(भाग – ८ से आगे)
अब कुछ ख़ास बातों पर ग़ौर कर लें। पहली बात, तो यह है कि किसी भी समाजशास्त्रीय पड़ताल या विवेचना में किसी समाज विशेष का अवलोकन करने वाले शोधार्थी को, विशेषत: उस स्थिति में जब वह उसी समाज का सदस्य है तो, वस्तुनिष्ठ दृष्टि के संस्कारों से सम्पन्न होना वांछनीय है। ऐसा न होने पर इस बात की प्रबल सम्भावना है कि वह ढेर सारे ऐसे आत्मनिष्ठ तत्वों के आग्रह का आखेट बन जाएगा जो उसे पूर्वाग्रही और ‘स्वजातीय उत्कृष्टता में विश्वास रखनेवाले’ आरोपों के घेरे में ले सकता है। हर शोधार्थी को सोचने की अपनी दृष्टि (थॉट प्रॉसेस) और परखने के अपने मूल्य-मानक (वैल्यू-सिस्टम) होते हैं जो उसी समाज के उत्पाद हैं जिसने उसका पालन-पोषण किया है। इसलिए यह देखना भी ज़रूरी हो जाता है कि उसकी दृष्टि, मूल्य और मान्यताओं से उसकी पड़ताल या विवेचना कितनी प्रभावित होती है। इस विवेचना में वह कहीं अपने मूल्यों के अर्जुन के वर्तमान और भविष्य की रक्षा में किसी एकलव्य का अँगूठा तो नहीं काट दे रहा है। समाज के अवलोकन के प्रकारांतर में कहीं अपने दर्शन का दिग्दर्शन तो नहीं करा रहा है या फिर दूसरे की मान्यताओं को दबा तो नहीं रहा है।
कुशाग्र आर्थिक समाजशास्त्री कार्ल मार्क्स अपने संघर्ष-सिद्धांतों में यह आरोप पहले ही गढ़ चुके हैं; और ईमानदारी से स्वीकारें तो उनमें थोड़ी सच्चाई भी है, कि कोई भी शिक्षक अपने छात्रों में अध्यापन के दौरान जीवन के वहीं सोच और वहीं मूल्य भरता है जो जीवन वह स्वयं जीता है। किंतु विज्ञान की दुनिया में ऐसा नहीं होता। वहाँ तथ्यों को स्वीकारने और नकारने में कर्ता, कर्म या करण किसी के भी जीवन मूल्यों का कोई असर नहीं होता। विज्ञान में भौतिक या रासायनिक क्रिया या प्रतिक्रिया अपने वैज्ञानिक कार्य-कारण सिद्धांतों पर घटित होती हैं। उनका इससे लेना देना नहीं होता कि प्रयोगशाला पूँजीवादी की है या समाजवादी की, प्रयोग करने वाला गोरा है या काला और उसका ख़र्च किस धर्म के लोग उठा रहे हैं। लेकिन ग़ैर वैज्ञानिक विषयों से सम्बंधित शास्त्रों में कोई भी प्रयोग, अध्ययन, पड़ताल, समीक्षा और विश्लेषण इन समस्त कारकों से प्रभावित होते हैं। इसलिए जब तक वहाँ पर शोधार्थी वैज्ञानिक संस्कारों से सम्पन्न होकर बिना कोई नया तथ्य पैदा किए या वर्तमान तथ्यों में कोई कृत्रिमता पैदा किए विशुद्ध वस्तुनिष्ठता से अपनी पड़ताल नहीं करता तबतक उसके इस उद्योग को हम ‘सामाजिक कला’ ही कहते हैं, ‘सामाजिक विज्ञान’ कतई नहीं! मैं समाज-विज्ञान के अध्येताओं और छात्रों से अपनी इस व्यंग्यात्मक टिप्पणी के लिए कोई खेद नहीं व्यक्त करता क्योंकि निष्पक्षता और पंथ-निरपेक्षता ही सही शोध की कसौटी है। एक बात ज़रूर है कि भारतीय समाज मार्क्स की अवधारणा में मुश्किल से समा पाता है क्योंकि यहाँ बुर्जुआ और सर्वहारा से इतर एक प्रबल मध्यम वर्ग है जिसकी जड़ें आर्थिक के साथ-साथ उसकी सामाजिक आधारभूमि में भी गहरे तक गड़ी हैं। यहीं वर्ग इस समाज की बौद्धिक आत्मा है और यहाँ के समाज की साझी चेतना का निर्माण और वहन करता है। मध्यम वर्ग ही भारतीय समाज की चेतना का प्रतिनिधि है, उसकी सनातन संस्कृति का चिर संरक्षक है और भारतीय समाज की आध्यात्मिक समृद्धि है। मध्यम वर्ग विहीन समाज सदैव पंगु और निष्प्राण होता है।
