भइया! हम बेजुबान किसान मज़दूर, गरीब-गुरबा और बिना टेक्टर वाले जरूर हैं, लेकिन दलाल, दंगाई और देशद्रोही नहीं!!!!
हम तो कोरोना में हज़ार माइल पैदले अपने गांव चले आये, हमार बेटी बीमार बाप को साइकिल पर बइठा के गुड़गांव से दरभंगा पहुंचा दी। लेकिन न किसी ने हमें टेक्टर पर बईठाया, न ही हमने किसी के आगे हाथ पसारा।
जय जवान, जय किसान।
इस गणतंत्र पर्व पर इससे बढ़िया लघुकथा नहीं लिखी जा सकती..सुन्दर सार्थक सारगर्भित एवं समसामयिक सृजन के लिए आपको बधाई..गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें..जिज्ञासा सिंह..
ReplyDeleteआपकी संवेदना का हार्दिक आभार, जिज्ञासा जी!!!🙏🙏🙏
Deleteलेकिन जो किसान का भेष भरकर हुड़दंग मचा रहे हैं वो कौन श्रेणी के किसान हैं ☹️☹️
ReplyDeleteउपद्रवी और अराजक तत्व! आभार आपकी सार्थक और पैनी दृष्टि की!🙏🙏
Deleteसही है...
ReplyDeleteअपार सहनशक्ति मजदूरों के..भूखे रहकर भी कोई हंगामा नहीं।
कुछ लोगों का पेट जादा ही भरा हुआ है, इसलिए तमाशा लगायें बैठे हैं।
बहुत सटीक और संवेदनात्मक टिप्पणी। संस्कृति हमेशा सभ्यता को पछाड़ देती है। इसीलिए सभ्यता का चेहरा कुरूप और क्षणिक होता है। अत्यंत आभात।
Deleteजी, अत्यंत आभार!!!
ReplyDeleteसटीक प्रस्तुति
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!
Deleteसामयिक और सटीक
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteबहुत सटीक ...समसामयिक
ReplyDeleteलाजवाब लघुकथा।
अत्यंत आभार सुधाजी आपके सुंदर वचनों का।
Deleteमार्मिक बात कह दी दो चार पंक्तियों में..
ReplyDeleteविशेष अभिनन्दन..
जी, अत्यंत आभार आपके उत्साहवर्द्धन का!!!
Deleteजय हो ।
ReplyDeleteजी आभार!!!
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