प्रवण स्वीकारोक्ति, ‘कुछ जगह तो ग़लतियाँ हुई हैं मुझसे….. कुछ जगह क्यों कई जगह पर ग़लतियाँ हुई हैं……’ दर्शकों को ऊहापोह में डाल देता है।वह यह सोचने को विवश हो जाता है कि बापू की इस गलती का इशारा विचारधारा की ओर है या व्यक्तिगत जीवन की ओर! 

गाँधी के हाथ से सूत के गोले को चरखे पर चढ़ाती कस्तूरबा सहज भाव में गुनगुनाने लगती हैं, चदरिया झीनी रे झीनी ….। इस आलाप में जहां एक ओर गाँधी की राजनीति में अध्यात्म तत्व की आहट सुनाई देती है, वहीं बा के अतीत की खट्टी मीठी स्मृतियों का राग भी गूँजता है। गाँधी का अध्यात्म व्यावहारिक था। यह यथार्थ पर टिका था, न कि किसी स्वप्निल आदर्श पर।वहीं कस्तूरबा पग पग पर इस आधात्मिकता की अग्नि में तप रहीं थी और पक रहीं थीं। बा की डबडबातीं आँखों में गाँधी के आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत की टीस तैर रही है।व्रती ने अपने निर्णय में सहचरी के मन का स्पर्श तक न किया! भारतीय संस्कार में सप्तपदी की शर्तों पर यह कुलिश वज्राघात है जिसमें किसी भी पतिव्रता का भहराकर गिर जाना स्वाभाविक है।वह सर्वथा सत्य के इस अनोखे उपासक की टोका-टोकी का अनवरत दंश सहती रही। फिर भी, बा ने वैवाहिक जीवन की डोर को थामे रखा।  इतिहास के समकालीन घटनाक्रम की स्मृतियों में विचरती बा नयनों की बोली में ही बापू को बहुत कुछ समझा जाती हैं। और निरुत्तर गाँधी सिर नीचा किए उसमें गड़े जा रहे हैं। बा के तर्कों से पराजित होने का संशय उनकी आँखों से झाँक रहा है। बा की आंतरिक दृढ़ता बापू के स्मरण में ‘कर्कश’ शब्द बनकर उभरती है। दूसरी ओर बा बापू को जिद्दी करार देती है। फिर, यह कहकर कि ‘यह ज़िद ही बापू की ताक़त थी’, पतिव्रता की पुष्ट परंपराओं के पालने में पलने वाली यह परिणीता अपने प्रियतम पर अपने अभिसार के मधुर भावों को न्योछावर कर देती है। भले ही पखाना साफ़ करने के बापू के फ़ैसले से बा ने ख़ुद को प्रताड़ित महसूस किया हो, किंतु आज के इस अलौकिक मुहूर्त में वह कृतज्ञ भाव से स्वीकार रही है कि गांधी के इस हठ ने गाँधी के साथ-साथ उसे भी तार दिया।


बापू के इस कथन में कि, ‘समझ नहीं आता  कि किस  तरह मनुष्य पर ये बुराइयाँ इतनी हावी हो जाती हैं…… क्यों वो आदमी होकर भी आदमी का दुश्मन हो जाता है ,,,,,क्यों एक जाति मैला ढोने का ही काम करती रहे …….हमारे ही गंदगी साफ़ करे और हम ही उसे अछूत नाम दे दें’,   नाटककार ने समूचे गांधी दर्शन को उड़ेल दिया है। रह रहकर बापू की बातों से बा पर उनकी ज़्यादतियों की यादों से उपजा अपराध भाव बरस पड़ता है, “ जिसने पग-पग पर साथ दिया, उसी की भावनाओं को न समझा।इसे अत्याचार नहीं तो क्या कहेंगे? ये हर कदम पर मेरा साथ देती चली गई ……” बापू का यह स्वगत संबोधन पाठक और दर्शक को करुणा की अजस्त्र धार में  छोड़ आता है। यहाँ गांधी का अपराध भाव हो या एक नारी रचनाकार के मन में अपने मरद की मर्दानगी से मर्माहत पत्नी की मनोव्यथा!, अभिव्यक्ति की सशक्तता ने दृश्य को अत्यंत संजीदा बना दिया है। बापू के अपराध भाव से स्पंदित बा अब उन्हें उनके मूल्यों के उदात्त गौरव का पुनर्स्मरण कराती है, ‘ मुझे याद है तुमने जो कहा था कि -“ यदि मेरे सामने ये सिद्ध हो जाये कि अस्पृश्यता हिंदू धर्म का एक आवश्यकता अंग है तो मैं अपने को ऐसे धर्म के प्रति विद्रोही घोषित कर दूँगा।” अर्वाचीन भारत की वर्तमान विद्रूपता पर बा की विभ्रांति बिलख पड़ती है, “ आज फिर ये सब लोग हाशिये पर आ गये हैं…. मज़दूरों का तो कोई ठौर ठिकाना-सा ही नहीं लगता। कई बार मन तड़प पड़ता है…….” संवेदना की व्यंजना इतनी सघन है मानों नाटककार में स्वयं कस्तूरबा समा गई हों!  