पूर्ण-सहभागी-अवलोकन में आत्मनिष्ठा के दोष से बचने के बाद जो दूसरी महत्वपूर्ण बात आती है, वह है - “समाज में साथ-साथ बहने वाली अनेक धाराएँ, साथ-साथ बढ़ने वाली अनेक प्रवृतियाँ और साथ-साथ दिखने वाले अनेक लक्षण”! इनमें देखें तो सभी को, लेकिन समाज की मौलिक पहचान के रूप में पहचानें उसी को जो उस समाज की स्थापना का लक्ष्य है, जो उस समाज के व्यक्ति की जीवन प्रणाली का आदर्श है और जिसके उल्लंघन से उस समाज का ‘कलेक्टिव कोंसेंस’ आहत होता है। यदि किसी लक्षण के विरोध में समाज मुखर हो जाय तो निश्चित रूप से वह लक्षण उस समाज के मौलिक चरित्र का विलोम है। लेकिन, यदि किसी लक्षण के अनैतिक और आपराधिक होने के बाद भी वह समाज अपने ऐसे लक्षण धारियों की प्रत्यक्ष रूप से निंदा नहीं करता, उन्हें कठघरे में खड़ा नहीं करता या फिर जान बूझकर आँखें बंद कर लेता है, तो धीरे-धीरे वे लक्षण उस समाज के मूल्य बनने लगते हैं और बाद में वहीं लक्षण उस समाज की संस्कृति बन जाते हैं। आज भी इस दुनिया में ऐसे कतिपय क्षेत्र और समुदाय हैं जिनकी अपनी आपराधिक पहचान है। मनुष्य-मात्र के कल्याण हेतु सभ्यता के विकास-क्रम में ऐसी ढेर सारी पुरानी मान्यताएँ ढहती हैं, मूल्यों के नये प्रतिमान गढ़ते हैं और परिवर्तन की डगर पर समाज का सफ़र जारी रहता है। समाज का ‘कलेक्टिव-कोंसेंस’ अपने ‘सोशल-नॉर्म’ और आदर्शों को स्थापित करने के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है। यदि भारत की अदालतों में गांधी के चित्र के नीचे ‘सत्यमेव जयते’ की तखती टँगी है, तो इस बात का यह रेखांकन है कि ‘सत्य की विजय’ भारतीय समाज का मौलिक आदर्श और चिर-उद्घोष है। भले ही, आए दिनों ऐसी घटनाएँ क्यों न होती रहे जो सत्य का गला दबाती हों! ऐसी प्रतिकूल और निंदनीय घटनाएँ समाज के बहुसंख्यक सुसंस्कृत सज्जन नागरिकों के मन में बुराई के विरुद्ध क्षोभ का तीव्र ज्वार भरती हैं। वह ऐसे कुकर्मियों को इंसान की परिभाषा के दायरे से भी दूर समझती है और ऐसे लोगों को दंडित किए जाने पर उसका मन जुड़ा जाता है। हैदराबाद में बलात्कारियों को पुलिस द्वारा मौत के घाट उतारे जाने पर जनता का असीम उल्लास इसी बिंदु की ओर संकेत करता है। समाज का यहीं ‘कलेक्टिव-कोंसेंस’ न्याय के दर्शन को परिभाषित करता है।
तीसरी बात, कि एक समाज के समान धारा ही किसी अन्य समकालीन समाज में दृष्टिगोचर हो तो दोनों धाराएँ एक-दूसरे को धोती नहीं, बल्कि अपने-अपने मूल्यों को ढोती स्वतंत्र रूप से बहती हैं। दक्षिण कोरिया और अन्य देशों में कहीं यदि संयुक्त परिवार की व्यवस्था बची है तो इसका यह अर्थ नहीं कि भारतीय संयुक्त परिवार प्रणाली उनका मुखापेक्षी हो गयी और उसकी चर्चा करना अपनी उत्कृष्टता को रेखांकित करने का उद्योग हो गया। हर संस्कृति अपने में महान है और महान संस्कृतियाँ सदैव दूसरों की महानता को भी उतनी ही तबज्जो देती हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि अपनी महानता से आँखें मूँद लेती हों! उसी तरह धर्म की यदि बात करें तो सामाजिक व्यवहार के धरातल पर कल्याण की कामना और परोपकार ही धर्म है। “सर्वे भवंतु सुखिना, सर्वे संतु निरामया। सर्वे भद्राणि पशयन्ति, मा कश्चित दुःख भागवेत।।“ और “अयम निज:, परो वेत्ति, गणना लघु चेतसाम। उदार चरितानांतु वसुधैव कूटुंबकम।।“ यहीं धर्म के सम्बंध में भारतीय समाज के बीज-वाक्य हैं। वर्तमान संदर्भ में धर्म के बारे में हमें बस इतना ही कहना है और भारतीय समाज तथा संस्कृति की भी प्रत्येक भारतीय से बस यहीं अपेक्षा है। इससे इतर धर्म की और कोई भी बात बस ढकोसला है। हम फ़िलहाल अपनी बात नहीं कर रहे बल्कि महामारी से जूझता यह भारतीय समाज अभी क्या सोच रहा है, हम उसे टटोल रहे हैं। आगे फिर कभी हम विस्तार में अलग से धर्म और सम्प्रदाय पर भी भारतीय समाज की पड़ताल कर लेंगे।
