कल किसी से फ़ोन पर बात हो रही थी। एक पता बताने के क्रम में उन्होंने कहा कि इंदिरापुरम में 'चंपारन मीट हाउस' के पड़ोस में अमुक स्थान है। मैंने चौंककर पूछा, "क्या कहा, चंपारन मीट हाउस, यहाँ भी!" उन्होंने पलटकर जवाब दिया, "क्यों, क्या हुआ? 'चंपारन मीट हाउस' का चेन तो इंदिरापुरम ही क्यों, नोएडा से लेकर दिल्ली तक में हैं।चंपारन बिहार का एक ज़िला है।वहाँ के मीट बनाने की तकनीक और वहाँ के मसालों पर बने मीट बड़े लोकप्रिय हैं और मीट के ये दुकान चंपारन की पहचान हैं।'
ख़ैर, हमारी बात ख़त्म हो गयी और मेरे मन में विचारों का एक द्वंद्व शुरू हो गया। सामने टीवी पर ऐंकर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर किसान आंदोलन की आँखों देखी बयान कर रही थी। आंदोलनकारी किसानों की लम्बी-लम्बी एसयुवी गाड़ियों की दूसरी पंक्ति शनै:-शनै: हाई-वे के बाई-लेन पर उतरकर जाम करने की दिशा में आगे बढ़ रही थी कि पुलिस ने उन्हें रोक दिया था। अन्नदाताओं की लम्बोदर सीडान गाड़ियों की पहली पंक्ति ने हाई-वे पहले से ही जाम कर रखा था। अनाज, दूध, अंडा, सब्ज़ी सबकुछ का परिवहन ठप हो गया था। लाखों की सब्ज़ियाँ सड़ रही थी। ग़रीब किसानों के पेट पर हर दिन लात पड़ रही थी। 'चंपारन की पहचान अब मीट की दुकान पर' और 'किसान आंदोलन हाई-वे पर ' - दोनों अब एक कड़ी में जुड़कर मुझे अतीत में घसीट ले गए...................
"सन १९१६-१७ का ज़माना था। चंपारन के बेहाल किसानों की सिसक लखनऊ में कांग्रेस के मंच पर किसानों के नेता राजकुमार शुक्ल की बोली में फफक पड़ी थी। किसी ने नहीं सुनी । हार-पाछकर शुक्लजी ने गांधीजी के पाँव पकड़ लिए थे। चंपारन का वह अनपढ़ और अनगढ़ किसान गांधी को अपने प्रभाव-पाश में बाँधकर कलकत्ता, पटना और मुज़फ़्फ़रपुर के रास्ते चंपारन लेकर आया। गांधी ने इस देश की धरती पर अपनी गांधीगिरी का पहला प्रयोग किया। इस आंदोलन से उस समय के सबसे बड़े राजनीतिक दल कांग्रेस को सटने नहीं दिया। सत्याग्रह का ब्रहमास्त्र भारत की धरती पर पहली बार छोड़ा। इस आंदोलन के प्रमुख कार्यक्रम में चंपारन में जगह-जगह गांधी ने बुनियादी विद्यालय खोले। कृपालानी पढ़ाने गए। महिलाओं को पढ़ाने कस्तूरबा गयीं। स्वच्छता अभियान की शुरुआत हुई। क़ौमी एकता पर बल दिया गया । यह आंदोलन पूरी तरह से एक सामाजिक क्रांति का सूत्रधार बना। गांधी ने किसी भी तरह की टकराहट से परहेज़ किया और प्रशासन को हर तरह की सुविधा आंदोलनकारियों ने दी। आंदोलन सफल रहा । चंपारन से गांधी महात्मा बनकर लौटे। चंपारन की पहचान सत्याग्रह की ज़मीन के रूप में बन गयी। तब से चंपारन को सत्याग्रह वाला चंपारन कहने सुनने की आदत लग गयी थी।"
आज १०० साल बाद कितना कुछ बदल गया। सत्याग्रही किसान आंदोलन से लेकर आज के दमघोंटू किसान आंदोलन । और सत्याग्रह तथा अहिंसा की पहचान वाला राजकुमार शुक्ल तथा महात्मा गांधी का चंपारन अब "चंपारन मीट हाउस" वाला चंपारन!