हाँ, लेकिन संवेदना और समर्पण की हहराती लहर में बा का यूँ बह जाना, “ ये भी नहीं कि मैं पुरानी मान्यताओं को मानती थी इसलिए तुम्हें परमेश्वर मान चुकी थी। मेरा अपना ख़ुद का  भी एक मस्तिष्क था …….मैं तुम्हारे साहस की क़ायल थी गांधी”, फेमिनिस्ट वीरांगनाओं के उत्साह पर पानी अवश्य देर सकती है। 

तीन अंकों में पसरे इस नाटक की बनावट और बुनावट अत्यंत सुगठित है। पुस्तक के संपादन में यत्र तत्र त्रुटियाँ आँखों में गड़ती  है। टंकण त्रुटियाँ भी हैं। काल दोष भी दिखता है। चंपारण सत्याग्रह का समय १९१७ की जगह १९२० वर्णित है। पुस्तकाकार में प्रस्तुत यह नाटक आज की एक अत्यावश्यक कृति है। प्रकाशक संजना बुक्स ने  अत्यंत सार्थक और आकर्षक मुखपृष्ठ के  साथ  इस पुस्तक को पाठकों के समक्ष परोसा है । अस्तु!









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Sunday, 22 September 2024

बस तीन बीघा की बात!





( तीन बीघा का छोटा-सा गलियारा एक बड़े भाई के बहुत बड़े दिल की दास्ताँ है। हिंदुस्तान का बांग्ला देश को दिया गया ज़मीन का यह छोटा -सा टुकड़ा बांग्ला देश के भारतीय भूभाग से परिवृत अंगरपोटा-दहग्राम नामक पश्चिमी इनक्लेव (भू-टापू) को पूरब के पनबारी मौजा से जोड़ता है। १६ मई १९७४ को इंदिरा मुजीब समझौते की कोख से निकली इस भेंट को मोदी सरकार द्वारा  जून २०१५ में १०० वाँ संविधान संशोधन पारित कर क़ानूनी जामा पहना दिया गया। उत्तर-दक्षिण दिशा में लेटी भारतीय सड़क जिस चौराहे पर इस गलियारे के गले मिलती है, वहाँ बांग्ला नागरिकों के लियी बांग्ला देश का क़ानून और हिन्दुस्तानियों के लिए हिंद का क़ानून लागू होता है। दोनों नागरिकों को एक दूसरे के पथ पर भटकने की मनाही है।)


तन तंद्रिल टीस घाव सहा था,

दिल दूर पड़ा था, तड़प रहा था।


ना धमनी थी, नहीं शिरा थी,

खून नहीं, बहती पीड़ा थी!


ना चिट्ठी थी, ना पतरी थी,

दरम्यान गली संकरी थी।


सुन अजान, नमाज पढ़ते थे,

मन ही मन सबकुछ गढ़ते थे।


पर न कुछ कह-सुन पाते थे,

ख्वाहिश के नगमें गाते थे।


नेक खयाली फूल खिला दे,

परवरदिगार! उस पार मिला दे।


सुना सहोदर, आगे आया,

भाई को अपने गले लगाया।


सँकरे  मन की बलि चढ़ाई,

उल्फत की उसने गली बनाई।


छुटके को बड़के ने दी है,

बहुत बड़ी सौगात।


ले बिरादर! बखरा मेरा,

बस तीन बीघा की बात!

 

Monday, 12 August 2024

छिन्नमस्तिका!

आसमान भी रो रहा था,

धरती पानी- पानी थी।

काली बाड़ी खप्परधारी,

चुप्पी ये बेमानी थी।


भैरव भी सावन के अंधे,

हुगली हो ली काली थी।

आयुष- मंदिर नागपंचमी,

उषा क्रूर जहरीली थी।


शील भंग है हुआ बंग का,

ममता तेरी नंगी है।

या देवी सर्व भूतेषु,

अब राजनीति से रंगी है।


अब न हेर तू मुँह हिंजड़ों का,

उठ अब तू ये ले सौगंध।

धार कृपाण हे छिन्नमस्तिका,

कर दे अरि को अब कबंध।