भारतीय समाज न तो घोर पदार्थवादी है न शुष्क अध्यात्मवादी। इसका पुरुषार्थ दर्शन धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – इन चारों को क्रमिक महत्व देता है और इनके लिए जीवन की चार अवस्थाओं में चार आश्रमों का आग्रह भी है। अतः कुछ आलोचकों का यह विचार कि भारतीय समाज पदार्थवादी जीवन में प्रवेश को किसी गहरी खाई में गिरने के समान मानता है, बिलकुल भ्रामक है। बल्कि यदि सही मायने में देखें तो अपने उन्हीं पदार्थवादी मूल्यों से जिजीविषा को सहेजकर कोरोना के दैत्य से लड़ने के लिए सम्पूर्ण भारतीय समाज आज एक साथ उठ खड़ा हुआ है।
और, इस चर्चा का उपसंहार करने के क्रम में मैं एक बार भारत के समाज और उसके व्यक्ति को आमने-सामने खड़ा कर दोनों की एक-दूसरे की सापेक्ष स्थिति का आकलन भी कर लेना चाहूँगा। यहाँ पर अपने ऊपर ‘इथनोसेंट्रिज़म’ (अपनी संस्कृति को उत्कृष्ट मानने की प्रवृति) के आरोप का जोखिम उठाते हुए इतना तो हम पक्का कहेंगे कि भारतीय समाज और उसका सदस्य व्यक्ति दोनों आपसी संपुरकता से ओत-प्रोत और समरसता से सराबोर हैं। अपने आम जीवन में व्यक्ति एक ओर अपनी सम्पूर्ण भावनाओं का समाज के ‘कलेक्टिव-कोंसेंस’ अर्थात ‘सामूहिक चेतना’ से समाहार कर सामाजिक मूल्यों के उत्थान, संवर्धन और संरक्षण में अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है तो दूसरी ओर समाज भी व्यक्ति को अपनी स्वतंत्र चेतना विकसित करने के लिए एक उदार और उर्वरा वातावरण प्रदान करता है। ऐसा व्यक्ति जो समाज की जड़ता, अंधविश्वास, दकियानुसीपन और प्रतिगामी प्रवृत्तियों पर हल्ला बोलता है, इसको हिलोड़ कर जगाता है और क्रांति के बीज बोता है उसे समाज अपने सिर आँखों पर बिठाकर अपना नेता बना लेता है और उसके पीछे-पीछे चल देता है। बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, गुरु गोविंद सिंह, कबीर, गांधी, कलाम जैसे उदाहरणों से यह समाज पटा हुआ है। सामाजिक क्रांतियों और उनसे उद्भूत परिवर्तनों के पीछे ऐसे ही व्यक्तियों की प्रखर भूमिका रही है। व्यक्ति को पहचान भी समाज ही देता है, अर्थात उसका परिवार, गाँव, प्रांत, जाति, गोत्र, जमात, धर्म आदि तमाम संस्थाएँ हैं जो व्यक्ति को समाज में अपने से जोड़कर पहचान देती है। एक व्यक्ति के सत्कर्मों और उपलब्धियों से उसका परिवार, उसका गाँव, उसकी जाति, उसका ज़िला, उसका स्कूल-कॉलेज, उसका प्रांत और यहाँ तक की पूरा भारतीय समाज महिमामंडित होता है और गर्व से फूले नहीं समाता। इन संस्थानों से उस सदस्य व्यक्ति को और उस व्यक्ति से इन संस्थानों को इज़्ज़त मिलती है। दोनों एक-दूसरे की पहचान बनते हैं। इसी तरह बुरे कर्मों का लेखा-जोखा भी समाज और व्यक्ति के समीकरण को प्रभावित करता है। दोनों एक दूसरे का अपयश ढोते हैं। व्यक्ति और समाज के बीच संतुलन का यह अद्भुत ताना-बाना हमारे सामाजिक व्यक्तित्व का अध्यात्मिक पक्ष है। इसी अदभुत ताने-बाने में भारतीय समाज का हर प्रांत, हर क्षेत्र, हर नगर, हर शहर, हर क़स्बा, हर गाँव, हर जमात, हर तबक़ा, हर परिवार और हर इंसान आज कोरोना से जंग लड़ रहा है।
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#विश्वमोहन#कोरोना
किसी भी समाज के "बीज-वाक्य" की जमीनी हक़ीक़त ही उस समाज का वर्त्तमान और भविष्य तय करती है ...शायद ...
ReplyDelete‘इथनोसेंट्रिज़म’ कुछ ज्यादा ही प्रभावी होने पर कुछ भी नया करने से रोकता नहीं क्या ...
बिल्कुल नहीं रोकता। प्रतियोगी विचार और मूल्य की सार्थकता, तीव्रता और सर्वमान्यता पर निर्भर करता है।
Deleteकोई भी शिक्षक अपने छात्रों में अध्यापन के दौरान जीवन के वहीं सोच और वहीं मूल्य भरता है जो जीवन वह स्वयं जीता है।
ReplyDeleteअब शायद ये सच नहीं रहा। वो जीता कुछ और है और भरता कुछ और है। हो सकता है आप इत्तेफाक ना रखें पर ये बहुत कड़ुवा सच है। शिक्षक अब ऊपर चढ़ना चाहता है बहुत ऊपर और वो ऊपर दिल्ली है रास्ते में छोटी मोटी राजधानियाँ पड़ती है वहाँ से होते हुऐ और उस सब के लिये उसे सीढ़ियाँ बनानी पड़ती हैं। :)
हम तो सीखने वाले छात्र हैं। बात तो ये मार्क्स ने कही थी। तो आपकी बातों से हम यही मतलब निकालें की मार्क्स महोदय फेल कर गए आज के शिक्षकों के सामने!😊
Deleteजी, बहुत आभार। मेरी पूरी श्रृंखला में बड़े धैर्य से हमको झेलकर मुझे आगे बढ़ाने के लिए और लेख पूरा हो पाने के लिए।
विपत्ति के इस घड़ी में आपका ये लेख संजीवनी का काम करेगा ।
Deleteआप इसी तरह लिखते चलें। शुभकामनाएं।
Deleteबहुत आभार भाई।
Deleteजी, आपकी शुभकामनायें हमारे लिए संजीवनी हैं।
Deleteआदरणीय विश्वमोहन जी . आपके नौ लेखों की श्रृंखला के इस उपसंहार लेख में सब लेखों का निचोड़ तत्व समाहित है | भारतीय समाज अपने सामाजिक दायित्वों के पूर्ण निर्वहन के लिए जाना जाता है | आपदा काल में इसमें सामूहिक चेतना का प्रादुर्भाव देखते ही बनता है | कुछ अपवाद यदि अनदेखे कर दिए जाएँ तो हर समाज के लोग अपना धर्म -जाति भेद भूलकर एकजुट होने में देर नहीं लगाते |और मुझे नहीं लगता कि एक शिक्षक अपने अध्यापन के दौरान अपने छात्रों में अपने मूल्य और सोच को भरता है | ये आंशिक सच हो सकता है पर पूर्णरूपेण सत्य नहीं | शिक्षक से ली गयी शिक्षा और संस्कार के बावजूद एक छात्र की अपनी स्वतंत्र सोच और मूल्य होते हैं जो उसके सामाजिक व्यवहार और संस्कार की नींव बनते हैं | आज के दौर में शिक्षक कर्म बहुत जोखिम भरा है और उसके सामने बहुत चुनौतियाँ हैं तो छात्र वर्ग अति महत्वाकांक्षी हो गया है | और यदि जीवन मूल्यों की बात सामाजिक संदर्भ में की जाये तो बुर्जुआ और सर्वहारा की अपेक्षा माध्यम वर्ग ने अपनी बौद्धिकता से जीवन मूल्यों को बचाने में अपना अहम् और ज्यादा योगदान दिया है | आध्यात्मिक और संस्कारों की विरासत को संभाले ये वर्ग सचमुच भारतीय समाज की रीढ़ की हड्डी सरीखा है | आशा है कोरोना के विरुद्ध इस मानसिक , शारीरिक और सामाजिक लड़ाई में हमारी सामूहिक चेतना की विजय होगी और समाज और राष्ट्र अपने मूल्यों की प्रगाढ़ता में -- मानवतावादी रूप में और भी निखर कर सबके सामने आयेगा | कोरोना के बहाने आपका ये विस्तृत चिंतन और मंथन सुधि पाठकों के लिए अविस्मरनीय रहेगा और समाजशास्त्र के विमर्श कीअमूल्य धरोहर के रूप में जाना जायेगा | कोटि आभार इस अभूतपूर्व , अतुलनीय लेख श्रृंखला के लिए | हार्दिक शुभकामनाओं के साथ सादर प्रणाम 🙏🙏
ReplyDeleteजी, इस शृंखला के प्रत्येक पड़ाव पर आपके आशीष से मिले अप्रतिम उत्साह का हृदय से आभार। आपकी समीक्षाओं ने सर्वदा इस लेख को गति और जीवन दिया। आपके जैसे सुधि पाठकों से ही गम्भीर विषयों पर चिंतन और लेखन की प्रेरणा मिलती है। हमने प्रथम भाग में कुछ विद्वान और विदुषी मित्र पाठकों द्वारा की गयी आलोचान का उत्तर अंतिम भाग में देने का प्रयास किया है। आशा है विमर्श की यह स्वस्थ परम्परा आगे भी चलती रहेगी। एक बार पुनः आपको साधुवाद और हृदय से आभार !!!!
Delete" व्यक्ति और समाज के बीच संतुलन का यह अद्भुत ताना-बाना हमारे सामाजिक व्यक्तित्व का अध्यात्मिक पक्ष है।" व्यक्ति, परिवार और समाज का हर दृष्टिकोण से विचारणीय विश्लेषण किया हैं आपने , आपके इस अथक प्रयास को सादर नमन, आप का ये लेख नई पीढ़ी के लिए" नोटबुक" का काम करेगी जो आज के सत्य को समझने में उनकी सहायता करेगी ,सादर नमस्कार आपको
ReplyDeleteइस लेखमाला के विकास में हर विराम पर उपस्थित होकर अपने आशीर्वचनों से जिस तरह से आपने मेरा उत्साह बढ़ाया इसके लिए हृदय तल से आपका आभार। आशा है आपका यह आशीष भविष्य में भी हमें मिलता रहेगा।
Deleteजी, बहुत आभार आपका!!!
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना मंगलवार २१ अप्रैल २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
जी, बहुत आभार आपका।
Deleteसमाज के अस्तित्व में मनुष्य के प्राण बसते हैं।
ReplyDeleteजीवन अनुभव और मूल्यों की कसौटी पर कसा यह भारतीय समाजशास्त्रीय पाठ गहन विचारणीय है, सामयिक परिदृश्य में उपयोगी लेख प्रस्तुति हेतु साधुवाद!
जी, बहुत आभार।
Deleteमाफी चाहूँगी आदरणीय ,मैं तो एक भी नहीं पढ पाई अभी तक ,आज पहले भाग से शुरुआत करती हूँँ ।
ReplyDeleteअरे, ये लेख भागेंगे थोड़े। इत्मीनान से पढ़ें। भाग -3 और 4 आपका छूट गया है।
Deleteआदरणीय विश्वमोहन जी , इस वैश्विक आपदा की घडी में ,विस्तृत जानकारी देकर ,अपने विचारों का प्रस्तुतिकरण सराहनीय है 🙏 इस संकट की घडी में सभी साथ मिलकर प्रयत्न कर रहे है इसे हराने की ,जल्दी ही हमे इस संकट से मुक्त होना है ..। शायद भविष्य में ,आने वाली पीढियां इसे इतिहास में पढें 🙏
ReplyDeleteआखिर आपने भी पूरा पढ़ के ही दम लिया। अत्यंत आभार लेखों को सार्थक बनाने हेतु। सादर नमन।
Deleteधर्म को भारतीय समाज के बीज-वाक्य सर्वे भवन्तु सुखिना: से लेकर कोरोना की लड़ाई तक आपने जिस आसानी से पूरे भारतीय सनातनी दर्शन को व्याख्यायित कर दिया विश्वमोहन जी ... वह लाजवाब है
ReplyDeleteजी, आपके आशीष और उत्साहवर्द्धन का हृदयतल से आभार।
Deleteउपयोगी लेख प्रस्तुति
ReplyDeleteजानकारी साझा करने के लिए आभार
आज ही पढ़ना शुरू किया हे..धीरे धीरे सभी अंक पढ़ती हूँ
सादर प्रणाम
जी, बहुत आभार।
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